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बिहार: जनता के मुद्दे बन गए चुनावी एजेंडा लेकिन मीडिया 'जातीय समीकरण' का नैरेटिव गढ़ने में व्यस्त

वैसे तो इस चुनाव में भी सबकुछ तो लगभग ठीक-ठाक ही रहा है, लेकिन एक सवाल जो धीरे धीरे व्यापक स्वरुप ले रहा है कि आख़िर ऐसा क्या है कि बिहार में होने वाले किसी भी चुनाव को लेकर “जातीय समीकरण” को ही एकमात्र चुनावी फैक्टर माना जाता है?
bihar rally

लोकसभा चुनाव 2024 के अंतिम चरण में 1 जून के मतदान को लेकर चुनाव-प्रचार समाप्त हो चुका है। वोटिंग कराने सम्बन्धी सभी प्रक्रियाएं मुस्तैदी से अमल में लाई जा रहीं हैं। कुल मिलाकर इस चरण के मतदान को लेकर बिहार में भी वही नज़ारा है जो देश के अन्य प्रदेशों का है।

वैसे तो, इस चुनाव में भी सबकुछ तो लगभग ठीक-ठाक ही रहा है, लेकिन एक सवाल जो धीरे धीरे व्यापक स्वरुप ले रहा है कि आख़िर ऐसा क्या है कि बिहार में होने वाले किसी भी चुनाव को लेकर “जातीय समीकरण” को ही एकमात्र चुनावी फैक्टर का नैरेटिव स्थापित है?

जबकि ये ऐतिहासिक सच्चाई है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौर से लेकर आज़ाद भारत तक समय में बिहार को जन आन्दोलनों की धरती वाला प्रदेश माना जाता है। बीते समय में यहां ऐसे कई कई बड़े जनांदोलन हुए हैं जिसने पूरे देश की राजनीति तक को ज़बरदस्त रूप से प्रभावित किया है। जो साबित करता है कि इस राज्य के बहुसंख्य लोग देश के लोकतंत्र को लेकर राजनीतिक रूप से काफी चेतनशील व सक्रिय रहनेवाले हैं।

तब भी यहां होनेवाले चुनाव के सन्दर्भ में लगातार “जातीय समीकरण” को निर्णायक फैक्टर कहे जाने का नैरेटिव ही क्यों लिखा या दिखाया-सुनाया जाता है? इसका जवाब ज़रूरी है। खासकर तब जबकि देश में जारी लोकतान्त्रिक-प्रणाली व्यवस्था ही आज दांव पर चढ़ा दी गयी है।

आम मतदाता का जागरूक होकर ‘सही और गलत के बीच’ चुनाव करने और फिर वोट डालने की अहम् जिम्मेवारी निभाने को किस आधार पर फ़क़त “जातीय समीकरण” फैक्टर बताया जा रहा है? ये सवाल अब व्यापक रूप से मुखर होने लगा है।

उक्त सन्दर्भ में यह भी कहा जा रहा कि- सामाजिक वर्चस्व की शक्तियों की “स्थापित सत्ता-राजनीति” अपनी कुर्सी के लिए कुछ भी करे तो वह सब कुछ सही है, लेकिन जब उसका खुलकर मुखर विरोध होने लगे तो वह सिर्फ़ “जातीय समीकरण” है?

इस प्रकरण का ज़मीनी उदाहरण खुद मैं प्रत्यक्षदर्शी बना, जब काराकाट संसदीय क्षेत्र के चुनावी भ्रमण में गया। उदाहरण सामने है। “ई मीडिया वाला सब को क्या हो गया है, नहींए सुधरेगा का”। हसपुरा (औरंगाबाद) बाज़ार से सटे चाय की दुकान पर जुटे युवाओं की टोली में से एक नौजवान ने ठेठ बिहारी अंदाज़ में अपना रोष जताते हुए ये कहा। उसके साथियों ने भी मीडियाकर्मियों पर “भद्दी बातें” कही।

कारण पूछने पर सभी ने एक स्वर में कहा कि बताइए, यहां हमलोगों के सामने जीने-मरने का टेंशन है और ई सब को खाली “जातीय समीकरण” ही लौउकता है। टह टह गर्मी के भरल दुपहरिया में हम लोग दाउदनगर गए थे तेजस्वी यादव जी का भाषण सुनने कि वे हम युवाओं के लिए क्या कहते हैं। ऊ भीषण गर्मी के तीन बजे दुपहरिया में भी हजारों नौजवान सब जुटल था, तो का सब “जातीय समीकरण” था। एही भीड़वा मोदी जी के सभा में होता तो मीडिया वाला लिखता- “मोदी मैजिक”। पहली बार काराकाट क्षेत्र में पधारे लेकिन इस क्षेत्र से नौजवानों के पलायन रोकने और रोज़गार देने के सवाल पर कुछो नहीं बोले। उनके पीछे से अमित शाह भी यहां चुनावी सभा करने आये, हमलोगों के लिए दू शब्द भी नहीं कहे। ई नेता लोग हर बतवे में “हिन्दू-मुसलमान” घुसा देते हैं। आ उनकर नक़ल करके सब भाजपाई नेता लोग भी वैसे ही बोलता है। मीडिया वाला को ई सब नज़र नहीं आता है।

चाय दुकान पर जुटे नौजवानों ने बताया कि उनमें से अधिकतर कम्पीटीशन की तैयारी कर रहे हैं और हर शाम इस चाय की दुकान पर उनकी बैठकी होती है। मजे की बात है कि उनमें से कोई राजद-INDIA के लिए तो कोई एनडीए के लिए चुनावी कार्य भी कर रहा है। जो वहां बैठकर मजाकिया लहजे में एक दूसरे पर कटाक्ष-उपहास भी करते है।

चाय के बहाने चुनावी चर्चा में युवाओं की गुस्से भरी बातों से उठ रहे सवाल कि, आख़िर क्यों चुनाव जैसे संवेदनशील मसले पर बिहार को सिर्फ “जातीय समीकरण” के ही चश्मे से ही देखा जाता है? इस सवाल में काफी दम है और इसके जवाब से अब किनारा नहीं किया जा सकता है।

गौरतलब है कि इस बार के चुनाव और बिहार की चुनावी-राजनीति में देश व राज्य की जनता से जुड़े ज़रूरी सवाल और मुद्दे, सत्ता-सियासत की हर तिकड़म को धता बताकर चुनावी राजनीति रंगमंच के केंद्र में आ गए है। जिन पर देश के प्रधानमंत्री व उनके मंत्रियों से लेकर सत्ताधारी भाजपा गठबंधन के सभी आला नेताओं तक को बार बार बोलकर अपनी सफाई देनी पड़ी है।

“हिन्दू-मुस्लिम-मंदिर निर्माण, घुसपैठीये, चीन-पकिस्तान से ख़तरा व जंगल राज-परिवारवाद ” जैसे सुनियोजित मुद्दों को मीडिया-चैनलों के साथ साथ सभी चुनावी सभाओं-अभियानों व भव्य रोड-शो कार्यक्रमों इत्यादि के ज़रिये पूरी ताक़त से थोपने की कवायद हुई।

बावजूद इसके मौजूदा परिदृश्य खुद दिखला रहा है कि “अबकी बार जनता भी है तैयार”! यानी जनता के जीवन से जुड़े- महंगाई, बेरोज़गारी, भयावह गरीबी और लोगों के तंगहाल जीवन के साथ साथ इस देश के संविधान और जनता के मुद्दे चुनाव का केन्द्रीय एजेंडा बनकर इस क़दर आ गये-छा गए हैं कि इन्हें नज़रंदाज़ करने की सभी कवायदें बेअसर साबित हुई हैं।

जिसका एक खुला सबूत सत्ताधारी गठबंधन और इसके ख़िलाफ़ खड़े विपक्ष के INDIA गठबंधन की चुनावी सभाओं-कार्यक्रमों में विशाल जन भागीदारी को देखकर सहज ही देखा जा सकता है कि कैसे एक ओर सत्ताधारी दल अपने पूरे लाव-लशकर और समूचे प्रशासनिक तंत्र की ताक़त झोंकने के बावजूद चन्द “प्रायोजित भीड़” ही जुटा पाया। दूसरी ओर, INDIA-गठबंधन के हर आयोजन-कार्यक्रमों में जन सैलाब उमड़ने का सिलसिला बढ़ता ही गया। जिसकी सबसे बड़ी खासियत यह भी रही कि इन अभियानों में शामिल हजारों हज़ार युवाओं का बेकाबू जोश तो अपने अलग अंदाज़ में हर जगह सर चढ़कर बोलता नज़र आया।

ध्यान देने वाली ख़ास बात ये है कि कल तक “नेता विशेष का ज़िन्दाबाद” करने वाले युवा, इस बार ‘लोकतंत्र-संविधान-देश बचाओ’ का नारा लागा रहे थे।

हैरानी की बात है कि तथाकथित मुख्यधारा की अधिकांश मीडिया भले ही अपनी चुनावी चर्चाओं तथा अख़बारों के भीतरी पन्नों में क्षेत्र की जनता के सवालों की चर्चा करने की रस्म निभायी लेकिन अपने मुख्य राजनीतिक विश्लेषणों में “जातीय समीकरण” फैक्टर को ही फोकस कर रखा है। जबकि सत्ता विरोधी आयोजित सभी सभाओं-रैलियों के मंचों से जनता के सवालों और “जुमलों-झांसा” के जरिये उनके साथ हुए विश्वासघात का मुद्दा ही सरगर्म रहा।

अब जबकि व्यापक चर्चा में यही शोर है कि हवा बदल रही है, “चार सौ पार” के जवाब में अबकी बार ‘जनता भी है परिवर्तन के लिए तैयार’! तो यह भी कहा जा रहा है कि इस सच पर पर्दा डालने के लिए ही “गोदी” मीडिया में जड़ जमा “वर्चस्ववादी और दबंग मानसिकता” की प्रवृतियां बिहार में “जातीय समीकरण” का नैरेटिव गढ़ने में व्यस्त हैं। जो यह भली भांति जानती है कि देश के संकटपूर्ण स्थितियों में ही ‘बिहार ने रास्ता दिखाया है’!

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