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ख़बरों के आगे-पीछे: तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की हक़ीक़त!

अर्थव्यवस्था की हक़ीक़त समेत अशोका रिसर्च पेपर, मेवात हिंसा, AAP पर मीडिया की मेहरबानी और मायावती व अंबेडकरवादी राजनीति पर अपने साप्ताहिक कॉलम में चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के प्रगति मैदान में नए कन्वेंशन सेंटर का उद्घाटन करते हुए कहा कि उनके तीसरे कार्यकाल में भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाएगा। उन्होने कहा कि यह उनकी गारंटी है। मीडिया में इसे मोदी की गारंटी के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। लेकिन असल में यह कोई गारंटी नहीं है, बल्कि एक सीधा सा गणित है, जिसके तहत भारत 2027 तक अगर स्थिति सामान्य रही तो दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाएगा। उस समय देश में सरकार चाहे जिस पार्टी या गठबंधन की हो, उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। आखिर पिछले तीन साल तक भारत की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठे रहने के बावजूद भारत ब्रिटेन को पीछे छोड़ कर पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया। अगर अर्थव्यवस्था सुस्त नहीं होती तो भारत 2022 में ही तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया होता। असल में भारत की अर्थव्यवस्था को गति देने का काम 2004 से 2014 के बीच हुआ। 2004 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हटी तब भारत की जीडीपी 722 अरब डॉलर की थी, जो 2014 में बढ़ कर 2,039 अरब डॉलर की हो गई। यानी 10 साल में तीन गुना बढ़ोतरी हुई। इसके बाद 2014-15 में रफ्तार ठीक रही पर 2016 के अंत में हुई नोटबंदी और उसके बाद जीएसटी व कोरोना की वजह से अर्थव्यवस्था बुरी तरह से सुस्त हो गई। इसके बावजूद 2023 मे जीडीपी 3,737 अरब डॉलर की हो गई। इसमें 84 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इससे पहले मनमोहन सिंह के समय 183 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी। अनुमान है कि अब अगले चार साल जीडीपी 38 फीसदी बढ़ेगी और भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। इसलिए यह गारंटी नहीं, बल्कि गणित है। परंतु जीडीपी के आकार से देश की असली आर्थिक तस्वीर ज़ाहिर नहीं होती है। असली तस्वीर प्रति व्यक्ति आय से ज़ाहिर होती है, जिसमें भारत शीर्ष 10 देशों में नहीं है।

क्या लोकसभा चुनाव में हुई थी 'गड़बड़ी', क्या कहता है रिसर्च पेपर?

पिछले कुछ सालों से कई विपक्षी दल चुनाव में गड़बड़ी का आरोप लगाते रहे हैं। कई लोग ईवीएम को दोष देते हैं तो कुछ लोग मतदाता सूचियों में गड़बड़ी कराने के आरोप लगाते है। अब इस मामले में एक नई शोध रिपोर्ट आई है, जिसे लेकर बहस शुरू हो गई है। देश की प्रतिष्ठित अशोका यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर सब्यसाची दास ने एक शोध में बताया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जिन सीटो पर नज़दीकी मुकाबला था वहां भाजपा को अनुपात से ज़्यादा सीटें मिलीं और खास कर ऐसे राज्यों में जहां उसकी अपनी सरकार थी। सब्यसाची दास ने 'डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’ नाम से शोध पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने कमज़ोर निगरानी होने से चुनावी गड़बड़ी की आशंका भी जताई है। हालांकि उन्होंने यह सफाई भी दी है कि वे हर जगह गड़बड़ी होने की बात नहीं कर रहे हैं। लेकिन 25 जुलाई को उनके इस शोध पत्र के प्रकाशित होने के बाद से ही हंगामा मचा है। बौद्धिक और राजनीतिक जमात इस पर दो हिस्सों में बंटी है। भाजपा नेताओं ने इसे लेकर अशोका यूनिवर्सिटी पर सवाल उठाए है तो कांग्रेस के शशि थरूर ने रिपोर्ट की फाइंडिंग ट्वीट करते हुए कहा है कि अगर ऐसा है तो यह बहुत चिंता की बात है। विवाद बढ़ने के बाद यूनिवर्सिटी ने स्पष्टीकरण दिया है कि यूनिवर्सिटी की ओर से रिसर्च को बढ़ावा दिया जाता है लेकिन रिसर्च के विषय और उसकी फाइंडिंग में यूनिवर्सिटी का कोई दखल नहीं होता है।

मेवात पर केंद्रीय मंत्री और भाजपा आमने-सामने

हरियाणा के मेवात इलाके में हुई सांप्रदायिक हिंसा को लेकर भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह के बयान ने राज्य की भाजपा सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। राज्य भाजपा के नेताओं और हरियाणा सरकार की ओर से बार-बार कहा जा रहा है कि नूंह में हुई हिंसा एक बड़ी साज़िश का नतीजा है। राज्य के गृह मंत्री अनिल विज ने कहा है कि इतना बड़ा दंगा बिना किसी मास्टरमाइंड के अंजाम नहीं दिया जा सकता। भाजपा का कोई नेता या राज्य सरकार का मंत्री गुरुग्राम हिंसा की बात नहीं कर रहा है। सब नूंह के पीछे लगे हुए हैं। लेकिन दूसरी ओर गुरुग्राम से भाजपा के सांसद और केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने 31 जुलाई को निकाली गई ब्रजमंडल शोभायात्रा पर भी सवाल उठाया है। उन्होंने कहा है कि शोभायात्रा में शामिल लोगों को हथियार किसने दिए। प्रदेश में भाजपा की सहयोगी जननायक जनता पार्टी के नेता और राज्य के उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला का बयान भी भाजपा की ओर से दिए जा रहे बयान से अलग है।

चौटाला ने भी शोभायात्रा के आयोजकों की भूमिका पर सवाल उठाया और कहा कि उन्होंने पुलिस और प्रशासन को यात्रा के बारे में पूरी जानकारी नहीं दी थी। चौटाला का कहना है कि मेवात का एक इतिहास रहा है। वहां हमेशा सांप्रदायिक सौहार्द्र रहा है और कभी इस तरह का घटनाक्रम नहीं हुआ। एक तरफ गृह मंत्री अनिल विज कह रहे है कि वहां किसी ने भड़काऊ भाषण नहीं दिया तो दूसरी ओर दुष्यंत चौटाला का आरोप है कि मोनू मानेसर ने आग में घी डालने का काम किया। गौरतलब है कि मोनू मानेसर राजस्थान के दो मुस्लिम युवकों की हत्या का आरोपी है और अभी तक पुलिस उसे गिरफ्तार नहीं कर पाई है। बताया जा रहा है कि एक वीडियो के ज़रिए उसके शोभायात्रा में शामिल होने का दावा किया गया था, जिससे मेवात के लोग भड़के।

मज़दूरों की 'ढुलाई' के लिए विशेष ट्रेनें चलेंगी!

अब तक माल ढुलाई के लिए विशेष ट्रेनें चलती थी या उनके लिए अलग डेडिकेटेड रेल लाइन बिछाई जाती थी लेकिन अब भारतीय रेलवे मज़दूरों की ढुलाई के लिए विशेष ट्रेनें चलाने जा रहा है। देश के जो पिछड़े और गरीब राज्य है, जहां लोगों के पास रोज़गार नहीं है और जहां की सरकारों ने अपने राज्य को मज़दूर सप्लाई करने की फैक्टरी बना रखा है, उन राज्यों से विशेष ट्रेन चलेंगी, जो उन राज्यों में जाएंगी जहां फैक्टरियां लग रही है और मज़दूरों की ज़रूरत है। इन ट्रेनों की विशेष बात यह होगी कि इनमें सिर्फ जनरल बोगी होगी, यानी कोई वातानुकूलित बोगी नहीं होगी। याद करें कि जब लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री थे तो उन्होंने गरीब रथ नाम से ट्रेनें चलवाई थीं, जिनमें सारी बोगियां वातानुकूलित होती थीं और किराया भी दूसरी ट्रेनों से कम होता था। अब मज़दूरों की ढुलाई के लिए सिर्फ दूसरे या तीसरे दर्जे की सीट वाली ट्रेनें चलाई जाएंगी। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल से ये ट्रेनें चलेंगी और इनका गंतव्य महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, दिल्ली, तमिलनाडु आदि राज्य होंगे। रेलवे की ओर से कहा गया है कि आरक्षित सीटों के लिए होने वाली मारामारी को देखते हुए ये विशेष ट्रेनें चलाने का फैसला लिया गया है।

तालमेल का रास्ता तलाश रही हैं मायावती

बसपा सुप्रीमो मायावती ने भले ही कह दिया हो कि राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव उनकी पार्टी अकेले लड़ेगी लेकिन हकीकत यह है कि वे अगले लोकसभा चुनाव से पहले किसी तरह से तालमेल करने का रास्ता तलाश रही है। दरअसल वे जानती हैं कि विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में उनका कुछ भी दांव पर नहीं है लेकिन लोकसभा में उनकी 10 सीटें दांव पर हैं। पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ तालमेल करके लड़ने से उनकी पार्टी के 10 उम्मीदवार लोकसभा में पहुंचे थे। उससे पहले 2014 में वे अकेले लड़ी थीं और 20 फीसदी वोट लाने के बावजूद वे एक भी सीट नहीं जीत सकी थीं। अब उनका वोट 20 से घट कर 13 से 14 फीसदी के करीब पहुंच गया है। इसलिए अकेले लड़ कर वे एक भी सीट शायद नहीं जीत पाएं। पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी का सिर्फ एक उम्मीदवार जीता था। सो, अगर लोकसभा में भी वे जीरो पर आती हैं तो उनकी उनके लिए पार्टी को संभाले रखना मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए वे तालमेल का रास्ता तलाश रही हैं। उन्होंने संकेत देते हुए कहा है कि वे विधानसभा चुनाव के बाद तालमेल कर सकती है। यह कई पार्टियों के लिए संकेत है। बताया जा रहा है कि कांग्रेस के साथ उनका संपर्क हुआ है। कांग्रेस के साथ तालमेल में मायावती कई राज्यों में सीटें मांग सकती हैं। यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को लेकर भी वे चिंतित हैं। उन्हें लग रहा है कि खरगे की वजह से कई राज्यों में दलित वोट कांग्रेस की ओर जा सकता है। इसलिए वे कांग्रेस या पुरानी सहयोगी समाजवादी पार्टी की ओर देख रही हैं। उन्हें पता है कि भाजपा उनसे तालमेल नहीं करेगी।

आम आदमी पार्टी पर मीडिया की मेहरबानी!

आम आदमी पार्टी पर वैसे तो मीडिया हमेशा ही मेहरबान रहती है। इतना मेहरबान कि भाजपा के बाद शायद सबसे ज़्यादा स्पेस उसे ही देता है। संसद के मानसून सत्र में भी यही हो रहा है। उसके नेता हर मामले में बयान दे रहे हैं और मीडिया उनको भरपूर कवरेज दे रहा है। हालांकि राज्यसभा में पार्टी के 10 और लोकसभा में महज़ एक ही सदस्य है, लेकिन मीडिया उसे सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी की तरह ही महत्व दे रहा है। संजय सिंह को पूरे सत्र के लिए राज्यसभा से निलंबित कर दिया गया है, लिहाजा वे संसद परिसर में धरना दे रहे हैं। सोनिया गांधी और अखिलेश यादव उनसे मिलने आए तो उससे भी उन पर फोकस बना। दूसरी ओर पहली बार के राज्यसभा सदस्य राघव चड्ढा भी बेहद सक्रिय हैं। वे विपक्षी दलों की बैठक में अपनी पार्टी की नुमाइंदगी कर रहे हैं और सदन के अंदर भी वे खूब मुखर हैं। हर मसले पर उनकी ओर से नोटिस दिया जा रहा है, लिहाजा हर मसले पर उन्हें बोलना होता है और संसद परिसर में हर मसले पर मीडिया को बाइट भी वे ही देते हैं। दिल्ली सेवा विधेयक के मसले पर विपक्षी पार्टियों ने आम आदमी पाटी को समर्थन दिया, जिसका उसने भरपूर फायदा उठाया। बाकी ज़िम्मेदारी मीडिया ने निभाई। मीडिया उस पर यह मेहरबानी यूं ही नहीं बरसा रहा है। गौरतलब है कि दिल्ली और पंजाब की सरकार से मीडिया को भरपूर विज्ञापन मिलते हैं।

अंबेडकरवादी राजनीति का नया दावेदार

अभी तक बहुजन समाज पार्टी बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के नाम पर राजनीति करने का अपना एकाधिकार मानती रही है। बसपा के संस्थापक कांसीराम वह नेता थे जिन्होंने अंबेडकर को देश की राजनीति मे सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया। महात्मा गांधी नि:संदेह भारत में सबसे ज़्यादा सम्मानित हैं लेकिन उनके नाम पर वोट नहीं मिलता है। वोट दिलाने वाले नाम के तौर पर अंबेडकर को कांसीराम ने ही स्थापित किया और बाद में इस विरासत को मायावती ने आगे बढ़ाया। अंबेडकर के अपने पोते उनके नाम का वह इस्तेमाल नहीं कर पाए जो कांसीराम और मायावती ने किया। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि मायावती के हाथ से यह विरासत निकल रही है। मायावती की निष्क्रियता और चुनावी पराजय ने उनको हाशिए पर धकेला है और उनकी जगह लेने के लिए तेज़ी से जो चेहरा उभर रहा है वह चंद्रशेखर आज़ाद का है। उन्होंने भीम आर्मी बनाई है और अपने आक्रामक तेवर से युवाओं को अपने साथ जोड़ रहे हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने इस पर मुहर भी लगाई है। उन्होंने अपने यहां भीमराव अंबेडकर की 125 फीट ऊंची मूर्ति का अनावरण किया तो उस कार्यक्रम में मायावती या प्रकाश अंबेडकर की बजाय उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद को बुलाया। बदले में चंद्रशेखर ने उन्हें 26 अगस्त को होने वाले भीम आर्मी के महासम्मेलन में शामिल होने का न्योता दिया। पिछले दिनों चंद्रशेखर के ऊपर गोली चली थी, जिसके बाद उनके प्रति लोगों की जिज्ञासा और बढ़ी है।

दिनाकरण और कमल हसन किसके साथ जाएंगे?

तमिलनाडु में किसी भी दूसरे राज्य के मुकाबले ज़्यादा ऐसी पार्टियां हैं, जिनका कुछ न कुछ आधार है और लोकसभा, विधानसभा में उपस्थिति दर्ज होती रहती है। डीएमके और अन्ना डीएमके के अलावा जातीय और क्षेत्र के आधार पर कई पार्टियां बनी हैं। डीएमडीके, एमडीएमके, पीएमके, वीसीके, एमएनएम, एएमएमके ये सारी क्षेत्रीय पार्टियां हैं। इनके अलावा दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां और कांग्रेस व भाजपा तो है ही। पिछले कुछ दिनों से गठबंधन बनाने की जो मुहिम चल रही है उसमें ज़्यादातर पार्टियां भाजपा या कांग्रेस के गठबंधन का हिस्सा बन गई है। लेकिन दो पार्टियां ऐसी है, जिन्होंने तय नही किया है कि वे एनडीए मे जाएंगी या 'इंडिया’ में। दोनों गठबंधनों की तरफ से इनसे अभी संपर्क भी नहीं किया गया है। इनमें से एक पार्टी टीटीवी दिनाकरण की एएमएमके है और दूसरी कमल हसन की एमएनएम है। जयललिता की सहेली रहीं वीके शशिकला और दिनाकरण रिश्तेदार हैं। शशिकला की शह पर ही दिनाकरण ने पार्टी बनाई थी और यही कारण है कि अन्ना डीएमके के दोनों गुटों के नेता यानी ई. पलानीस्वामी और ओ. पनीरसेल्वम दोनों ने उनसे दूरी बनाई है। इस वजह से भाजपा भी एप्रोच नहीं कर रही है। दूसरी ओर कमल हसन की पार्टी का कांग्रेस के साथ संबंध अच्छा है लेकिन एमके स्टालिन की मर्जी के बगैर कांग्रेस उनसे एप्रोच नहीं कर सकती। सो, दोनों का मामला अटका है। इसके बावजूद माना जा रहा है कि दोनों पार्टियां लोकसभा की छह सीटों पर किसी भी गठबंधन का समीकरण खराब कर सकती हैं। सो, संभव है कि आने वाले दिनों में दोनों गठबंधनों की ओर से इनसे भी संपर्क किया जाए। 
 

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