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एंटीलिया प्रकरण : पुलिस अराजकता का नतीजा!

ऐसा लग रहा है जैसे मुंबई में ‘जाने भी दो यारो’ जैसी कोई कहानी वास्तविक शक्तियों और सच्ची ज़िन्दगी के पात्रों द्वारा नाटकीय ढंग से मंचित की जा रही है।
Antilia Case
एंटीलिया के बाहर मिली संदिग्ध गाड़ी और गिरफ़्तार पुलिस अधिकारी सचिन वाज़े। फोटो साभार : गूगल

अविश्वसनीय घटनाएं घटित हो रही हैं मुंबई में। असल ज़िन्दगी बॉलीवुड फिल्म की तरह लगने लगी है। ऐसा लग रहा है जैसे जाने भी दो यारोजैसी कोई कहानी वास्तविक शक्तियों और सच्ची ज़िन्दगी के पात्रों द्वारा नाटकीय ढंग से मंचित की जा रही है। एक ऐसे प्रयास में, जो ज़ाहिरा तौर पर बचकाना लगता है, 25 फरवरी 2021 को मुकेश अंबानी के घर एंटीलिया के पास एक स्कॉर्पियो गाड़ी जिलेटिन की छड़ों के संग पाई गई। अंबानी के अपने सुरक्षाकर्मियों ने पुलिस को सूचित किया कि एसयूवी के अंदर एक धमकी-भरा पत्र भी मिला था, जिसमें मुकेश और उनकी पत्नी नीता को जान से मारने की धमकी दी गई थी।

यह देखते हुए कि 300 रुपये की जिलेटिन छड़ें इस्तेमाल की गई थीं, जो कोई भी निर्माण मजदूर कुआं खोदने या पहाड़ तोड़ने के लिए प्रयोग करता है, पर न ही रिमोट डिटोनेटर था न टाइमर, केंद्र की पेशेवर खुफिया व अन्य सुरक्षा एजेंसियों ने शुरू से ही इसे गंभीर मामला न मानते हुए केवल एक बम-स्केयरही समझा। वे इसे मुकेश अंबानी की जान पर हमले का गंभीर प्रयास नहीं मान रहे थे।

परन्तु घटना की रिपोर्ट ने पूरे देश ही नहीं विदेश तक में चिंता की लहर दौड़ा दी। यदि यह मुकेश अंबानी की जान पर खतरा था, तो भारत के सबसे धनवान व्यक्ति और विश्व के आठवें धनी व्यक्ति पर ऐसा खतरा, खेल की बात नहीं है। यदि ऐसे कॉरपोरेट घरानों के मालिकों के मामले में सुरक्षा प्रबंध में ढिलाई अन्य देशों में होती तो सरकारें गिर जातीं। उद्धव ठाकरे जैसे दबंग मुख्यमंत्री हों या फिर मोदी जैसे ताकतवर नेता, कोई भी बच नहीं सकता था।

बाद में मामला अधिक गंभीर बन गया। जब कार की डिटेल मीडिया द्वारा साझा की गईं तो थाणे के मनसुख हिरेन नाम के ऑटो स्पेयर पार्ट्स डीलर ने आगे बढ़कर अपने को गाड़ी का मालिक बताया। उसने यह भी दावा किया कि उसकी गाड़ी चोरी हो गई थी और उसने इस मामले में 18 फरवरी 2021 को प्राथमिकी दर्ज करवाई थी। यह अजीब बात है कि यह दावा करने के बाद, 5 मार्च को, वह मृत पाया गया और उसका शव एक नदी (creek) किनारे से बरामद किया गया।

महाराष्ट्र एटीएस ने दावा किया कि हिरेन की हत्या का केस सुलझा लिया गया था और एक सट्टेबाज़ यानी बुकी नरेश धरे और निलंबित मुंबई पुलिस कांस्टेबल विनायक शिन्दे को गिरफ्तार भी कर लिया गया। यहां बताना जरूरी है कि शिन्दे स्वयं एनकाउंटर विशेषज्ञ है, जिसे लखनभय्या एनकाउंटर केस में आजीवन कारावास होने के बाद पैरोल पर छोड़ा गया था। पर एनआईए, जिसे केंद्र ने जांच का दायित्व सौंपा था, ने सचिन वाज़े को गिरफ्तार कर लिया। कौन है ये शख्स? सचिन वाज़े भी मुंबई पुलिस के क्राइम ब्रांच के क्राइम इंटेलिजेंस यूनिट के प्रमुख और एनकाउंटर विशेषज्ञ हैं। यही नहीं, वह महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख, एनसीपी और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के नज़दीकी माने जाते हैं।

केस को उस समय एकतरफा ढंग से केंद्र द्वारा एनआईए को सौंपा जाना जब मुंबई पुलिस की एटीएस (ATS) उसकी जांच में लगी हुई थी, सवाल खड़े कर रहा था और उद्धव ठाकरे ने शिकायती अंदाज़ में कहा,‘‘ जिस तरह से केंद्र ने केस एनआईए को सौंपा है, उससे लगता है दाल में कुछ काला है। पर क्योंकि मामला संवेदनशील था और मुकेश अंबानी जैसी एक शक्तिशाली शख्सियत से संबंधित था, सरकार ने तत्कालीन मुंबई पुलिस कमिश्नर परमवीर सिंह को किसी छोटे पोस्ट पर, होमगार्ड्स का जिम्मा देकर, स्थानांतरित कर दिया। गुस्से में परमवीर सिंह ने मुख्यमंत्री को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि गृह मंत्री अनिल देशमुख ने सचिन वाज़े से कहा था कि वह हर महीने मुंबई के 1750 बार, रेस्त्रां व अन्य व्यापारिक संस्थानों से 100 करोड़ हफ्ताकी वसूली करे। इस पत्र को सार्वजनिक भी कर दिया गया। इस विस्फोटक आरोप ने शिवसेना के नेतृत्व वाले शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की महा विकास अघाड़ी गठबंधन सरकार को बुरा झटका दिया। गठबंधन में दरारें सामने आने लगीं और सरकार के सर्वाइवल पर ही प्रश्नचिह्न लग गया। भीतर से आवाज़ें उठने लगीं कि अनिल देशमुख इस्तीफा दें। अनिल देशमुख के बारे में विचार करने हेतु गठबंधन पार्टनरों की बैठक भी 22 मार्च 2021 को आहूत की गई, पर एनसीपी अड़ गयी कि देशमुख किसी भी हालत में इस्तीफा नहीं देंगे।

यदि मान भी लिया जाय कि घटना महज एक बम दहशत ही थी, आखिर किसने ऐसा किया होगा? ऐसे खतरनाक ड्रामे के पीछे मकसद क्या रहा होगा? महा विकास अघाड़ी ने आरोप लगाया कि पूरा मामला केंद्र द्वारा रचा गया एक षडयंत्र है जिससे राज्य में राष्ट्रपति शासन थोप दिया जाए। मीडिया और जनमत ढेर सारे अटकलबाज़ियों से घिर गये। क्या इस दुस्साहसी कार्य के लिए प्रेरणा उद्धव ठाकरे सरकार की ओर से आई, क्योंकि वह केंद्र को चेतावनी देना चाहती थी कि मोदी के चहेतेभी सुरक्षित नहीं हैं? पर यह भी सोचने की बात है कि क्या उद्धव ठाकरे इतने मूर्ख हैं कि अपनी ही नय्या को डोलाने लगेंगे? या कि प्रेरणा केंद्रीय एजेंसियों से आई और क्या सचिन वाज़े भी उनके हाथों की कठपुतली बन गया था तथा ठाकरे सरकार को गिराने की योजना का हिस्सा बन गया था? ऐसे देखने पर प्रश्न रह जाता है कि केंद्रीय एजेंसियां क्या इतनी अपरिपक्व हैं कि वे अंबानी की सुरक्षा के मामले को अपने घृणित खेल का हिस्सा बनाने से नहीं हिचकेंगी? फिर यह भी संभावना है कि केंद्रीय खुफिया एजेंसियां अपने से ही ऐसा कदम उठाने लगीं। जो भी हो, ऐसा मूर्खतापूर्ण कदम दोनों सरकारों के लिए भारी पड़ता। तो किसकी करतूत थी यह और क्या मकसद था इसका यह देखना बाकी है।

ऐसे सनसनीखेज घटनाक्रम के पीछे की राजनीतिक पृष्ठभूमि कुछ चिंताजनक सवाल पेश करती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा की पूर्व गठबंधन पार्टनर, शिवसेना के एनडीए से अलगाव ने न केवल भगवा प्रतिष्ठान में सीधा विभाजन पैदा कर भाजपा को महाराष्ट्र में सरकार नहीं बनाने दिया, उसने एक शक्तिशाली विपक्ष की गठबंधन सरकार के महाराष्ट्र जैसे प्रमुख राज्य में उदय को भी संभव बनाया। शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे केंद्र के भाजपा नेतृत्व से कहीं ज्यादा आक्रामक भी रहे हैं। हमने देखा था कि सुशांत सिंह-रिया चक्रवर्ती मामले में महाराष्ट्र एटीएस और केंद्रीय खुफिया एजेंसियों के बीच संघर्ष घृणित रूप धारण कर रहा था। क्या महाराष्ट्र का सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान का केंद्र के साथ जैसे-को-तैसावाला युद्ध साधारण संघीय संघर्ष की हदों को पार कर विद्रोही स्वरूप धारण कर रहा था? क्या यह संघीय संघर्ष एक सिविल वार का रूप धारण कर रहा था और दोनों ओर से कानूनी दायरे को लांघकर घृष्ट (reckless) कार्यवाहियों तक उतरने का सिलसिला शुरू हो गया है? आगे आने वाला समय ही इन सवालों का जवाब प्रस्तुत करेगा।

पर इससे भी गंभीर सवाल हैं, जो चिंताजनक भी हैं। यदि सचिन वाज़े सचमुच असल अपराधी साबित हो जाता है, तो हमें सोचना होगा कि कैसे कानून का धड़ल्ले से उल्लंघन करने वाले अपराधी दुष्ट (criminal rogue) लोग कैसे पुलिस प्रतिष्ठान के भीतर से जन्म लेते हैं। यह सचमुच हैरत की बात है कि देश के सबसे बड़े कॉरपोरेट प्रमुख की जान को खतरा- या यूं भी कहें कि- नाटकीय बम दहशत कांड उस मुख्य कानून लागू करने वाली एजेंसी के भीतर से अंजाम दिया गया जिसका काम है उनकी सुरक्षा की गारंटी करना। क्या कुछ चल रहा है? क्या भारत में संघीय राज्य ढांचा नाइजीरिया या पाकिस्तान जैसे देशों वाले टिन-पॉट तानाशाही (tin-pot dictatorsip) की स्थिति तक गिर चुका है? इन देशों में सत्ता की बागडोर धूर्त तत्वों के हाथ में होती है, जैसे आईएसआई, और ये अपने ढंग से काम करते हैं। लगता है यहां भी केंद्र और राज्य का राजनीतिक नेतृत्व अपने अराजक अधिकारियों पर काबू नहीं रख पा रहा है।

जो लोग मुंबई पुलिस के इतिहास से नज़दीकी से वाकिफ हैं, वे बेहतर जानते हैं कि पुलिसिया अपराध हमेशा से ही उसके कार्यकलापों के केंद्र मे रहा है; इसका सबसे बड़ा सबूत है उनके ढेर सारे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट। कांग्रेस और भाजपा एक दूसरे पर आतंकी कार्यवाहियोंके मंचन प्रायोजित करने का आरोप लगाते रहे हैं। वैसे भी राज्य की गैरकानूनी गतिविधिया हमेशा से सरकारी नीति और व्यवहार का हिस्सा रही हैं, चाहे वह राज्य स्तर पर हो या केंद्र के स्तर पर। यह भी सही है कि पश्चिमी जगत में भी सीआईए और एफबीआई जैसी सरकारी खुफिया एजेंसियां राजनीतिक हत्याओं और अतिरिक्त-न्यायिक हत्याएं (extra-judicial killings) के लिए जानी जाती हैं। पर एक फर्क है-भारत में सरकारी कानूनी अराजकता को अंजाम देने वाले स्वायत्त धूर्त तत्व (autonomous rogue elements) हैं, जो राजनीतिक नेतृत्व के संपूर्ण कंट्रोल के लिए जवाबदेह नहीं रहते हैं। यह एक दुधारी तलवार की भांति है, जो कभी भी उल्टी प्रतिक्रिया दे सकती है, और कई बार ऐसा हुआ भी है। वैसे भी, जो लोग डीजी वंजारा और दया नायक सरीखों को संचालित करते हैं वे आज रजनीतिक नेतृत्व के शीर्ष पर बैठे हैं। कोर्ट पुलिस के आला कमान को बीच-बीच में अराजक गतिविधियों के लिए दोषी ठहराते रहते हैं, पर इसका कोई असर नहीं होता।

पुलिस सुधार की आवश्यकता

पुलिस आपराधिक गतिविधियां ही पुलिस सुधार की जरूरत को इंगित करती हैं। पर भारत में पुलिस सुधार का माखौल बन चुका है। न जाने कितने आयोग पुलिस कार्यपद्धति को बेहतर बनाने के लिए अनगिनत सिफारिशें कर चुके हैं, पर परिणाम शून्य रहा है। भारत में पुलिस की कार्यपद्धति एक अप्रचलित औपनिवेशिक कानून से संचालित होती है- इंडियन पुलिस ऐक्ट 1861. यही सभी अन्य आंतरिक सुरक्षा कानूनों के केंद्र में है। 1979 के बाद से नेशनल पुलिस कमीशन यानी राष्ट्रीय पुलिस आयोग पुलिस सुधारों पर आठ रिपोर्टें और मॉडल पुलिस ऐक्ट भी तैयार कर चुके हैं। मामला अदालतों में गया। 1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र को विवेकपूर्ण सलाह दी कि एक और समिति बनाकर उन्हें पहले के सारे आयोगों की सिफारिशों और उनकी रिपोर्टों की जांच का जिम्मा दे। रिबेरो समिति अस्तित्व में आई और उसने एक नहीं, बल्कि 1998 और 1999 में दो रिपोर्टें पेश कीं। दोनों पर धूल जमती रही। फिर, 2000 में के. पदमनाभइया के नेतृत्व में पुलिस सुधारों के लिए तीसरी समिति बनी- उसे भी कूड़ेदान के हवाले किया गया। 2005 में पुनः सोली सोराबजी जैसे नामी अधिवक्ता के नेतृत्व में एक समिति बनी, जिसका काम था नया पुलिस कानून तैयार करे; इसने 2006 में एक नया मॉडल पुलिस ऐक्ट तैयार किया। सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में भी यह था और वह क्रमशः बन रही सरकारों को निर्देश पर निर्देश दिये जा रहे थे पर उनके कानों पर जूं नहीं रेंगी।

इनमें से अधिकतर रिपोर्टें पुलिस कार्य में अत्यधिक राजनीतिक दखलंदाज़ी और अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों पर पुलिस ज्यादतियों पर रोक लगाने पर फोकस कर रही थीं। उन्होंने पुलिस द्वारा अतिरिक्त-न्यायिक हत्याओं के जटिल मसले पर भी समाधान सुझाए। पर एनकाउंटर विशेषज्ञों की संख्या बढ़ती गई। एनकाउंटर हत्याएं आम राजनीतिक अस्त्र बन गईं। कुछ पुलिस अधिकारी कानून की धज्जियां उड़ाते हुए अपनी कार्यवाही जारी रखे रहे जैसे बाड़ा ही फ़सल खाने पर आमादा हो जाए। भाजपा सरकारें खुद अराजकता के लिए प्रसिद्ध हो रही हैं। हाल में मज़दूर अधिकार संगठन की नोदीप कौर और सोनीपत के कुण्डली औद्योगिक क्षेत्र के शिव कुमार की गिरफ्तारी और उत्पीड़न इसके ताजा़ उदाहरण हैं। अब तो मान्यता-प्राप्त अखिल भारतीय ट्रेड यूनियनों तक को आन्दोलनरत किसानों के समर्थन में प्रदर्शन करने की छूट नहीं है। कानून और संवैधानिकता के प्रति कम-से-कम सम्मान ही दोनों किस्म के पुलिस ज्यादतियों की जड़ में हैं।

यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया है कि जो भी पुलिस अधिकारी एक्सट्रा-जुडिशियल हत्याओं के आरोपी होंगे, उनके विरुद्ध हत्या का मुकदमा कायम होना चाहिये, गुजरात सरकार ने इशरत जहां की हत्या के जिम्मेदार तीन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ जांच व कानूनी कार्यवाही करने की अनुमति नहीं दी। योगी आदित्यनाथ सरकार भी तथाकथित अपराधियों के 200 एनकाउंटर हत्याओं का दावा करती है। यदि अराजकता की यही स्थिति बनी रही, ऐसी असाध्य परिस्थितियां पैदा हो सकती हैं जहां विपक्षी राज वाले प्रदेशों में केंद्रीय नेता और भगवा राज वाले प्रदेशों में विपक्षी नेता सुरक्षित नहीं रहेंगे। यानी, स्थितियां हाथ के बाहर चली जा सकती हैं; तब सचिन वाज़े सरीखों का ही बोलबाला होगा।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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