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क्या क्लासरूम शिक्षा का विकल्प हैं एडटेक कम्पनियां?

क्या आज के डिजिटल युग में इन कम्पनियों द्वारा दी जा रही शिक्षा को यह कहकर पूरी तरह से खारिज किया जा सकता है कि यह ‘पूंजीवाद का खेल’ है?
क्या क्लासरूम शिक्षा का विकल्प हैं एडटेक कम्पनियां?

मार्च 2020 की महामारी के बाद से बच्चों का स्कूल जाना बंद हो गया। जाहिर सी बात है कि अभिभावकों को अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर चिंता हो गई। घर में कैद बच्चे पढ़ाई न करके दिन भर टीवी या मोबाइल फोन पर लगे रहने लगे। जो गरीब परिवारों से आते थे, वे मजदूरी में लग गए और लड़कियों में बाल विवाह की परिघटना बढ़ गई। स्कूलों ने ऑनलाइन कक्षाएं चलाईं, पर कहीं इंटरनेट कनेक्शन बार-बार कटता, तो कहीं बिना मोबाइल और लैपटाॅप के बच्चे पढ़ाई में पिछड़ते नज़र आते। ‘‘आपदा को अवसर’’ बनाने के लिए बाज़ार में ‘ऐग्रेसिव’ हो गईं एडटेक कम्पनियां, यानि शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली टेक्नाॅलाॅजी कम्पनियां, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में सैकड़ों अरब डाॅलर का व्यापार चला दिया है। क्या आज के डिजिटल युग में आप इन कम्पनियों द्वारा दी जा रही शिक्षा को यह कहकर पूरी तरह से खारिज कर सकते हैं कि यह ‘पूंजीवाद का खेल’ है? बहुसंख्यक अभिभावकों और छात्रों का एक बड़ा हिस्सा यह मानने को तैयार नहीं है। पर अध्यापकों और बौद्धिक क्षमता रखने वाले छात्र शिक्षा में तकनीक के विवेकपूर्ण इस्तेमाल के पक्षधर हैं। उनका कहना है कि कितनी भी उन्नत तकनीक हो, वह अध्यापकों का और क्लासरूम शिक्षा का स्थान नहीं ले सकती, केवल उसे सप्लिमेंट कर सकती है।

हमने यह देखा कि कोविड-19 के दौर में दो ही तरह की कम्पनियां दिन-दूना-रात-चैगुना की रफ्तार से अपना मुनाफा बढ़ा रही थीं-एक स्वास्थ्य-संबधी कम्पनियां, और दूसरे, एजुकेशन टेक्नाॅलाॅजी या एडटेक कम्पनियां। और, यह केवल भारत में नहीं, पूरे विश्व में हुआ। आखिर कैसे फल-फूल रही हैं ये कम्पनियां? क्या यह मध्यम वर्ग द्वारा अपने बच्चों को एक खास स्टेटस दिलाने की लालच का नतीजा है या फिर हमारी आउटमोडेड जीर्ण-शीर्ण शिक्षा व्यवस्था द्वारा छात्रों में व्याप्त रोज़गार के भारी असुरक्षा भाव का परिणाम? या फिर दोनों? मध्यम वर्ग तो क्या, अब निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के अंदर भी यह ख्वाहिश पैदा हो गई है कि वे कैसे मध्यम वर्ग में शामिल हो जाएं।

इसका एक छोटा उदाहरण एमएनआईटी इलाहाबाद में कार्यरत सफाई कर्मचारी भाईलाल का बेटा है, जो 10वीं कक्षा से ही कोचिंग करता रहा है और अब 12वीं कक्षा के बाद इंजीनियरिंग की परीक्षा देना चाहता है। पर कोचिंग बंद होने के कारण बाइजूज़ से ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त कर रहा है। पिता का कहना है कि लड़का पढ़ने में अच्छा है और आगे निकल सकता है। तो अपनी जमा पूंजी उसकी शिक्षा में लगाना चाहते हैं। वह अच्छी नौकरी पाकर उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा। क्योंकि वह कम पढ़ा-लिखा है, वह ऑनलाइन शिक्षा से काफी खुश है। उसके अनुसार शिक्षा उसके बच्चे की पहुंच के बाहर नहीं है; बस किसी तरह फीस जुटाने की बात है।

भारत में वर्तमान समय में सबसे बड़ी एडटेक कम्पनी का नाम बाइजूज़ है। इसके पंजीकृत उपभोक्ता 2019 में 4 करोड़ थे और सशुल्क ग्राहक 30 लाख। 2020 के मार्च-अप्रैल में अचानक पंजीकृत उपभोक्ताओं की संख्या बढ़कर 5 करोड़ हो गई और सशुल्क ग्राहकों की संख्या 35 लाख तक पहुंच गई। दूसरे, जहां पहले छात्र औसतन 70 मिनट प्रतिदिन इसका प्रयोेग करते थे, अब 100 मिनट प्रतिदिन इस्तेमाल कर रहे हैं। आज इस कम्पनी का बाज़ार मूल्य 16.5 अरब डाॅलर हो गया है, यानि यह स्टार्टअप भारत का सबसे कीमती स्टार्टअप है और विश्व में 11वें स्थान पर पहुंच गया है। कम्पनी ने 2019 से कक्षा 1-3 के बच्चों के लिए ‘अर्ली लर्निंग’ कार्यक्रम भी शुरू कर दिया है और कम्पनी केवल मेट्रोज़ में नहीं, 1700 छोटे-बड़े शहरों तक फैल चुका है। यह विदेशों में भी काम कर रहा है।

यह तो एक कम्पनी है। इसके अलावा 4,500 के आस-पास और एडटेक कम्पनियां भारत में अपना जाल बिछा चुकी हैं। पहले केवल प्रोफेश्नल शिक्षा, यानि इंजीनियरिंग और मेडिकल परीक्षाओं की तैयारी के लिए लोग इन कम्पनियों के शरण में जाते थे, पर 2004 से सैटेलाइट के जरिये शिक्षा और स्मार्ट क्लास आए। फिर इन कम्पनियों का व्यापक प्रवेश हुआ और 2017 से ये स्कूली शिक्षा (K-12) में काम कर रहे हैं। पहले तो ये परीक्षाओं की तैयारी कराते थे पर अब प्रतिदिन के पाठ्यक्रम में छात्रों की ‘मदद’ कर रहे हैं। कहने का मतलब है कि अब शिक्षा पूरी तरह से इनपर निर्भर होती जा रही है। शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण हो रहा है, ठीक उसी तरह जैसे स्वास्थ्य क्षेत्र में हुआ है। इसने शिक्षा में सबकी पहुंच का भ्रम तो पैदा किया है पर असलियत में गरीबों और अमीरों के बीच खाई को और भी बढ़ा दिया है, क्योंकि मोबाइल, कम्प्यूटर, इंटरनेट सुविधा, बिजली मिलाकर महंगा मामला है। कहां हम शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने और बराबर शिक्षा की बात करते थे, कहां हम शिक्षा के बाजारीकरण की दिशा में बढ़ते गए।

आज प्राइवेट स्कूलों की ओर से यदि एक्स्ट्रामाक्र्स या खान ऐकेडेमी को स्पाॅन्सर किया जा रहा है, तो इसके पीछे एक ही बात है-स्कूलों में होड़ मची है कि बाज़ार में किसके यहां से अधिक छात्र बड़े संस्थानों के उच्चतम पदों पर पहुंचें। और जब भारत में करीब 4 लाख प्राइवेट स्कूल चल रहे हैं जिनमें तकरीबन 8 करोड़ छात्र पढ़ते हैं, तो हम समझ सकते हैं इन कम्पनियों को कितना विशाल बाज़ार मिला चुका है। अधिकतर सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर उन्नत पहीं है, तो बच्चे कई ‘स्किल्स’ नहीं सीख पाते।

कक्षा 6 में पढ़ रही रीतिका दुबे एक नामी काॅन्वेंट की छात्रा है। उसके पिता इलाहाबाद के बिज़नेसमैन हैं और उनके पास पैसों की कमी नहीं है, तो दोनों बच्चों को जिले के टाॅप काॅन्वेंट्स में दाखिला दिलवाकर प्रसन्न हैं। पर रीतिका के लिए उनके पास समय नहीं है। मां भी आधुनिक पाठ्यक्रम से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। लाॅकडाउन के समय रीतिका का ट्यूशन छूट गया। दुबे जी कहते हैं कि रीतिका के काॅन्वेंट स्कूल ने ऑनलाइन शिक्षा शुरू की है पर क्लास की पढ़ाई में आधी बातें तो समझ में ही नहीं आतीं।’’ रीतिका ने एक बार स्कूल द्वारा सुझाए गए एक्स्ट्रामाक्र्स में पंजीकरण कर लिया। वह बताती है ‘‘मेरे फोन पर सैकड़ों काॅल आने लगे और उसको परेशान होकर ऐप को हटाना पड़ा। पर अब भी लगातार मेसेज आते रहते हैं।’’

यह दुखड़ा अनेकों परिवारों का है। कोचिंग सेंटर बंद पड़े हैं या फिर वे भी ऑनलाइन कक्षा चला रहे हैं। बोर्ड की परीक्षाओं को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है। श्रीमती आशा सिंह केंद्रीय विद्यालय की अध्यापिका हैं। वह कहती हैं, ‘‘कला के छात्र तो एडटेक कम्पनियों के जरिये नहीं, बल्कि एनसीईआरटी द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे अध्ययन सामग्री और पोर्टल पर अपलोड किये गए विडियो या टीवी प्रोग्राम ही देखकर पढ़ाई करते हैं। बच्चे कई बार अलग से फोन करके टीचर से बात भी करते हैं। पर बहुसंख्यक विज्ञान के छात्र एडटेक कम्पनियों के बिना काम नहीं चला पाते। यह एक मजबूरी सी बन गई है, क्योंकि खासकर गणित, भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान में सवाल लगाने का अभ्यास चाहिये। कम्प्यूटर साइंस के लिए भी अभ्यास की जरूरत होती है। सरकारी स्कूल इजुकेशन टेकनाॅलाॅजी कम्पनियों को स्पांसर नहीं करते पर प्राइवेट स्कूलों में तो उन्हें बुलाकर डेमो दिलाया जाता है और वे छात्रों व उनके अभिभावकों को ‘ब्रेनवाॅश’ करते हैं। उनकी पब्लिसिटी और मार्केटिंग बहुत ऐग्रेसिव है और पाठ्य सामग्री व तकनीक का विशाल भंडार उन्होंने प्रस्तुत किया है। कई कपनिया ंतो सीधे अभिभावकों से सम्पर्क करते हैं।’’

बंगलुरु के एक टाॅप स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापक का कहना है, ‘‘इन एडटेक कम्पनियों के बारे में किसी के मुंह से तारीफ तो नहीं सुना हूं। बच्चों को ज्ञान की घुट्टी नहीं पिलाई जा सकती। हर छात्र के भीतर अलग गुण और कमियां होती हैं जो क्लासरूम में अधापक समझकर उसे आगे बढ़ाते हैं। फिर, एडटेक कम्पनियां तो अध्यापकों को मशीन की तरह इस्तेमाल करती हैं।’’ यह सच है कि जब अलग-अलग सामाजिक माहौल से आए बच्चे सामने नहीं होते, छात्रों और अध्यापक के बीच मानवीय सम्पर्क खत्म होता है। वे कहते हैं ‘‘आगे आने वाले दिनों में उनका काम केवल कम्प्यूटर के कीज़ को दबाना रह जाएगा।’’ 

पर चिंता की बात तो यह है कि आरएस कम्पोनेंट्स के हाल की रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान समय में हमारा देश एडटेक कम्पनियों के कारोबार में विश्व का दूसरे नम्बर देश है, और 10 प्रतिशत कम्पनियां भारत में ही हैं। सबसे अधिक, यानि 43 प्रतिशत एडटेक कम्पनियां अमेरिका में हैं। 9 प्रतिशत कम्पनियां ब्राज़िल में और 8 प्रतिशत यूक में हैं। चीन में ये 3 प्रतिशत ही हैं। 2020 में ही एडटेक उद्योग का बाज़ार मूल्य 252 अरब डाॅलर तक पहुंच चुका था। जहां तक फंडिंग की बात है तो स्वीडेन के एडटेक उद्योग को सबसे अधिक वेन्चर कैपिटल फंडिंग मिलती है और आंकड़ा यह है कि यहां 57 प्रतिशत एडटेक स्टार्टअप कम्पनियों को वीसी फंडिंग प्राप्त है।

 आखिर, क्यों एडटेक स्टार्टअप कम्पनियों को इतनी बड़ी फंडिंग मिल रही है? इसके पीछे एक ही कारण है-शिक्षा के क्षेत्र में, खासकर विकासशील देशों में और कोरोना-काल में भारी मुनाफा कमाया जा सकता है। फिर शिक्षा रोज़गार के अवसरों से भी जुड़ी हुई है। तो शिक्षा को शिक्षण संस्थानों, सरकारों और एडटेक कम्पनियों के बीच एक रैकेट बना दिया जा रहा है, जिसमें छात्र कहीं नहीं आता। वह निवेश का एक वस्तु बन जाएगा और सफल न होने पर आत्महत्या के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं होगा। पहले से ही हमारे देश में रटंत विद्या के जरिये अंक बटोरकर आगे बढ़ने को शिक्षा का नाम दे दिया गया। अंग्रेज़ जैसे शिक्षा के माध्यम से अपने लिए नौकरशाह पैदा करते थे, अब कई सारे विकसित देश भारत से अपने लिए एक गुलाम कार्यशक्ति यानि ब्यूरोक्रैट्स व टेक्नोक्रैट्स पैदा करने में लगे हैं। तो शिक्षा का नया माॅडल कहां से आए? इसपर कभी शिक्षाविदों की राय ली गई? कई शिक्षाविदों का मानना है कि एडटेक उद्योग कम उम्र के छात्रों में जो थोड़ी रचनात्मकता बची थी उसे खत्म कर देगा, इसलिए बहुत सचेत प्रयोग की जरूरत है। ज्ञान तो पहले भी कम मिलता था पर उसकी जगह सूचना का अंबार हो जाए, जिसे रटकर बच्चे परीक्षा में उगले तो हम मौलिक बौद्धिक क्षमता में जरूर पिछड़ जाएंगे।

मस्लन, आज डिजिटल शिक्षा में मल्टिप्ल चाॅयस प्रश्न का प्रचलन आ गया है, जिसमें विषय की गहराई में जाना अनिवार्य नहीं रह गया। गणित व विज्ञान के बुनियादी सिद्धान्तों को समझना आवश्यक नहीं रह गया। लखनऊ के एक नामी प्राइवेट स्कूल की 10वीं की छात्रा को पाइथैगोरस प्रमेय के बारे में जानकारी नहीं थी पर वह 90 डिग्री कोण वाले त्रिभुज की भुजाओं की लम्बाई फाॅरमुला के जरिये निकालती जा रही थी। पूछे जाने पर पता लगा कि वह वेदान्तु के ऐप से पूरी पढ़ाई करती है। एक मेंटर फोन पर पूछ लेता है कि कितने प्रश्न हल कर लिए हैं। और प्रश्नों को अंक बढ़ने की दृष्टि से कम समय में हल करना होता है।

शिक्षा से मुनाफाः इन उदाहरणों को देखकर हम समझ सकते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में मुनाफा के लिए काम कर रही ये कम्पनियां छात्रों का कितना भला कर रही हैं। पहली बात तो इनकी फीस देखकर समझा जा सकता है कि गरीब बच्चों के लिए कोर्स, डिवाइस और इंटरनेट का खर्च वहन करना असंभव है। यानि शिक्षा अब बच्चे का बुनियादी अधिकार नहीं, बल्कि खरीदने की वस्तु है। पहले यह बात केवल स्कूलों के स्टैंडर्ड पर निर्भर था पर अब तो बाज़ार में इतने खिलाड़ी हैं कि जिसके पास पैसा अधिक है वह कहीं बैठे अधिक अंक प्राप्त कर सकता है। पर पैसा पूर्वशर्त है।

नकल से कैसे बचें: जहां तकनीक को क्लासरूम शिक्षा को रोचक और ग्राह्य बनाने के लिए अध्यापक की निगरानी में  इस्तेमाल होना चाहिये, छात्र भारी संख्या में आज इन कम्पनियों पर इस कदर निर्भर हो गए हैं कि प्रश्न पर सोचने से पहले उसके उत्तर बटन दबाकर ढूंढ लेते हैं या मेंटर से पूछ लेते हैं। गूगल और ऐसे ऐप तो हर छात्र का सहारा बन गये हैं, तो नकल करना और दूसरों से असाइमेंट करवा लेना चुटकी बजाने जैसा आसान है। अध्यापक जान ही नहीं सकते कि बच्चे नकल कर रहे हैं।

महंगे उपकरण व पैकेजः तमिल नाडू और उत्तर प्रदेश में सपा के कार्यकाल में छात्रों को मुफ्त लैपटाॅप बांटे गए थे। कर्नाटक ने भी फ्री लैपटाॅप स्कीम चलाई है। यह सराहनीय कदम था, क्योंकि छात्रों को इनके प्रयोग से पढ़ाई करने में आसानी हुई। पर साकार का शिक्षा क्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिपच चलने के कारण अधिकतर छात्रों को टैब्लेट लेने के लिए कम्पनियों के महंगे पैकेज लेने पड़ते हैं। देश में केवल 17 प्रतिशत बच्चों के पास लैपटाॅप हैं और 4 प्रतिशत के पास टैब्लेट। बाकी को किसी तरह मोबाइल फोन का जुगाड़ करना पड़ता है।

सही मेंटरिंगः एक कम्पनी ब्रेनली ने 2019 में 2500 छात्रों में सर्वे करके पाया कि 53 प्रतिशत बच्चों के अभिभावक आज अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए 2 घंटे प्रतिदिन समय निकाल पाते हैं; पर यह केवल शहरी तबका है। इनमें 35 प्रतिशत अभिभावक एडटेक का प्रयोग करते हैं। बच्चों का कहना था कि उन्हें अपने अभिभावकों से गृहकार्य में मदद के लिए और अधिक समय चाहिये। पर क्या यह मांग व्यवहारिक है? क्या किसी फैक्टरी मजदूर के लिए इतना समय देना मुमकिन है? अब इस समस्या के समाधान हेतु कम्पनियों ने ऑनलाइन मेन्टर दे दिये हैं। पर मेंटर छात्र और उसके सामाजिक माहौल को कितना जान पाता है? घर में माता-पिता बच्चों को अपने बचपन के किस्से-कहानी न सुना पाएं, उन्हें बाहर की दुनिया से अवगत न कराएं, घर के काम में उनसे मदद न लें व उनमें मूल्यबोध न कराएं तो शिक्षा अधूरी रहेगी। स्कूल में बच्चे ज्ञान को आपस में बांटते हैं और अलग-अलग पृष्टभूमि से आए बच्चों के अनुभवों को साझा करते हैं। आज अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा सहयोग की जगह ले रही है क्योंकि हर बच्चा व्यक्तिगत रूप से सबसे लोकप्रिय कोर्स में पंजीकरण करवाकर दूसरों को परास्त करना चाहता है। दिल्ली के अच्छे काॅलेज में दाखिला लेने के लिए 98-100 प्रतिशत अंक का कट-ऑफ हो तो छात्र पर कितना बड़ा दबाव होता होगा।

अध्यापक की भूमिकाः ऐनिमेशन और आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस से वीडियो और प्रश्नों की ग्रेडिंग सबकुछ संभव हो गई तो अध्यापकों की भूमिका सीमित रहेगी। उनकी व्यापक छंटनी भी हो सकती है। मूल्यबोध कराना और छात्रों में अनुशासन पैदा करना अध्यापकों का काम होता था। अब जब ऐप ही सबसे बड़ा ‘गुरू’ हो तो आप उससे केवल कुछ सूचनाएं ले सकते हैं और डाटा एकत्र कर सकते हैं। बालक को बेहतर इन्सान बनाना उनकी जिम्मेदारी नहीं है। कई देशों में आज एडटेक की सीमाओं पर अध्ययन चल रहे हैं। अधिकतर शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ज्ञान को मुनाफे के साथ जोड़ना समाज का अहित ही कर सकता है।

सरकार को शिक्षा पर खर्च बढ़ाकर उसे हर छात्र का मौलिक अधिकार बनाना होगा, इसके बिना विकास की बात करना बेमानी है। इसलिए सरकारी स्कूलों में एडटेक कम्पनियों के पैकेज खरीदकर बच्चों को निःशुल्क मुहय्या कराया जाना चाहिये। इन्हें लर्निंग किट्स के रूप में क्लासरूम शिक्षा की मदद के लिए उपयोग किया जा सकता है।

किसी भी गरीब मोहल्ले में बेहतर कम्यूनिटी स्कूल चलाने वालों को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार उन्हें शिक्षा सामग्री व कम्यूटर देकर मदद करे और गरीब बच्चों के लिए वज़ीफा का प्रबंध करे। छात्र-अध्यापक अनुपात को बढ़ाने के लिए शिक्षित बेरोज़गारों को टीचर-ट्रेनिंग दी जाए और शिक्षक बनाया जाए। आंगनवाड़ी कर्मचारियों को सरकारी कर्मचारियों का दर्जा देकर उनको प्रशिक्षित किया जाए। और सबसे महत्वपूर्ण, शिक्षा को आधुनिक, वैज्ञानिक व सेक्युलर बनाने के लिए चैतरफा प्रयास हों।

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