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बसनिया बांध परियोजना: "नुक़सान अकेले आदिवासी समुदाय को नहीं बल्कि एक बड़ा पारिस्थितिकी तंत्र डूबेगा"

प्रभावित गांवों में सभाओं का दौर जारी है। हस्ताक्षर अभियान चलाए जा रहे हैं, पैदल यात्राएं निकाली जा रहीं हैं जिसका मक़सद एक ही है-बांध को बनने से रोकना।
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मंडला जिले के नारायणगंज जनपद से पैदल रैली निकालकर जबलपुर पहुंचे ग्रामीण

"मुझ पर, मेरे परिवार पर संकट आ जाए तो मैं सह लूंगा। लेकिन मेरी और मेरे परिवार की रक्षा करने वाले मेरे 'बड़े देव' पर संकट आ जाए तब मैं कैसे चुप रहूं? आज मुझ पर ही नहीं, मेरे बड़े देव पर भी संकट है, क्योंकि बांध के पानी से मेरा घर, खेत, खलियान ही नहीं डूबेगा, बल्कि जिस पेड़ में मेरे बड़े देव का वास है वह साजा का पेड़ भी डूब जाएगा। लेकिन मैं ऐसा होने नहीं दूंगा।" ये कहना है साजा पेड़ से भावनात्मक रूप से जुड़े चिमका टोला के दिनेश सिंह उइके का।

यह गांव मध्यप्रदेश के मंडला जिले में हैं और इस से ढाई किलोमीटर दूर नर्मदा नदी के किनारे ओढारी गांव हैं, जहां मध्यप्रदेश सरकार ने 'बसनिया बांध' का निर्माण प्रस्तावित किया है। प्राथमिक सर्वे में पता चला है कि इस बांध के कारण जल भराव से 31 गाँवों के डूब जाने की आशंका है। इसमें मंडला के 18 और डिंडोरी के 13 गांव हैं। इन्हीं गांवों की करीब 6 हज़ार एकड़ से अधिक ज़मीन भी डूब जाने की आशंका है।

साजा के पेड़ को पकड़े हुए चिमका टोला के ग्रामीण।

दिनेश सिंह उइके को जितनी चिंता घर, खेत, खलियान और समूचे गांव के डूब जाने की है, उससे कहीं अधिक चिंता और तकलीफ साजा पेड़ों के डूब जाने की है क्योंकि वे साजा पेड़ से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। यह चिंता अकेले दिनेश की नहीं है बल्कि इस क्षेत्र में रहने वाले लाखों आदिवासियों की हैं जिनकी साजा पेड़ से आस्था और भावनाएं जुड़ी हुईं हैं। इन लोगों की मान्यता है कि साझा पेड़ में इनके कुल देवता वास करते हैं और इनकी रक्षा करते हैं।

हालांकि आदिवासियों की इस मान्यता ने वर्षों से साजा के पेड़ को ही नहीं, बल्कि जंगल को भी सुरक्षित रखा है। स्वभाविक है कि अगर बांध बनता है तो जल भराव भी होगा और उस जल भराव में यह पेड़ भी डूब जाएगा या फिर जल भराव से पहले अन्य पेड़ों की तरह उक्त पेड़ों को भी काट दिया जाएगा।

इसी के साथ मंडला और डिंडोरी के इन 31 गांव के आदिवासी समाज को विस्थापित होने की चिंता भी सता रही है।

शायद यही वजह है कि इन प्रभावित गांवों में सभाओं का दौर जारी है। हस्ताक्षर अभियान चलाए जा रहे हैं, पैदल यात्राएं निकाली जा रहीं हैं जिसका मकसद एक ही है-बांध को बनने से रोकना और उसकी जगह छोटी योजनाओं से सिंचाई की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सरकार को विवश करना।

दिनेश कहते हैं, "हमारा इरादा नेक हैं, हम ख़ुद के लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी लड़ रहे है।”

उनकी जानकारी के मुताबिक, "बसनिया बांध जैसी बड़ी परियोजना में करीब 2437 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई होगी। जबकि जैव विविधता से परिपूर्ण 2107 हेक्टेयर जंगल डूब जाएगा। 31 गांव के 2735 परिवारों को विस्थापित किया जाएगा। इस तरह जल विद्युत उत्पादन के नाम पर आदिवासी समुदाय तबाह हो जाएगा।" वे कहते हैं कि नुकसान अकेले आदिवासी समुदाय को नहीं होगा, बल्कि एक बड़ा पारिस्थितिकी तंत्र डूबेगा। लाखों पेड़ बर्बाद जाएंगे। नर्मदा नदी पर एक और जल परियोजना से भू-गर्भीय दबाव बढ़ जाएगा जिसका अप्रत्यक्ष नुकसान दूसरों को भी होगा।

बसनिया बांध विरोधी संघर्ष समिति बड़झर जिला मंडला के अध्यक्ष सालिकराम परते कहते हैं, "बांध बना तो हम आदिवासियों का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। हमें विस्थापित होना पड़ेगा। हमारा साजा का पेड़ डूब जाएगा, यानि हमारे देव ही डूब जाएंगे। जीवन भर अफसोस होगा कि हम अपना साजा पेड़ नहीं बचा सके, इसलिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। गांवों में रात के समय रात्रिकालीन गोष्ठियां कर रहे हैं। सामाजिक गीतों के ज़रिए नागरिकों को जागरुक कर रहे हैं। हर स्तर पर विस्थापन का विरोध जारी है। हम 30 जनवरी 2023 को मंडला के नारायणगंज से विरोध रैली निकालकर जबलपुर जिला मुख्यालय पहुंचे थे, वहां संभाग आयुक्त से पूरी बातचीत की और उन्हें सभी विषयों से अवगत करा दिया है।"

ओढारी गांव में नर्मदा नदी का वह क्षेत्र जहां बसनिया बांध प्रस्तावित है।

सालिकराम आगे कहते हैं कि वह दो भाई हैं, उनके पास 11 एकड़ ज़मीन है जो पूरी असिंचित है। ये पट्टे की ज़मीन है। खेत से हर साल 70 बोरा धान पक जाता है और उससे जो चावल निकलता है उसी का उपयोग वे खाने में करते हैं, बाकी मज़दूरी कर 40 से 50 हज़ार रुपये कमा लेते हैं। इसके अलावा वे कहते हैं कि कुछ आवक महुआ, गुल्ली, शहद समेत अन्य वन उत्पादों से हो जाती है। तेंदूपत्ता से भी आवक बनती है। इस तरह सुकून से जीवन चल जाता है।

वह कहते हैं, "मध्यप्रदेश सरकार ने इस बांध को बनाने के लिए 24 नवंबर 2022 को मुंबई की एफ्कोंस कंपनी के साथ अनुबंध किया है। हालाँकि इसके चंद दिनों पहले ही इस सरकार ने हम आदिवासियों से जुड़ा 'पेसा कानून' 15 नवंबर 2022 को लागू किया था जो हमें और हमारी ग्राम पंचायतों को इस बात का अधिकार देता है कि हमारे क्षेत्र में जब भी कोई योजना आएगी या बनाई जाएगी तो उसका क्रियान्वयन हमारी सहमति से ही होगा, हम पर थोपी नहीं जाएगी। हम पहले से ही पर्यावरण की रक्षा करते आ रहे हैं, क्योंकि जंगल ने हमें बहुत कुछ दिया है, आज भी ज़्यादातर आदिवासी जंगलों पर ही निर्भर हैं। ऐसे में हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम जल, जंगल और ज़मीन को बचाने की कोशिश करें और यह अधिकार 'पेसा एक्ट' के तहत ख़ुद सरकार ने हमें दिया है लेकिन हम से ही नहीं पूछा गया और बसनिया बांध का अनुबंध कर लिया गया। यह अन्याय है।”

वे यह भी कहते हैं कि वह बड़झर में अकेले नहीं रहते, बल्कि आदिवासियों के 100 के करीब परिवार रहते हैं और सभी लोग अपने-अपने तरीके से विरोध दर्ज करा रहे हैं।

"जंगल की सुरक्षा के नाम पर आदिवासियों की कई पीढियां गुज़र गईं। जब भी कोई बलिदान देने की बारी आती है तो हमें ही आगे धकेल दिया जाता है। बांध हो या सड़क या फिर और कोई परियोजना, सबसे पहले कमज़ोर और जंगल में रहकर जंगल की सुरक्षा करने वालों को ही सताया जाता है। बसनिया बांध को हरी झंडी दिखाकर सरकार ने यही किया है। मैं पूछता हूं क्यो? क्या कमी रह गई थी हम आदिवासियों में?” ये सवाल करते हैं मेहनवानी जनपद के कुशेरा के रहने वाले रामध्यप्रदेशसाद टेकाम।

टेकाम कहते हैं कि प्रभावशाली लोगों के आसपास सरकार कोई योजना नहीं बनाती, तब मुंह देखकर काम करती है और हम आदिवासियों की बारी आती है तो कोई कसर नहीं छोड़ती। हमें विस्थापन से ज़्यादा साजा पेड़ों की चिंता है। हमारी ज़मीन के बदले सरकार जो कुछ भी मुआवज़ा देगी, उससे हम कुछ ज़मीन तो खरीद लेंगें लेकिन साजा का पेड़ कहां से लाएंगें, हमारे 'बड़े देव' का वास कहां होगा?”

वे आगे कहते हैं कि सरकार कमज़ोर वर्ग के लोगों को सता रही है। यह नहीं चलेगा। वह ख़ुद को विकास विरोधी न बताते हुए कहते हैं कि जो भी हो, वे बांध नहीं बनने देंगें। सरकार अगर चाहे तो छोटी परियोजनाएं चालू कर सकती है।

रामध्यप्रदेशसाद टेकाम की तरह इन 31 गांवों में हज़ारों आदिवासी हैं जो इन दिनों सड़कों पर हैं। इन्हें स्थानीय जनप्रतिनिधियों का साथ भी मिल रहा है। हाल ही में मंडला के नारायणगंज से जबलपुर के लिए निकाली गई पैदल यात्रा का नेतृत्व ख़ुद निवास विधानसभा क्षेत्र के विधायक डॉ. अशोक मर्सकोले ने किया। इसमें चुटका परियोजना विरोधी संघर्ष समिति के संयोजक राजकुमार सिन्हा समेत 500 से अधिक लोग थे।

उल्लेखनीय है कि नर्मदा घाटी विकास विभाग के वार्षिक प्रशासनिक प्रतिवेदन 2009-2010 में नर्मदा नदी पर प्रस्तावित बसनिया बांध के सबंध में कुछ जानकारी मिलती है जिसके अनुसार ये दावा किया जाता है कि अगर बांध बन जाता है तो 42 गाँवों की 8780 हेक्टेयर ज़मीन पर सिंचाई होगी और 100 मेगावाट जल विद्युत का उत्पादन होगा। इसकी अनुमानित लागत 2884.88 करोड़ रुपये हैं।

लेकिन यह भी सच है कि 3 मार्च 2016 को विधानसभा में एक सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लिखित में जवाब दिया था कि बसनिया बांध नहीं बनाएंगें। तब तर्क दिया गया था कि अधिक डूब क्षेत्र होने, डूब क्षेत्र में वन भूमि आने समेत कुछ अन्य कारणों के चलते उक्त परियोजना को निरस्त कर दिया है। तब यह सवाल मंडला जिले के निवास विधानसभा क्षेत्र के विधायक डॉ.अशोक मर्सकोले ने पूछा था। जानकारों की मानें तो बसनिया बांध प्रभावित क्षेत्र में काश्तकारों की निजी भूमि 2443 हेक्टेयर, वन भूमि 2107 हेक्टेयर और शासकीय भूमि 1793 हेक्टेयर है। इस तरह प्राथमिक जानकारी के मुताबिक कुल 6343 हेक्टेयर ज़मीन डूब जाएगी।

मेधा पाटकर व अन्य ने लिखा पत्र

केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा गठित मूल्यांकन समिति के अध्यक्ष डॉ. गोपा कुमार को जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय की ओर से से 25 जनवरी 2023 को पत्र लिखा गया। इनमें नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रमुख मेधा पाटकर, बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ के संयोजक राजकुमार सिंहा, गंगा जलबिरादरी उप्र के मेजर हिमांशु, रिचा सिंह(सीतापुर), महेंद्र यादव(कोशी नव निर्माण मंच बिहार) और महाराष्ट्र की सुनिती शामिल थीं। आपको बता दें कि मंत्रालय द्वारा यह समिति बसनिया बांध समेत अन्य नदी घाटी परियोजना के मूल्यांकन को लेकर बनाई गई है। पत्र में कहा गया है कि नर्मदा घाटी में बरगी से सरदार सरोवर तक बहुत सारे बड़े बांधों के कई सारे परिणाम घाटी के आदिवासी, किसान, मज़दूर, पशुपालक और मछुआरे भुगत चुके हैं। सालों के संघर्ष के बाद भी आजतक हज़ारों परिवारों का पुनर्वास बाकी है। इसीलिए उनकी आजीविका और जीने का अधिकार बचाने के लिए अहिंसक सत्याग्रह करना पड़ा है।

नर्मदा-सोन घाटी भूकंप प्रवण क्षेत्र रहा है। घाटी में भूकंप के हादसे 3 रिक्टर स्केल से अधिक रहे हैं। इसका व्यापक एवं गहरा अध्ययन और सतत आकलन नहीं हो रहा है।

बसनिया नर्मदा घाटी की उन सात बांधों में से एक है जिसे 3 मार्च 2016 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ख़ुद मध्यप्रदेश विधानसभा में निरस्त किए जाने की घोषणा की थी। अब अचानक बांध को आगे बढ़ाने का निर्णय कब, किस स्तर पर और किस प्रक्रिया द्वारा लिया जा रहा है, यह स्पष्ट होना चाहिए।

पत्र में लिखा गया है, "नर्मदा जैसी नदी घाटी में कई बांधों की योजना होती है, पर्यावरण की दृष्टि से उन सभी का एकत्रित मूल्यांकन किया जाना ज़रूरी माना जाता है। लेकिन नर्मदा नदी का जल नियोजन न के बराबर दिखाई देता है और इसकी विस्तृत योजना की जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध भी नहीं है। नर्मदा घाटी का जंगल, उपजाऊ खेती और अन्य निस्तारी ज़मीन के साथ हरे अच्छादन डूबने से नदी पर ही गंभीर असर आ चुका है। नर्मदा नदी बरसात के कुछ महीनों बाद ही सूखने लगती है, जिसका असर सिंचाई और मत्स्य व्यवसाय पर ही नहीं बल्कि अन्य बांधों के लाभों पर भी पड़ता है। देश की खेती बचाकर विकेंद्रित जल नियोजन किया जाना आवश्यक है। प्रभावित ग्रामीणों को योजना की कोई जानकारी न देना और उनके द्वारा विरोध करने के बाद भी उन पर परियोजना थोपना पेसा कानून की खिलाफत होगी और मध्यप्रदेश सरकार का पेसा कानून पर अमल करने का दावा भी झूठा साबित होगा। इस परिस्थिति में आप जैसे विशेषज्ञ बसनिया बाँध की गैर कानूनी और अवैज्ञानिक प्रक्रिया को बढने नहीं देंगें, यही आग्रह है।”

जारी है पत्र लिखने का सिलसिला

उल्लेखनीय है कि उक्त समिति को पूर्व में ओढारी, चकदेही, दरगढ, चिमका टोला, रमपुरी, दुपट्टा, धनगांव, मुंडी, मोहगांव आदि प्रभावित गांव के अलावा जिला पंचायत के सदस्य भूपेंद्र बरकड़े और क्षेत्रीय विधायक डॉ. अशोक मर्सकोले भी पत्र लिख चुके हैं।

(लेखिका एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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