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विश्लेषण: विनिमय दर में गिरावट और वास्तविक मज़दूरी

विनिमय दर में गिरावट सिर्फ़ उसी सूरत में कारगर हो सकती है, जब संबंधित अर्थव्यवस्था में घरेलू कीमतें उस अनुपात में नहीं बढ़ें, जिस अनुपात में विनिमय दर में गिरावट के चलते, विदेशी मुद्रा की कीमतें बढ़ रही होंगी।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। pix4free

ज्यादातर लोग, जिसमें प्रशिक्षित अर्थशास्त्री तक शामिल हैं, इस सच्चाई को देखने में असमर्थ ही रहते हैं कि विनिमय दर (rate of exchange) में गिरावट या अवमूल्यन (devaluation) से किसी अर्थव्यवस्था में व्यापार घाटा उसी सूरत में घट सकता है, जब वास्तविक मजदूरी की दर में गिरावट के जरिए, इसकी चोट मजदूर वर्ग पर पड़ रही हो। इसे दूसरी तरह से देखें तो कह सकते हैं कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अगर अपने भुगतान संतुलन को सुधारना चाहती है, तो वह वास्तविक मजदूरी की दर को घटाने के जरिए, अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता (competitiveness) को बेहतर बनाने के जरिए ही ऐसा कर सकती है। और विनिमय दर का घटाया जाना, ऐसा करने का ही एक रास्ता है।

अवमूल्यन, व्यापार संतुलन और वास्तविक मज़दूरी का रिश्ता

अर्थशास्त्र की ज्यादातर पाठ्य पुस्तकों में इस तथ्य का जिक्र नहीं किया जाता है। ये पाठ्य पुस्तकें सिर्फ आम तौर पर पूंजीवादी अर्थशास्त्र के नजरिए से नहीं लिखी जाती हैं बल्कि एक ऐसे पूंजीवादी अर्थशास्त्र के नजरिए से लिखी जाती हैं, जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के भी एक ऐसे मॉडल की दुहाई देता है, जिस मॉडल का सच्चाई से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। यह नजरिया पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को बाजारों के एक ऐसे समुच्चय के रूप में देखता है, जिनमें से हरेक में कीमतों में बढ़ोतरी से, फालतू मांग का घट जाना मानकर ही चला जाता है। विदेशी विनिमय बाजार को भी ऐसा ही एक बाजार मानकर चला जाता है। और पाठ्य पुस्तकों में बस यही बताया जाता है कि जब तक इस बाजार में मांग और आपूर्ति के चापों का रूप सही बना रहता है (और इस तरह कीमतों में बढ़ोतरी के जरिए, फालतू मांग को घटाया जाता रहता है), तब तक विनिमय दर में गिरावट से, जोकि विदेशी मुद्रा की कीमत बढऩे का ही दूसरा नाम है, विदेशी मुद्रा की फालतू मांग भी घटती रहती है यानी व्यापार घाटे में कमी होती है। विनिमय दर में गिरावट का उनका विश्लेषण अक्सर इसी नुक्ते पर आकर खत्म हो जाता है। यहां से आगे वे इसकी चर्चा पर चले जाते हैं कि कौन सी परिस्थितियां हैं, जिनमें उक्त चाप अपना सही आकार बनाए रखते हैं।

लेकिन, यह पूरी की पूरी विश्लेषण पद्धति ही गड़बड़ है। ज्यादातर अर्थव्यवस्थाओं को आयातित लागत सामग्रियों की जरूरत होती है, अक्सर तेल तथा प्राकृतिक गैस की। दूसरी ओर, तेल-उत्पादक अर्थव्यवस्थाओं को अनेक ऐसे गैर-तेल कच्चे मालों की जरूरत होती है, जिन्हें ये देश खुद पैदा नहीं कर सकते हैं, लेकिन जिनके बिना उनका काम भी नहीं चल सकता है। आयातित लागत सामग्रियों और श्रम तथा घरेलू रूप से उत्पादित चालू लागत सामग्रियों से मिलकर, चालू लागतों की सूची बनती है। और सभी पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में मालों की कीमतें, इकाई उत्पाद की चालू लागतों के दाम के ऊपर, लाभ आदि के हिस्से के तौर पर कुछ और जोड़ने से तय होती हैं। बेशक, ऐसा इजारेदार पूंजीवाद के अंतर्गत होता है। अल्पतंत्री (ओलिगोपोलिस्ट) इसी तरह से काम करते हैं। वे इसी तरह से कीमतें तय करते हैं और संबंधित कीमत पर मांग के स्तर से ही, यह निर्धारित होने देते हैं कि क्या पैदा किया जाए। कुछ लोग यह तर्क भी देते हैं कि पूंजीवाद की तो उसके शुरूआती दौर में भी पहचान, इस तरह से कीमतों के तय किए जाने से ही होती थी और शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्रियों की मुक्त प्रतिस्पर्धा की जो संकल्पना थी (जिसे मार्क्स ने अपनाया था), जहां उत्पादकों द्वारा उस कीमत को स्वीकार कर लिया जाता है, जो निर्वैयक्तिक तरीके से बाजार द्वारा तय कर दी जाती है, वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था की यथार्थवादी तस्वीर पेश नहीं करती है।

बहरहाल, यह बहस यहां हमारे लिए प्रासंगिक नहीं है। यहां तो हमारा बुनियादी नुक्ता यही है कि किसी भी आधुनिक अर्थव्यवस्था में, कीमतें अल्पतंत्री-इजारेदारी द्वारा ही तय की जाती हैं और इकाई सर्वोच्च लागत के ऊपर, अतिरिक्त जोड़ने के जरिए तय की जाती हैं।

विनिमय दर अवमूल्यन कैसे काम करता है?

अब मान लीजिए किसी मुद्रा का 10 फीसद अवमूल्यन हो जाता है। तब उसके द्वारा आयातित सभी मालों के स्थानीय मुद्रा में दाम में 10 फीसद की बढ़ोतरी हो जाएगी और इसलिए, किसी भी अंतिम उत्पाद में लगने वाली आयातित लागत सामग्री के अंश में, 10 फीसद के साथ, कुल इकाई लागत कीमत तय हो रही होगी। अब अगर वास्तविक मजदूरी को इस सब के बाद भी अपरिवर्तित रहना हो, तो संबंधित मुद्रा में मजदूरी में उसी अनुपात में बढ़ोतरी की जरूरत होगी, जिस अनुपात में कीमतें बढ़ रही हों। और इस सूरत में स्थानीय मुद्रा में कीमतें, अंतत: 10 फीसद बढ़ जाएंगी क्योंकि संबंधित मुद्रा में मजदूरी भी 10 फीसद बढ़ेगी और इसलिए, इकाई श्रम लागत भी 10 फीसद बढ़ जाएगी। (घरेलू रूप से उत्पादित लागत सामग्रियों से जुड़ी इकाई प्राइम लागत भी, अंतिम रूप से उत्पादित माल की कीमत के अनुपात में ही बढ़ रही होगी और इसलिए, यह भी खुद ब खुद 10 फीसद बढ़ जाएगी।) लेकिन, अगर 10 फीसद के अवमूल्यन के बाद, स्थानीय मुद्रा में कीमतों में 10 फीसद की ही बढ़ोतरी हो जाती है, तो इसका मतलब होगा व्यावहारिक मानों में कोई प्रभावी वास्तविक अवमूल्यन ही नहीं हो पाएगा। इसका अर्थ यह है कि व्यापार घाटे पर, उक्त अवमूल्यन का कोई असर ही नहीं पड़ रहा होगा।

अगर विनिमय दर में 10 फीसद की गिरावट के बाद, घरेलू कीमतें भी 10 फीसद ही बढ़ जाती हैं, तो संबंधित अर्थव्यवस्था के निर्यात मालों का विदेशी मुद्रा में दाम भी जस का तस बना रहेगा। इसलिए, उस सूरत में संबंधित निर्यातों के सस्ते हो जाने के बल पर, निर्यातों के परिमाण में बढ़ोतरी होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। इसी प्रकार, अगर विनिमय दर में 10 फीसद की गिरावट के बाद, घरेलू कीमतों में 10 फीसद की ही बढ़ोतरी हो जाती है, तो आयातित मालों के स्थानीय मुद्रा में दाम में भी 10 फीसद यानी घरेलू रूप से उत्पादित मालों जितनी ही बढ़ोतरी हो जाएगी। और उस सूरत में संबंधित अर्थव्यवस्था में आयातों के परिमाण में कोई कमी होने का भी कोई सवाल नहीं उठता है। इसलिए, इसका अर्थ यह हुआ कि न तो निर्यातों की मात्रा में कोई बढ़ोतरी होगी और न आयातों की मात्रा में कोई कमी होगी और इसलिए, संबंधित अर्थव्यवस्था का विदेशी मुद्रा में व्यापार घाटा, जस का तस बना रहेगा।

इसलिए, विनिमय दर में गिरावट सिर्फ उसी सूरत में कारगर हो सकती है, जब संबंधित अर्थव्यवस्था में घरेलू कीमतें उस अनुपात में नहीं बढ़ें, जिस अनुपात में विनिमय दर में गिरावट के चलते, विदेशी मुद्रा की कीमतें बढ़ रही होंगी। याद रहे कि यह भी विनिमय दर में गिरावट के कारगर होने की एक न्यूनतम आवश्यक शर्त है और इस शर्त के पूरे होने यह अर्थ हर्गिज नहीं निकाला जाना चाहिए कि इस शर्त के पूरे होने से व्यापार संतुलन में वाकई सुधार हो ही जाएगा। और उक्त न्यूनतम शर्त सिर्फ तभी पूरी हो सकती है, जब स्थानीय मुद्रा में मजदूरी में उसी अनुपात में बढ़ोतरी नहीं हो रही हो, जिस अनुपात में अंतिम मालों की कीमतों में बढ़ोतरी हो रही हो। दूसरे शब्दों में, यह शर्त तभी पूरी हो सकती है, जब वास्तविक मजदूरी में गिरावट हो रही हो।

मज़दूरी में गिरावट बिना प्रभावी अवमूल्यन नहीं

इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं। अगर, मान लीजिए कि विनिमय दर में 10 फीसद की गिरावट होती है, तो उससे व्यापार संतुलन की स्थिति पर कोई भी असर तभी पड़ सकता है, जब घरेलू कीमतों में 10 फीसद से घटकर, मिसाल के तौर पर 7 फीसद की ही बढ़ोतरी हो। आखिरकार, तभी तो कोई वास्तविक प्रभावी अवमूल्यन हो रहा होगा। यह तभी संभव है जब, इकाई प्राइम लागत में 7 फीसद की ही बढ़ोतरी हो क्योंकि पूंजीपतियों द्वारा लागत मूल्य के ऊपर से जो हिस्सा जोड़ा जाता है, उसका अनुपात तो बदलने वाला नहीं है। अब इकाई प्राइम लागत के दो घटक यहां प्रासंगिक हैं--इकाई श्रम लागत और इकाई आयातित लागत सामग्री का दाम (याद रहे कि घरेलू रूप से उत्पादित लागतों का मूल्य, अंतिम माल की कीमतों के अनुपात में ही बढ़ता है और इसलिए, यहां उस पर अलग से विचार करने की जरूरत नहीं है)। इसलिए, इकाई प्राइम लागत के सिर्फ 7 फीसद बढऩे के लिए यह जरूरी है कि इकाई श्रम लागत की कीमत 7 फीसद से घटकर ही यानी मिसाल के तौर पर 5 फीसद ही बढ़ रही हो। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि आयातित लागतों से जुड़ा इकाई लागत मूल्य, 10 फीसद के हिसाब से ही बढ़ रहा होगा। उत्पादन में जो श्रम गुणांक है उसको देखते हुए, यह तभी संभव है जब कीमतों में 7 फीसद की बढ़ोतरी होने पर भी, रुपया मजदूरी में 5 फीसद की ही बढ़ोतरी हो; यानी जब वास्तविक मजदूरी में गिरावट हो रही हो।

बेशक, होने को तो ऐसा वास्तविक प्रभावी विनिमय दर अवमूल्यन भी हो सकता है, जहां वास्तविक मजदूरी तो जस की तस बनी रहे, फिर भी घरेलू कीमतों में बढ़ोतरी, विदेशी मुद्रा के मूल्य में मिसाल के तौर पर 10 फीसद की जो बढ़ोतरी हो रही हो, उससे घटकर ही बनी रहे। लेकिन, इसके लिए पूंजीपतियों के मुनाफे के अनुपात को घटाने की जरूरत होगी।

लेकिन, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में ठीक यही तो है जो नहीं हो सकता है। लेकिन, समाजवादी व्यवस्था में जरूर यह हो सकता है क्योंकि वहां पर उद्यमों को, जिनमें अधिकांश का स्वामित्व शासन के हाथ में होता है, इसका निर्देश दिया जा सकता है कि अपने मुनाफे का अनुपात घटा दें, जिससे वास्तविक मजदूरी की दर में कोई गिरावट किए बिना ही, विनिमय दर में वास्तविक कारगर अवमूल्यन लाया जा सकता है। लेकिन, पूंजीवादी व्यवस्था में, मुनाफे के अनुपात में कोई कमी तो की ही नहीं जा सकती है। इसलिए, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था विनिमय दर में कोई वास्तविक, प्रभावी अवमूल्यन, वास्तविक मजदूरी में गिरावट के जरिए ही किया जा सकता है।

सर्वनाशी होगी अवमूल्यन की होड़

लेकिन, अगर हम यह भी मान लें कि मजदूर इतनी ताकतवर स्थिति में नहीं हैं कि अपनी वास्तविक मजदूरी में इस तरह की कटौती का प्रतिरोध कर सकते हैं, फिर भी यह मानने का कोई कारण नहीं है कि इससे व्यापार संतुलन की स्थिति में सुधार हो ही जाएगा। अगर व्यापार संतुलन में सुधार होता है, तो घरेलू रोजगार तथा उत्पाद बढ़ जाएंगे। लेकिन, इसका अर्थ होगा, किसी अन्य देश या देशों में उत्पाद तथा रोजगार में कमी होना, जिनकी कीमत पर यह अर्थव्यवस्था बाजार के अपने हिस्से में बढ़ोतरी कर रही होगी। अगर संबंधित देश भी जवाब में अपनी विनिमय दर में उसी अनुपात में अवमूल्यन कर देते हैं, तो बाजार के हिस्से में कोई तब्दीली नहीं होगी और व्यापार संतुलन की स्थितियों में भी कोई बदलाव नहीं होगा।

जब प्रतिस्पर्द्धी देश, जवाबी कार्रवाई के तौर पर अपनी विनिमय दरों का अवमूल्यन करते हैं, तो उन देशों में भी वास्तविक मजदूरी घट जाती है। इसलिए, व्यापार घाटे को कम करने का यह तरीका, जिसमें कोई भी देश स्वतंत्र रूप से इसकी कोशिश नहीं कर रहा होता है कि मजदूरों के पक्ष में आय के पुनर्वितरण के जरिए या सरकार द्वारा खर्चों में बढ़ोतरी के जरिए, मांग का स्तर ऊपर उठाया जाए, बेवजह मजदूरों को निचोडऩे का ही काम करता है, जबकि इससे कुछ भी हासिल नहीं होता है।

विनिमय दर के अवमूल्यन के जरिए (जिससे व्यापार घाटे को नीचे लाने के जरिए काम करने की उम्मीद की जाती है) अपने देश में घरेलू रोजगार बढ़ाने की ऐसी कोशिश को, ‘पड़ोसी जाए भाड़ में’ की नीति कहा जा सकता है। जब अनेक पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं इसी तरह की ‘पड़ोसी जाए भाड़ में’ की नीति पर चलती हैं तो इससे, रोजगार तो कहीं भी नहीं बढ़ता है, पर वास्तविक मजदूरी हर जगह घट जाती है।

पर यह किस्सा इतने पर ही खत्म नहीं हो जाता है। कुछ खास परिस्थितियों में, इस तरह वास्तविक मजदूरी में गिरावट, इसके साथ जुडऩे वाली सकल मांग में गिरावट के चलते, हर जगह बेरोजगारी बढ़ाने का भी काम कर सकती है। इसे पूंजीवाद की अतार्किकता का ही लक्षण कहा जाएगा कि देशों का कोई समूह जब ‘पड़ोसी जाए भाड़ में’ की नीति अपनाकर, अकेले अपनी स्थिति सुधारने के लिए आपसी होड़ में लग जाता है, तो इस होड़ से आखिरकार ऐसी नौबत आ सकती है कि इनमें से सभी देश, शुरूआत में उनकी जो स्थिति थी, उससे भी बदतर स्थिति में पहुंच जाएं।

इसे वर्तमान पूंजीवादी संकट से उत्पन्न हताशा का ही लक्षण कहा जाएगा कि 1930 के दशक का अनुभव सामने होते हुए भी, आज अमरीका में इसकी पुकार सुनने को मिल रही है कि डालर का अवमूल्यन करने के सहारे, अमरीकी अर्थव्यवस्था में प्राण फूंके जाने चाहिए।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं।)

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