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बच्चों की स्कूली शिक्षा : राज्य की भूमिका और मां-बाप

भारत में जो शिक्षा नीति अपनाई गई उसके क्रियान्वयन में जो प्रणाली अपनायी गई, उसके कर्ता-धर्ता, पुरोधा तमाम किंतु-परंतु और आशंकाओं का विद्रूप वर्णन ही करते रहे।
प्रतीकात्मक तस्वीर
पेंटिंग साभार : डॉ. मंजु प्रसाद

आधुनिक युग में दुनिया के सभी अग्रणी व विकासशील देश इस बात पर सहमत और एकमत हैं कि बच्चों की बुनियादी शिक्षा में किन्हीं भी वजहों से रुकावट न आए। बच्चे निर्विघ्न रूप से निरंतरता में स्कूल जाते रहें। चार साल के सभी बच्चे 'छोटी गोल'-1, की कक्षा  में (अंग्रेज़ी का, के जी-1) सभी बच्चे-बच्चियों का अनिवार्य रूप में  नामांकन कराया जाए, 'प्रवेशिका' की पढ़ाई के लिए। यह तय किया गया कि अग्रणी (विकसित) एवं विकासशील  देश की शासकीय मशीनरी इस बात की पुष्टि/गारन्टी करे कि हर बच्चे को मजदूरी के काम में नहीं लगाया जाएगा। खेतों-फार्म हाउसों और छोटे-मझोले बड़े सभी कारखानों के स्वामियों को बच्चों से मेहनत-मजदूरी कराने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, इसे श्रम नियमों के विरुद्ध माना जाएगा।

अपने भारतवर्ष में शिशु शिक्षा में कक्षा छोड़कर गया बच्चा स्कूल कब वापस आएगा या नहीं, यह न तो कक्षा के अध्यापक बता सकते हैं न ही घर के अभिभावक निश्चय पूर्वक बता सकते हैं कि बच्चा पुनः स्कूल पढ़ने कब वापस जाएगा। तीन प्राथमिक पाठशालाओं के प्रधानाध्यापक मित्रों से पूछा इस समस्या को कैसे हल किया जाए इस दिशा में आपके द्वारा क्या पहल ली गई? एक मित्र का जवाब था, प्रशासन को रपट भेज दी है, अभी तक कोई निर्देश प्राप्त नहीं हुआ है। दूसरे मित्र का जवाब था, हमें अभी भी आशा है कुछ बच्चों को छोड़ अधिकतर बच्चे पढ़ाई की ओर लौट आयेंगे, इसलिए किसी बच्चे का नाम स्कूल से खारिज नहीं किया है। तीसरे मित्र ने यथार्थवादी उत्तर दिया, भारत की भीषण गरीबी में पांच-छह साल का हर बच्चा कमाने वाला हाथ होता है, उसकी कमाई से, खस्ताहाल गरीबी में थोड़ी राहत, थोड़ी बेहतरी आ जाती है। यह मामूली सी बेहतरी वह अपने बचपने, मासूम सपने, पाठशाला के प्रांगण में हम उम्र सहपाठी मित्रों के साथ खेल-खेल में, झूम-झूम कर 'एकसुर' में गा-गा  कर- ककहरा, कविता, पहाड़ा ,गिनती, कहानी पढ़ना,रटना, याद करना वह "मस्ती की पाठशाला" इन सबकी बलि चढ़ा कर हासिल की थी?" बात खत्म करते-करते मेरा शिक्षक मित्र भोंकार छोड़ कर रो पड़ा। मैं परेशान हो गया। मित्र को ढांढस बंधाने के लिए उसके कंधे थपथपाये। इससे वह भावुक हो फफक पड़ा। रुंधे गले से वह कह रहा था,"भाई साहब, वह कोई और नहीं मेरा भाई था, बहुत ही कुशाग्र बुद्धि का है उसके गुरूजी लोग आज भी उसकी तारीफ करते हैं। अब वह किसान हो कर रह गया है। आर्गेनिक खेती करने के लिए उसे जिले में प्रथम  स्थान मिला है। जिला अधिकारी ने उसे प्रथम पुरस्कार देकर सम्मानित किया है। मित्र के स्वर में खनक और चेहरे पर गौरव की चमक बढ़ती जा रही थी!

''भारत में बच्चे और राज्य-नीति',तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में बाल मजदूरी और शिक्षा नीति" (ले. मायरन वीनर, अनुवाद: आनंदस्वरुप वर्मा) पुस्तक के पहले अध्याय 'दलील' में समस्या का विवरण करते हुए स्पष्ट किया है कि आधुनिक राज्य शिक्षा को महज एक अधिकार नहीं बल्कि एक वैधानिक दायित्व मानते हैं ।

 "मां-बाप से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे और बच्चों  से यह अपेक्षा की जाती है कि वे स्कूल में शिक्षा ग्रहण करेंगे और राज्य की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वह अनिवार्य शिक्षा को लागू करे।

मायरन वीनर स्पष्टतः अपनी धारणा में विश्वास  व्यक्त करते हैं, "अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा, नीति संबंधी ऐसा उपकरण  है जिसके जरिये राज्य कारगर ढंग से बाल मजदूरी पर रोक लगाता है। उन्हे दृढ़ विश्वास है, 'इस प्रकार अंतिम तौर पर राज्य ही बच्चों का अभिभावक है जो मां-बाप से  और भावी मालिकों से उनको सुरक्षा प्रदान करता है।'

लेखक  ने दो टूक और स्पष्ट लिखा है कि, भारत में इस उपरोक्तì धारणा को स्थान नहीं दिया गया। भारत में न तो प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य है और न ही बाल मजदूरी अवैधानिक है।''परिणाम यह है कि 1981 में भारतीय जनगणना ने पहली बार यह जानना चाहा कि कोई व्यक्ति स्कूल अथवा कालेज में शिक्षा पा रहा है या नहीं। इनके नतीजों में स्कूलों से हाजिरी का एक ऐसा आंकड़ा उपलब्ध होता है जो भारत सरकार की शिक्षा प्रणाली द्वारा प्रदत स्कूल-उपस्थिति के  आंकड़ों से एकदम भिन्न और आजाद है।

1981 की जनगणना ने हमें बताया कि भारत में 6 से 12 वर्ष की आयु वर्ग के 15 करोड़ 88 लाख बच्चों में से 8 करोड़  22 लाख बच्चे स्कूल नहीं गये। यह बच्चे घरों में ही रहते हैं और अपने से छोटे बच्चों को संभालते हैं, मवेशियों की देखभाल करते हैं, जलाने के लिए लकड़ियां बीनते हैं और खेतों में काम करते हैं।

बहुतेरे बच्चे घरेलू उद्योगों, चाय की दुकानों,रेस्तराओं में नौकरी या किन्हीं  मध्यवर्गीय परिवार के घरों में चाकरी  करने में  लग जाते हैं (मायरन वीनर), कई मासूम बच्चे अनजानेपन में अपराधियों द्वारा वेश्यावृत्ति या मवालियों की अंधेरी गलियों में जिन्दगी बसर करने के लिए धकेल दिये जाते हैं। 'बहुत से बच्चे भीख मांगते हैं, कबाड़ी का काम करते हैं ताकि इकट्ठा की गयी बोतलों और अन्य सामानों को दुबारा बेच सकें।' इनमें से कई बंधुआ मजदूर बन जाते हैं। कई गांव के भूस्वामियों के लिए मवेशी चराने से लेकर खेतों में काम करते रहते हैं।

मायरन वीनर के अनुसार एक वरिष्ठ शिक्षा अधिकारी ने उनसे कहा,"सरकार अगर सभी वयस्कों के लिए रोजगार की व्यवस्था नहीं कर सकती तो उसे गरीब मां-बाप पर यह दबाव नहीं डालना चाहिए कि वे अपने बच्चों को स्कूल में भेजें। गरीबों के लिए उनके बच्चे एक आर्थिक पूंजी हैं। वे जो काम करते हैं और उससे कमाई गई जो आय लाते हैं भले ही कम हो बल्कि बड़ी मुश्किल से गुजर-बसर कर रहे मां-बाप को उनके मदद की जरूरत है"। यह नयी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के उत्थान को ले कर एक प्रतिगामी व्यक्ति की उथली प्रतिक्रिया है। भावी नौनिहालों के भविष्य हेतु, अदूरदर्शी, दृष्टिदोष से युक्त, अकर्मण्य ,संवेदनशून्य,उत्तरदायित्व  बोध से रहित  मानसिकता एवं  रचनात्मक पहलकदमी से अयोग्य अधिकारी ही ऐसा अपना कर्तव्य विमुख वक्तव्य दे सकता है।

भारतीय शिक्षा अधिकारियों के द्वैत संकट की दुविधा के समाधान का हल उनके धर्म न्याय और कर्तव्य नीति से निष्कर्ष की प्रतीक्षा में आगे बढ़ते हैं। 1981 में भारतीय जनगणना के शिक्षा संबंधी बाकी आंकड़ो नतीजों की ओर; -  6 से 14 वर्ष की आयु वर्ग के 12 करोड़ 37 लाख ग्रामीण बच्चों में से केवल 5 करोड़ 22 लाख बच्चे स्कूल में थे (3 करोड़ 44 लाख लड़के और 1 करोड़ 9 लाख लड़कियां ।), स्कूलों में सबसे ज्यादा उपस्थिति 10 से 14 वर्ष की आयु वर्ग के शहरी क्षेत्रों के लड़कों की रही (77  प्रतिशत) और सबसे कम 6 से 9 वर्ष  की आयु वर्ग की ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों में रही (31.3 प्रतिशत )। ध्यान देने की बात है  कि स्कूलों में नामांकन के  बारे में मंत्रालय की ओर से जो सरकारी आकड़े दिये गये हैं उनमें और इन आकड़ों में काफी भिन्नता है ।

अन्तोन सेम्योनोविच माकारेंको रूसी बुद्धिजीवियों की उस पीढ़ी के थे,जिसके कंधों पर, 'नयी, समाजवादी संस्कृति की नींव के निर्माण के  महान , सुखद परन्तु कठिन कार्य में हाथ बंटाने का महान उत्तरदायित्व था।' वह एक सोवियत शिक्षाशास्त्री थे। कम्युनिस्ट लालन-पालन एवं शिक्षा-दीक्षा के सिद्धांत व व्यवहार की प्रणाली में उनका महान योगदान है। जो आज के युग में भी महत्वपूर्ण है। अन्तोन माकारेंको का जीवन युवावस्था से ही शिक्षा शास्त्र के लिए समर्पित था।

उनका जन्म 1888 में एक उक्राइनी मजदूर परिवार में हुआ था। अन्तोन कुशाग्र बुद्धि के थे। उन्हें रूसी व विदेशी क्लासिकी साहित्य, दर्शनशास्त्र, प्राकृतिक विज्ञान और कला-समालोचना का आधारभूत अध्ययन था। 1905 के वसंत में माकारेंको ने सोलह वर्ष की आयु में स्कूल की शिक्षा पूरी कर ली और उसी स्कूल के वार्षिक शैक्षिक पाठ्यक्रम में भर्ती हो गये। वह स्कूल प्राथमिक विद्यालयों के लिए अध्यापकों को प्रशिक्षित करता था। प्रशिक्षण पूरा  होने के बाद उसी साल से क्रियूकोवो के प्राथमिक स्कूल में पढ़ाना आरम्भ कर दिया। अन्तोन विद्यादान करने, शिक्षार्थियों को चिंतन तथा विवेचन करना सिखलाने में समर्थ थे। लेकिन इस महान भावी शिक्षाशास्त्री को एक महान शिक्षक बनने में समय लगा।

जब वे एक अनुभवी शिक्षक बन गये थे, तो वे एक ऐसी गलती कर बैठे, जिससे उन्हें बड़ी वेदना हुई। एक शिक्षा-सत्र के परिणामों का समाहार करते समय उन्होंने एक शैक्षिक प्रयोग करने का निर्णय कियाः मकारेंको ने हरेक विद्यार्थी के औसत अंकों की गणना की और एक विद्यार्थी को प्रमाण-पत्र दिया- "सैंतीसवां और अंतिम"। बाद में उन्हें मालूम हुआ कि उस विद्यार्थी को यह प्रमाण-पत्र इसलिए नहीं मिला कि वह सुस्त था, बल्कि इसलिए मिला कि वह गम्भीर एवं लाइलाज बीमारी से ग्रस्त था। इससे उस विद्यार्थी को अतीव दुःख हुआ। इस घटना से अन्तोन व्यथितमन व संवेदनशील शिक्षक हो गये। इस दुखद परिघटना से उन्होंने सीख ग्रहण किया विद्यालय में शिक्षण के लिए अध्यापन की दक्षता पर्याप्त नहीं है, वरन लालन-पालन की स्नेहिल भावना से भरी योग्यता भी आवश्यक है। इस घटना से उनके मन में ये विचार उत्पन्न हुआ कि लालन -पालन की प्रणाली को केवल शिक्षण व्यवहार तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है। यह शिक्षा विज्ञान का ऐसा विशेष और स्वतंत्र क्षेत्र है , जिसका अपना ही विषय तथा अपने ही नियम  हैं ।

1911 में माकारेंको को दोलिस्काया रेलवे स्टेशन पर स्थानांतरित कर दिया गया। एंतोन ने शिक्षार्थियों को अनेक दिलचस्प कार्यकलाप में लगाकर उनके फालतू समय का सदुपयोग किया : वे नाटकों का मंचन, फैंसी ड्रेस नृत्य समारोहों तथा खेलों का आयोजन करते थे। वे भावनाओं को संज्ञान से मिलाते हुए शिक्षण का कार्य भी बहुत दक्षता से करते थे। 1929 में अंतोन ने उक्राइना में पोल्तावा के निकट अनाथ बच्चों तथा बाल अपराधियों के लिए एक बस्ती का निर्माण करने का स्वीकार कर लिया। ये शैक्षिक प्रतिष्ठान ऐसे समय में स्थापित किये गये जो नवोदित सोवियत जनतंत्र के लिए बहुत कठिन था। प्रथम विश्व युद्ध और विदेशी हस्तक्षेप से महामारी और अकाल तथा भारी विनाश हो गया था और हजारों बच्चे अपने माता-पिता को गंवा कर बेघर हो गये थे। 1919 में लेनिन के पहल पर बच्चों के संरक्षण के लिए राजकीय परिषद का गठन किया गया। शिक्षा के जन-कमिसार लुनाचार्स्की उसके अध्यक्ष थे। परिषद ने बच्चों को अधिक समृद्ध इलाकों में पहुंचाने के आदेश दिये तथा उनके सामूहिक खानपान,खाद्य पदार्थ और कपड़े के इंतजाम किये गये। सुख्यात क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी और सोवियत राज के प्रमुख नेता द्ज़ेर्जीन्स्की ने अपने लिखित आदेश से बच्चों के रहन -सहन सुधारने के वास्ते एक आयोग का गठन किया।

उन्होंने लिखा यह एक भयानक विपत्ति है। बच्चों पर कोई भी सोचे बिना नहीं रह सकता है  -- सबकुछ उनके लिए! क्रांति के हमारे लिए नहीं उनके लिए है। यहाँ हमें उनकी सहायता इस प्रकार से शीघ्रता से करनी चाहिए, गोया हमने उन्हें दरिया में डूबते देखा हो। सारी सोवियत जनता के लिए जरूरी है कि उन्हें बड़े पैमाने पर सहायता दें। बच्चों को बचाने के लिए राज्य द्वारा किये गये जोरदार प्रयासों के फलस्वरूप देश में बच्चों के हजारों प्रतिष्ठानों की स्थापना हुई। अपने भाषणों  लेखों में अंतोन ने अपने क्रियाकलाप को महज बाल अपराधियों के साथ किये गये काम का अनुभव मानने का अक्सर विरोध किया करते थे। "किसी प्रकार के कोई विशेष "अपराधी" नहीं होते, बल्कि कुछ ऐसे लोग होते हैं,जो विषम स्थिति में जा पड़े हैं ।"

अंतोन माकारेंको की विशिष्ट शिक्षा वैज्ञानिक प्रतिभा का विषय ऐसे बच्चे थे , जो सर्वाधिक प्राकृतिक वस्तुओं जैसे- स्नेह और माता -पिता की देखभाल से वंचित हो गये थे।" कोई भी सामान्य बच्चा जो सहायता,समाज, दोस्त तथा अनुभव के बगैर और तनावपूर्ण मानसिकता सहित, किसी भी परिपेक्ष्य के बिना सड़क पर आ पड़ता है, वह वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा उन्होंने किया।" उन्होंने अपने शिक्षार्थियों के बारे में लिखा।

शिक्षा तथा लालन-पालन की जिन पद्धतियों को अंतोन ने गोर्की के नाम पर बनी बस्ती में इस्तेमाल किया, उन्हें उन्होंने फे. ऐ. द्ज़ेर्नीस्की के नाम पर बने कम्यून में सुधरे हुए शैक्षिक व भौतिक आधार पर और भी विकसित किया। कम्यून के अंदर प्रयुक्त शैक्षिक प्रक्रिया शिक्षार्थियों के अधिगम, उत्पादक श्रम ,सौंदर्यबोध तथा शारीरिक विकास की घनिष्ठ एकता पर आधारित थी। कम्यून के सदस्य वस्त्रों की, काष्ठ कला तथा धातूकर्मीय कार्यशालाओं में काम करते थे।

बाद में कम्यून में एक विद्युत उपकरण संयंत्र तथा एक फोटो कैमरा संयंत्र बनाया गया। कम्यून अपने बैचलरों को माध्यमिक शिक्षा प्रदान करता था और जो व्यावसायिक माध्यमिक शिक्षा व उच्चतर शिक्षा संस्थानों में  जाते थे उन्हें वजीफे देता था। शिक्षार्थियों को खाली समय में कम्यून में कई प्रकार की मंडलियां तथा खेल-कूद आदि के कार्यक्रम चलते थे। प्रत्येक विद्यार्थी कोई न कोई दिलचस्प काम पा जाता था।

यह पूर्व सोवियत संघ की नास्टैल्जिया (Nostalgia) में जीने और उसकी प्रेरक उपलब्धियों से प्रेरित करने और उसमें जाने का और विचरण करने का कोई आग्रह नहीं है। यहाँ सिर्फ उस प्रयास और दृढ़ इच्छा शक्ति को उद्घाटित करने का प्रयोजन है जिसके फलस्वरूप रूस में एक मजबूत अधिरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) का निर्माण हुआ। सोवियत संघ के बहुप्रचारित विध्वंस और कथित नये लोकतांत्रिक रूस में गहराता आर्थिक संकट दिन पर दिन क्षरण की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था यदि फिर से खड़ी हो पायी है तो पूर्व सोवियत संघ (रूस) द्वारा विरासत में प्राप्त हुई अधिरचना के जाल ने ही उसे पुनः समृद्ध,विकसित व शक्तिशाली बनाया। आज का रूस पुराने सोवियत संघ के ध्वंस में दबी हुई नींव की मजबूत बुनियाद पर ही चमक रहा है।

भारत में जो शिक्षा नीति अपनाई गई उसके क्रियान्वयन में जो प्रणाली अपनायी गई, उसके कर्ता-धर्ता, पुरोधा तमाम किंतु-परंतु  और आशंकाओं का विद्रूप वर्णन ही करते रहे। उन्होंने अनिवार्य शिक्षा को अपनी मंजूरी नहीं दी और यह तर्क प्रस्तुत करते रहे कि प्राथमिक स्कूल निर्बल लोगों के बच्चों को काम का सही प्रशिक्षण नहीं देते। गरीब बच्चों को काम करना चाहिए बजाय इसके कि वो स्कूल जाएं। जहाँ उन्हें बाबूगिरी वाले काम के लिए तैयार किया जाता है। गरीबों को शिक्षा देने से बेरोजगारी और सामाजिक अव्यवस्था फैलेगी। गरीब बच्चों को किताबी शिक्षा के बजाय शिल्प व कारीगरी की दिक्षा देकर उन्हें कुशल कारीगर-शिल्पी बनाया जाए। स्कूलों की अपूर्ण शिक्षा एवं बाल श्रम निर्धनता के नतीजे हैं न कि कारण और इसके जिम्मेदार बच्चों के माँ-बाप हैं न कि राज्य। जहाँ ऐसे चालाक, चतुर-सुजान करूणारहित प्रबुद्ध वर्ग हो, उसका अतीत इतना भी भव्य पुरातन और समृद्ध परंपरा वाला हो, उसका भविष्य, उसका होनहार अंधी गलियों में  भटकने के लिए अभिशप्त है।

(लेखक एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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