बिहार : सरकारी प्राइमरी स्कूलों के 1.10 करोड़ बच्चों के पास किताबें नहीं
शिक्षा की बदहाली की बात करें तो बिहार आज भी कम साक्षरता दर वाले राज्यों में तीसरे स्थान पर है। इसकी कई कारण हैं जिनमें एक कारण सरकारी स्कूलों के बच्चों को किताबें उपलब्ध न होना है। नए सत्र 2022-23 के दूसरे महीने का आधा महीना अर्थात मई महीने का पंद्रह दिन गुजर चुका है लेकिन राज्य में पहली से आठवीं तक के करीब 1 करोड़ 67 लाख बच्चों में से 1 करोड़ 10 लाख बच्चों के पास आज भी किताबें उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में इन बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का स्तर कैसा होगा, यह किसी से छिपा नहीं है।
पैसा देने की व्यवस्था सत्र 2018-19 से
बता दें कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को किताब खरीदने के लिए सरकार बच्चों के बैंक खाते में या उनके अभिभावकों के खाते में पैसा ट्रांसफर करती है जिसके बाद बच्चे किताब खरीदते हैं। यह व्यवस्था सत्र 2018-19 से जारी है। इससे पहले स्कूल से बच्चों को किताबें मिल जाया करती थीं लेकिन समय पर न मिलने की शिकायत के चलते सरकार ने व्यवस्था में बदलाव करते हुए बच्चों या अभिभावकों के बैंक खाते में पैसा ट्रांसफर करने का प्रावधान किया। इन सब कोशिशों के बावजूद आज भी बच्चों के पास किताब नहीं हैं। इन स्कूलों में वही बच्चे पढ़ाई करते हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं।
इस सत्र का अप्रैल में किताब छापने का ऑर्डर
बिहार में 71 हजार प्राइमरी स्कूल हैं जिनमें पहली से आठवीं कक्षा तक 1.67 करोड़ बच्चे रजिस्टर्ड हैं जिनमें से 1.10 करोड़ से ज्यादा बच्चे बिना किताब ही स्कूल जा रहे। दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक इसका पहला कारण यह कि बच्चों को किताब खरीदने के लिए राशि नहीं भेजी जा सकी है। वहीं दूसरी वजह ये है कि सभी जगह किताब मिलती नहीं है। सत्र 2022-23 के लिए पब्लिशर को 18 अप्रैल को किताब छापने का ऑर्डर ही दिया गया है।
देर से दी जाती है राशि
सत्र 2018-19 से बच्चों को किताब खरीदने के लिए राशि बैंक खाते में भेजने की व्यवस्था है। किताब खरीदने के लिए ये राशि कभी भी समय पर बच्चों के खाते में नहीं भेजी जाती है। पिछले तीन सत्रों की बात करें तो अप्रैल से शुरू होने वाले सत्र में किताब खरीदने के लिए पैसा बच्चों के खाते में कभी अक्टूबर तो कभी दिसंबर और जनवरी में राशि भेजी जाती है।
पैसा देने के बजाए समय पर किताब उपलब्ध कराई जाए
न्यूज़क्लिक से बात करते हुए बिहार के एक प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि पिछले सत्र (2021-22) का पैसा अभी एक सप्ताह पहले बच्चों के या अभिभावकों के बैंक खाते में गया है। इस सत्र का पैसा अभी बच्चों को नहीं मिला है। पैसा न मिलने की वजह से बहुत बच्चे समय पर किताब नहीं खरीद पाते हैं। वहीं जिन बच्चों या अभिभावकों को पैसा मिल भी जाता है उनमें से बहुत से बच्चों के पास किताब नहीं होती है। हमलोगों को बच्चों और अभिभावकों पर किताब खरीदने के लिए दबाव बनाना पड़ता है। बेहतर होगा कि किताब के लिए बच्चों को पैसा भेजने के बजाए समय पर यानी मार्च के अंतिम सप्ताह तक स्कूल के स्तर पर उनको किताब मुहैया करा दिया जाए ताकि नए सत्र की पढ़ाई में किसी तरह की परेशानी न हो।
स्थानीय स्तर पर किताब की व्यवस्था हो
सामाजिक कार्यकर्ता सुरेंद्र ने बातचीत में कहा कि जो किताब स्कूलों तक समय पर पहुंचना होता था वह किताब वहां पहुंचने में साल का अंत हो जाता था। इसको लेकर सरकार की आलोचना होने लगी जिसके बाद सरकार ने इस व्यवस्था में बदलाव करते हुए बच्चों के बैंक खाते में पैसा ट्रांसफर करने की व्यवस्था की लेकिन यह भी अब तक सफल नहीं हो पाया है। सत्र के आरंभ में ही सभी बच्चों के स्थानीय स्तर पर किताब की व्यवस्था कर दी जाए।
राशि में केंद्र सरकार का योगदान 60 फिसदी
ज्ञात हो कि शिक्षा का अधिकार कानून के तहत पहली कक्षा से आठवीं कक्षा तक के बच्चों को किताब खरीदने के लिए राशि देने की व्यवस्था है। समग्र शिक्षा अभियान के तहत किताबों के लिए केंद्र सरकार 60% तथा राज्य सरकार 40% राशि बच्चों को देती है। इस साल बच्चों को किताब के लिए 520 करोड़ की राशि का प्रावधान किया गया है। किताब खरीदने के लिए पहली कक्षा से पांचवीं तक के बच्चों को 250 रुपये तथा छठी कक्षा से आठवीं कक्षा तक के 400 रुपये दी जाती है।
किताब छपाई की ज़िम्मेदारी 56 निजी प्रकाशकों पर
रिपोर्ट के अनुसार सत्र 2020-21 तथा 2021-22 में कोरोना के चलते स्कूल बंद रहने से 20 प्रतिशत बच्चों ने ही किताबें खरीदी थी। जिला और प्रखंड स्तर पर किताब उपलब्ध कराना प्रकाशकों की जिम्मेदारी है। प्रकाशकों की मानें तो जिलों की दुकानों में तो किताब उपलब्ध हैं लेकिन प्रखंड और संकुल स्तर पर नहीं है। बिहार टेक्स्ट बुक कॉरपोरेशन (बीटीबीसी) ने किताब छपाई के लिए 56 निजी पुस्तक प्रकाशकों को जिम्मेदारी दी है।
पहले तीन सत्र में 20 फीसदी बच्चे भी नहीं खरीद पाए किताब
ज्ञात हो कि सत्र 2018-19 से सरकार प्रारंभिक स्कूल के बच्चों को किताब देने के बजाए डीबीटी के तहत बैंक खाते में राशि दे रही है। पिछले साल अगस्त महीने की हिंदुस्तान की एक रिपोर्ट के मुताबिक पहले सत्र में 13, दूसरे सत्र में 19 तो तीसरे सत्र में महज 11 फीसदी किताब ही बच्चों द्वारा खरीदी गयी है। इन तीन वर्षों में डीबीटी के माध्यम से पहले सत्र में 264.29 करोड़, दूसरे सत्र में 500.36 करोड़ और तीसरे सत्र में 378.64 करोड़ रुपए दिए गए, इसमें से मुद्रकों द्वारा इन वर्षों में छपी क्रमशः 70.13 करोड़, 94.20 करोड़ और 52.69 करोड़ रुपये की ही किताबें बिकीं।
वर्ष 2020 में भारत की राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की रिपोर्ट में बिहार कम साक्षरता दर वाले राज्यों में तीसरे स्थान पर रहा। इसमें 70.9 फीसदी समग्र साक्षरता दर के साथ बिहार को राष्ट्रीय औसत (77.7 फीसदी) से 6.8 फीसदी कम दिखाय गया था। इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार में पुरुषों की साक्षरता दर महिलाओं से अधिक थी। बिहार में जहां 79.7 फीसदी पुरुष साक्षर थें वहीं 60 फीसदी महिलाएं पढ़ी-लिखी थीं। राज्य के ग्रामीण इलाकों में महिला साक्षरता दर 58.7 फीसदी, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 75.9 फीसदी थी। ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष साक्षरता दर 78.6 फीसदी और शहरी इलाके में 89.3 फीसदी थी। बिहार में कुल ग्रामीण साक्षरता दर 69.5 फीसदी जबकि शहरी साक्षरता 83.1 फीसदी थी।
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