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EXCLUSIVE: बनारस में गांजे से बर्बाद हो रही युवा पीढ़ी, धर्म की आड़ में खुलेआम होता है नशा!

बनारसियों के आदर्श राम-कृष्ण, गौतम बुद्ध, कणादि, जैमिनि, पाणिनी, पतंजलि से लेकर रविदास, कबीर, नानकदेव, पार्श्वनाथ में से कोई चिलम नहीं पीता था। इस शहर में अब तमाम ढोंगी साधु-संत परंपरा की आड़ में चिलम फूंकते नजर आते हैं। उन्हें बस चिलम पर सुट्टा मारने का बहाना चाहिए।
Banaras
वाराणसी में गंगा घाट पर खुलेआम गांजा पीते साधु

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बनारस के हरहुआ कस्बे में ढाई बरस पहले जिस नवग्रह वाटिका का लोकार्पण किया था, वह अब गंजेड़ियों का सबसे बड़ा अड्डा है। जुलाई 2019 में इसी नवग्रह वाटिका से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सूबे में पौधरोपण अभियान की शुरुआत की थी। बाद में नौकरशाही ने इस वाटिका को सिरे से भुला दिया, जिससे वह गंजेड़ियों और जुआरियों के एक बड़े अड्डे के रूप में सरनाम हो गया।

सिर्फ नवग्रह वाटिका ही नहीं, धर्म और अध्यात्म की नगरी काशी का घाट हो अथवा पक्के महाल की गलियां, हर जगह नशेड़ियों की एक बड़ी फौज मौजूद हैं। साधु-संत से लेकर सैलानी तक गाँजे के नशे के जाल में फंसे हैं। इजराइल, चीन, जापान और मैक्सिको के सैलानी इसीलिए बनारस को ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि यहां हर जगह गांजा आसानी से मिल जाता है।

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "बनारस में सिर्फ घाट ही नहीं, मठों-मदिरों में गांजे का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। इसका सेवन भी जमकर हो रहा है। बड़ा सवाल यह है कि जब मठ- मंदिर, घाट और बड़ी-बड़ी पार्टियों में चिलम का धुआं उठ रहा है तो इस पर प्रतिबंध क्यों है? अपने बनारस में तो गांजे को धर्म का आवरण और साधु-संतों को गांजे का अघोषित लाइसेंस दे दिया गया है। साधु-सन्यासी हैं तो गांजा पी सकते हैं। इसी नशे को जब कोई आधुनिक परिधान पहने नौजवान पीता है तो पुलिस उसे एनडीपीएस एक्ट में जेल भेज देती है। कई उच्च न्यायालयों ने भी इस मामले में गंभीर टिप्पणियां की हैं। बड़ा सवाल यह है कि गांजा पीते हुए अब तक किसी साधु वेशधारी को क्यों नहीं पकड़ा गया? बनारस के कितने घाटों पर छापेमारी की गई? साधु-संत का मतलब गांजे का सुट्टा मारो, नहीं तो हिन्दू धर्म और सनातन परंपरा खतरे में आ जाएगी। जब यह नशा सियासत में घुस गया है और इसे धार्मिक इजाजत भी दे दी गई है तो सरकार को प्रतिबंध हटा ही लेना चाहिए।"

गंगा घाट पर आराम से गांजे की कश लगाता एक साधु

गंगा घाट और भूल-भुलैया का एहसास कराने वाली बनारस की गलियों व मंदिरों में गंजेड़ी बेधड़क धुंआ उड़ाते हैं। इन्हें पुलिस न रोकती है, न टोकती है। हर गली-नुक्कड़ पर भांग की दुकानें हैं। इनकी संख्या करीब 30 के आसपास है। इनमें कई दुकानें अघोषित रूप से गांजा बिक्री के बड़े अड्डे हैं। यह बात हर बनारसी और हर गंजेड़ी जानता है। इतनी छूट तो शायद ही किसी शहर में गंजेड़ियों को मिलती होगी। गंगा घाटों पर दिनदहाड़े और रात के अंधेरे में साधु, देसी-विदेशी सैलानी और युवा चिलम पर गांजे का कश खींचते आसानी से दिख जाते हैं।

सियासत में भी गांजे का असर

वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "सिर्फ सामाजिक परिवेश में ही नहीं, सियासत में भी गांजे का असर है। यूपी में आजकल विधानसभा चुनाव की गर्माहट है। सियासी निजाम में जिस तरह से नेताओं के बयान आ रहे हैं और जिस तरह की भाषा का प्रयोग हो रहा उससे तो यही लगता है कि समान्य मनःस्थिति में कोई नहीं बोल रहा है। ऐसा लगता है कि सारा सियासी निजाम गांजे के धुएं में डूबकर बोल रहा है। यह एक मुहावरा भी है और हकीकत भी है। लगता है कि सारी राजनीति ही चिलम के इर्द-गिर्द घूम रही है।"

दुनिया भर के बाजारों का सर्वे करने वाली जर्मनी की संस्था एबीसीडी दावा करती है कि गंजेड़ियों के मामले में अमेरिका दुनिया में अव्वल है। एबीसीडी वालों को कौन समझाए कि बनारस में भूत-पिशाच तक गांजा पीते हैं। बनारस दुनिया का इकलौता ऐसा शहर है जहां भंगेड़ी बाबा महादेव और शराबी बाबा काल भैरव पूजे जाते हैं। हर गली-कूचे में बाबाओं को गांजा-भांग और शराब चढ़ाया जाता है। साथ ही लगाया जाता है हर-हर महादेव का जयकारा।

काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष केडीएन राय कहते हैं, "बनारस में गांजा-भांग पीने की परंपरा तब से है जब अमेरिका का जन्म भी नहीं हुआ रहा होगा। पुराण से भी पुरानी है बनारस में चिलम फूंकने की रवायत। इस शहर की हर गली में बीर बाबाओं के चौरे हैं। उनके नाम मुहल्ले हैं। लहुराबीर, भोजूबीर, दैत्राबीर, मुड़कट्टाबीर, भोगाबीर, बेलवरियाबीर, बाढ़ूबीर, चमरूबीर, नटबीर, खोपड़ियाबीर, डेवढ़ियाबीर, बिजुरियाबीर और न जाने कितने बीर...। ये बाबा तो गांजा और चिलम से ही पूजे जाते हैं। इन्हें तो सिर्फ गांजा से ही खुश किया जा सकता है। गांजा-शराब के बगैर बनारस के ये बाबा किसी की सुनते ही नहीं...। बीर बाबाओं के ठीहे पर बगैर चीलम सुलगाए लोगों की मुरादें पूरी होती ही नहीं...।"

केडीएन यह भी कहते हैं, "बनारस शहर में बीर बाबाओं के मंदिरों में गांजा जगाया जाता है। चिलम को बीच में खड़ा रखने के बाद होती है गांजे की सफाई। फिर बारी आती है बीज छंटाई की। बीज छांटने के बाद उस पर पानी की कुछ बूंदें टपकाई जाती हैं और इसके बाद एक खास शैली में उसे मला जाता है। अंगूठे से नहीं, हथेली से। जमीन पर कागज बिछाकर रगड़ा हुआ गांजा झड़ने दिया जाता है। एक छोटी सी गिट्टी अटकाकर गांजा चिलम में दबाकर भरा जाता है। पटसन अथवा नारियल की सुतली को सुलगाकर चिलम के मुंह पर रख दिया जाता है। एक साफ और गीले कपड़े का फिल्टर बनाकर बनारस में सुट्टा मारने की परंपरा है।" 

गांजा पिए राजा...!

बनारस में गांजे की दो किस्में प्रचलित हैं। इनमें एक है "नागिन" और दूसरी "मर्चइय्या"। बनारसी गंजेड़ी "नागिन" ढूंढता है। काशी में चिलम जगाने का काम गंजेड़ियों के वरिष्ठतम व्यक्ति को सौंपा जाता है। दम लगाने से पहले "भोले" अथवा "चंडी" को ललकारा जाता है। फिर शुरू होता है गांजा पीने और पिलाने  का दौर। अमेरिका सहित दुनिया के विकसित देशों में दारू खुलेआम पी जाती है और गांजा छुपाकर। बनारस में दारू छिपाकर और गांजा खुलेआम पिया जाता है। बनारस में गंजेड़ी तो फक्र से यह जुमला भी उछालते हैं, "गांजा पिए राजा, तंबाकू पिए चोर-सुर्ती खाए चूतिया, थूके चारो ओर...।"

कुछ बरस पहले पुलिस के एक आला अफसर ने बनारस शहर में गंजेड़ियों के बारे में एक पड़ताल कराई थी। अनुमान लगाया गया था कि बनारस के लोग रोजाना कई कुंतल गांजा फूंक देते हैं। इनमें आधा गांजा पूजा स्थलों पर बाबाओं के चढ़ाने के बहाने धुआं-धुआं हो जाता है। नई दिल्ली और मुंबई में तीन सौ रुपये वाला गांजा काशी में आधी कीमत पर किसी भी गली में खरीदा जा सकता है। बोगेटो, पनामा, जकार्ता, जोहानसबर्ग और अस्ताना के भाव बनारस में भी गांजा मिल जाता है। इस शहर में हर गली और हर सड़क पर चिलम और गांजा की पुड़िया खरीदी जा सकती है।

बनारस में बीएचयू, कबीरचौरा और पांडेयपुर का दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल तो सालों से गंजेड़ियों का बड़ा अड्डा रहा है। कैंट, मंडुआडीह, सिटी और काशी रेलवे स्टेशन पर सुरक्षाकर्मियों के संरक्षण में लोगों को चिलम भरते देखा जा सकता है। पीर बाबाओं की मजारों के बाहर 40-50 रुपये में गांजे की पुड़िया आसानी से मिल जाती है। एबीसीडी की रिपोर्ट दावा करती है कि बनारसियों से ज्यादा दिल्ली और मुंबई के गंजेड़ी चिलम फूंकते हैं। दोनों शहरों में इस नशे की सालाना खपत क्रमशः 38.36 और 32.38 मीट्रिक टन है।

बनारस की नवग्रह वाटिका गजेड़ियों का अड्डा

औद्योगिक विष अनुसंधान केंद्र (आईटीआरसी) के सर्वेक्षण के मुताबिक 44 फीसदी साधु गांजे के सेवन की वजह से सांस के रोगी हो जाते हैं। इलाहाबाद में पिछले महाकुंभ के दौरान आईटीआरसी के तत्कालीन निदेशक डा.पीके सेठ के निर्देशन में विष वैज्ञानिकों ने साधुओं की जीवन शैली और उनकी आदतों का अध्ययन किया तो पाया कि सौ में से 43.8 फीसदी साधु दमे के मरीज हैं। ये वो साधु थे जो गांजे के बगैर जिंदा नहीं रह सकते थे। इस सर्वे में शाकाहारी और मांसाहारी साधुओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता का आकलन किया गया तो ज्ञात हुआ कि डीएनए के क्षतिग्रस्त होने की संभावना मांसाहारियों के बनिस्बत शाकाहारियों में कहीं अधिक होती है। 

नशे के खिलाफ बनारस में मुहिम चला रहे काशियाना फाउंडेशन से प्रमुख सुमित अंकुर सिंह कहते हैं, "बनारसियों के आदर्श राम-कृष्ण, गौतम बुद्ध, कणादि, जैमिनि, पाणिनी, पतंजलि से लगायत रविदास, कबीर, नानकदेव, पार्श्वनाथ हैं, लेकिन इनमें से कोई चिलम नहीं फूंकता था। इस शहर में अब तमाम ढोंगी साधु-संत परंपरा की आड़ में चिलम फूंकते नजर आते हैं। इन्हें तो सिर्फ चिलम पर सुट्टा मारने का बहाना चाहिए। बनारस में नशेड़ियों का एक बड़ा तबका दमे का शिकार है। साधुओं के अखाड़े में चिलम के धुएं से संत परंपरा बदनाम हो रही है। चिलम पर गांजे की कश लगाती नई युवा पीढ़ी इस नशे की गिरफ्त में इस कदर फंस गई है, जिससे छूट पाना संभव नहीं हैं। हैरत की बात यह है कि ऋषि परंपरा के तमाम आलंबरदार घर-परिवार और मोह-माया तो छोड़ सकते हैं, लेकिन ये चिलम नहीं छोड़ सकते।"

पत्रकार प्रवीण यादव यश कहते हैं, "गांजे के कसैले धुएं में गर्दन तक डूबे रहने वाले बनारस के युवाओं को बरसों से अमेरिका के न्यूयार्क और जापान के क्योटो की तरह इंडिया का सुपर पावर बनाने का सपना दिखाया जा रहा है। हम तो यही मानते हैं कि बनारस की गंजेड़ी पीढ़ी जब खुद को संभालने लायक ही नहीं होगी, तो वो देश-दुनिया को क्या खाक संभालेगी...? एक मुहिम के तहत गांजे का इस्तेमाल करने वालों के लिए गैरक़ानूनी तौर पर बाज़ार बनाया गया ताकि इसका बाज़ार कभी खत्म ही न हो सके।" 

बानारस में बरामद गांजे की एक बड़ी खेप

गंजेड़ियों को पुलिस का संरक्षण

बनारस में चाहे जिस भी घाट पर चले जाइए, कोई न कोई औघड़ और बाबा खुलेआम चिलम फूंकते दिख जाता है। बाबा भोले के नाम पर गांजे की कश लगाने वाले अधिकांश साधु नशे के कारोबार के बड़े करियर हैं। बनारस, यूपी के पड़ोसी राज्य बिहार और झारखंड को जोड़ता है, जहां से तस्कर नशे का सामान लेकर आसानी से काशी पहुंच जाते हैं। राजस्व सूचना निदेशालय (डीआरआई) के अनुसार बनारस में नशे के कारोबार में कई अंतराज्यीय गिरोह सक्रिय हैं, जो गांजा-भांग और चरस का कारोबार करते हैं। 28 जनवरी 2022 को वाराणसी में डीआरआई ने बड़ी कार्रवाई करते हुए डाफी टोल प्लाजा के पास ट्रक में लदी चावल की भूसी के नीचे छिपाकर रखा गया 590 किलो गांजा पकड़ा। ओडिशा के रायगढ़ से मुरादाबाद ले जाए जा रहे गांजे की कीमत एक करोड़ 18 लाख रुपये आंकी गई। कूरियर एजेंट रामपुर के स्वार निवासी मोहम्मद इरफान, नौगवां के अकरम अली और आसिफ अली के मुताबिक वे सिर्फ कुरियर का काम करते हैं।

इससे पहले 20 जनवरी को वाराणसी की रामनगर थाना पुलिस ने विकास यादव नामक एक तस्कर के पास से चार किग्रा गांजा बरामद किया था। कुछ रोज पहले ही वाराणसी और मिर्जापुर पुलिस ने संयुक्त रूप से 60 लाख रुपये के करीब तीन कुंतल गांजे के साथ विकास, बबलू समेत तीन तस्करों को गिरफ्तार किया था। पिछले साल पहली मार्च को वाराणसी में छह कुंतल गांजा के साथ दो लोगों को गिरफ्तार पकड़ा गया था। गांजा बरामदगी की यह कुछ चुनिंदा मामलों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर तस्कर और कैरियर्स पकड़े ही नहीं जाते।

वाराणसी के कैंट स्टेशन के बाहर बेसुध पड़ा गंजेड़ी

बनारस में गांजा की सप्लाई करने वाले तस्करों की चेन इतनी मजबूत है, जिसे भेद पाना आसान नहीं है। वाराणसी पुलिस खुद इन्हें पालती-पोसती है। एक आंकलन के अनुसार बनारस शहर में हर महीने करीब 30 कुंतल गांजा और 50 किग्रा हेरोइन की खपत होती है। भांग की खपत तो कई कुंतल है। बिहार और बंगाल से तस्करी कर लाए जाने वाले गांजे की खपत भांग के ठेकों पर होती है। गंगा घाटों पर मौजूद तमाम साधु वेशधारी नशे की तस्करी में अहम भूमिका निभाते हैं। 

गांजे से जा सकती है यादाश्त

गांजे के इस्तेमाल और यौन आनंद पर अभी तक कोई वैज्ञानिक शोध उपलब्ध नहीं है, लेकिन बनारस शहर में लोगों के बीच इसका चलन लगातार बढ़ता जा रहा है। यह स्थिति तब है जब हमें ऐसे शोध अक्सर पढ़ने को मिल जाते हैं जो बताते हैं कि गांजे के इस्तेमाल से पुरुषों की यौन शक्ति प्रभावित होती है। जो लोग रोजाना गांजे का सेवन करते हैं उनमें सेक्स संबंधी समस्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ती हैं।

वाराणसी के जाने-माने चिकित्सक डा.कुमार भास्कर कहते हैं, "गांजा ऐसा नशीला पदार्थ है जो कैनबिस सैटाइवा नामक पौधे के सूखे फूलों, पत्तियों, तने और बीजों के हरे-भूरे रंग का मिश्रण होता है। लंबे समय तक गांजे के सेवन से व्यक्ति को इसकी आदत लग जाती है। मौजूदा समय में इसका सेवन करने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो एक बहुत बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है, क्योंकि इसमें ज्यादातर तादाद युवाओं की है। गांजे के लगातार सेवन से शरीर पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है और यह कई बीमारियों को जन्म देता है। यह मस्तिष्क तंत्रिका के विकास और उसके कार्यों को प्रभावित करता है। इससे हमारे रोजमर्रा के कार्यों पर असर पड़ने लगता है और हम सुस्त होते जाते हैं। किशोरों में गांजे का सेवन विशेष रूप से खतरनाक माना गया है, क्योंकि किशोरावस्था में उनके दिमाग का विकास होना शुरू होता है। यह उनके दिमाग पर बुरा असर डालता है और दिमाग का विकास सुचारू रूप से नहीं हो पता है। किशोरावस्था से युवावस्था तक लगातार गांजे के सेवन से आईक्यू लेवल कम हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति लंबे समय तक इसका सेवन करता है तो वह सांस संबंधित रोग से ग्रसित भी हो सकता है और उसकी याददाश्त प्रभावित हो सकती है। व्यक्ति का काम, सामाजिक जीवन और परिवार के साथ रिश्ते भी इससे प्रभावित हो जाते हैं।"

डा. भास्कर यह भी कहते हैं, "गांजे के नियमित सेवन से लोगों में डिप्रेशन और चिंता की भी संभावना ज्यादा रहती है। इसके सेवन से सिजोफ्रेनिया के मरीजों की हालत बिगड़ सकती है। इसके नियमित इस्तेमाल से लगातार खांसी और कफ भी बन सकता है। गांजे का सेवन करने से ब्लड में टेट्राहाइड्रोसैनाबिनोल की सांद्रता बढ़ जाती है जो शारीरिक क्षमता को प्रभावित करती है। अगर इस दौरान ड्राइविंग की जाए, तो व्यक्ति अपना नियंत्रण खो सकता है और दुर्घटना भी हो सकती है। गांजे के सेवन से फेफड़ों का कैंसर, गर्दन या सिर में कैंसर हो सकता है। गर्भवती महिलाओं द्वारा इसके सेवन से जन्म लेने वाले बच्चे का वजन कम हो सकता है या बच्चे का जन्म समय से पूर्व हो सकता है। समय से पूर्व जन्म लेने वाले बच्चे को नियोनेटल इंटेंसिव देखभाल की आवश्यकता होती है। बेहतर है कि गांजे से दूर रहा जाए। चिलम पर इसकी कश खींचने से पहले यह मालूम होना चाहिए कि यह रास्ता उसे मौत की ओर ले जा रहा है।"

(लेखक विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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