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फ़ासीवाद से मुक़ाबले के लिए व्यापक एकता ज़रूरी : माले महाधिवेशन में जुटे एक्टिविस्ट, लेखक-पत्रकारों ने कहा

"वर्तमान केंद्रीय शासन-सत्ता पर क़ाबिज़ लोकतंत्र-विरोधी और फ़ासीवादी राजनीति को निर्णायक रूप से परास्त करने के लिए व्यापक विपक्षी एकता के केंद्र में वामपंथ का प्रभावी होना बेहद ज़रूरी है।"
Arundhty Roy

देश के मौजूदा जटिल राजनीतिक परिदृश्य को लेकर चिंतित रहनेवाले एक्टिविस्ट, लेखक-पत्रकार एवं बुद्धिजीवियों की जमात का मुखर हैं। वे ये मानते हैं कि वर्तमान केंद्रीय शासन-सत्ता पर काबिज़ लोकतंत्र-विरोधी और फासीवादी राजनीति को निर्णायक रूप से परास्त करने के लिए व्यापक विपक्षी एकता के केंद्र में वामपंथ का प्रभावी होना बेहद ज़रूरी है।

बिहार की राजधानी पटना में संपन्न हुए भाकपा माले के 11 वें माहाधिवेशन (11-20 फ़रवरी) में यह पहलू खुलकर सामने आया। महाधिवेशन के दौरान आयोजित विमर्श सत्रों में जानी-मानी एक्टिविस्ट लेखिका अरुंधती रॉय एवं वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश व दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर समेत कई बुद्धिजीवियों ने अपने संबोधनों में उक्त पहलू पर अपने विचार प्रकट किये।

17 फ़रवरी को ‘फ़ासीवाद विरोधी जनप्रतिरोध, दिशा एवं कार्यभार’ विषय के विमर्श सत्र को संबोधित करते हुए अरुंधती रॉय ने ‘फ़ासीवाद विरोधी व्यापक समूह’ बनाने पर जोर दिया। उक्त मुद्दे पर खड़ा होने के लिए भाकपा माले की पहल का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा कि, जाति-विरोधी और पूंजीवादी व्यवस्था विरोधी सभी संघर्षों को एक साथ लाना ज़रूरी है। मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि आज देश सिर्फ चार लोगों द्वारा चलाया जा रहा है। जिनमें से दो खरीदार हैं, दो विक्रेता और ये चारों गुजराती हैं। आज 5% लोगों के हाथ में देश की 60% संपत्ति है। किसानों की ज़मीन छिनने वाले कृषि-कानून बनने से पहले ही अडानी के अनाज गोदाम बन गए थे।

अडानी द्वारा किये गए घोटाले की चर्चा करते हुए रॉय ने कहा कि मोदी जी को लगता है कि अडानी के बारे में बोलने की ज़रूरत नहीं है। 5 किलो मुफ्त राशन पानेवाली जनता को उनका हमेशा आभारी रहना चाहिए, न कि ऐसे सवाल उठाना चाहिए। लेकिन हिंडनबर्ग की जांच रिपोर्ट ने सबूत समेत यह उजागर कर दिया है कि यह भारत का सबसे बड़ा कॉर्पोरेट घोटाला है जिसमें 100 अरब डॉलर का घोटाला हुआ है।

बीबीसी के भारत स्थित कार्यालयों पर ईडी के छापों को लेकर इंग्लैंड और अमेरिका की चुप्पी पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि अडानी की संपत्ति को लेकर कहीं कोई छापेमारी नहीं हुई। लेकिन बीबीसी ने 2002 के गुजरात-दंगे की सच्चाई सामने लाने की कोशिश की तो उसे कीमत चुकानी पड़ गयी।

2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार की भूमिका को लेकर पुरज़ोर उम्मीद जताई कि व्यापक विपक्षी एकता बनाने में बिहार महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। भाजपा को केंद्र से हटाने के लिए देश के लोग बिहार से काफी आशा लगाए हुए हैं

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने वामपंथ के बढ़ने की कामना करते हुए कहा कि फ़ासीवाद लादने की साजिशों को विफल करने की आवश्यकता है। लोकतंत्र के लिए बोलने की ज़रूरत है। उन्होंने अपने पत्रकारिता के लंबे अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि इतना त्याग-बलिदान और आंदोलन करने के बावजूद वह क्या चीज़ है कि भारत में वामपंथी ‘परिवर्तनकारी विजेता’ अब तक नहीं बन सके, सोचने की ज़रूरत है। उत्पीड़ित समाजों और सबाल्टर्न समूहों की समस्यायों को गंभीरता से लेना होगा। उन्होंने सुझाव दिया कि आज के दौर में फ़ासीवाद से कारगर मुकाबले के लिए किसी भी मजबूत वाम आंदोलन के लिए ज़रूरी है कि मार्क्सवादी दर्शन के साथ-साथ सोशल-इंजीनियरिंग के पहलुओं पर एक नए ढंग से काम करने की आवश्यकता है। सबाल्टर्न समूहों की एकता के सबसे बड़े तरफ़दार बनते हुए अपनी पार्टी ढांचों में भी उसे अभिव्यक्त किया जाए।

सामाजिक मुद्दों के चर्चित पत्रकार अनिल चमड़िया ने फ़ासीवाद से मुकाबले के लिए वामपंथ को सबसे भरोसे की ताक़त बताते हुए विश्वास प्रकट किया कि सिर्फ वामपंथ ही है जो फ़ासीवाद को अंतिम रूप से समाप्त कर सकता है। समाज में एक वृहत्तर सांस्कृतिक बदलाव की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहा कि जब रोज रोज लोगों को बांटने की राजनीति की जा रही है तो इसी स्तर पर जोड़ने का अभियान चलाना होगा। इसी संदर्भ में फासीवादी राजनीति की कारगुजारियों पर ध्यान दिलाते हुए उन्होंने कहा कि, लोगों को बांटने के लिए नए किस्म की “सोशल इंजीनियरिंग” से जाति के अंदर उपजाति का तीखा विभाजन अभियान ज़ोरों पर है। खाने को लेकर की जा रही सांप्रदायिकता से लेकर बोल चाल की भाषा तक में नफ़रत भरा जा रहा। कोर्पोरेट हमारे सामाजिक ढांचों तक में गहराई के साथ घुस गया है। इसे भारतीय गणराज्य की भाषा को भी बदल डालने की हर कोशिश नाकाम करनी होगी।

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. काउस्टो बनर्जी ने भी बदलते सामाजिक डेमोग्रेफ़ी की चर्चा करते हुए वामपंथ के लिए फिर से कृषि कार्यक्रम पर दीर्घकालिक कार्यक्रम बनाकर किसानों की जन समझदारी सक्रिय बनाने पर बल दिया। साथ ही व्यापक समाज में फैलाई जा रही फासीवादी विचारधारा के समानांतर एक ज़मीनी सांस्कृतिक मुहिम चलाने की आवश्यकता बताई। जिसके लिए बौद्धिक वर्ग के लोगों को उनकी स्वायतता के अनुरूप सक्रिय बनाने की बात कही। युवाओं को सोशल मीडिया द्वारा व्यक्तिवादी-चिंतन से ग्रसित किये जाने की चुनौती पर बोलते हुए उन्होंने सुझाव दिया कि हमें उनके बदलते मानस का गहन अध्ययन करना होगा। प्रोफेसर ने भी उम्मीद जताई कि फ़ासीवाद को मुकम्मल तौर से वामपंथ ही शिकस्त देगा।

दिल्ली से ही पहुंचे सोशलिस्ट स्टडी सेंटर के दिनेश अस्थाना ने कहा कि भारत का फ़ासीवाद कोई क्लासिक यूरोपियन फैसिज्म नहीं है। 2024 में भाजपा हार भी जाए तो ये लड़ाई नहीं ख़त्म होनेवाली है। सांस्कृतिक बहुसंख्यकवाद थोपे जाने के खिलाफ एक दीर्घकालिक सांस्कृतिक आंदोलन की कार्य योजना बनानी होगी। क्योंकि लोगों के दूषित किये जा रहे सांस्कृतिक कॉमन सेन्स को बदलने का सवाल सिर्फ इसी माध्यम से प्रभावी होगा।

पटना स्थित प्रमुख सामाजिक शोध संस्थान ए एन सिन्हा इंस्टीच्यूट में अर्थशास्त्र के शोधार्थी विकास विद्यार्थी ने देश की सरकार द्वारा क्रोनिक-कैप्टलिज्म के नाम पर देश के सारे संसाधन और संपत्ति चंद कॉर्पोरेट घरानों के हवाले किये जाने संबंधी डेटा प्रस्तुत किया। जिससे लड़ने का माद्दा सिर्फ वामपंथ में ही होने की बात कहते हुए व्यापक वामपंथी और विपक्षी एकता की आवश्यकता बातायी।

ये सही है कि दिनों दिन बिगड़ते राजनीतिक हालातों में बिहार की राजनीति का आज एक विशेष महत्व बन गया है। जहां हाल के समय में ऐसा पहली बार हुआ है जब देश की संपूर्ण राजनीति और केंद्रीय सत्ता पर उग्र हिंदुत्व और बहुसंख्यकवादी विचारधारा हावी हो चुकी है तो उसे वाम एवं लोकतांत्रिक –समाजवादी धारा बिलकुल आमने-सामने से चुनौती दे रही है। वैसे पहले भी ‘बिहार शोज़ द वे’ की बात होती रही है।

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