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प्रियंका गांधी कैंप: दर-बदर लोग रैन बसेरों का रुख़ क्यों नहीं कर रहे? पार्ट-2

दिल्ली में लगातार अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई के दौरान बेघर हो रहे लोगों को रैन बसेरे जाने के लिए कहा जा रहा है लेकिन परिवार रैन बसेरे क्यों नहीं जा रहे आख़िर क्या है इसके पीछे की वजह?
shelter home

दिल्ली में अतिक्रमण हटाने के नाम पर लगातार बुलडोज़र चल रहा है, बेघर होते लोगों की भीड़ आख़िर कहां जा रही है? बेहतर जिन्दगी की तलाश में दिल्ली आए लोग क्या घर ( झुग्गी ) टूटने पर वापस अपने गांव लौट रहे हैं? आख़िर कितने लोग हैं जिन्हें अब तक बेघर कर दिया गया है इस सवाल का जवाब तलाश करने की कोशिश के दौरान हमने मज़दूर 'आवास संघर्ष समिति' के कन्वीनर निर्मल गोराना अग्नि से बात की। वे कहते हैं कि ''अगर हम साल भर के बीच चले बुलडोज़र की बात करें तो मोटे तौर पर पांच से छह लाख के बीच लोगों को बेघर किया गया है, हो सकता है ये आंकड़ा इससे ज़्यादा ही होगा, हर रोज़ अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई चल रही है, आप तुगलकाबाद का क्या डेटा मानते हैं? वहां क़रीब दो हज़ार घरों को तोड़ा गया है।''

 निर्मल दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल का एक पुराना बयान याद दिलाते हुए कहते हैं कि ''ख़ुद केजरीवाल ने कभी कहा था कि 63 लाख लोगों के मकान-दुकान पर नगर निगम का बुलडोज़र चलेगा।'' ( ये अरविंद केजरीवाल का 2022 में दिया गया बयान है)। 

इसी बयान में अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि ''दिल्ली प्लान तरीके से नहीं बना है, उसे देखते हुए 80 फीसदी दिल्ली अतिक्रमण के दायरे में आएगी, से में सवाल उठता है कि क्या 80 प्रतिशत दिल्ली को तोड़ा जाएगा?'' (हालांकि उस वक़्त उन्होंने ये बीजेपी शासित नगर-निगम पर निशाना साधते हुए ये बयान दिया था।) 

इसे भी पढ़ें : प्रियंका गांधी कैंप: ''घर भी तोड़ रहे हैं और बेघर लोगों को मार भी रहे हैं ये कैसी कार्रवाई?''

ये एक अलग बहस है कि दिल्ली के कितने हिस्से से अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई होगी? लेकिन अगर हम बात करें हाल के दिनों में हटाए गए अतिक्रमण के बाद बेघर हुए लोगों के पुनर्वास की तो ये बहुत ही डरा देने वाली तस्वीर है।  वसंत विहार के प्रियंका गांधी कैंप को हटाए जाने के बाद कोर्ट ने लोगों के लिए पुनर्वास के लिए कहा और साथ ही तब तक अस्थाई तौर पर उनके रैन बसेरा में इंतज़ाम करने की बात कही थी। लेकिन यहां से उजड़े घरों में से एक भी परिवार रैन बसेरे में नहीं गया (कम से कम इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक) हमने लोगों से जानना चाहा कि वे क्यों रैन बसेरे नहीं गए। उन्होंने अपनी तरफ से तमाम वजह गिनाई, हम उन वजहों के साथ प्रियंका गांधी कैंप के आस-पास मौजूद रैन बसेरों में गए।

कुली कैंप का रैन बसेरा

प्रिया रेड लाइट के क़रीब कुली कैंप (Coolie camp) में मौजूद रैन बसेरे में पहुंचे, जो SPYM ( Society for Promotion of Youth and Masses) के सहयोग से चल रहा था, अंदर घुसे तो चारों तरफ अंधेरा था पता चला कि लाइट गई हुई थी, हमें बताया गया कि इस रैन बसेरे में सुबह के वक़्त छोटे बच्चों के लिए स्कूल चलता है, जबकि रात को ये पुरुषों के लिए रैन बसेरा है। हमने जानना चाहा कि क्या यहां और लोगों को रखने की जगह है तो ऑफ कैमरा हमें बताया कि कैंप में और लोगों को रखने की जगह नहीं है, हमने ये भी जानने की कोशिश की कि क्या प्रियंका गांधी कैंप से (जिनके घर टूटे हैं) कोई जगह तलाश करते हुए वहां आया था क्या? तो हमें बताया गया कि हां, कुछ लोग आए तो थे लेकिन वे परिवार वाले लोग थे।

कुली कैंप में बना पुरुषों का रैन बसेरा

प्रियंका गांधी कैंप पर बुलडोज़र चलाने से पहले वहां रैन बसेरों की एक लिस्ट लगाई गई थी। ये लिस्ट वही है जो DUSIB (Delhi Urban Shelter Improvement Board ) की वेबसाइट पर है उसी का प्रिंट आउट निकाल कर यहां लगा दिया गया था। वेबसाइट खोलते ही टोल फ्री नम्बर 14461 के साथ दो और लैंडलाइन नंबर और एक ईमेल एड्रेस भी दिखाई देता है। हमने दिए गए एक लैंडलाइन पर कॉल किया जिस पर जवाब मिला कि ''ये नंबर मौजूद नहीं है'' जबकि दूसरे नंबर पर किसी ने फोन उठाया हमने उनसे दिल्ली में परिवारों के लिए बने रैन बसेरों के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की। उन्होंने बताया कि दिल्ली में परिवार के साथ रहने वालों के लिए छह रैन बसेरे हैं। 

-द्वारका 

-गीता कॉलोनी 

-जामा मस्जिद 

-मुनिरका 

-सराय काले खां (यहां दो हैं) 

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हमने जानना चाहा कि क्या इनमें नए परिवारों के रखने की जगह है, क्या अगर अभी किसी को वहां रहना हो तो क्या आया जा सकता है? सवाल ख़त्म होने से पहले ही हमें कहा गया कि ''ये भरे हुए हैं।'', लेकिन फिर कुछ ठहरकर कहा गया कि ''ये जाकर पता करना होगा कि जगह है या नहीं?''

मुनिरका में बना रैन बसेरा

मुनिरका, आर.के पुरम सेक्टर 4 के क़रीब बना रैन बसेरा 

हमने वसंत विहार के सबसे क़रीब मुनिरका (CNG स्टेशन के क़रीब) के पास आर.के. पुरम सेक्टर-4 में बने रैन बसेरे का रुख़ किया, यहां एक ही कैंपस में तीन रैन बसेरे बने हैं जिनमें से एक महिलाओं के लिए, एक पुरुषों के लिए और एक परिवार वालों के लिए। हमने सबसे पहले परिवार वालों के लिए बने रैन बसेरे का रुख किया, हमने देखा एक डिम लाइन में बड़े से हॉल में लाइन से बेड लगे थे और बीच में गली नुमा रास्ता था, ऊपर नज़र डाली तो पर्दे तो लगे थे लेकिन गर्मी की वजह से वे समेट कर ऊपर ही टांग दिए गए थे, एक बड़ा सा कूलर और दीवार पर लगा टीवी भी चल रहा था। यहां हमें केयरटेकर रमेश चंद मिले जो पिछले 10 साल से यहां केयरटेकर का काम कर रहे थे। वे बताते हैं कि ''परिवार वाले रैन बसेरे में सात परिवार के कुल 22 सदस्य रहते हैं, जो क़रीब 10 साल से यहीं रह रहे हैं, पहले ये लोग पुल के नीचे रहते थे।'' हमने उनसे जानना चाहा कि प्रियंका गांधी कैंप से कोई परिवार उनके यहां जगह की तलाश में आया था क्या? उन्होंने कहा कि ''यहां कोई कैसे आएगा यहां तो जगह पहले से ही फुल है।'' हालांकि वे बताते हैं कि उनसे सम्पर्क किया गया था।''

मुनिरका में बना परिवार के लिए रैन बसेरा

इसी रैन बसेरे में एक परिवार से भी हमने बातचीत की उनसे पूछा कि वे यहां कब से रह रहे हैं तो जवाब मिला वे पिछले 10 साल से यहीं रह रहे हैं, उनका कहना था कि कहीं कोई जगह नहीं है इसलिए वे यहीं रहते हैं। 

हमने उसी कैंपस में स्थित महिलाओं के रैन बसेरे में झांक कर देखा तो अंदर से एक तेज गंध का भभका मुंह पर टूट पड़ा। वहां खड़ा रहना मुश्किल हो रहा था। उस वक़्त वहां मौजूद केयरटेकर सुनीता मिलीं। उन्होंने बताया कि महिलाओं के रैन बसेरे में क़रीब 30 महिलाएं रह रही हैं, और ये उन अकेली महिलाओं के लिए है जिनके पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है। जब हमने सुरक्षा इंतजाम के बारे में सुनीता से पूछा तो उनका कहना था कि ये रैन बसेरा महिलाओं के लिए सुरक्षित है। वहां फर्श पर लिटाए हुए बच्चों के बारे में पूछा तो पता चला कि उनकी मां कमाने के लिए गई हैं, इसी रैन बसेरे के बाहर खेलती हुई प्यारी सी डेढ़-दो साल की एक बच्ची मिली, हमने बच्ची से पूछा कि ''मम्मी कहां है?'' वो इतनी छोटी थी कि उसे इसका मतलब ही नहीं पता था, वे हाथ में एक बोतल में पानी भर कर उसी से खेल रही थी, जबकि यहां बने दो झूलों पर कपड़े सूख रहे थे। 

झूले पर कपड़े सूखते हुए

इसके बाद हम पुरुषों के रैन बसेरे में दाखिल हुए तो वहां सबसे ज़्यादा भीड़ दिखाई दी, चारपाइयों की तीन लाइन लगी थी, कुछ एक पर लोग सो रहे थे, पूछने पर पता चला कि यहां 25 से 30 लोग रह रहे हैं, हालांकि ये संख्या ऊपर नीचे होती रहती है। 

इस रैन बसेरे में सभी के लिए दो शौचालय दिखाई दिए हालांकि हमें बताया गया कि तीन हैं, एक स्टाफ के लिए अलग से है। लेकिन जो बात गौर करने वाली थी वह ये कि इस रैन बसेरे में जगह नहीं थी और यहां चाह कर भी बेघर लोग नहीं आ सकते थे।

सफदरजंग अस्पताल के बाहर बना रैन बसेरा 

हमने सफदरजंग अस्पताल के बाहर बने रैन बसेरे का रुख़ किया, लेकिन ये रैन बसेरा था भी कि नहीं समझ से परे था, एक कंटेनर नुमा जगह थी जिसके अंदर ऊपर नीचे सोने के बेड नुमा फ्रेम बने हुए थे, अंदर लोगों का सामान रखा हुआ था और लोग पेड़ के नीचे लेटे हुए थे। यहां ज़्यादातर लोग दिल्ली से बाहर से इलाज के लिए आए लोग दिखे। जब हमने उनसे केयरटेकर के बारे में पूछा तो पता चला वो कहीं गया है। यहां रैन बसेरे के बाहर ईटों को जोड़कर चूल्हे बने हुए थे। हमने कुछ लोगों से उसके बारे में पूछा तो पता चला वे लोग रैन बसेरे में गर्मी की वजह से नहीं रहते बाहर ही सोते हैं और अगर कोई खाने-पीने को दे गया तो खा लेते हैं वर्ना ख़ुद ही कुछ बना कर खाते हैं। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से पति का इलाज कराने आईं प्रियंका पाण्डेय ने बताया कि वे अपने पति के इलाज के लिए पूरे परिवार के साथ दिल्ली आई हैं और यहीं रैन बसेरे के क़रीब पेड़ के नीचे रहती हैं। परिवार में 14-15 साल की बेटी से लेकर चार-पांच साल का सबसे छोटा बच्चा है। वे इस पूरे परिवार के साथ एक साल से यूं ही पेड़ के नीचे रह कर इलाज करवा रही हैं। वे बताती हैं कि ''सबसे ज़्यादा दिक्कत वॉशरूम को लेकर होती है। रात को डर लगता है कि कहां जाएं कैसे जाएं।''

सफ़दरजंग के बाहर बना रैन बसेरा

इसी रैन बसेरे के बाहर हमें एक महिला ने बताया कि उसकी क़रीब सात साल की बेटी के साथ तीन बार रात को छेड़छाड़ की कोशिश हो चुकी है। लेकिन आज भी वे उसी जगह पर रहने को मजबूर हैं। क्योंकि परिवार के पास जाने के लिए कोई और जगह नहीं है। ये बातें सुनकर ऐसा लग रहा था कि अंदर कुछ टूट रहा हो, ये कैसी जिन्दगी जी रहे हैं इंसान, बुनियादी सुविधाएं और सुरक्षित माहौल भी इनके लिए बहुत बड़ी हसरत है।

इसी जगह पर एक कैंसर पैसेंट दिखीं, वे सो रही थीं। उनका पति और बेटा क़रीब ही बैठे थे। बिहार से इलाज कराने आए उनके पति बताते हैं कि पिछले कई सालों से वे इलाज करवा रहे हैं। जब शुरू में आते थे तो किराए पर कमरा लेने की हैसियत थी लेकिन अब वे रैन बसेरे में रहते हैं। लेकिन यहां रैन बसेरा बस नाम का है, उनका सारा सामान यूं ही खुले में पड़ा था हमने पूछा ''बारिश में सामान कैसे बचाते हैं'' तो जवाब मिला ''किसी तरह पन्नी लगा कर बचाते हैं। डर लगता है कि कहीं इलाज का कोई पर्चा भीग न जाएं''। 

वैसे ये रैन बसेरा था कि नहीं देखने में शक लग रहा था।  लोगों ने भी बताया कि अंदर कोई नहीं सोता बहुत गर्मी है। सभी लोग बाहर ही सोते हैं, और खाना भी या तो वे ख़ुद बनाते हैं या फिर राह चलता अगर कोई दे गया तो उसी पर निर्भर रहना पड़ता है। 

इस रैन बसेरे के बाहर गर्भवती महिला दिखी जो चार महीने के बच्चे के साथ अकेली रहती महिला दिखी। उन्हें देखकर एक सवाल तो सच में जेहन में आ रहा था कि महिलाओं के लिए असुरक्षित 'घोषित' दिल्ली में अंधेरी रात इनके लिए कितनी सुरक्षित होती होगी?  

पति के इलाज के लिए पूरे परिवार के साथ आई महिला

रैन बसेरे महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं कि नहीं इस पर प्रियंका गांधी कैंप में घर टूटने पर बेघर हुईं नूरजहां, रेशमा की राय और सफदरजंग के बाहर मिली महिला के दावे पर हमने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बनी 'दिल्ली शेल्टर मॉनिटरिंग कमेटी' के सदस्य इंदू जी से बात की। उन्होंने कहा कि, ''शेल्टर होम सेफ हैं, ऐसा कुछ नहीं है कि शेल्टर होम सेफ हैं या नहीं। ये उन लोगों को लगता है जो वहां कभी गए नहीं हैं।''

''शेल्टर होम बेघर लोगों के लिए होता है, मकान तोड़कर शेल्टर होम भेजना ग़लत है''

हालांकि इंदू जी मकान तोड़कर लोगों को शेल्टर होम भेजने के आदेश से बेहद नाराज़ हैं। उन्होंने कहा कि '' किसी का मकान तोड़कर शेल्टर होम जाने की बात कहना ग़लत है, शेल्टर होम उनके लिए होता है जिनके पास बिल्कुल मकान नहीं हैं, लेकिन ये जो सरकारी सोच है कि मकान तोड़कर कहा जा रहा है कि शेल्टर होम जाओ ये ग़लत है, शेल्टर होम बेघर लोगों के लिए है। DUSIB, DDA या फिर जो भी अतिक्रमण के खिलाफ मकान तोड़ रहे हैं और कह रहे हैं कि शेल्टर होम जाओ। मुझे लगता है कि ये एक बड़ा अपराध है। शेल्टर उनके लिए है जिनके पास कोई छत ही नहीं है, जिनके पास छत थी उनको आपने बेघर कर दिया। उनको आप मकान दीजिए। उनको शेल्टर में जाने के लिए क्यों कह रहे हैं? शेल्टर उन लोगों के लिए उपयुक्त नहीं है जिनके पास बाकायदा पहले मकान थे। प्रधानमंत्री बात करते हैं 'प्रधानमंत्री आवास योजना' की लेकिन लोगों के पास मकान नहीं है, ये लोगों के साथ एक तरह का खिलवाड़ है।'' 

हमने इंदू जी से शेल्टर होम की कैपेसिटी पर भी बात की तो वे कहते हैं कि ''हम मानते हैं कि दिल्ली में 1 लाख 80 हज़ार लोग पहले से ही बेघर हैं, उनके लिए ही पूरे शेल्टर होम नहीं हैं, तो ये बात बड़ी बेमायने लगती है कि जिनको शेल्टर होम की ज़रूरत थी। उन्हीं के लिए पूरे नहीं थे और अब आप मकान तोड़कर कह रहे हैं कि शेल्टर होम में जाइए ये तो बिल्कुल ग़लत बात है और मैं इस बात का खंडन और विरोध करता हूं।''

''टॉस्क फोर्स का गठन होना चाहिए''

दिल्ली में इतने बड़े पैमाने पर हो रही अतिक्रमण के खिलाफ़ कार्रवाई और बेघर होते लोगों के पुनर्वास के लिए  'मज़दूर आवास संघर्ष समिति' के कन्वीनर निर्मल गोराना अग्नि मांग करते हैं कि ''सरकार एक ऐसा टास्क फोर्स गठित करे जिसमें जन संगठनों और सरकारी और गैर सरकारी लोग हों। और वे कमिश्नर लेवल का हो जहां पर हम लोग ये पता लगाएं कि कितने लोग पुनर्वास के लिए लाइन में हैं और कितने लोगों का पुनर्वास हुआ है, किस तरह का पुनर्वास किया जा रहा है, तो इसके लिए हम टास्क फोर्स की मांग करते हैं। साथ ही सरकार से आवास से जुड़े क़ानून बनाने की मांग करते हैं, जो आर्टिकल 21 से जुड़ा हुआ है। वे क्यों क़ानूनी जामा नहीं पहना पा रहा है? हमारे पास क़ानून नहीं है इसलिए इस तरह से लोगों के घर तोड़े जा रहे हैं, आज 'राइट टू फूड', 'राइट टू एजुकेशन' का क़ानून है लेकिन 'राइट टू हाउस' क्यों नहीं है? अगर आज कोई आकर आपका घर तोड़ दे तो आप क्या केस कर पाएंगे? 

इसके साथ ही वे कहते हैं कि ''हमें ये समझना होगा कि-

  • जिनके घर टूटे हैं उनके लिए शेल्टर होम उचित जगह नहीं है। 
  • शेल्टर होम वे एजेंसी नहीं है जहां इन लोगों को ले जाया जाए क्योंकि वे बेघर नहीं थे। 
  • क़ानून ऐसा नहीं है जिसकी वजह से इन लोगों को उचित तरह से पुनर्वास मिलेगा, इसलिए क़ानून की सख़्त ज़रूरत है।  
  • शेल्टर होम में किस तरह से मेकेनिज़्म डेवलप किया गया है परिवार को रखने का? 
  • कोर्ट को संज्ञान लेकर इतनी बड़ी समस्या का समाधान करना चाहिए। 

बेघर हुए लोग क्यों शेल्टर होम नहीं जाना चाहते, ये एक बड़ा सवाल है, हमने अपने लेवल पर ये जानने की कोशिश की (हालांकि ये इतना बड़ा काम है जिसके लिए बाकायदा सर्वे की ज़रूरत है)  जिसमें ये पाया कि ज़्यादातर परिवारों का मानना है कि वे जगह परिवार के लिए नहीं है, साथ ही महिलाओं की राय थी कि वो जगह महिलाओं के लिए 'सुरक्षित' नहीं है, कुछ लोग जाना भी चाहें तो अव्वल ज़्यादातर रैन बरेसों में जगह नहीं थी। और रैन बसेरे सामान के साथ आने की इजाजत नहीं देता ऐसे में जिनके घर टूटे हैं वे उस सामान को कहां रखकर आएंगे जो कभी उनके आशियाने का कभी हिस्सा था? दिल्ली जहां भी घर टूट रहे हैं उनमें ज़्यादातर मज़दूर, निर्माण मजदूर, या फिर घरेलू कामकाजी महिलाएं हैं। ऐसे में एक सवाल ये भी उठता है राजधानी दिल्ली को दिल्ली बनाए रखने में इन लोगों का एक बड़ा योगदान होता है। लेकिन जब बात आती है इनके लिए एक सुरक्षित छत की तो ये सिर्फ महज़ एक वोट साबित होते हैं, उससे ज़्यादा और कुछ नहीं। 

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