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चित्रकार सैयद हैदर रज़ा : चित्रों में रची-बसी जन्मभूमि

यह वर्ष चित्रकार एस.एच. रज़ा की सौंवी वर्षगांठ का है। हालांकि रज़ा फ्रांस में जरूर बस गये। लेकिन भारत से उन्हें बहुत प्यार था। तभी वो बार-बार भारत आते रहे। अपनी कलाकृतियों में उन्होंने डूब कर भारत की धरती और संस्कृति को याद किया है।
Syed Haider Raza
चित्रकार सैयद हैदर रज़ा। साभार : आउटलुक हिंदी

ख़ुशी की बात है कि यह वर्ष चित्रकार एस.एच. रज़ा यानी सैयद हैदर रज़ा (1922-2016) की सौंवी वर्षगांठ का है।

बात 90 के दशक की है। दिल्ली के आधुनिक कला संग्रहालय (पुराना) की पहली मंजिल की कलाविथिका में सैयद हैदर रज़ा के चित्रों के अवलोकन का वह पहला अवसर था। चित्र में ढेर सारी नारंगी, हरी, लाल और नीली पट्टियां बनाई गई थीं। जिसके केन्द्र में एक बड़ा सा काला वृत बना था। रंग चटख और तीव्र आभा वाले थे जिनका संयोजन अभूतपूर्व था। वहां रज़ा के कई चित्र प्रदर्शित थे। मैं अभिभूत हो गई। यह शुरुआत थी रज़ा के चित्रों के अवलोकन की। रंगों के सुन्दर संयोजन में उनका मुकाबला नहीं था। अक्सर किसी न किसी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर बरबस दिख जाते हैं उनके चित्र। भोपाल  में  'भारत कला भवन', का अवलोकन कर रही थी। श्याम और बेटियां साथ थे (दरअसल श्याम जिस रुचि से कलाकृतियों का आनंद लेते हैं वैसे ही जैसे मैं कथा और उपन्यास पढ़ती हूँ)। अरे यहाँ भी हैं रज़ा! कलाकार की उपस्थिति और मौजूदगी का एहसास उनकी कलाकृतियों से ही होता है।

रज़ा ने धर्मयुग पत्रिका में प्रकाशित हुए अपने बड़े से साक्षात्कार में बताया,  'मेरी पैदाइश मुस्लिम परिवार में हुई, पिता जी कट्टर न थे। धर्म के बारे में उनके पाक और उदार विचार रहे हैं। हम स्कूल से आ कर रोज रामायण के दोहे-चौपाइयां  पढ़ते थे। घर में जो तहज़ीब मिली है उस पर नाज़ है। और मुझे नाज़ है अपने शिक्षकों पर जिन्होंने मुझे शुद्ध हिन्दू पृष्ठभूमि की पहचान दिलायी। हिन्दी भाषा के प्रति भी प्रेम उकसाया। धर्म को एक रेडीमेड चीज मानकर उसे स्वीकार करना नहीं,  केवल उसकी रूढ़ियां, रीति-रिवाज धर्म नहीं है।

 द चर्च, कैनवास पर तैल रंगों में, 24"×18", चित्रकार: सैयद हैदर रज़ा, साभार- आर्ट इण्डिया 2005

यही हमें घर में सिखाया गया। दूसरे मजहब अच्छे नहीं हैं, यह भी नहीं कहा गया। तीनों धर्मों ( मुस्लिम, हिन्दू और ईसाई) से मुझे समय-समय पर शक्ति मिलती है। मैं मस्जिद, मंदिर या गिरिजाघर तीनों से शक्तियां पाता हूं।" (साभार: धर्मयुग 18 मार्च 1984 अंक)

हालांकि रज़ा फ्रांस में जरूर बस गये। लेकिन भारत से उन्हें बहुत प्यार था। तभी वो बार-बार भारत आते रहे। अपनी कलाकृतियों में उन्होंने डूब कर भारत की धरती और संस्कृति को याद किया है। जो समय समय पर उनके चित्रों में स्वतः ही प्रस्फुटित होते रहे हैं। उनके चित्रों में कोई दुराग्रह भी नहीं दिखता। उदाहरण स्वरूप  ''माँ मैं फिर लौट के आऊंगा'' शीर्षक चित्र में प्रतीकात्मक ढ़ंग से अपनी भारत भूमि को याद किया है। अपने साक्षात्कार में उनके आध्यात्म के प्रति लगाव,  जो कि उनके चित्रों में अक्सर अभिव्यक्त होता रहता है उन्होंने कहा, “मैंने आध्यात्म का विशेष अध्ययन नहीं किया है, किंतु थोड़ा बहुत समझने की कोशिश जरूर किया है, मेरी मनोवृत्ति जो धार्मिक है वो इससे जाहिर हो सकती है जैसे सतपुड़ा की चट्टानों को छू कर या नर्मदा के जल को छू कर मुझे बहुत बड़ी शांति मिली है, यह मैं किसी धार्मिक विश्वास या आस्था मान कर नहीं करता बल्कि यह मुझे आंतरिक जरूरत लगती है, ठीक वैसै ही जैसे मुझे उस मिट्टी को छू कर लगा, जिस मिट्टी पर मेरा जन्म हुआ था, प्रकृति से मिलना एक पूजा के समान है, एक नमाज़ के समान है। यों मैं तो यहाँ तक मानता हूं कि चित्र बनाना भी मेरे लिए धर्म है, मैं वैसी ही आस्था से काम करता हूं जैसे कोई धार्मिक आचार्य करता हो।''( साभार :धर्मयुग)

राजस्थान, कैनवास पर ऐक्रेलिक रंगों में, 2004, चित्रकार : सैयद हैदर रज़ा। 

सैयद हैदर रज़ा का जन्म मंडला ज़िला, मध्यप्रदेश में हुआ था; जहां उन्होंने बारह वर्ष की आयु से ही चित्रकला सिखना शुरू कर दिया था। बाद में दामोह में उनका बाकी विद्यालीय शिक्षा पूरी हुई। नागपुर कला विद्यालय से 1939 - 43 तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने बम्बई के जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा प्राप्त की। 1950 -1953 में उन्हें फ्रांस सरकार द्वारा छात्रवृत्ति मिली और उन्होंने पेरिस के इकोल नेशनल सुपेरिया डेब्लू आर्ट्स से आथुनिक कला शैली और तकनीक का अध्ययन किया। इस दौरान उन्हें यूरोप भ्रमण करने का अवसर मिला और उन्होंने कई कला प्रदर्शनी भी कीं। काफी समय तक फ्रांस, रज़ा का निवास स्थान और सृजन स्थल बना रहा। लेकिन भारत प्रेम उनमें सदैव बना रहा। अतः वे भारत हमेशा आते रहे। उनकी फ्रांसीसी पत्नी जो कि प्रख्यात मूर्तिकार थीं के निधन के बाद, रज़ा वापस भारत आ गये और दिल्ली में ही उन्होंने अंतिम सांस ली।

सैयद हैदर रज़ा बांबे 'प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप (पैग) के प्रमुख सदस्यों में थे। शुरुआती दौर (1940 - 50 ) उन्होंने बहुत सारे भूदृश्य चित्र (लैंडस्कैप) बनाए। फ्रांस प्रवास के दौरान भी उन्होंने वहां के ग्राम्य दृश्यों पर आधारित बहुत सारे भूदृश्य चित्र बनाए।

रज़ा को भारत के विभाजन और दंगों से बहुत ही पीड़ा पहुंची थी। इस त्रासद पीड़ा को उन्होंने अपने कई चित्रों में अभिव्यक्त किया है।

जैसा कि आमतौर पर एक वास्तविक कलाकार के साथ होता है कि अपनी कलाकृतियों में नयापन लाने के लिए वह समय-समय पर जोखिम उठाता है। रज़ा ने 1970 के दरम्यान भारत की परम्परागत कला संस्कृति का अध्ययन किया। उन्होंने अजंता-एलोरा की कलाकृतियों का गहन अध्ययन किया। उन्होंने भारत के कई अंचलों जैसे गुजरात, राजस्थान आदि का भ्रमण किया। जिससे उन्हें भारत की संस्कृति से और भी गहन प्रेम हो गया।

फलस्वरूप उनके 'बिंदु' चित्र श्रृंखला की शुरूआत हुई। इस चित्र श्रृंखला के बारे में उन्होंने कहा,  'हुआ यह कि मैं स्कूल का शरारती छात्र था और पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगाता था। तो उन्होंने एक दीवार पर बिंदु बनाकर लगातार उसे ही देखने की सज़ा मुझे दी थी। बाद में उसमें ही नहीं, पढ़ाई में ही रूचि पैदा हो गई। बिंदु को एकाग्र होकर देखने से मुझे नई ऊर्जा मिली हो;  इसी बिंदु को आज मैं व्याख्या देने की कोशिश कर रहा हूँ, ''जो अमूर्त नहीं साक्षात आकार है।''

प्रेम कुण्ड, कैनवास पर ऐक्रेलिक रंगों में, 31.5"×31.5",2003, चित्रकार: सैयद हैदर रज़ा, साभार: आर्ट इण्डिया 2005

रज़ा के चित्र पूर्णतया अमूर्त नहीं हैं। उनमें ज्यामितीय आकार मौजूद हैं। अपने चित्रों पर फ्रांसीसी चित्रकारों के प्रभाव के बारे में रज़ा ने कहा,  ''बाल्तूस,  बेनार आदि कुछ चित्रकार थे, जिनका काम मुझे अच्छा लगा। ये प्रकृति को तो चित्रित करते थे लेकिन इनके विषयों के निर्वाह में एक लचक, एक प्लास्टिसिटी थी। मैंने 1950 -55 तक फ्रांस में घूम-घूम कर दृश्य चित्र बनाये लेकिन ये चित्र मेरे भारत में बने चित्रों से बहुत-बहुत अलग थे। 'कान्य सूरमेर' उन्हीं दिनों का चित्र है; जिसमें काला सूरज बनाया गया था। उसके बाद मैंने तैल रंगों को शुरू किया। उसमें कुछ दिक्कतें भी आयीं। उनपर कई सालों में महारत पायी। फिर मुझे फार्म को समझने की जरूरत लगी। इतना आसान नहीं है उसे समझना। वास्तव में उसे समझने के लिए मुझे अमूर्त कला का अध्ययन करना पड़ा। और मैंने उसपर कई सालों काम भी किया, पर मैं अपने चित्रों को अमूर्त नहीं समझता। क्योंकि मुझे एक त्रिकोण या चौकोर उतना ही यथार्थ लगता है जिस तरह एक वृक्ष हो, पहाड़ हो या मकान। यह मेरी यात्रा का अगला पड़ाव था जहां चित्रकार प्रकृति को अनुभव -चक्षुओं से देखता है। ये अनुभव-बिंब प्रकट में सूक्ष्म या अमूर्त भले ही लगते हों , वास्तव में इनका आकार होता है, स्वरूप होता है। इस तरह कि कैनवास पर बने दृश्यचित्र में एक चाक्षुष नाट्य , रंगों की नाटकीयता या एक रंगों का नृत्य-बैले जैसे उतर आता है।" (साभारः धर्मयुग)

अपने चित्रों में उपस्थित चटख रंगों के बारे में रज़ा का कहना है;   ''अधिकतर लाल या पीले रंगों के निकट के रंग, - गर्मी, खुशी के प्रतीक हैं। ...इन रंगों के सहयोग से हम मानव मनःस्थिति को पेश कर सकते हैं। भावनाओं को एक्सप्रेस कर सकते हैं।''

सूरज काला गोला है रज़ा के कई चित्रों में जिसके बारे में उनका कहना है कि है,   ''सूरज हमारे लिए जरूरी है। सूरज की अहमियत हमें भारत में पता नहीं लगती क्योंकि हमारे यहाँ सूरज का संकट नहीं है लेकिन यूरोप या ठंडे मुल्क वाले से इसकी कीमत पूछिए वहां यह प्रमुख जरूरत है और मैं हर प्रमुख चीज को सबसे प्रमुख रंग से बनाना चाहता हूँ। मेरे निकट काला रंग सबसे प्रमुख और मूल रंग है।"

रज़ा जबतक जिंदा रहे कला सृजन में निरंतर लगे रहे। उनके रंगों में जीवन है, ताज़गी है। उनके चित्रों के आकार और रेखाएं सरल हैं। उनका माध्यम ज्यादातर तैल और ऐक्रेलिक माध्यम में है। विषय के रूप में प्रकृति भू-दृश्य और ब्रह्माण्ड है। भारत में रज़ा को पर्याप्त सम्मान मिला है। वे ललित कला अकादमी के मानद सदस्य थे। उन्हें कई पुरस्कार भी मिले जिसमें सर्वोत्कृष्ट है पद्मभूषण, पद्मश्री और पद्मविभूषण। भारतीय कलाजगत ने उन्हें हाथों हाथ लिया तभी उन्होंने अपने जीवन का अंतिम समय भारत में ही व्यतीत किया।

(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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