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बेंगलुरु: बर्ख़ास्तगी के विरोध में ITI कर्मचारियों का धरना जारी, 100 दिन पार 

एक फैक्ट-फाइंडिंग पैनल के मुतबिक, पहली कोविड-19 लहर के बाद ही आईटीआई ने ठेके पर कार्यरत श्रमिकों को ‘कुशल’ से ‘अकुशल’ की श्रेणी में पदावनत कर दिया था।
ITI
दूरवाणी नगर में अपनी बर्खास्तगी के विरोध के 100वें दिन धरने पर बैठे आईटीआई कर्मचारी

इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज (आईटीआई) बेंगलुरु के बर्खास्त कर्मचारी जिस स्थल पर अपनी बर्खास्तगी का विरोध कर रहे हैं, वह स्थल 10 मार्च को धरने के 100वें दिन ‘हमें न्याय चाहिए’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारों से गुंजायमान हो उठा था। पिछले तीन महीने से अधिक समय से अपने-अपने परिवारों से दूर रहकर, कर्मचारी दूरवाणी नगर में तिरपाल की चादरों के नीचे रहते हुए धरना दे रहे हैं।

धरने के 100वें दिन को एक फैक्ट-फाइंडिंग कमेटी की उपस्थिति ने उल्लेखनीय बना दिया था, जिसने ‘आईटीआई, बेंगलुरु में श्रमिकों के गैरकानूनी निलंबन पर फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में कर्मचारियों के निलंबन से पहले और बाद के घटनाक्रम और समय को सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत किया गया है। नेशनल अलायन्स फॉर पीपल्स मूवमेंट एवं दलित संघर्ष समिति के प्रतिनिधियों ने भी धरनास्थल पर उपस्थित होकर कर्मचारियों के साथ अपनी एकजुटता का इजहार किया।

इस रिपोर्ट में ठेका श्रमिकों की गवाहियों के साथ-साथ एक यूनियन बनाए जाने का भी उल्लेख है और 15 अक्टूबर, 2020 को प्रबंधन को सौंपे गए कर्मचारियों की मांगों को लेकर बने एक घोषणापत्र को भी सूचीबद्ध किया गया है। 

फैक्ट-फाइंडिंग टीम ने धरना स्थल पर ‘आईटीआई बेंगलुरु में श्रमिकों के गैर-क़ानूनी तौर पर निलंबन पर फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट’ शीर्षक से रिपोर्ट जारी की। 

25-पेज की इस रिपोर्ट के अनुसार, कमेटी के सदस्य “महसूस करते हैं कि इस प्रकार की विषम परिस्थितियों में आईटीआई श्रमिकों का संघर्ष उनके लचीलेपन को दर्शाता है और उनके संवैधानिक अधिकारों, निष्पक्षता, समावेशी एवं नागरिकता के दावों का प्रतीक है। औद्योगिक श्रमिकों के संघर्षों और किसानों के संघर्षों को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता है: ये दोनों ही एक व्यापक राजनीतिक-आर्थिक प्रवृत्ति के हिस्से हैं जो सार्वजनिक एवं निजी दोनों ही क्षेत्रों में अभिजात्य कॉर्पोरेट प्रबंधन के हाथों में धन और शक्ति को उपर की ओर संकेंद्रित करती जा रही है।  

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि “2020 में कोरोनावायरस की पहली लहर के दौरान आपातकालीन सेवाएं मुहैय्या करने के बावजूद, इसके फौरन बाद ही आईटीआई ने ठेका श्रमिकों को ‘कुशल’ से ‘अकुशल’ श्रेणी में पदावनत कर दिया, जो पूरी तरह से उनके अनुभव के आधार के बजाय उनकी शिक्षा के स्तर पर आधारित था।” 

जैसा कि एक ठेका कर्मचारी ने रिपोर्ट में जिक्र किया है: “अचानक से मैं [कुशल से] अकुशल हो गया था... एक महीने के भीतर मैं पहले की तुलना में करीब 5,000 रूपये कम कमाने लगा था। हमने सोचा कि चूँकि हम लोग यहाँ पर काफी लंबे अर्से से काम कर रहे हैं तो चलो कोई बात नहीं। लेकिन बाद में हमें इस बात का अहसास हुआ कि हम लोग तो गुलामों की तरह काम कर रहे हैं और हमें जो अधिकार प्राप्त होने चाहिए उसके लिए सवाल भी नहीं कर रहे हैं।” 

सदस्यों ने उल्लेख किया कि कैसे “सांकेतिक भेदभाव करना, महिलाओं और वंचित जातियों और वर्गों के लोगों को असमान रूप से प्रभावित कर रहा है, जो ठेका श्रम प्रथा की एक मुख्य विशेषता है- एक ऐसा तथ्य जिसे व्यापक जनसामान्य के द्वारा पहचान की जानी चाहिए। 

कमेटी के सदस्यों में से एक, आकाश भट्टाचार्य ने श्रमिकों से कहा कि, “हम एक ऐसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं जहाँ पर विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों को आज की सरकार के द्वारा अपराध और असामाजिक गतिविधि के तौर पर तिरस्कृत किया जा रहा है। इसने श्रमिकों पर क्रूरता को सक्षम किया, जिसका हमें पूरी ताकत और संसाधनों के साथ सामना करने की जरूरत है। इसलिए, 100वें दिन के अवसर पर इस रिपोर्ट को जारी करना आईटीआई के श्रमिकों के प्रति एकजुटता और समर्थन का संकेत है।”

एक अन्य कमेटी सदस्य, जूही त्यागी ने न्याय की मांग के लिए कर्मचारियों की सराहना की और कहा कि रिपोर्ट “आईटीआई प्रबंधन के द्वारा किये जा रहे शोषण के खिलाफ जुझारू भावना को मजबूत करने” का एक माध्यम है।

आईटीआई कर्मचारियों की जाति, वर्ग, लिंग, और भाषाई पृष्ठभूमि पर एक अध्ययन में समाजशास्त्री दिलीप सुब्रमणियम ने पाया कि पीएसयू- के लिए छह वंचित जातियों के लिए आरक्षण अनिवार्य था- ने दलित श्रमिकों के लिए मामूली उर्ध्वगामी गतिशीलता के लिए एक अवसर प्रदान किया था। पहले कुछ दशकों में, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में भूमिहीन एससी समुदायों के प्रवासियों को नौकरियां मुहैया कराई थीं। लेकिन आधे से ज्यादा बर्खास्त ठेका श्रमिक अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति जैसी पिछड़ी जातियों से आते हैं। 

कर्नाटक जनरल लेबर यूनियन आईटीआई ईकाई के अध्यक्ष हेमंत ने कहा, “हमारी सामजिक-आर्थिक कमजोरी हमारे अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा बनी हुई है और जो लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं, उन्होंने 2018-19 में 111 करोड़ रूपये का भारी-भरकम मुनामा कमाया। अब, प्रबंधन यह दिखाने के लिए आंकड़ों के साथ हेराफेरी कर रहा है कि उत्पादन में कमी आई है। विशेष रूप से इस निलंबन ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से आने वाले श्रमिकों की सामाजिक उर्ध्वगामी गतिशीलता को बाधित करने का काम किया है।”

बर्खास्त कर्मचारियों में से एक प्रवीण ने आरोप लगाते हुए कहा कि आईटीआई प्रबंधन ने “कर्नाटक के श्रम मंत्री के फैक्ट्री के दौरे के बाद 40 श्रमिकों को वापस काम पर लेने का वादा किया था। लेकिन अगले ही दिन, मार्च के प्रथम सप्ताह में, कंपनी “अदालती सुनवाई के दौरान अपने इस वादे से मुकर गई।”

धरने को विभिन्न क्षेत्रों में सभी श्रमिकों के द्वारा सराहा गया है। फरवरी के मध्य में, विख्यात सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने श्रमिकों के साथ मुलाक़ात की थी, उनके दृढ निश्चय के लिए उन्हें सराहा था और आईटीआई के द्वारा उनके “शोषण” करने पर उन्हें जमकर लताड़ लगाई थी। फरवरी के अंतिम सप्ताह में, 800 लोगों ने किसानों और दलित संगठनों के द्वारा आयोजित एक आईटीआई श्रमिक सम्मेलन में भाग लिया था।

आईटीआई सॉलिडेरिटी ग्रुप—जिसमें मानवाधिकार वकील, पत्रकार, श्रम अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षक और जागरूक नागरिक शामिल हैं- ने 7 फरवरी को केंद्रीय श्रम मंत्री भूपेन्द्र यादव को एक पत्र लिखकर उसमें कर्मचारियों के हिस्से में मिलने वाले “संस्थागत अन्याय” के घटनाक्रम पर प्रकाश डाला था।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अंग्रेजी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:-

‘We Want Justice’: Protest by Sacked ITI Bengaluru Workers Enters 100th day

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