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दो साल से कैद आनंद तेलतुंबड़े के जीवन के सबसे मार्मिक पल

आनंद ने न्यायपालिका से अपने खिलाफ़ लगाए गए घृणित और गलत आरोपों को रद्द करने की गुहार लगाई है।
Reflecting on the Most Poignant Moments of Last Two Years During Anand’s Incarceration

रमा तेलतुंबडे आंबेडकर लिखती हैं- मैंने और आनंद हमारे दुख को एक-दूसरे के सामने जाहिर नहीं करते हैं। कम से कम उन दस मिनटों तक तो कतई नहीं, जब हम हफ़्ते के आखिर में एक-दूसरे से मिलते हैं।

यह आंबेडकर जयंती 2022 पर हमारे मुख्य मुद्दों की विशेष श्रृंखला है।

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आनंद और मेरी शादी 19 नवंबर 1983 को हुई थी। यह एक पारंपरिक शादी थी, जो हमारे एक साझा और अहम दोस्त ने तय करवाई थी।

मैंने 37 साल तक गृहणी का किरदार निभाया, अपनी दो बच्चियों को बड़ा किया, उनकी जरूरतों को देखा और हमारे घर को प्रबंधित किया। यह आनंद को सहारा देने का मेरा तरीका था, जो घर-परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर अपने पेशेवर जिंदगी और उन सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर सकते थे, जिनके लिए वे प्रतिबद्ध थे। जब वे एक पेशेवर जिंदगी और सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका के बीच जद्दोजहद कर रहे होते थे, तब भी मेरी बेटियों के लिए शानदार पिता रहे। उन्हें जिन भी चीजों की जरूरत पड़ी, वे हर समय उन्हें उपलब्ध करवाने के लिए मौजूद रहे।

अगर मैं कुछ साल पहले की बात करूं, तो मेरे दिन बेसिर-पैर की चिंताओं, टेनिस खेलने वाली अपनी छोटी बेटी के साथ घूमते हुए, उसकी जीत का जश्न मनाते और उसकी हार में उसे सांत्वना देते हुए, अपनी दूसरी बेटी का परीक्षा की रातों में देर रात तक जागने में साथ देते हुए, उसकी पसंद का खाना बनाते हुए, उसे दिशा देते हुए और उनके युवा होने तक उनके साथ रहते हुए बीत रहे थे।

आज 66 साल की उम्र में जब ज़्यादातर महिलाएं या तो सेवानिवृत्ति का आनंद लेती हैं या फिर अपने सेवानिवृत्त साथी के साथ शांतिप्रिय जीवन बिताती हैं, तब मेरी ज़िंदगी में पूरा बदलाव आ गया है। इसने मुझे अपने जीवन के एक और पहलू से परिचित करवाया है, जिसकी मौजूदगी के बारे में मुझे पता तक नहीं था।

शुरुआत

हमारी जिंदगी ने तब करवट ली, जब गोवा में हमारे घर पर, हमारी गैरमौजूदगी में पुलिस ने छापा मारा। हालांकि मैंने बाहर से शांत रहने की कोशिश की, ताकि मैं अपने परिवार को सहारा दे सकूं, लेकिन मुझे उस वक़्त बहुत असहज महसूस हुआ। जब टीवी स्क्रीन पर मेरे पति और हमारे घर की तस्वीरें चलीं, तो मैंने अपने पति और बेटियों को पीछे छोड़ते हुए, मुंबई से गोवा की फ्लाइट ली। मैं देखना चाहती थी कि बिना नोटिस कुछ अजनबियों के समूह द्वारा हमारे निजी निवास में घुसने के बाद पीछे क्या बचा है। इसके बाद हमारे वकील के साथ मैं पास के पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराने गई।

मैं रास्ते में अपनी कार के भीतर शांत रही, मैं खुद से कहती रही कि मेरे पति और मुझे किसी चीज से डरने की जरूरत नहीं है। हम कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं, हमने एक ईमानदार ज़िंदगी जी है, तो ऐसी कोई वज़ह नहीं है, जिससे वंचित तबके की बेहतरी के लिए अथक काम करने वाले मेरे पति को कोई नुकसान पहुंचेगा। मुझे अंदाजा ही नहीं था कि पुलिस थाने जाने की यह पहली यात्रा, एक लंबे और कठोर कानूनी संघर्ष की शुरुआत भर है, जिसका कोई अंत आज भी दिखाई नहीं दे रहा है।

हम कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं, हमने एक ईमानदार ज़िंदगी जी है, तो ऐसी कोई वज़ह नहीं है, जिससे वंचित तबके की बेहतरी के लिए अथक काम करने वाले मेरे पति को कोई नुकसान पहुंचेगा।

उस प्रसंग के बाद, हमारी जिंदगी में अकल्पनीय बदलाव आए। लेकिन आनंद अपनी ज़िंदगी में कभी एक पल के लिए भी खाली नहीं बैठे और वे अपने परिवार से भी इसकी अपेक्षा रखते थे। उन्होंने अपना शिक्षण जारी रखा और छात्रों की जो भी मदद हो सकती थी, हमेशा की तरह वो जारी रखी। मैं इसकी प्रशंसा करती हूं कि कुछ दिन पहले जो हुआ था, जिसका मक़सद उन्हें डराना था, इसके बावजूद भी वे उससे प्रभावित नज़र नहीं आते थे। उन्होंने अपने आत्मसमर्पण से पहले, आखिरी रात तक काम करना जारी रखा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके साथी शिक्षक और छात्र उनकी अनुपस्थिति से प्रभावित ना हों, वह अनुपस्थिति जिसकी मियाद के बारे में कुछ अता-पता ही नहीं है।

हालांकि हमने पहले की तरह ही रहने की कोशिश की, लेकिन साफ़ था कि हमें अपनी ज़िंदगी के कलेंडर में नई चीजों को जोड़ने की जरूरत थी। अब हमें कोर्ट की तारीख़ों का ध्यान रखना पड़ता था। आनंद ने अपने खिलाफ़ लगाए गए भद्दे और गलत आरोपों को रद्द करवाने के लिए कोर्ट का रुख किया। यह देखना बेहद अपमानजनक था कि आनंद पर यूएपीए के तहत आरोप लगाए गए थे, जो सबसे क्रूर और अलोकतांत्रिक कानून है। 70 साल के आनंद, जो एक पति, पिता, बेटे, पेशेवर, प्रोफ़ेसर, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं, उन्हें इस कानून के तहत गिरफ़्तार किया गया, जो सबसे क्रूर आतंकियों के लिए बनाया गया था।

14 अप्रैल, 2020

मेरे पास वो शब्द ही नहीं है कि 14 अप्रैल 2020 के बारे में मुझे क्या महसूस होता है, उसे बता सकूं। एकबारगी तो वह दिन निकल गया, लेकिन तबसे हर दिन उस दिन की यादें सामने खड़ी रहती हैं। 2020 से पहले 14 अप्रैल हमेशा मेरे लिए एक खुशी का दिन रहा है, क्योंकि उस दिन हमारे दादा डॉ बी.आर.आंबेडकर की सालगिरह होती है। जितने सालों तक मैं मुंबई में रहीं, मैं कभी चैत्यभूमि जाना और भारत व दुनिया में लाखों लोगों की ज़िंदगी को छूने वाले महान व्यक्ति की मूर्ति के सामने मोमबत्ती लगाना नहीं भूली।

आनंद ने अपने खिलाफ़ लगाए गए भद्दे और गलत आरोपों को रद्द करवाने के लिए कोर्ट का रुख किया। यह देखना बेहद अपमानजनक था कि आनंद पर यूएपीए के तहत आरोप लगाए गए थे, जो सबसे क्रूर और अलोकतांत्रिक कानून है। 

जैसे ही उस दिन रात के 12 बजे, आनंद अपने सफ़ेद कुर्ता-पजामा में तैयार थे और राजगृह में एक स्मृति केंद्र जाने के लिए मेरा इंतज़ार कर रहे थे। जब वे मोमबत्ती जला रहे थे, जब बाबा साहब की अस्थियों के कलश के सामने झुक रहे थे, तब उनके चेहरे पर उनकी चिर-परिचित मुस्कान थी। मैंने भी उस परंपरा का निर्वाहन किया, लेकिन कुछ घंटों बाद जो हुआ, मेरा दिमाग तबसे उन्हीं यादों पर केंद्रित है।

14 अप्रैल 2020 की घटनाएं, पिछले सालों में इस दिन की सभी अच्छी यादें मिटा गई। तबसे 14 अप्रैल का दिन उस तीव्र दर्द के शुरुआत की याद दिलाता है, जो हम हर पल महसूस करते हैं। मैं उनके साथ एनआईए कार्यालय गई, जहां उन्होंने कोर्ट के आदेशानुसार आत्मसमर्पण किया।

जब वे कोर्ट में जा रहे थे, तब भी वे पूरी तरह शांत थे। वे अपने बारे में चिंतित नहीं थे, उन्हें अपनी मां की चिंता थी, जब तक वे अपने फोन का इस्तेमाल कर सकते थे, वे अपनी बेटियों से बात करते रहे। उन्होंने अपनी बेटियों से साहसी बनने, एक अच्छा और ईमानदार जीवन जीने को कहा, आनंद ने उन्हें भरोसा दिलाया कि सबकुछ ठीक हो जाएगा और बिलखती बेटियों को दिलासा दिया।

उस दिन जो हुआ, वह मेरे पति के साथ क्रूर नाइंसाफ़ी के दौर, मेरे और मेरी बेटियों के लिए बेइंतहा दर्द के दौर की शुरुआत थी, जो हर गुजरते दिन के साथ असहनीय होता जाता है।

कोविड महामारी

वैश्विक स्तर पर कोविड महामारी के दौर ने एक अभूतपूर्व मानवीय संकट को जन्म दिया। मेरे लिए, यह कई स्तरों पर अकल्पनीय संघर्ष लेकर आय़ा। मैं पूरी तरह अकेली थी, मेरे पति जेल में थे और मेरी बेटियां मुझसे दूर थीं, जो यात्राओं पर लगे प्रतिबंधों के चलते मेरे पास नहीं आ सकती थीं। आनंद के सरेंडर के बाद से मैं पूरी तरह अपने भरोसे ही रह रही हूं, मैं वह सबकुछ करने की कोशिश कर रही हूं, जिससे उनका दर्द जल्द से जल्द खत्म हो जाए, कई बार मेरे दिमाग में बेहद डराने वाले ख़्याल आते हैं।

72 साल की उम्र में जब लोगों को देखभाल के लिए उनके बच्चों की जरूरत होती है, जब वे अपने परिवार से घिरे होते हैं, तब मेरा और आनंद का संघर्ष पूरी तरह अलग है। और इसका आधार सिर्फ़ एनआईए द्वारा कोर्ट को सुनाई गई एक कहानी भर है, जिसके तथ्यों की पुष्टि होना बाकी है।

जब नया वेरिएंट देश में सामाजिक दूरी और लॉकडाउन के बावजूद कहर बरपा रहा था, तब टीवी पर खबरें देखना मुश्किल हो गया। इस सबके बीच जब आनंद जेल में थे, एक ऐसी जगह जो अपनी क्षमता से तीन गुना ज़्यादा भरी है, तब लोग दुनियाभर में एकांत और इसके दौरान मानसिक स्वास्थ्य की चर्चा कर रहे थे, तब मैं अकेली बैठी आनंद के स्वास्थ्य की चिंता करते हुए सोच रही थी कि हमारे साथ ये क्या हो गया! आनंद अस्थमा के चलते श्वसन समस्याओं से जूझ रहे हैं, जैसे ही मुझे कोविड का ख़्याल आता, मैं सहम जाती।

कहने की जरूरत नहीं है कि जेल के भीतर रहने वालों के मानसिक स्वास्थ्य पर कोई चर्चा नहीं करता, वे लोग अपने करीबियों से कोविड महामारी जैसे हालातों में भी दूर रहे। कोविड लॉकडाउन ने हम परिवारों से वह छोटी सी सहूलियत भी छीन ली, जिसके दौरान हम जेल में बंद अपने करीबियों से "मुलाकात" के दौरान थोड़ी सी देर के लिए मिल सकते थे। इसके बदले में हर हफ़्ते दस मिनट की वॉट्सऐप कॉल का प्रबंध किया गया। मैं यह सुनिश्चित करती कि मेरा फोन सबसे तेज आवाज में बज सके, अक्सर मैं चेक करती कि हमारे वाईफाई मॉडम का कनेक्शन तो सही है ना। मैं आनंद से बात करने का मौका छोड़ना नहीं चाहती थी।

अक्सर मेरे दिन इन अनियमित साप्ताहिक फोन कॉल के आसपास घूमते थे। इसके बाद मैं अपनी बेटियों को फोन कर आनंद के बारे में बताती, क्योंकि उन्हें फोन नहीं लगाया जा सकता था।

एक साधारण वीडियो कॉल की विलासिता भी सिर्फ मुझे ही उपलब्ध थी, जबकि बाकी परिवार को उनसे पत्रों के जरिए संपर्क करना पड़ता था। कई बार इन पत्रों को कई दिनों तक रोक लिया जाता था, क्योंकि प्रशासनिक अधिकारी इन निजी पत्रों को पढ़ना चाहते थे। हमारी स्थिति इतनी बदतर थी कि हमें इस छोटी सी दया पर भी संतोष था।

आनंद अपने पेशेवर काम के सिलसिले में बहुत यात्राओं पर रहे हैं, लेकिन कहीं भी वे हमें दिन में एक बार कॉल करना नहीं भूलते। खासकर उन दिनों में जब उनकी बेटी की परीक्षाएं होतीं। वो कभी उन्हें शुभकामनाएं देना नहीं भूलते। लेकिन अब दो साल हो चुके हैं और वे अपनी बेटियों से बात तक नहीं कर पाए हैं।

उनके मुक़दमे की सुनवाई चल रही है, उन्हें बेहद क्रूर यूएपीए में गलत सबूतों के ज़रिए फंसाया गया है। 72 साल की उम्र में जब लोगों को देखभाल के लिए उनके बच्चों की जरूरत होती है, जब वे अपने परिवार से घिरे होते हैं, तब मेरा और आनंद का संघर्ष पूरी तरह अलग है। और इसका आधार सिर्फ़ एनआईए द्वारा कोर्ट को सुनाई गई एक कहानी भर है, जिसके तथ्यों की पुष्टि होना बाकी है।

साप्ताहिक मुलाकात

जब महामारी की स्थिति थोड़ी ठीक हुई, तो साप्ताहिक मुलाकात वापस चालू हुईं। हफ़्ते में एक बार यह मुलाकात होती हैं, जो दस मिनट तक चलती हैं। मैं अपने घर से एक घंटे की यात्रा कर, पंजीकरण के लिए पंक्ति में लगती हूं, इसके बाद मुलाकात के लिए अपनी बारी आने का इंतज़ार करती हूं। मेरे इंतज़ार के घंटे एक से लेकर चार घंटे तक हो सकते हैं। मैं इतना सब सिर्फ़ आनंद की एक झलक पाने के लिए करती हूं, जो एक धुंधली पाइरेक्स स्क्रीन के परे दिखाई देती है। वहां से उनकी आवाज़ इंटरकॉम के ज़रिए मुझ तक आती है। हमारी उम्र में अपनी कमज़ोर आवाज में हम ज़्यादा से ज़्यादा बातचीत समझने की कोशिश करते हैं, क्योंकि बाकी के कैदी भी अपने करीबियों से तेज आवाज में बात कर रहे होते हैं। वह भी उस दिन का लंबा इंतज़ार करते हैं, जब मैं उनसे मिलने जाती हूं। मैं ही उन्हें बाहरी दुनिया की खबर देती हूं, जिससे वे पिछले दो साल से कटे हुए हैं।

हर गुजरते दिन और कोर्ट सुनवाई के साथ (जो अगली सुनवाई तक पहुंचती है), हमें ऐसा लगता है कि कोई भी हमारे साथ हो रहे अन्याय को नहीं समझता, जिसने आज हमें इस स्थिति में पहुंचा दिया है।

ज़्यादातर लोगों की तरह जेल में मुलाकात की मेरी कल्पना फिल्मों की तरह ही थी। मैं यह निश्चित तौर पर कह सकती हूं कि फिल्मों में आसानी से दोनों पक्षों द्वारा सहे जाने वाले अपमान को हटा दिया जाता है।

उन मुलाकातों के दौरान हम हाथ नहीं पकड़ सकते, या एक दूसरे को गले तक नहीं लगा सकते। लेकिन हम एक-दूसरे के सामने अपने दर्द को छुपाने में अच्छे बन चुके हैं। कम से कम उन दस मिनटों तक तो ऐसा होता है।

आनंद और मैं, मार्च 2020 तक एक आरामदेह और सम्मानित जीवन जी रहे थे, हमने कभी अपनी कल्पनाओं में भी नहीं सोचा था कि हम नियमित ढंग से एक दूसरे से इस तरीके से मिलने को मजबूर होंगे।

जहां तक मेरी बेटियों की बात है, वे हर हफ़्ते उन्हें खत लिखती हैं और आनंद तेजी से उन्हें जवाब देते हैं। अपने हर खत में आनंद बेटियों को मजबूती और साहस देने की कोशिश करते हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे 14 अप्रैल, 2020 को आनंद ने किया था।

ऐसा लगता है कि आनंद और मैं, हमारी जिंदगी थम सी गई है। कई मौकों पर मुझे लगता है कि मैं इस बुरे सपने से जाग जाऊंगी और मैं बॉलकनी में खड़े होकर, अख़बार के साथ सुबह की चाय के लिए आनंद का इंतज़ार कर रही होऊंगी। लेकिन हर गुजरते दिन और कोर्ट सुनवाई के साथ (जो अगली सुनवाई तक पहुंचती है), हमें ऐसा लगता है कि कोई भी हमारे साथ हो रहे अन्याय को नहीं समझता, जिसने आज हमें इस स्थिति में पहुंचा दिया है। शायद उन्हें समझ में नहीं आता कि ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है।

(रमा तेलतुंबड़े आंबेडकर, डॉ आनंद तेलतुंबड़े की पत्नी और डॉ. बी.आर. आंबडेकर की पोती हैं।)

साभार: द लीफलेट

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:

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