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वैश्वीकृत पूंजी और राष्ट्रीय नेतृत्व

आज के दौर का एक बहुत ही हैरान करने वाला सवाल यह है कि जो खेल, यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को अस्थिर करने का अमेरिका का खेल ही लगता है, यूरोप का राजनीतिक नेतृत्व उसमें शामिल कैसे हो गया है।
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जाने-माने अमेरिकी खोजी पत्रकार, सेम्युअर हर्ष, जो पहले ही इसके साक्ष्य मुहैया करा चुके थे कि नॉर्ड स्ट्रीम गैस पाइप लाइन को विस्फोट से उड़वाने के लिए अमेरिका ही जिम्मेदार था, ने अब यह रहस्योद्घाटन किया है कि इस पाइप लाइन के उड़ाए जाने का, यूक्रेन युद्ध से तो कोई रिश्ता तक नहीं था। यह तो बाइडेन प्रशासन की एक सोची-समझी चाल थी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यूरोप, ज्यादा महंगी पड़ने के बावजूद, अमेरिकी गैस पर ही निर्भर रहे और अपेक्षाकृत सस्ती रूसी गैस पर निर्भर न हो जाए। इसलिए, इस पाइप लाइन का उड़ाया जाना, सिर्फ यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं पर और खासतौर पर जर्मनी पर एक हमला भर नहीं था, जिसकी उत्पादन लागतें इस एक कार्रवाई के चलते इस सिरे से उस सिरे तक बढ़ जाने वाली थीं; यह खुद जर्मन सरकार द्वारा शुरू की गयी एक नीति में सीधे-सीधे भीतरघात भी था।

और इसके बावजूद, जर्मनी को निशाना बनाकर की गयी आर्थिक तोड़-फोड़ की इस करतूत के खिलाफ, जर्मनी के किसी भी राजनीतिक नेता के मुंह से रत्तीभर आलोचना सुनने को नहीं मिली और यहां तक कि विनम्र कूटनीतिक भाषा में लपेट पर पेश की गयी नापसंदगी की अभिव्यक्ति तक नहीं देखने को मिली।

इतना ही नहीं, आगे-आगे ऐसे दौर की प्रत्याशा में, जब ऊर्जा की बढ़ी हुई कीमतों का असर वाकई दिखाई देने लगेगा (जोकि तब होगा जब जर्मन सरकार द्वारा ऊर्जा की बढ़ी हुई कीमतों की क्षतिपूर्ति करने के लिए दी जा रही सब्सीडियां खत्म हो जाएंगी), और आम तौर पर ऊर्जा की आम तौर पर अनिश्चिततापूर्ण संभावनाओं को देखते हुए, उत्पादन का स्थानांतरण तक शुरू हो गया है और जर्मनी से अमेरिका की ओर उत्पादन का पलायन हो रहा है। इसके बावजूद, जर्मन अर्थव्यवस्था पर इस नंगे हमले पर, जर्मनी के किसी नेता ने मजाल है जो उफ तक की हो। सवाल यह है कि आखिर क्यों?

वैश्विक वित्तीय कुलीन तंत्र का हिस्सा: राष्ट्र से ऊपर

हालांकि, इस सवाल के समुचित जवाब के लिए और शोध की प्रतीक्षा करनी होगी, फिर भी इसके उत्तर का एक तत्व तो अब भी स्पष्ट नजर आ ही रहा है। यह तत्व यह है कि यूरोपीय राजनीतिज्ञों की विशाल संख्या, अमेरिकी मूल के भीमकाय कारपोरेटों की तनख्वाह पर रही है। ये ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जो वैश्वीकृत पूंजी से जुड़े अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कुलीन तंत्र के साथ जुड़े हुए हैं और उन्हें राष्ट्रीय हितों की कोई खास परवाह ही नहीं है।

रूडोल्फ हिल्फर्डिंग ने अपनी क्लासिक कृति, दास फिनात्जकापीटाल में बैंकों और उद्योगों के धनी-धौरियों के बीच निजी गठबंधन या पर्सनल यूनियन से, वित्तीय कुलीन तंत्र के गठन की बात कही है। वित्तीय कुलीन तंत्र का राज्य के धनी-धौरियों के साथ भी निजी गठबंधन हो जाता है, जिसके चलते वही व्यक्ति आसानी से एक प्रतिष्ठान में से दूसरे में चले जाते हैं। यह उन व्यवस्थाओं में से एक है, जो यह सुनिश्चित करती हैं कि राज्य की नीति हमेशा ही इस प्रकार से तय की जाए, जो वित्तीय कुलीन तंत्र के हितों को आगे बढ़ाती हो।

बहरहाल, हिल्फर्डिंग राष्ट्रीय वित्तीय पूंजियों के संदर्भ में लिख रहे थे। वैश्वीकरण के दौर में, जब वित्तीय पूंजी तो वैश्वीकृत हो गयी है, जबकि राज्य अब भी राष्ट्र-राज्य ही बना हुआ है, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हितों को आगे बढ़ाने के लिए, राज्य के धनी-धौरियों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के बीच निजी गठबंधन का अर्थ अनिवार्य रूप ये यह निकलता है कि राज्य के धनी-धौरियों की ओर से, राष्ट्र की अवस्था के  प्रति ही एक हद तक लापरवाही प्रदर्शित की जाती है। बुनियादी तौर पर इसका अर्थ होता है, राष्ट्र के अंदर के मेहनतकशों की दशा के प्रति लापरवाही। और वास्तव में हम यही होता देख रहे हैं।

कारपोरेट एक्जिक्यूटिव राजनीतिक नेता

आज के यूरोप के अग्रणी राजनीतिज्ञों और वैश्विक कारपोरेटों के बीच, जिनमें से अनेक अमेरिकी मूल के कारपोरेट हैं, निजी गठबंधन के उदाहरण बहुत ही ध्यान खींचने वाले हैं। जर्मनी में क्रिश्चियन डैमोक्रेटों के नेता फ्रेडरिख मेर्ज के, जो इसी हैसियत से जर्मनी में विपक्ष के नेता हैं, विपुल कारोबारी हित हैं और वह अरबपति हैं तथा अनेक कंपनियों के बोर्डों में रह चुके हैं, जिनमें अमेरिकन ब्लैकरॉक इन्वेस्टमेंट कंपनी भी शामिल है। फ्रांस के वर्तमान राष्ट्रपति, एम्मेनुअल मैक्रां, राथ्सचाइल्ड फाइनेंशियल ग्रुप के निवेश बैंकर रहे थे, जहां उन्होंने नेस्ले और फाइजर का सौदा कराया था, जिसके फलस्वरूप नेस्ले ने फाइजर के बेबी फूड डिवीजन का अधिग्रहण कर लिया था।

इस गठबंधन का ताजातरीन और सबसे नंगा उदाहरण, हमें ग्रीस में देखने को मिलता है, जहां अमेरिकी निवेश कंपनी, गोल्डमैन साख्स के एक एक्जिक्यूटिव, स्टेफ्रोस कस्सेलाकिस को पिछले ही दिनों सिरिजा का नेता चुना गया है।

सिरिजा को एक वामपंथी पार्टी समझा जाता है, जो पहले सत्ता में थी और इस समय सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। कस्सेलाकिस पहले राजनीति में नहीं थे। वह ग्रीस की समस्याओं के बारे में भी शायद ही कुछ जानते होंगे। वामपंथ के साथ भी उनका न तो जरा सा भी परिचय है तथा न उसके प्रति उनका कोई विचारधारात्मक लगाव ही है। और वह अपने चुनाव अभियान के दौरान कोई भी बड़ा मुद्दा उठाने से आम तौर पर बचते ही रहे थे। उनका चुनाव भी सिरिजा पार्टी के संविधान में बदलाव करने के बाद ही संभव हुआ है, जिस संशोधन के जरिए कोई भी थोड़े से अर्से में ही सिरिजा का सदस्य और इस हैसियत से नेतृत्व के चुनाव में वोट डालने का अधिकारी बन सकता है। बहुत मुमकिन है कि कस्सेलाकिस को ग्रीस का अगला प्रधानमंत्री चुन लिया जाए। वास्तव में सिरिजा के नेतृत्व के लिए उसके चुनाव प्रचार में, मुख्य जोर इसी बात पर रहा था।

यूरोप के पूंजीवादी नेताओं की नयी पीढ़ी

यूरोपीय नेताओं की इस नयी फसल के, अमेरिकी मूल के कारपोरेटों के एक्जिक्यूटिव रहे होने का असली नुक्ता यह नहीं है कि वे अपने देश के हितों की कीमत पर अमेरिकी हितों को आगे बढ़ाते हैं। इसकी जगह नुक्ता यह है कि वे राष्ट्रीय हितों की किसी चिंता से कत्तई बंधे ही नहीं होते हैं। इसके बजाए वे तो वैश्वीकृत पूंजी के ही हितों की हिफाजत करते हैं और उसके हितों को ही आगे बढ़ाते हैं। कारपोरेट एक्जिक्यूटिवों की उनकी हैसियत उन्हें वैश्वीकृत पूंजी के हितों के प्रति और इसलिए, वैश्वीकृत पूंजी की राजनीतिक हिफाजत के लिए प्रतिबद्ध बनाती है और उनका यह विश्वास रहता है कि यह राजनीतिक हिफाजत, सामराजी राज्यों के बीच एकता ही मुहैया करा सकती है। इसलिए, एटलांटिक के पार एकता, उनके जेहन में जितना ज्यादा महत्व रखती है, उतना महत्व यूरोपीय राजनीतिज्ञों की पिछली पीढ़ियों के जेहन में नहीं रखती थी।

साम्राज्यवादी दुनिया में हम फासीवादी दायरे से बाहर, एक नये ढंग के राजनीतिज्ञ के उदय को देख रहे हैं। और यह यूरोप में सबसे ज्यादा स्वत:स्पष्ट है। ब्रिटेन के टोनी ब्लेयर इसकी एक शुरूआती मिसाल थे। ये राजनीतिज्ञ अक्सर कारपोरेट दुनिया से आते हैं और अक्सर कारपोरेट तथा राजनीतिक दुनियाओं के बीच आवाजाही करते रहते हैं। जब वे नाम के वास्ते वामपंथ से या सेंटर से वामपंथ की ओर पड़ने वाली पार्टियों से होते हैं तब भी, उनकी नवउदारवाद के प्रति प्रतिबद्धता और मजदूर वर्ग के प्रति गहरी शत्रुता के अलावा और कोई विचारधारा ही नहीं होती है। टोनी ब्लेयर, लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री थे। इम्मेनुअल मैक्रां एक ‘‘सोशलिस्ट’’ सरकार में वित्त मंत्री रहे थे। और कस्सेलाकिस को एक ‘‘वामपंथी’’ पार्टी का नेता चुना गया है। और जाहिर है कि उन्हें, जिन देशों का वे नेतृत्व कर रहे हैं, उनके हितों की कोई परवाह नहीं है।

संक्षेप में यह कि वे पिछले जमाने के डी गॉलों और विली ब्रांटों से बिल्कुल भिन्न हैं, जिनकी अपनी विचारधाराएं थीं, हालांकि उनकी विचारधाराएं आपस में बहुत अलग थीं। वे अपनी संकल्पना के हिसाब से अपने राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के लिए काम करते थे और अमेरिकियों का सामना करने के लिए तैयार रहते थे। कारपोरेटों से भिन्न अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमियों के अलावा उनके ऐसे रुख थे जो वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के वर्चस्व से पहले के दौर से ही ज्यादा मेल खाते थे।

साम्राज्यवादी देशों की एकता सर्वोपरि

ऐसा लगता है कि (नवउदारवादी) पूंजीवाद के संकट के इस दौर में, कारपोरेट-पोषित राजनीतिज्ञों की इस नयी फसल के लिए, साम्राज्यवादी देशों की एकता खासतौर पर जरूरी है। अक्सर जिस चीज को ‘बहुध्रुवीयता’ की प्रवृत्ति की ओर से, विकसित दुनिया के पूंजीवाद के लिए एक खतरे की तरह देखा जाता है, उसमें पूंजीवादी संकट के संदर्भ को भुला ही दिया जाता है। इस संकट के सामने, साम्राज्यवादी देशों के एकजुट होने को, आसन्न चुनौती का सामना करने के लिए, जो जितनी घरेलू मजदूर वर्ग से आती है उतनी ही तीसरी दुनिया से भी आती है, अत्यावश्यक माना जाता है।

बहरहाल, ‘राष्ट्रीय हितों’ की भी कीमत पर साम्राज्यवादी देशों की एकता की यह तलाश, विकसित देशों में फासीवाद के उभार के लिए रास्ता खोलती है क्योंकि फासीवादी तत्व अब भी ‘राष्ट्रीय हितों’ की बात करते हैं और इसलिए, मजदूर वर्ग के बीच अब भी एक संवेदशील नब्ज को छूते हैं। यह दूसरी बात है कि अगर वे सत्ता में आते तो वे खुद भी अपने घरेलू बड़े व्यवसाइयों के पीछे गोलबंद हो जाते हैं और इसलिए, उन्हीं आर्थिक तथा विदेश नीतियों पर चलते हैं, जिन पर उनसे पहले की उदारपंथी पूंजीवादी सरकारें चल रही होती हैं। इटली की मेलोनी का उदाहरण, इसी प्रस्थापना की पुष्टि करता है। लेकिन, विपक्ष में रहते हुए, ये ताकतें राष्ट्र की बात करती हैं और खुद को उसके रखवाले के तौर पर पेश करती हैं।

वैश्वीकृत पूंजी की चित-पट दोनों

संकट के सामने, विकसित पूंजीवादी दुनिया में वैश्वीकृत पूंजी की यही ‘‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’’ की रणनीति है। इसके पीछे विचार यह है कि विकसित पूंजीवादी दुनिया में राजनीति को, ‘‘फासीवाद बनाम उदारवादी पूंजीवाद’’ के दो ध्रुवों के बीच चुनाव तक सीमित कर के रख दिया जाए। उदारपंथी पूंजीवादी सरकारें, जिनके नेता खुद ही कारपोरेटों के एक्जिक्यूटिव होते हैं, साम्राज्यवादी देशों के बीच एकता को बढ़ाने के जरिए, वैश्वीकृत पूंजी की हिमायत में गोलबंद होती हैं। और अगर इन सरकारों को उनके देशों की जनता ठुकरा देती है, तब भी जनता के सामने एक ही विकल्प पेश किया जाता है, जो कि फासीवादी विकल्प होता है। यह ऐसा विकल्प होता है जो दुहाई तो राष्ट्र की देता है, लेकिन सेवा वैश्वीकृत पूंजी की करता है। उसकी राष्ट्र की दुहाई वैश्वीकृत पूंजी का विरोध करने का रूप न लेकर, अप्रवासियों का विरोध करने का ही रूप लेती है। और जाने-माने फासीवादी तरीके से, अप्रवासियों के खिलाफ लोगों के गुस्से को भडक़ाया जाता है और उन्हें ही उन कठिनाइयों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, जो पूंजीवादी संकट के चलते मजदूरों के बहुमत को झेलनी पड़ती हैं। कारपोरेट एक्जिक्यूटिवों के नेतृत्ववाले वामपंथ से भिन्न, प्रामाणिक वामपंथ पर ही इसकी जिम्मेदारी आती है कि वैश्वीकृत पूंजी की इस ‘‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’’ की रणनीति को बेनकाब करे और उसे शिकस्त दे।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Why Europe’s Political Leadership is Marinated in Globalised Capital

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