बायस्कोप : डॉ श्रीराम लागू; एक महान रंगकर्मी, जिनकी फ़िल्मों ने उनके साथ न्याय नहीं किया
70 और 80 के दशक की बड़ी फ़िल्मों का हिस्सा रह चुके हिंदी सिनेमा के दिग्गज कलाकार श्रीराम लागू बॉलीवुड में एक ऐसे महान रंगकर्मी थे जिनकी फ़िल्में उनके साथ न्याय नहीं करतीं दिखती। लंबी बीमारी से जूझ रहे डॉ लागू के लिए पिछले साल के आख़िरी महीने का 17 दिसंबर का दिन उनके जीवन का आख़िरी दिन बन गया और वे जीवन के रंगमंच को 92 साल की उम्र में सूना छोड़कर चले गए ।
एक लहराती हुई सी आवाज़ और गंभीर अभिनय के मालिक डॉक्टर लागू को ज़्यादातर लोग अमिताभ बच्चन की फ़िल्म ‘मुकद्दर का सिकंदर’ में राखी के धनवान पिता के रूप में बचपन के अमिताभ के हाथ से उनकी लाई गुड़िया को फेंकते हुए और उनको ज़लील करने के किरदार से जानते हैं या फिर ‘लावारिस’ फ़िल्म में अमिताभ बच्चन के उस शराबी बाप के रूप में जानते हैं जो अमिताभ को उनके असली बाप का नाम बताने के लिए परेशान करता है।
जबकि डॉ लागू ने लगभग 150 हिंदी और मराठी फ़िल्मों में काम किया होगा। और उनकी इन फ़िल्मों में कुछ बहुत ही बेहतरीन फ़िल्में थी जैसे ‘घरोंदा’, ‘किनारा’, ‘इनकार’, ‘इंसाफ़ का तराज़ू’, ‘साजन बिना सुहागन’, ‘एक दिन अचानक’ और ‘एक पल’ आदि, जिनसे उन्हें जानना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि बॉलीवुड ने अपनी फ़िल्मों में उन्हें मुख्य भूमिकाओं के लिए बहुत अधिक कंसीडर नहीं किया।
इन सबसे इतर ये जानना बेहद महत्वपूर्ण है कि डॉ श्री राम लागू मराठी रंगमंच के महान अभिनेता थे और उन्होंने विजय तेंडुलकर, अरविंद देशपांडे जैसे रंगकर्मियों के साथ मिलकर मराठी थियेटर को नई ऊँचाईयां दी थीं। उनके बारे में समान्तर सिनेमा के सुपरस्टार नसीरुद्दीन शाह ने ‘सिनेमा के सौ साल’ नाम के एक इंटरव्यू में कहा था कि “मैं श्रीराम लागू को भारत का सबसे महान रंगकर्मी मानता हूं। बल्कि दुनिया के बेहतरीन एक्टर्स में से एक में उन्हें रखना चाहूंगा। दुर्भाग्य से उनकी फ़िल्में उनके साथ न्याय नहीं करतीं।”
अब ये हमारी सामाजिक विडम्बनाओं का अजीब सा फ़लसफ़ा ही कहा जायेगा कि किसी व्यक्ति को उसकी रंग उपलब्धियों से या उसके सांकृतिक जीवन से नहीं बल्कि सिनेमाई पर्दे पर उपस्थिति से जाना जाता है वो भी उनकी बेहतरीन फ़िल्मों से नहीं बल्कि लोकप्रिय फ़िल्मों के किरदारों से!
16 नवम्बर 1927 को सतारा (महाराष्ट्र) में जन्मे डॉ श्री राम लागू, पुणे में पढ़ाई करते हुए स्कूल में ही नाटकों में काम करने लगे थे हालाँकि वे पहले-पहल मंच में आने से घबराते थे। उन्हें लोगों की मिमिक्री करने और प्ले देखने का बेहद शौक था मगर ख़ुद नाटकों में अभिनय करने की हिम्मत काफ़ी समय तक नहीं जुटा पाए थे।
पुणे में मेडिकल की पढ़ाई के दौरान 1951 में वे प्रोग्रेसिव ड्रामेटिक्स एसोसिएशन के साथ जुड़ गए और नाटकों में काम करते हुए ही वे ENT सर्जन बने और फिर पारिवारिक दबाव में वे तीन साल तक अफ़्रीकी देश तंज़ानिया में डॉक्टरी करते रहे लेकिन इस दौरान उन्हें लगा कि उनकी ज़िंदगी ये नहीं बल्कि रंगमच है। इसके बाद उन्होंने तय किया कि वे देश लौटेंगे और एक्टिंग करेंगे।
इस तरह साल 1969, यानी 42 साल की उम्र में वे पूरी तरह एक्टिंग, सिनेमा, नाटक में कूद पड़े। फ़ुल टाइम मराठी थिएटर में काम करते हुए उनका प्ले डेब्यू वसंत कानेटकर के नाटक ‘’इथे ओशाला मृत्यु’ से हुआ हालाँकि पहले साल उन्हें कतई सफ़लता नहीं मिली और उनके कई नाटक फ्लॉप हुए लेकिन फिर उसके अगले साल उनकी जिंदगी में पुरुषोत्तम दारव्हेकर के निर्देशन में ‘नट सम्राट’ नाटक में अप्पा गणपत बेलवलकर का किरदार आया।
यह नाटक पहली बार 1970 में बिड़ला मातोश्री सभा, मुंबई में प्रदर्शित किया गया था। यह नाटक नहीं बल्कि एक कलाकार का मंच पर चलता-फिरता एक ऐसा जीवन था, जहाँ वो अपने घर से बेदखल हो सड़क पर आ जाता है। इसे दर्शकों ने अपने सर आँखों पर बैठाया। इसकी अपार सफलता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाद के समय में डॉ लागू ‘नटसम्राट’ की उपाधि से जाने गए। डॉ लागू ने अपने रंगमंच के सफ़र में दर्जनों नाटकों में अभिनय करने के साथ 20 से अधिक मराठी नाटकों का निर्देशन भी किया।
सिनेमाई सफ़र
डॉ लागू के सिनेमाई सफ़र की बात की जाए तो उन्हें सबसे पहले साल 1972 में वी शांताराम की मराठी फिल्म ‘पिंजरा’ मिली। इस फिल्म में उन्होंने एक ऐसे मास्टर की भूमिका की थी। जिसे अपने ही कत्ल के जुर्म में फांसी हो जाती है। वो अपनी बदनामी को गुमनाम करना चाहता है। दरअसल वे अपने पुराने कमाए गए नाम को बने रहने देना चाहता था इसलिए वो अपना ही क़ातिल हो जाना स्वीकार कर लेता है।
यह एक जर्मन फिल्म ‘द ब्लू एंजल’ से प्रेरित थी और इसके मराठी संस्करण की सफ़लता के बाद इसे हिंदी में भी बनाया गया जो कुछ ख़ास नहीं चली बावजूद इसके डॉ लागू का काम बहुत प्रभावी था। इस कारण इस फ़िल्म के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा और कई सारी मराठी फिल्मों में काम किया।
इसके बाद में 1976 में उनके हिंदी सिनेमा में काम करने के सिलिसले की शुरुआत हुई। इस साल उनके खाते में 3 हिंदी फ़िल्में आई। पहली देवानंद-परवीन बाबी के साथ ‘बुलेट’, दूसरी विशाल आनन्द-सिमी गरेवाल के साथ ‘चलते-चलते’ (इस फिल्म के टाइटल गीत में बप्पी लहरी और किशोर कुमार को बहुत ख्याति मिली थी) और तीसरी फिल्म प्रकाश मेहरा की अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना स्टारर ‘हेरा-फेरी’।
बाद के सालों उन्होंने अमिताभ बच्चन की कई फिल्मों में काम किया और वे उनकी फिल्मों से ही ख़ूब जाने गए।
इसके अगले साल 1977 में उन्हें पांच फ़िल्में मिलीं जिसमें भीमसेन की अमोल पालेकर-ज़रीना वहाब स्टारर फ़िल्म ‘घरौंदा’ सर्वाधिक उल्लेखनीय है। फ़िल्म में गुलज़ार और जयदेव के गीत-संगीत को आज भी म्यूज़िक लवर्स ख़ूब पसंद करते हैं।
इस फ़िल्म में डॉ लागू ने एक अधेड़ उम्र के कुंवारे बिज़नसमैन मोदी का किरदार किया था। मोदी के ऑफ़िस में ही अमोल पालेकर यानी सुदीप और ज़रीना वहाब यानी छाया जॉब करती है। कहानी का टिवस्ट ये था कि डॉ लागू इन दोनों की मोहब्ब्त में तीसरे कोण बने हैं। इस रोल ने उन्हें उनके फ़िल्मी जीवन का इकलौता फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड दिलवाया।
वास्तव में 1978 के फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड में इस फ़िल्म का ही बोलबाला रहा और इस फ़िल्म में बेस्ट फ़िल्म,बेस्ट डायरेक्शन, बेस्ट स्टोरी, बेस्ट एक्ट्रेस के साथ बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर के रूप में डॉ लागू को सम्मानित किया गया था।
इसके अगले साल उनके पास फ़िल्मों की लाईन लग गई और 1978 में उन्होंने आठ फ़िल्में की जिसमें अमिताभ बच्चन स्टारर फिल्म ‘मुक्कदर का सिकंदर’ प्रमुख थी।हालाँकि वे खुद संजीव कुमार की फिल्म ‘देवता’ में अपने किरदार से ज्यादा खुश थे। बावजूद इसके इस फिल्म में संजीव कुमार के साथ अपने एक इमोशनल सीन में इतने शॉट्स हुए कि वे बेहद परेशान हुए और उन्हें नाटकों का अभिनय याद आया जहाँ एक बार में ही एक्टर अपना सब कुछ उड़ेल देता है। इसी के साथ वे इस बात से भी असहज थे कि फिल्मों में उनकी लेट इंट्री और कुछ फिल्मों की व्यवसायिक मज़बूरियों के चलते वे अब पिता या अंकल की भूमिका करने के लिए बाध्य हैं।
इसके अगले साल 1979 में उन्होंने 6 फ़िल्म कीं तो 1980 में उनके खाते में दस फ़िल्में आईं। इस साल फिर अमिताभ और विनोद खन्ना के साथ ‘दो और दो पांच’ और इसके अगले ही साल 1981 की अमिताभ बच्चन के साथ फ़िल्म ‘लावारिस’ ने उन्हें एक बड़ी पहचान दिलाई।
इसके अगले साल 1982 में उनके खाते में 8 फ़िल्में आई। जिसमें 8 ऑस्कर अवार्ड जीतने वाली हॉलीवुड फिल्म ‘गांधी’ फिल्म प्रमुख थी। इस फिल्म में उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले का किरदार किया था।
इसके अगले साल 1983 में उन्होंने चार फिल्में की, जिसमें मिथुन चक्रवती, रेखा और रति अग्निहोत्री स्टारर फ़िल्म ‘इंसाफ़ की पुकार’ में हीरोइन के बेबस पिता के रोल में वे ख़ूब सराहे गए। साल 1984 में उन्होंने 6 फ़िल्में कीं और 1985 में चार फ़िल्में की। इसके अगले साल 1986 में उनके पास फिल्मों की भरमार हो गई और उन्होंने इस साल दस फ़िल्में की जिसमें जीतेंद्र और श्रीदेवी स्टारर फ़िल्म ‘घर-संसार’ में हीरो के पिता रोल में वे खूब सराहे गए। ।
इसके अगले साल 1987 में उन्होंने 6 फ़िल्म कीं जिसमें अनुपम खेर स्टारर ‘इंसाफ़ का तमाशा’ फिल्म में ईमानदार जज का उनका रोल बेहद सराहनीय रहा। इसके अगले साल 1988 में उन्होंने चार फ़िल्में कीं और 1989 में पांच फ़िल्में कीं। इस साल मृणाल सेन की NFDC की फ़िल्म ‘एक दिन अचानक’ में उनका एक बेहद महत्वपूर्ण रोल था। इस फिल्म में वे अचानक एक दिन घर से बाहर जाते हैं और गायब हो जाते हैं। फिर सभी उन्हें तलाश करते हुए तरह–तरह के कयास लगाते हैं।
इन वर्षों में डॉ लागू अपनी फिल्मी व्यस्तता के चलते न ही अपनी सेहत पे ध्यान दे पा रह थे और न ही नाटकों को अधिक समय दे पा रहे थे। उनका मानना था फ़िल्मों में वो सुकून नही मिलता जो नाटक करने से मिलता है। इस कारण 1990 और 91 में उन्होंने केवल एक-एक फ़िल्म में काम किया जबकि 1992 और 93 में 3-3 फ़िल्मों में काम किया और फिर फिल्मों से लगभग किनारा करते हुए उनकी आख़िरी फ़िल्म साल 2001 में एक मराठी फ़िल्म ‘ध्यासपर्व’ के रूप में आई हालाँकि इसके बाद ख़राब सेहत के बावजूद विशेष आग्रह पर उन्होंने ‘नागरिक’ नाम की एक फिल्म की थी जो 2015 में रिलीज हई थी।
सम्मान/उपलब्धियां
डॉ श्रीराम लागू को अनेक सम्मान प्राप्त हुए जिनमें ‘घरौंदा’ फ़िल्म में उनके फ़िल्मी जीवन के एकमात्र फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड के साथ प्रमुख रूप से 2006 में सिनेमा और थिएटर में योगदान के लिए मास्टर दीनानाथ मंगेशकर सम्मान, 1997 में कालीदास सम्मान, 2007 में ही पुण्यभूषण' सम्मान, 2010 में संगीत नाटक अकादमी का फ़ेलोशिप सम्मान और 2013 में लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान दिया गया।
अपने लाइफ़ टाइम अचीवमेंट सम्मान के अवसर वे काफ़ी बीमार थे और बोलने की स्थिति में नहीं थे। ऐसे में उनकी पत्नी दीपा लागु ने आभार प्रकट किया था। इस दौरान उनका पुत्र और पूरा परिवार उपस्थिति रहा केवल उनके के एक पुत्र तनवीर को छोड़कर। तनवीर का युवावस्था में ही एक ट्रेन दुर्घटना में असमय निधन हो गया था। श्रीराम लागू ने अपने इस बेटे की याद में रंगमंच के प्रतिष्ठित ‘तनवीर सम्मान’ की शुरुआत की थी, जो हर साल भारत के सबसे प्रॉमिसिंग रंगकर्मी को दिया जाता है।
अपने इस सम्मान समारोह में बीमारी के कारण वे कुछ नही कह सकें लेकिन उन्होंने अपनी मराठी में लिखी ऑटोबायोग्राफ़ी लमाण(लामा), जिसका अर्थ होता है "माल का वाहक", में अपने दिल की सभी बातें लिखी हैं । इस बारे में श्रीराम लागू का कहना था कि एक्टर एक कुली होता है, जो राइटर और डायरेक्टर का माल दर्शकों तक पहुंचाता है।
विचारधारा
जहाँ तक डॉ लागू की विचारधारा की बात की जाय तो वे अपने को नास्तिक मानते थे। उनका मानना था कि टाइम टू रिटायर गॉड.. मैं ईश्वर को नहीं मानता और मुझे लगता है कि समय आ गया कि ईश्वर को रिटायर कर दिया जाए। ऐसा ही कुछ महान विचारक नीत्शे ने कभी कहा था कि गॉड इज़ डेड (ईश्वर मर चुका है)। इन दोनों ही टिप्पणियों ने अपने समय में खासा विवाद पैदा किया था।
बहरहाल जो भी वे इस सबमें अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों को कभी नहीं भूले। वे महाराष्ट्र अंधविश्वास निर्मूलन समिति से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। ये वही समिति जिससे नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे जैसे प्रख्यात विचारक जुड़े रहे। इस कारण कह सकते हैं कि उन्हें महाराष्ट्र में अंधविश्वास मिटाने वाले आंदोलन के लिए भी याद किया जाएगा। अंत में यही कह सकते हैं कि वे एक कर्मशील एवं सपर्पित कलाकार थे, उन्होंने रंगमंच को ख़ुदा माना और उसी को ही ज़्यादा जिया भी।
आज डॉ श्री राम लागू हमारे बीच अवश्य नहीं हैं लेकिन मराठी रंगमंच सदा उनका ऋणी रहेगा और ऋणी रहेगा हिंदी और मराठी सिनेमा जहाँ इस महान अभिनेता का बेजोड़ अभिनय एक धरोहर की तरह है। यद्यपि रंगमंच की तरह फ़िल्मों में उनकी महान अभिनय प्रतिभा को वो स्थान नहीं मिल सका जो उन्हें मिलना चाहिए था।
लेखक वरिष्ठ रंगकर्मी, लेखक एवं पत्रकार हैं।
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