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भगत सिंह झुग्गियाँ- वह स्वतंत्रता सेनानी जो सदा लड़ते रहे

ब्रितानिया सल्तनत के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने वाले, भगत सिंह झुग्गियाँ सदा लोगों के हक़ में आवाज़ उठाते रहे। इसी महीने आठ तारीख़ को उन्होंने अंतिम साँस ली। लेखक उनकी ज़िंदगी की कुछ झलकियाँ दिखा रहे हैं...
Bhagat Singh Jhuggiyan

होशियारपुर, पंजाब: यह 13 मार्च, 2022 था। हिन्दोस्तान के पंजाब की गोद में बसे होशियारपुर ज़िले एक छोटे से गाँव झुग्गियाँ में 200 लोग जमा थे। वह नारा लगा रहे थे। वह अपनी-अपनी मुट्ठियाँ भींचे और हाथों को आसमान की तरफ़ सीधा रखे हुए कह रहे थे— भगत सिंह (झुग्गियाँ) अमर रहें। वह एक और नारा लगा रहे थे- “ब्रितानिया मुर्दाबाद, हिन्दोस्तान ज़िंदाबाद"। ब्रितानी साम्राज्य के हिन्दोस्तान से चले जाने के 75 सालों बाद उनके ख़िलाफ़ यह नारा मामूल से ज़रा हटकर था।

मालूम हो कि भगत सिंह झुग्गियाँ का नाम भारत के एक और महान क्रांतिकारी कॉमरेड भगत सिंह से मिलता है। साथ-साथ दोनों के विचार भी मिलते हैं। दोनों ही भारत की आज़ादी की लड़ाई में शरीक़ हुए। जिस ज़माने में कॉमरेड भगत सिंह को फाँसी हुई, भगत सिंह झुग्गियाँ बड़े हो रहे थे। अपनी तमाम उम्र संघर्ष को समर्पित करने के बाद इस महीने की 8 तारीख़ को लगभग 95 वर्ष की उम्र में भगत सिंह झुग्गियाँ ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेख में आगे भगत सिंह का मतलब भगत सिंह झुग्गियाँ है।

भगत सिंह हिन्दोस्तान की आज़ादी की तहरीक में शामिल होकर लड़ने वाले उन परवानों में से थे जो 1947 के बाद भी ज़ुल्म और ज़्यादती के ख़िलाफ़ लड़ते रहे। मार्च की 13 तारीख़ को उनका अंतिम संस्कार किया गया। उनकी मौत पर आसमान भी सोग में डूबा नज़र आ रहा था। उस दिन सूरज भी ज़रा जल्दी सो गया था। नारा लगते हुए उनके साथियों के हाथों में झंडे आधे झुके हुए थे। उनके नारों की गूंज से आसमान की फ़िज़ा में ‘दीपक राग’ बसने लगा था।

दर्शन सिंह मट्टू भारतीय कॉम्युनिस्ट पार्टी, पंजाब के सूबा समिती के मेम्बर और भगत सिंह के साथी रहे हैं। दर्शन मुझे बताते हैं, “वह अंधेरे में हमारे मशाल की तरह थे”।

वह कहते हैं, “उनके (भगत सिंह) चले जाने से अंधेरा और गहरा हो गया है”। यदि पत्रकार पी साईनाथ, पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (PARI) के संस्थापक संपादक ने पिछले साल उनका साक्षात्कार नहीं लिया होता, तो इतिहास भगत सिंह और ब्रितानिया साम्राज्य के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाईयों को जानने से महरूम रह जाता।

ब्रिटेन ने बहुत सारे मुल्कों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। हिन्दोस्तान भी उन्हीं बदनसीबों में एक था। ब्रिटेन अपने बारे में यह कहते नहीं थकते थे कि उनका साम्राज्य इतना विशाल है, कि जिस पर सूरज कभी ग़ुरूब नहीं होगा। भगत सिंह और तमाम क्रांतिकारियों ने यह ठान लिया था कि वह इस साम्राज्य का तख़्ता पलट देंगे। सन् 1947 में उनका सूरज उनके घर तक सीमित हुआ। यह बात भी तय हो गई कि इतिहास ब्रिटेन को ज़माने पर किए उसके ज़ुल्म के लिए कभी माफ़ नहीं करेगा।

आज़ादी की जंग के दौरान एक नौजवान भगत सिंह भूमिगत क्रांतिकारियों के लिए संदेशवाहक होते, और वह उन्हें प्रिंटिंग प्रेस मशीन और भोजन पहुँचाया करते। उन दिनों उन्होंने साईनाथ से कहा, “जितना मैं पुलिस से डरता था, उससे कहीं ज़्यादा पुलिस मुझसे डरती थी”। उन्होंने 1945 में आज़ादी समिति बनाई। ब्रिटिश सेना ने भगत सिंह को जेल में डाल दिया।

दर्शन कहते हैं, “आज़ादी समिति अब शांति समितियों का भी आयोजन करने लगी थी क्योंकि उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध भी चल रहा था”। भगत सिंह लोगों को युद्ध के खिलाफ शांति के लिए संगठित करने लगे थे।

ब्रिटिश साम्राज्य अपने घर ज़रूर लौटा, मगर अपने पीछे उन्होंने हिन्दोस्तान को बँटवारे की आग में झोंक दिया। क़त्ल-ओ-ग़ारत का वह आलम था कि रेल गाड़ियाँ ख़ून के पटरियों पर चलती थीं। लोग सरहद पार हिफ़ाज़त तलाश रहे थे। इस मौत की घड़ी में सिर्फ़ एक ही इंसान ख़ुश रहा होगा— साईरिल रेडक्लिफ़। ब्रिटेन साम्राज्यवाद के इसी नुमाइंदे ने सरहद की लकीर ख़ींच दी थी और मुल्क के साथ-साथ दिलों को भी बाँट दिया था।

भगत सिंह झुग्गियां और भारत में उन जैसे कई लोग, 'उन समूहों में थे जो मुसलमानों को हमलावरों से बचाते था और उन्हें हिफ़ाज़त से लोगों की निगाह से बचाकर खामोशी से घर पर पनाह देता था'।

दर्शन ने कहा, “भगत सिंह मुसलमानों की सेवा किया करते। हिन्दोस्तान छोड़कर और नवगठित पाकिस्तान की ओर कूच करने वाले मुसलमानों को वह भोजन और शरबत दिया करते। उस ख़ौफ़नाक दौर और तबाही के मंज़र में भी भगत सिंह ने यह सुनिश्चित किया कि वह लोग कि जिनके घरों को लूट लिया गया वह भूखे न रह जाएँ"।

उनकी लड़ाई ब्रितानिया सल्तनत के नस्त-ओ-नाबूद होने के साथ ही ख़त्म नहीं हुई, बल्कि यह और आगे बढ़ गई और तेज़ हो गई। वह हमेशा आँखों में तेज़ी, ज़ेहन में सोच और दिल में हिम्मत का एहसास लिए इतिहास की उस विचार पर चलते रहे जो सदा बुलंदियों पर रहा है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई, लड़ाई और संघर्ष करने का उनका जज़्बा और मजबूत होता गया।

यह 1948 की बात है। उन्होंने बड़े ज़मींदारों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था। अभी ब्रिटेन के हुकूमत को गए एक बरस भी नहीं हुए थे और भारत सरकार ने उन्हें तीन महीने तक जेल में क़ैद रख दिया। चार साल बाद, भूमिहीन किसानों को उनके द्वारा किए गए इसी आंदोलन के कारण कुछ ज़मीन हासिल भी हुई। एक साल बाद, 1953 में वह अपने तीन साथियों - बधावा राम, राजिंदर सिंह और गुरचरण सिंह रंधावा के साथ सचमुच भूमिगत हो गए। हालांकि, इस बार भूमिगत होने का मतलब था कि वह एक सुरंग के माध्यम से लुधियाना जेल से निकल बाहर निकल गए।

उसी बरस 1953 में पंजाब की सरकार ने पानी पर भारी टैक्स लगाया था, जिसमें परिवार के हर सदस्य को टैक्स देना लाज़िम था। भगत सिंह ने एक बार फिर संघर्ष का रास्ता चुना। एक बार फिर उन्हें तीन महीने जेल में बिताने पड़े, जिसके बाद टैक्स का तख़्ता-पलट हो गया। यह मालूम नहीं कि उनकी कार्रवाई ब्रितानिया सल्तनत द्वारा लगाए गए नमक पर टैक्स के खिलाफ मोहनदास करमचंद गांधी के नेतृत्व में दांडी मार्च से प्रेरित थी या नहीं, मगर देश ने नमक पर टैक्स लगाने वालों के ख़िलाफ़ जंग को याद रखा और पानी पर टैक्स लगाने वालों से लड़ाई लड़ने वालों की ख़बर भी नहीं ली।

एक पुरानी कहानी का मफ़हूम है कि नमक मोहब्बत का रिश्ता दर्शाता है। ऐसी कोई कहानी याद नहीं आती जो ज़िंदगी का पानी से रिश्ता बता दे।

वह 1972 में पंजाब के मोगा में हुए छात्रों पर लाठीचार्ज के विरुद्ध डटकर खड़े हो गए। सरकार ने उन्हें फिर 45 दिनों के लिए होशियारपुर जेल में डाल दिया। जब छूटकर लौटे तो अगले ही साल 1973 में महंगाई के ख़िलाफ़ संघर्ष में शामिल हो गए। इस बार उनके साथ उनके 35 अन्य साथियों को चंडीगढ़ से गिरफ़्तार कर लिया गया और उन्हें पटियाला जेल में फिर तीन महीने बिताने पड़े। अगले साल, 1974 में किसान सभा की एक बैठक के दौरान उन्हें फिर से गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया।

अगले बरस 1975 में वह आपातकाल के खिलाफ मंच से बोल रहे थे। उन्हें मंच से ही गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर उन्हें 14 दिन होशियारपुर जेल में बिताने पड़े। छूटकर आए तो ठिक उसी तरह जैसे वह ब्रितानी हुकूमत के ख़िलाफ़ लड़ते थे, वैसे ही इमर्जेन्सी के ख़िलाफ़ लड़ने लगे। वह आपातकाल-विरोधी साहित्य को लोगों तक पहुँचाने लगे। उन्होंने भूमिगत साथियों के लिए एक बार फिर कुरियर की भूमिकाएँ निभाईं।

उन्होंने हर दौर में संघर्ष किया। अब 1980 की बारी थी। उन्होंने कारख़ाने के उन मज़दूरों को वापिस काम पर लगवाने में मदद की जिन्हें वहाँ के मालिकों द्वारा निकाल दिया गया था। यह आंदोलन करीब 93 दिनों तक चला। इन तीन महीनों में उन्होंने मज़दूरों के लिए भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था भी की। भूख के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाई विभाजन के दौरान भी जारी थी, और विभाजन के बाद भी।

उसी साल पंजाब सरकार ने बस का किराया 43 फीसदी तक बढ़ा दिया था। उन्होंने इसके खिलाफ भी लड़ाई लड़ी। तब सरकार ने उनकी गिरफ़्तारी का वारंट जारी कर दिया और जगह-जगह छापेमारी की। मगर इस बार भगत सिंह पकड़ में आने वाले नहीं थे। इस बार सरकार को हाथ में थोड़ी सी रेत और मुंह में धूल के अलावा कुछ भी हासिल न हुआ।

वह 1990 के दशक में लगातार ख़ालिस्तानियों के ख़तरे में रहे। उन दिनों पंजाब आतंक की गिरफ़्त में था। उनकी टारगेट लिस्ट में भगत सिंह झुग्गियां भी थे। वह उनको मारने आए भी मगर क़िस्मत को उनकी ज़िंदगी के पन्ने हरे रखने थे। ख़ालिस्तानियों में से एक जिसके भाई को उन्होंने नौकरी दिलाने में मदद की थी, उसने दूसरों ख़ालिस्तानियों की ओर रुख़ किया और कहा, "अगर यह भगत सिंह झुग्गियां हैं जो हमारा लक्ष्य हैं, तो मुझे इससे कोई लेना-देना नहीं होगा”। ये एक पुराने स्वतंत्रता सेनानी ने पी साईनाथ को बताया था।

भगत सिंह के छोटे बेटे 51 वर्षीय परमजीत सिंह ने मुझसे कहा, “वह सुबह एक रास्ते से जाते थे और शाम को दूसरे से लौटा करते थे ताकि किसी क़िस्म की मुठभेड़ से बचा जा सके”।

वह ख़र्च किए एक-एक पैसे का हिसाब डायरी में लिखते थे मुझे उनके पुराने खातों के संग्रह में 1980 के दशक की दो ख़बरें मिलीं। एक में जहां एक महिला को उसके ससुराल वालों ने प्रताड़ित किया था, तो वहीं दूसरी में कुछ ज़मींदारों ने मिलकर ग़रीबों से ज़मीन हड़प ली थी। परमजीत मुझे बताते हैं, “महिलाओं और ग़रीबों के अधिकारों के पक्ष में वह हमेशा बहुत सक्रिय रहे थे।”

हाल के दिनों पर भगत सिंह की राय के बारे में उनके बेटे परमजीत ने मुझे बताया, “वह देश की स्थिति से बहुत खुश नहीं थे”। केंद्र सरकार द्वारा पारित तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में उन्होंने अपने घर के छत पर एक काला झंडा लगाया था। वह बीमार होने के कारण सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन में शामिल नहीं हो सके, लेकिन वह हिन्दोस्तान की राजधानी के दरवाज़े पर चल रहे आंदोलन में शामिल किसानों के लिए भोजन और अन्य आवश्यक चीज़ों का इंतजाम कर रहे थे। बाद में केंद्र सरकार ने तीनों कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया था।

दर्शन सिंह मट्टू ने बताया, “अपनी अंतिम सांस तक वह देश का मार्गदर्शन करने के लिए ज़िंदा रहें। वह देश को बताते रहे कि कहाँ और किसके ख़िलाफ़ डटकर खड़े रहना है”।

उन्हें शमशान ले जाते हुए, उनके जनाज़े को कंधा देते हुए मैं हिन्दोस्तान के उस महान स्वतंत्रता सेनानी के बारे में सोच रहा था कि जिन्होंने संघर्ष का रास्ता कभी नहीं छोड़ा। वह ब्रितानिया शासक के ख़िलाफ़ तो लड़े ही, उन्होंने अपने ही मुल्क के राज-सत्ता के ख़िलाफ़ भी लड़ाई जारी रखी, ग़लत को ग़लत कहने के जज़्बे को ज़िंदा रखा। जैसे-जैसे शमशान क़रीब आ रहा था मुझे महसूस हो रहा था कि मैं ख़ुद आज़ादी को कंधा दे रहा हूँ।

अब शमशान आ गया था। उनके पार्थिव शरीर को चिता पर रख दिया गया। दर्शन सिंह मट्टू ने नारा लगाया — “ब्रितानिया मुर्दाबाद, हिन्दोस्तान ज़िंदाबाद"। उन्होंने वहाँ खड़े 200 लोगों को बताया कि यह वही नारा है जो भगत सिंह झुग्गियाँ ने 11 बरस की उम्र में स्कूल में एक नाटक के दौरान लगा कर अपने क्रांतिकारी होने का सुबूत दे दिया था। वह विद्यालय से निष्कासित कर दिए गए थे। जिस ख़त पर यह लिखा था कि वह स्कूल से निकाले जा रहे हैं, उसपर यह भी लिखा था कि भगत सिंह झुग्गियाँ “ख़तरनाक” और “क्रांतिकारी” हैं। वह साम्राज्य जिसे अपने विशाल होने का इतना घमंड था और जो यह कहते नहीं थकते थे कि सूरज कभी उसके यहाँ ग़ुरूब नहीं होता। एक 11 बरस के बच्चे के नारे से हिल गया था।

वह “ख़तरनाक” क्रांतिकारी अब नहीं रहे। उनके साथियों ने उन्हें अंतिम विदाई थी। आसमान गूंज उठा जब उन्होंने कहा “कॉमरेड भगत सिंह अमर रहें”।

अल्लामा इक़बाल का एक शेर —

रुख़सत ऐ बज़्म-ए-जहां, सू-ए-वतन जाता हूँ मैं

आह! इस आबाद वीराने में घबराता हूँ मैं

बस के मैं अफ़सुर्दा दिल हूँ, दरख़ूर-ए-महफ़िल नहीं

तू मेरे क़ाबिल नहीं है, मैं तेरे क़ाबिल नहीं

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और पारी फ़ेलो हैं।)  

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