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विश्लेषण: मोदी जी को विशेष राहत नहीं दे पाया विशेष सत्र

इस प्रश्न पर उभरता राष्ट्रीय विमर्श तो यही संकेत कर रहा है कि भाजपा महिला आरक्षण का कोई सकारात्मक श्रेय हथियाने में तो कामयाब नहीं ही हुई, उल्टे इसे टालने की साज़िश और ओबीसी सवाल ने उसे कठघरे में ही खड़ा कर दिया।
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फ़ोटो : PTI

महिला आरक्षण विधेयक अंततः संसद में पारित हो गया है। राष्ट्रीय जीवन में बराबरी के लिए महिला-संघर्ष की यात्रा में यह बेशक ऐतिहासिक क्षण है।

इसी के साथ, विशेष सत्र के दौरान लोकतन्त्र और संविधान से किसी खतरनाक छेड़छाड़ की आशंका से डरे देश ने राहत की सांस ली है। क्या यह राहत स्थायी है और महिला आरक्षण के बल पर चुनाव में जीत को  लेकर मोदी-शाह इतने आश्वस्त हो पाएंगे कि विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव समय पर, लोकतान्त्रिक ढंग से निर्विघ्न सम्पन्न हो सकें? शायद आज इस पर यकीन के साथ कोई कुछ नहीं कह सकता। 

इस अप्रत्याशित घटनाक्रम के political implications को सामने आने में अभी वक्त लगेगा, उसका पहला ठोस परीक्षण विधानसभा  चुनावों में होगा। 

लोकसभा चुनाव तक तो खैर यह कानून जिसे अभी लागू होना ही नहीं है, पास हुए भी 6 महीने से अधिक का लंबा वक्त बीत चुका होगा, इसलिये तब तक जनता की याद और voting behaviour पर इसका असर और भी संदिग्ध है, सच तो यह है कि यह कानून  आसन्न विधानसभा चुनाव भी भाजपा को जितवा देगा, इसे लेकर भाजपा नेतृत्व भी शायद ही आश्वस्त हो! 

कांग्रेस तथा मंडलवादी दलों के बीच अतीत में इस प्रश्न पर तीखे मतभेद के इतिहास के मद्देनजर, भाजपा रणनीतिकारों को सम्भवतः यह उम्मीद रही होगी कि महिला आरक्षण पर  INDIA गठबंधन के अंदर गम्भीर मतभेद उभर आएंगे और बिखराव बढ़ेगा।

पर आश्चर्यजनक ढंग से, ऐसा तो नहीं ही हुआ। उल्टे पूरे INDIA ब्लॉक ने एकजुट होकर एकसुर में बोलते और stand लेते हुए इस पूरे मामले पर विमर्श की दिशा ही मोड़ दी। 

दरअसल 1996 की तुलना में जब यह बिल पहली बार संसद में आया था या 2010 में जब यह राज्यसभा में भारी हंगामे के बीच पारित होने के बाद लोकसभा में पेश नहीं हो पाया था, आज राजनीतिक संदर्भ बिल्कुल बदला हुआ है और बुनियादी रूप से एकदम नए तरह की चुनौतियां सामने हैं। साथ ही बदलते समय के साथ ऐसा लगता है तमाम राजनीतिक दलों की इन प्रश्नों पर नीति और अनभूति बदली है, वे अपनी  रणनीति में बदलाव कर रहे हैं।

कांग्रेस ने जहाँ OBC प्रश्न को नए ढंग से address करना शुरू किया है, उसने महिला आरक्षण बिल का समर्थन करते हुए भी अपने पुराने स्टैंड से एक कदम पीछे हटते हुए पिछड़े समुदाय के concern को एड्रेस किया और ' quota within quota " की मांग का समर्थन किया, वहीं कथित मंडलवादी दल भी कोटा की मांग पर कायम रहते हुए, इसे pre-condition बनाने की जिद से पीछे हटते हुए बिल के समर्थन में खड़े हो गए। इस तरह पूरा INDIA ब्लॉक एक प्लेटफार्म पर आ गया।

INDIA ब्लॉक के इस एकजुट स्टैंड ने महिला आरक्षण के नैरेटिव को नया spin दे दिया। बात मोदी राज में सरकारी विभागों में ओबीसी सचिवों की संख्या, लैटरल एंट्री, तमाम नौकरियों के आरक्षण प्रावधानों में पिछडों-दलितों के खिलाफ भेदभाव, भाजपा द्वारा दिये गए EWS कोटा की संवैधानिकता पर बहस तक पहुंच गई। इन पर बहस के दौरान संसद में भाजपा को जिस तरह defensive होना पड़ा, वह आने वाले दिनों में इस प्रतिस्पर्धा में विपक्ष के upper hand का संकेत है। पिछड़े आरक्षण की जरूरत को रेखांकित करने के लिए राहुल गांधी ने जब मोदी सरकार के तमाम विभागों में 90 में केवल 3 OBC secretaries की , जिनके under में केंद्रीय बजट का केवल 5% है, सवाल उठाया तो अमित शाह सफाई में अपनी पार्टी के ओबीसी MP, MLA की संख्या गिनाने लगे! आने वाले दिनों में जाति-जनगणना, जिसका भाजपा विरोध कर रही है तथा हाशिये के तबकों के लिए आरक्षण सीमा बढ़ाने की मांग के साथ जुड़कर यह बहस और तेज होती जाएगी।

दरअसल, संघ-भाजपा की जो घोर पितृसत्तात्मक सोच है- संघ महिलाओं को मूलतः गृहिणी की भूमिका में देखता है- तथा महिला प्रश्न पर-उन्नाव, हाथरस, कठुआ, बिलकीस बानो और महिला पहलवानों के हालिया प्रकरण तक उसकी सरकार और हिंदुत्व ब्रिगेड का जो ट्रैक रेकॉर्ड है, उसके चलते सामाजिक-राजनीतिक जीवन में महिला दावेदारी के प्रश्न पर उसकी नीयत और इरादा तो हमेशा ही संदिग्ध रहा है।

कांग्रेस नेता गुरुदीप सिंह सप्पल ने, जो तब संसद में अधिकारी के बतौर उस पूरी प्रक्रिया में involve थे, हाल ही में बताया कि UPA शासन में 2010 में राज्यसभा से पारित महिला आरक्षण तब भाजपा द्वारा हाथ खींच लेने के कारण लोकसभा में पेश नहीं हो सका था। तब से 2014 तथा 19 में अपने घोषणापत्र में  वायदे और लोकसभा में प्रचण्ड बहुमत के बावजूद साढ़े 9 साल तक भाजपा उस पर कुंडली मारकर बैठी रही।

अब 9 साल की नीम खामोशी के बाद अचानक वह जगी और लंबे समय से धूल फांक रहे बिल को झाड़ पोंछ कर अपना बनाकर अपने दस साला कार्यकाल की आखिर में  हड़बड़ी में ले कर आयी। पर, सभी दलों के overwhelming समर्थन से पारित हो जाने के बाद भी census व delimitation की शर्त लगाकर उसने इसके क्रियान्वयन को अनिश्चित काल के लिए लटका दिया।

अगर राज्यसभा में पारित पिछले बिल की तरह नए कानून में ये शर्तें न होतीं तो 2024 के आम चुनाव में महिला आरक्षण हकीकत बन जाता।

आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया ?

इसका मोदी-शाह के पास कोई convincing justification  नहीं हैं।

इससे केवल और केवल एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह आसन्न विधानसभा चुनावों तथा 2024 के आम चुनाव को साधने के लिए महिला आरक्षण पास कराने का श्रेय तो लूटना चाहती है, पर उसके सचमुच लागू होने की राजनीतिक संभावना से भयभीत है और उसे अनियतकाल तक टालना चाहती है।

जाहिर है इस पूरे घटनाक्रम से महिला प्रश्न पर भाजपा की साख में  कोई चार चाँद नहीं लगा है, उल्टे इसने उसकी पूरी नीयत को और संदिग्ध बना दिया है।

कहने की जरूरत नहीं कि महिला आरक्षण की जमीन तैयार करने और उसके पक्ष में सामाजिक-राजनीतिक दबाव  बनाने का श्रेय प्रगतिशील महिला आंदोलन को जाता है जिसने संघ-भाजपा जैसों की मदद से नहीं बल्कि उनकी घोर पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ लड़ते हुए यह सम्भव किया। महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सवाल पर एक ओर INDIA गठबंधन के दलों द्वारा पंचायत में उन्हें आरक्षण देने से लेकर राज्यसभा से पारित करवाने का ट्रैक रिकॉर्ड है, दूसरी ओर से संघ-भाजपा के खाते में महिलाओं को चौखट के भीतर कैद रखने वाला दकियानूसी सोच, उसकी सरकारों और हिंदुत्व ब्रिगेड के महिला विरोधी कारनामे और अंततः महिला आरक्षण के क्रियान्वयन से विश्वासघात !

इस प्रश्न पर उभरता राष्ट्रीय विमर्श तो यही संकेत कर रहा है कि भाजपा महिला आरक्षण का कोई सकारात्मक श्रेय हथियाने में तो कामयाब नहीं ही हुई, उल्टे इसे टालने की साजिश और ओबीसी सवाल ने उसे कठघरे में ही खड़ा कर दिया।

विधानसभा चुनावों में भाजपा को इससे लाभ तो शायद ही हो, उल्टे नुकसान हो सकता है। सबसे बड़े चुनावी राज्य मध्यप्रदेश की कभी उनकी फायर ब्रांड नेता रहीं, पिछड़े समुदाय से आने वाली पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती तथा भाजपा के सबसे पुराने सहयोगी रहे अकाली दल की  हरसिमरत कौर बादल की ललकार भाजपा के शीर्ष नेताओं को हवा का रुख बताने के लिये काफी है। INDIA में विभाजन की मंशा तो पूरी नहीं हुई, भाजपा कैम्प में ही दरार दिख रही है।

विशेष सत्र का यह विशेष नुस्खा तो मोदी जी को राजनीतिक भंवर से निकालने में कामयाब नहीं हो पाया। आने वाले दिनों में देश को उनके जादुई पिटारे से और बड़े ' surprises ' के लिए तैयार रहना चाहिए।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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