क्या अहमदाबाद माद्रिद से कुछ सीख सकता है?

"उन्होंने हमसे इतना कुछ छीना कि वे हमारे डर को भी अपने साथ ले गए’’ /“They took so much away from us that they ended up taking away our fear”/
- स्पेन की महिलाओं के जुलूस में लिखा गया एक नारा
स्पेन की महिलाएं इन दिनों राजधानी माद्रिद की सड़कों पर ‘वीवा’ (Viva ) अर्थात ‘जीत गए’ की निशानी बनाती दिख रही हैं।
और उनकी इस खुशी की वाजिब वजहें हैं, छह साल के लंबे संघर्ष के बाद उन्हें यह जीत हासिल हुई है, जब यौन अत्याचार की पीड़िताओं / उत्तरजीवियों / सर्वावर्स को न्याय दिलाने के लिए उन्होंने संघर्ष छेड़ा था।
केवल राजधानी माद्रिद ही नहीं देश के तमाम अग्रणी शहरों एवं क्षेत्रों में महिलाओं की इस एकता की झलक दिखाई दी थी, जिसके चलते स्पेन की संसद को कानून की किताबों में मौजूद नारीद्वेष की बातों को हटाना पड़ा था और एक नए विधेयक पर सहमति बनानी पड़ी थी जिसका लुब्बेलुआब था कि यौनसंबंध सहमति को महज माना नहीं जा सकता या स्त्री के मौन को ही उसकी सहमति नहीं कहा जा सकता।
यह प्रसंग शुरू हुआ था वर्ष 2016 में जब 18 साल की एक युवती पांच युवकों के यौन हमले का शिकार हुई थी, पाम्पलोना नामक स्थान पर बैलों की लड़ाई ( bull fighting ) से जुड़ा कोई महोत्सव था, वहीं पर यह घटना हुई थी। अदालत ने अत्याचारियों को नौ साल की कम सज़ा सुनायी थी क्योंकि अभियुक्तों ने यह सफाई पेश की थी कि पीड़िताा ने यौन सम्बध के प्रति सहमति प्रगट की थी।
आज अगर पलट कर देखने की कोशिश करें तो इस बात पर आसानी से विश्वास नहीं हो सकता कि अदालत के इस समस्याग्रस्त फैसले ने महिलाओं को इतना क्षुब्ध किया कि वह देश के तमाम शहरों में सैकड़ों हजारों की तादाद में सड़कों पर उतरी और उन्होंने मांग की कि स्पेन के यौन हमलों के नियमों को बदल दिया जाना चाहिए।
दरअसल महिलाओं को जिस बात ने अधिक क्षुब्ध किया वह था इन बलात्कारियों की सज़ा को कम करने को लेकर जिस तरह ‘महज पुरूषों’ के वाॅटसएप्प ग्रुपों में जिस तरह का स्वागत किया था या घोषित दक्षिणपंथियों ने सज़ा में कमी का स्वागत करने वाले बयान दिए थे, जिससे प्रतिरोध और बढ़ा था।
अब इन अत्याचारियों को कुल पंदरह साल सलाखों के पीछे बीताने पड़ेंगे।
यह मामला जिसे ‘‘वूल्फ पैक’’ केस के तौर पर जाना जाता है, जिसमें 18 साल की उस युवती की पीड़ा तमाम स्त्रिायों की पीड़ा बन गयी, वह शेष समाज के लिए भी एक जागृति का समय रहा है, जिसे अपने निहित पूर्वाग्रहों और स्त्रियों के खिलाफ हिंसा की तमाम छटाओं पर, जिसमें ‘आत्मीय रिश्तों’ में नज़र आने वाली हिंसा पर भी सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा। हर साल इस आत्मीय हिंसा में पचास से अधिक स्त्रियां अपने पतियों या पूर्वपतियों/पार्टनरों के हाथों मार दी जाती हैं।
यह विडम्बना की पराकाष्ठा थी कि जब स्पेन के लोग इन तमाम मुद्दों पर गहरे आत्मपरीक्षण में मुब्तिला थे, स्पेन की संसद यौन सहमति कानूनों में संशोधन पर सोच रही थी ताकि विभिन्न किस्म के यौन हमलों से स्त्रिायों की रक्षा की जा सके, उन्हें तत्काल कानूनी सहायता एवं समर्थन मिले, कोई उनके साथ यौन अत्याचार को हलके में न ले, उन्हीं दिनों स्पेन की राजधानी माद्रिद से सात हजार किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर स्थित एक मुल्क के एक सूबे में - वही मुल्क जो अपने आप को ‘जनतंत्र की मां’ कहलवाना पसंद करता है - वहां की कार्यपालिका बिल्कुल विपरीत दिशा में कदम बढ़ा रही थी। वह सामूहिक बलात्कार एवं हत्या के ग्यारह दोषियों की सज़ा में विशेष छूट देने का प्रावधान पर अंतिम मुहर लगा रही थी।
सूबा गुजरात के इन ग्यारह लोगों द्वारा बीस साल पहले जबकि उस सूबे में सांप्रदायिक हिंसा उरूज पर थी, जगह जगह अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को हिंसाचार का शिकार होना पड़ा था, मानवता के खिलाफ जिन अपराधों को अंजाम दिया था, उसके चलते उच्च अदालत ने उन्हें उम्र कैद की सज़ा सुनायी थी।
तीन मार्च 2002 की इस घटना में अल्पसंख्यक समुदाय के 13 लोगों को - जिनमें एक ही परिवार की कई महिलाएं भी शामिल थी - मार दिया गया था और मारे जाने के पहले यह महिलाएं सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई थी। इस अत्याचार में 21 साल की एक युवती बिल्किस बानो ही बच पायी थी, जिसने अपनी आंखों के सामने अपनी मां एवं अन्य सदस्यों को निर्वस्त्रा किए जाते और अत्याचार का शिकार बनाए जाते देखा था। इन खूनियों ने बिल्किस की तीन साल की बच्ची सलेहा को पत्थर पर पटक कर मार डाला था।
तय बात है कि किसी भी सभ्य समाज में ऐसे मनुष्यहंता लोगों की सज़ा को कम करने के बारे में कोई सोच नहीं सकता था, जिन्होंने अपनी सज़ा से बचने के लिए बिल्किस बानो एवं उनके बचे परिवार को काफी आतंकित किया था, जिसके चलते उसे जगह जगह छिप कर रहना पड़ा था।
यह कहना मुश्किल है कि सूबे के मुखियाओं ने यह निर्णय लेने के बारे में क्यों सोचा, मुमकिन है प्रधानमंत्राी के इस गृहराज्य के इन कर्णधारों को लगा होगा कि इसके चलते वह अपने जनाधार में एक अलग तरह का संदेश दे सकेंगे।
वैसे गुजरात की बिल्किस बानो एवं स्पेन की वह 18 साल की युवती - जो अब 24 साल की हो चुकी थी, दोनों में एक समानता अवश्य थी।
इन दोनों पीड़िताओं / सर्वावर्स ने कभी हार नहीं मानी।
वह तमाम बाधाओं के बावजूद न्याय की लड़ाई में अड़िग रही, शायद उन्होंने यह महसूस किया था कि उनका यह संघर्ष महज उनके आत्मसम्मान का मामला नहीं है, वह समाज की तमाम पित्रसत्तात्मक मान्यताओं और संकीर्ण धारणाओं के खिलाफ संघर्ष है।
निस्सन्देह, इन दोनों मामलों में अंतर भी था, कुछ ज्यादा ही।
उधर पाम्पलोना के वह पांच यौन अत्याचारी थे, जिन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान एक युवती को अपनी हवस का शिकार बनाया था और अपने इस ‘बहादुराना’ या ‘‘मर्दाना’ काम के लिए अपने वाटसएप ग्रुप पर बखान किया था, उस हमले का वीडियो शेअर किया था, और बढ़ते जनाक्रोश के चलते उनकी सज़ा बढ़ायी जा रही थी, पंद्रह साल उन्हें जेल में पूरे करने थे, जनता की निगाह में यह पांचों अत्याचारी अब निंदा एवं घृणा के पात्र थे, जिन्हें अपने किए पर पश्चात्ताप अकेले ही करना था।
इधर माद्रिद से सात हजार से अधिक किलोमीटर दूर गुजरात के गोधरा के यह ग्यारह सामूहिक बलात्कारी थे, जिन्होंने निरपराधों की हत्या की थी, जिन्हें अपने अपराधों के लिए अदालत ने उम्र कैद की सज़ा सुनायी थी, वह न केवल सज़ा में माफी से लाभान्वित हो रहे थे और जनता की निगाहों में निंदा नहीं बल्कि सम्मान के पात्रा बन कर बाहर निकल रहे थे।
जेल के बाहर इन दरिन्दों का बाकायदा फूल मालाओं, आरती से स्वागत किया गया था और इतना ही काफी नहीं जान पड़ा था, जेल के बाद ही उन्हें नगर के एक सार्वजनिक हाॅल में ले जाया गया था और उन्हें फिर मालाएं पहनायी गयी थीं।
इन दोषियों के लिए इस बात से क्या फरक पड़ता था कि उनकी सज़ा माफी के लिए राज्य सरकार ने कई स्थापित नियमों एवं परंपराओं का उल्लंघन किया था, इस मामले में सीबीआई की जांच होने के बावजूद, सज़ा माफी के लिए उनसे अनुमति नहीं ली थी।
इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त़ तक इन दोषियों की सज़ा की छूट रद्द करने के लिए कई लोगों, समूहों की तरफ से आवाज़ बुलंद हो चुकी है, उच्चतम न्यायालय के सामने भी अपील की गयी है, जिसने राज्य सरकार को नोटिस भी भेजा है। सभी जानते हैं कि जिस तरह इन दोषियों को दंडित करने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा था, उसी किस्म का लंबा संघर्ष अभी और चलेगा।
नागरिक समाज की तरफ से उठती आवाज़़ों में एक ताज़ा अपील आई आई एम, बंगलौर - जैसे प्रतिष्ठित संस्थान के अध्यापकों एवं स्टाफ की तरफ से भी आयी है जिन्होंने आला अदालत से यह मांग की है कि किस तरह गुजरात सरकार का यह कदम ऐसे घ्रणित अपराध के अंजामकर्ता के मनोबल को बढ़ाएगा और भारत के करोड़ों लोगों की न्यायिक प्रणाली पर उम्मीद का ‘‘बुझा देगा।’’
इस अपील के अंत में जो बात लिखी गयी है इस पर अधिक गौर करने की जरूरत हैै।
इसमें एक नैतिक प्रश्न उपस्थित किया गया है कि बिल्किस बानो को अपने हाल पर छोड़ देने वाला और उसके अत्याचारियों को नायक के तौर पर स्वीकार करने वाला यह कैसा मुल्क हम बना रहे हैं, हम कैसे मुल्क में तब्दील हो रहे हैं ?
यह कैसा मुल्क हम बना रहे हैं?
यह कैसा समाज हमारे सामने रफता रफता नमूदार हो रहा है?
एक तरफ स्पेन है, जहां की स्त्रियों के जबरदस्त संघर्ष ने शेष समाज को भी आंदोलित किया, बेचैन किया और जो कसक संसद तक भी पहुंची और वह अपने कानून में तब्दीली के लिए मजबूर हुई, वही यह ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ का एक सूबा है, जहां ऐसे घ्रणित अपराध में लिप्त लोगों की सज़ा में छूट मिल रही है, उन्हें नायक के तौर पर सराहा जा रहा है।
क्या यह वही समाज है जिसने किसी ज्योति सिंह ( निर्भया ) के बलात्कारियों को सज़ा दिलाने के लिए हजारों - लाखों की तादाद में सड़कों को संघर्ष का मैदान बनाया था और अब वही समाज है जो किसी बिल्किस बानो के अत्याचारियों की अदालती सज़ा को मिली छूट को लेकर मौन धारण किए हुए है, इन बलात्कारियों एवं हत्यारों का स्वागत होते चुपचाप देख रहा है।
क्या इस समाज का गुस्सा भी अब अलग-अलग कंपार्टमेंट में बंटने लगा है जो तभी फूट पड़ता है, जब ‘अपने जैसे’ लोग निशाने पर होते हैं।
इस विकर्षण (revulsion ) की अनुपस्थिति को समझने की जरूरत है।
निर्विकार आंखों में छिपी असलियत को उघारने की आवश्यकता है।
इस संबंध में एक दिमागी कवायद करने की अपील करूंगा।
क्या इन पंक्तियों के पाठक सामूहिक बलात्कार के ऐसे दोषियों के साथ, जिन्होंने कई हत्याएं भी की हैं, अपनी तस्वीर खींचना चाहेंगे, उन्हें फूल मालाएं पहनाना चाहेंगे।
अगर हां, तो हमें कुछ नहीं कहना है।
जर्मन अमेरिकी दार्शनिक हन्ना अरेंडट, ( Hannah Arendt ) जिन्होंने यहुदी जनसंहार पर बहुत कुछ लिखा है। वह इस बात को बार बार स्पष्ट करती हैं कि नात्सीकाल में साठ लाख से अधिक यहुदियों, जिप्सियों, वामपंथियो आदि को जब गैस चैम्बरों में भेजा गया और मार डाला गया - इसे अंजाम देने वाले लोग कोई मानसिक विकृतियों का शिकार परपीड़क लोग नहीं थे, वह साधारण लोग थे जिन्होंने अपने इस काम को नौकरशाहाना अंदाज में एवं कार्यक्षमता के साथ अंजाम दिया था।
वह यह भी जोड़ती हैं कि ‘बुराई बिल्कुल साधारण बन जाती है, जब वह एक अविचारी एवं सुव्यवस्थित स्वरूप ग्रहण करती है या जब साधारण लोग इसमें हिस्सा लेते हैं या उससे दूरी बनाते हैं और उसे विभिन्न तरीकों से उचित ठहराते हैं। उन्हें किन्हीं नैतिक द्वंद्वों का सामना नहीं करना पड़ता ना किसी बेचैनी का शिकार होना पड़ता है। बुराई तब बुराई भी नहीं लगती है, वह चेहराहीन हो जाती है।’
अगर आप सामूहिक बलात्कार एवं हत्या के शिकार लोगों को हार पहनाने की बात को बेहद सामान्य घटना मान रहे हैं, अगर समाज के ऐसे तलछटों का सम्मान आप के लिए बेहद सामान्य घटना है, तो यकीन मानिए आप में और नात्सी अधिकारी आईशमैन में कोई गुणात्मक अंतर नहीं है। ंवही अधिकारी जिसने यहुदियों के यातना शिविर को संचालन किया था और इस्राएल में उस पर चले मुकदमे को लेकर हन्ना अरेंडट ने अपनी बहुचर्चित किताब लिखी थी ‘आईशमैन इन येरूशलेम: ए रिपोर्ट आन द बॅनालिटी आफॅ इविल’ Eichmann in Jerusalem: A Report on the Banality of Evil
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