भाषा का सवाल: मैं और मेरा कन्नड़ भाषी 'यात्री-मित्र'
चित्रकार एवं हिन्दी-उर्दू और गुजराती में कहानियां लिखने वाले लेखक आबिद सुरती जापान के एशिया सेन्टर में अपनी एक युरोपीयन मित्र का इंतजार कर रहे थे। उनके ठीक सामने एक टेबल पर एक सिख सज्जन विराजमान थे। श्री आबिद खुश हो गये कि अपने देश के एक बंदे का दीदार तो हुआ। बिना किसी तकल्लुफ़ के उठे और सरदार जी के पास जा बैठे। अपना परिचय देते हुए उन्होंने कहा, 'मैं आबिद गुजरात से हूं '। आबिद साहब की जिंदादिली का जवाब सरदार जी ने बेरुखी से दिया! अच्छा, जी, हां, हूं, है, नहीं, ही करते रहे।
आबिद साहब ने सोचा कि कहीं माजरा जुबान का तो नहीं है, कहीं सरदार जी को उनकी हिन्दी से तो प्रॉब्लेम नहीं है? सुरती जी ने लैंग्वेज का ट्रैक बदला और अंग्रेजी में सरदार जी से डॉयलाग शुरू किया। सरदार जी के चेहरे पर पंजाबियत की रौनक दौड़ आई। पंजाब की जिंदादिली अंग्रेजी में फर्राटे भरने लगी और उनके बीच पंजाब और भारत देश को लेकर ढेर सारी बातें, लंबी बातें होंने लगी। इसी बीच सुरती साहब की यूरोपीय मित्र भी आ गईं। वे गहरी मुस्कुराहट के साथ दो हम वतन लोगों की बातें सुनती रहीं। आबिद साहब ने अपनी यूरोपीय मित्र से सरदार जी का परिचय कराया। औपचारिक परिचय पूरा होने के बाद यूरोपीय महिला मित्र ने आबिद साहब से कहा,"मेरे ख्याल से आप दोनों एक ही देश के हो। फिर आप लोग अपनी भाषा में बात न कर के अंग्रेजी में बातें क्यों कर रहे हो?" आबिद साहब ने लिखा है, 'मुझे लगा कि मेरी महिला दोस्त ने मेरे कान पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया।'
थोड़ी देर बाद संयत होकर सुरती जी बोले। अपने देश की बहुलता-विविधता की श्रेष्ठता का ज्ञान बघारते हुए अपनी मित्र से कहा, 'दरअसल हमारा देश अपनी बनावट व बहुलता में छोटा-मोटा यूरोप है। विविध भाषाएं-लिपियां हैं देश में, इसलिए अलग-अलग जुबान के लोग बतौर कमन्यूकेशन अंग्रेजी का बर्ताव-व्यवहार करते हैं।
आबिद जी ने आगे लिखा, 'अपनी बात और तर्क से थोड़ी ताकत एवं राहत की सांस लेता कि मेरी मित्र ने दूसरा जोरदार तमाचा जड़ दिया,"तब तो तुम लोगों को अंग्रेजों का एहसानमंद होना चाहिए कि उन्होंने तुम्हें और तुम्हारे देश भारत को एकजुट रखने के लिए एक भाषा अंग्रेजी दे दिया है??? (साभार 'कहानीकार' पत्रिका, संपादक: कमल गुप्त। बनारस से स्मृति अनुसार!)
हमारा स्वयं का अनुभव
एक अनुभव हमारा है। बात 1979-80 की अवधि की है। उन दिनों मैसूर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ. एम राजेश्वरैया का लखनऊ के एक सेमिनार में महत्वपूर्ण व्याख्यान हुआ था जिसमें दक्षिण भारत में हिन्दी विरोधी मानसिकता और प्रतिकूल वातावरण को लेकर उत्तर भारत (हिन्दी पट्टी) में व्याप्त कई भ्रान्तियों का निवारण हुआ। मैं उस समय अपने गृह जनपद गोण्डा, सदर शहर में ही रह रहा था।
डॉ. एम. राजेश्वरैया के व्याख्यान के बारे में छपी रपट अखबारों में पढ़कर ही जान पाया। उस समय आज की तरह साहित्य, कला, ना्ट्य और संगीत की खबरों का अकाल हिन्दी अखबारों में नहीं होता था। साहित्य, कला , संगीत और नाटकों के विज्ञ लेखकों को ही इन विषयों पर समीक्षा लिखने की जिम्मेदारी दी जाती थी। उस समय 'स्वतंत्र भारत' अखबार उत्तर काशी से लेकर, काशी-बनारस तक पढ़ा जाने वाला बहु प्रसारित और प्रतिष्ठित अखबार था। इसकी विद्वत संपादक मंडल में सर्वश्री अशोक जी, वीरेन्द्र सिंह, गुरु देव नारायण जी, प्रमोद जोशी, नवीन जोशी जैसे प्रतिष्ठित पत्रकार रहे हैं।
डॉक्टर एम राजेश्वरैया मैसूर विश्वविद्यालय में 'मनसा गंगोत्री अध्ययन पीठ' के अध्यक्ष थे। जहां हिन्दी भाषा का प्रारम्भिक अध्ययन कक्षायें, हिन्दी कन्नड़ का तुलनात्मक अध्ययन, हिन्दी में अनुवाद, मौलिक लेखन आदि अध्ययन के विषय के रूप में पढ़ाये जाते रहे हैं। राजेश्वरैया के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मैंने 'मनसा गंगोत्री' जाने का निर्णय लिया। यह सोचकर कि 'मनसा गंगोत्री' में कन्नड़ सीखूंगा। लखनऊ के 'इण्डियन बुक डिपो' से हिन्दी कन्नड़ अध्ययन पुस्तक खरीदी। यह तय किया कि कन्नड़ से हिन्दी अनुवाद और हिन्दी से कन्नड़ अनुवाद करूंगा। मैसूर में रहकर पत्रकारिता और अनुवाद को अपनी जीविका बनाऊंगा।
गोण्डा से मैंने अपनी यात्रा शुरू की। शाम चार बजे, 'लखनऊ-चेन्नई' एक्सप्रेस द्वारा लखनऊ से मैसूर के लिए रवाना हुआ। वर्धा स्टेशन से हमें एहसास हुआ कि हम महाराष्ट्र से होकर गुजर रहे थे, मराठी भाषी क्षेत्र से। हमें इस क्षेत्र से गुजरते हुए भाषा सम्प्रेषण (कम्यूनिकेशन) की कोई समस्या नहीं आई। हमारी रेल रात के अंधेरे को चीरते हुए आगे बढ़ती जा रही थी। वारंगल पहुंच कर हमें पता चला कि हम आंध्र प्रदेश ('वर्तमान का तेलांगाना') की सीमा में प्रवेश कर चुके थे। यहां से 'तेलगु' भाषा शुरू हो जाती है।
वैसे यहां के लोग कामचलाऊ हिन्दी समझ लेते हैं। क्योंकि यहां दक्कनी भाषा बोली जाती है। इसे पुरानी उर्दू कहते हैं, जो 1295 में दक्षिण में पहुंची। 1200 से 1700 के दौरान जिस भाषा का विकास दक्षिण भारत में हुआ उसे दक्कनी या पुरानी उर्दू की संज्ञा दी जाती है-- (डॉ.एम के ए. बेग) यही वजह रही है कि लगभग पूरे आंध्र प्रदेश के रेलमार्ग, वारंगल से चेन्नई पर मेरी सहज हिन्दी (दक्कनी जैसी) से मेरा काम चल गया। चेन्नई में टूटी-फूटी अंग्रेजी से या अंग्रेजी शब्दों से बोझिल हिन्दी से मैंने अपना काम चलाया। चेन्नई में ही अपनी सहज हिन्दी के माध्यम से अपने तमिल यात्री मित्र से जानकारी प्राप्त हुई कि मैसूर जाने के लिए बंगलुरू जाना होगा। बंगलुरू से मैसूर के लिए छोटी लाइन (1980, में अमान परिवर्तन नहीं हुआ था) की ट्रेन 'टीपू सुल्तान एक्सप्रेस' मिलेगी। सुबह हम बंगलुरू पहुंच गए। शानदार स्टेशन। निकास करते ही चमचमाता सामान्य विशाल प्रतीक्षालय। प्रतीक्षालाय में ही स्पेसफुल और स्वच्छ रेस्तरां। मैं कॉफी और हल्के नाश्ते के लिए रेस्तरां की तरफ बढ़ा। बड़े कप में चाय और डबल ब्रेड लिया। एक तरफ खड़े होकर नाश्ता किया। बंगलुरू में अपनी दैनिक दिनचर्या को टूटी-फूटी अंग्रेजी या अंग्रेजी बोझिल हिन्दी एवं हाव-भाव के एक्ट से सम्पन्न किया। प्लेटफार्म पर 'टीपू सुल्तान एक्सप्रेस' की प्रतीक्षा करते हुए एक कन्नड़ भाषी ग्रेजुएट छात्र से मुलाकात हुई। वह बम्बईया हिन्दी बोल रहा था। मैंने पूछा 'हिन्दी पढ़ लेते हो' । 'थोड़ा बहुत मुश्किल से' । मैंने पूछा 'कोर्स में हिन्दी ऐज ए सब्जेक्ट लिया है?' उसने जवाब दिया 'नहीं '। मैंने पूछा -'क्यों? हिन्दी तो राष्ट्र भाषा है?'
उसने पूछा,' तुम्हारे सब्जेक्ट में कन्नड़ है'? 'मैं बोला नहीं'। उसने पूछा, 'क्यों? कन्नड़ भी तो राष्ट्रीय भाषा है?'
कर्नाटक में लोगों से सम्पर्क कैसे बढ़ाएंगे, उनसे कैसे जुड़ेंगे'। मैं विलम्ब किए बगैर बोला, 'सम्पर्क के लिए अंग्रेजी तो है ही।' वह तपाक से बोला, 'वह तो मेरे पास भी है। तो तुम गांव के लोगों से अंग्रेजी में लिंक बनाओगे?' बेधती हुई सवालिया निगाहों से मेरी ओर देखा। मैं बचाव की मुद्रा में आ गया।
ओनली लैंग्वेज का मामला नहीं है स्क्रिप्ट का भी प्राब्लम है! लोग कितनी जुबान कितनी सि्क्रिप्ट लिखें, पढ़ें और सीखें।' मेरा यात्री मित्र हमलावर मूड में था। "बहाने हिन्दी वालों के पास बहुत हैं। मराठी, कोंकणी तो हिन्दी वाली लिपि (नागरी) में ही लिखी जाती है। गुजराती की लिपि भी हिन्दी वाली लिपि के जैसी ही है। थोड़ी कोशिश कर के पढ़ी जा सकती है। तुम्हारे कालेज में कितने स्टूडेंट अदर लैंग्वेज में मराठी, कोंकणी को ऐज ए सब्जेक्ट के तौर पर पढ़ते हैं।" मैं चुप था। मैं जिस कालेज में पढ़ रहा था, उसमें अन्य राष्ट्रीय भाषा चुनने के लिए विकल्प के तौर पर केवल तीन भाषाएं थी बांग्ला, संस्कृत और अंग्रेजी। यह अनिवार्य भाषा विषय थे। कुछ अन्य कालेज में उर्दू विषय चुनने का भी विकल्प दिया गया था।
इसमें चयनित भाषा का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाता है। अक्षर ज्ञान, शब्द ज्ञान, वाक्य विन्यास, व्याकरण, कुछ कविताएं, कहानियां, एक-दो ज्ञानपरक लेख। मेरे यात्री मित्र के वाजिब सवाल बरकरार थे। राष्ट्रीय भाषा के नाम पर विकल्प में जो भाषा कालेज द्वारा तय की गई थीं उनमें चुनाव की गुंजाइश सीमित थी। मैंने बांग्ला भाषा का चयन किया था। किन्तु हमारे कालेज में बांग्ला की कक्षाएं नहीं लगती थीं। हमारे कालेज ने एक दूसरे कालेज से कुछ सीटों का करार किया था कि वह हम बांग्ला भाषा अध्ययन के इच्छुक छात्रों को बांग्ला भाषा की कक्षा में बैठने की सुविधा उपलब्ध कराए। तो ये है हिन्दी पट्टी में देश की अन्य राष्ट्रीय भाषाओं को लेकर उसके कैजुअल एप्रोच की एक बानगी।
फिलहाल हम और हमारे यात्री मित्र इस चिन्ता के साथ एकमत हुए कि यूरोप जैसी भाषाई विविधता रखने वाला हमारा देश एक अखिल भारतीय समावेशी व सर्वस्वीकृत सम्पर्क भाषा के व्यवहार एवं संवृद्धि की ओर अग्रसर हो। 'टीपू सुल्तान एक्सप्रेस' मैसूर स्टेशन पर पहुंच चुकी थी। मित्र ने मूझे मैसूर विश्वविद्यालय के आटो पर बैठा दिया और आटो वाले को 'मनसा गंगोत्री' के गेट तक छोड़ देने के लिए कहा। मित्र ने हाथ मिलाया, मैंने कुछ कहना चाहा, 'अच्छा साथ व सार्थक संवाद के लिए'। पर मेरा गला भर आया था, दरअसल औपचारिक बोल बोलने से पहले ही भावुक हो जाता हूं। हमारा 'यात्री-मित्र' जिसकी प्रतियोगी वाणी ने मुझे कर्नाटक के अपनापे से परिचय कराया। कन्नड़ भाषी 'यात्री-मित्र' हिन्दी का व्यावहारिक ज्ञानी था।
मैं हिन्दी भाषी, कन्नड़ के प्रति अज्ञानी। देश की अन्य भाषाओं के बारे में लापरवाह कौन है? मेरा कन्नड़ भाषी 'यात्री-मित्र' अथवा मैं और मेरे जैसे अधिकांशतः हिन्दी भाषी जो सिवा हिन्दी के किसी अन्य भारतीय भाषा का, अलिफ़, बे तक नहीं जानते और न ही जानने की इच्छा शक्ति रखते हैं। मित्र ने बहस में हमें ललकारते हुए चुनौती दी,'जनसंख्या बल में हिन्दी वाले ज्यादा हैं। क्यों नहीं आप हिन्दी भाषी स्कॉलर, अधिक से अधिक अन्य राष्ट्रीय भाषाएं सीख कर हिन्दी सहित दुनिया की सभी भाषाओं में लिखे गए साहित्य, विज्ञान, दर्शन, मानविकी, गणित, चिकित्सा व कला की उत्कृष्ट, क्लासिक और विश्व स्तरीय पुस्तकों का अनुवाद उपलब्ध कराईये।
मैं मैसूर विश्वविद्यालय के मनसा गंगोत्री अध्ययन पीठ के भवन पर पहुंच गया। गेट पर मौजूद कर्मचारी से पूछने पर ज्ञात हुआ कि राजेश्वरैया जी विश्वविद्यालय में ही कहीं गये हुए हैं। उसने टूटी-फूटी हिंदी में मुझे 'वेट करो' ,बोला और इशारे से बैठने को कहा। वहां केवल एक कुर्सी थी। इसलिए सामने के हरे-भरे लान में बैठ गया। मनसा गंगोत्री के प्रथम तल पर कक्षाएं चल रहीं थीं। लड़के-लड़कियों की आवाज़ आ रही थी। लंबी यात्रा के थकान से मेरा मन हरी भरी लान में सुकून और शांति अनुभव कर रहा था। अधलेटी मुद्रा में मैं आराम करने लगा। कुछ ही पल बीते होंगे कि प्रथम तल से लड़कियों की चहचहाहट भरी बातचीत और शोरगुल सुनाई पड़ी। मैंने इसे लड़कियों की उछल-कूद और मौज-मस्ती जैसी ही आदत के बतौर लिया। यात्रा की थकान से मुझे झपकी आ गई। अभी नींद का एक झोंका महसूस हुआ था कि मुझे लगा कि कोई अस्पष्ट तेज आवाज आ रही थी। किसी ने मुझे झकझोरा। मैं उठकर बैठ गया। सामने एक छात्र कन्नड़ में कुछ बोला। 'आई एम नार्थ इंडियन, आई कान्ट स्पीक इन कन्नड़ा'। छात्र तुरंत हिन्दी में बोला , आप कहां से आते हैं? आप यहां अपने किसी दोस्त का इंतजार कर रहे हैं? ऊपर लड़कियों का शोरगुल बढ़ गया था। वे शायद उस लड़के से तेज आवाज में कुछ कह रही थीं। लड़का मुस्कराया। इसी बीच एक आवाज आई, ट्यूबलाइट। खिली धूप में ट्यूबलाइट का मतलब मेरी समझ में नहीं आया। मैंने लड़के से बतलाया,'मैं लखनऊ से आया हूं। मुझे डॉ. एम. राजेश्वरय्या साहब से मिलना है।' लड़के ने कहा, 'वह तो अभी आए नहीं हैं। आप यहां झुरमुट में क्यो बैठे हैं। चलिए सर के कार्यालय में बैठिए।'
आदेश पाल से लड़के ने कहा, 'सर से मिलना है आपको, लखनऊ से आए हैं।' मैंने उस छात्र से कहा, 'आपकी हिन्दी अच्छी है'! 'सच?' आश्चर्य भरी खुशी थी उसके स्वर में, 'आप कह रहे हैं तो मान लेते हैं। मैं 'मनसा गंगोत्री' में ही पढ़ता हूं। सर के अधीन।' सहसा उसे जैसे कुछ याद आया,'आपने कुछ नाश्ता किया।' 'हां बंगलुरू में।' 'बंगलुरू में? वो तो चार घंटे से ऊपर हो गया। चलिए बाहर चाय नाश्ता करके आते हैं!' 'मनसा गंगोत्री' के बाहर गेट पर हम कैंटीन के पास आ गए। शायद लंच का समय हो गया था। छात्र-छात्राएं सब बाहर आ रहे थे।
सब छात्र-छात्राएं,चाय-बिस्किट व अन्य खाद्य सामग्री ले रहे थे। उसी समय सुनाई पड़ी 'ट्यूबलाइट'! छात्र ने आवाज देने वाली लड़की की ओर देख कर, कन्नड़ में एक लम्बा वाक्य बोला। जवाब में लड़की आंखें चौड़ी कर बोली, 'वाव' । उस छात्रा से बात ख़त्म होने पर मुझसे छात्र बोला, "झुरमुट में जहां बैठे थे आप, आपका थका हुआ मायूस चेहरा उन्हें निराश प्रेमी जैसा लग रहा था, इसलिए वो जानना चाहती थी आपके एकांत और उदासी के पीछे कौन सी प्रॉब्लेम या परेशानी है।" मैं हैरान था उस छात्र की बातें सुनकर।
चाय पी कर हम मनसा गंगोत्री की ओर बढ़ रहे थे। श्री राजेश्वरैय्या सर आ चुके थे।
लेख की शुरुआत आबिद सुरती के जापान में एशिया सेण्टर के उस संस्मरण से करने के पीछे उस रिक्तता की पीर को टटोलना था कि टपकन कहां हो रही है। करीब एक दशक पहले यह संस्मरण मैंने पढ़ा था। और सामने पड़ने पर अक्सर पढ़ लिया करता था। एक दिन एक सज्जन आए और 'कहानीकार' पढ़ने के लिए कह कर ले गये फिर वापस नहीं मिला। लेकिन आबिद साहब का मर्म इतना रासायनिक था कि दिमाग की शिराओं में जा कर कहीं छुप गया। वैचारिक उत्तेजना के पहर में वह मुखर हो सक्रिय हो जाता है जैसे आजकल एक दशक बाद हमारी स्मृति में पुनः वापस आ गया। और मुझे खींचते हुए ले गया 1979-80 में जब मेरी उम्र को व्यस्कता का प्रमाणपत्र मिलना था। आज करीब चालीस साल होने जा रहे हैं। बंगलुरू स्टेशन पर मैसूर जाने के लिए छोटी लाइन, (मीटरगेज) पर मैसूर जाने के लिए गाड़ी का इंतजार कर रहा था, 'टीपू सुल्तान एक्सप्रेस' का।
इंतजार की इस घड़ी में एक संजीदा युवा से भेंट हुई जिसकी चिंता में सिर्फ पेट और कैरियर नहीं था। उसकी चिन्ता में कुटुम्ब, गांव, अपना प्रदेश और देश था। उसे अपनी भाषा 'कन्नड़' प्रिय थी। आपसी जानकारी के आदान-प्रदान में हम अच्छे दोस्त बन गए। हमने एक-दूसरे को वर 'यात्री-मित्र' का सम्बोधन दिया। हमारी ट्रेन मैसूर के लिए रवाना हो चुकी थी। हम लोगों ने घर-परिवार, देश-विदेश, दुनिया-जहान के मुद्दों पर तीखी और गंभीर बात की। विशेष कर भाषा के सवाल को लेकर भावनात्मक दृष्टि अपनाने के बजाय भाषा पर वस्तुपरक नजरिए से विचार किया। 'यात्री-मित्र' ने मेरे साथ कोई वैचारिक उदारता नहीं बरती! मित्र ने आंख में अंगुली डाल कर बोध कराया- “बड़े भाई साहब मत बनो, बड़प्पन दिखाओ! विचार करो, जो हिन्दी पहला फ्रीडम की लड़ाई का वॉयस बना आज तक नेशनली लिंक लैंग्वेज क्यों नहीं बन पाया। ब्लैक इंग्लिशमैन इण्डिया क्यों बनाना चाहते हो। सेवन कलर शाइनिंग सोशलिस्ट इण्डिया बनाओ!”
तुर्की के क्रांतिकारी समाजवादी नेता शासक आतोमान कमाल पाशा ने देश की भाषा नीति पर अपने सहयोगियों के साथ विचार किया। विचार विमर्श की इस प्रक्रिया में जो तथ्य निर्णय पटल पर प्रस्तुत हुआ, उसका निचोड़ यह था ,'एक व्यवस्थित भाषा के रूप में फारसी ही एक ऐसी भाषा है जिसे तुर्की में राजभाषा के रूप में कबूल किया जा सकता है'। कमाल पाशा ने रिपोर्ट को सिरे से खारिज कर दिया। वह आम लोगों की रहनुमाई के पैरोकार, मुल्क के लिए एक ऐसी जुबान चाहते थे जो आम आदमी के लिए माकूल हो, उसकी समझ में आ जाए। कमाल पाशा ने 'तुर्की ' भाषा की स्थिति को लेकर रिपोर्ट मांगी। जवाब आया कि 'हुकुमत की भाषा के बतौर तुर्की एक कमजोर जुबान है। '
कमाल पाशा ने तुर्की को मौजूदा पोजीशन में ही राजभाषा घोषित करते हुए, उसे लोकप्रिय और अधिक समृद्ध जुबान बनाने पर जोर दिया।
कमाल पाशा का फैसला और 'तुर्की भाषा' को निर्णायक हुक्मनामा के जरिए बतौर राजभाषा तर्की में बनाया जाना एक नजीर है कि आम अवाम के हक में जो फैसला हुकुमत लेती है वह मुकम्मल और कामयाब होती है।
हमारे देश भारत में पूरी तरह देसी भाषा, राजभाषा क्यों नहीं बन पा रही है। अंग्रेजी क्यों घुसी हुई है? यहां केवल हिन्दी के पक्ष में वकालत नहीं हो रही है। यहां उन सभी भारतीय भाषाओं के बारे में बात हो रही है जो समवर्ती सूची में राष्ट्रीय भाषा के रूप में दर्ज हैं। जिनका विकास और हक केवल और केवल अंग्रेजी रोके हुए है।
हिन्दी और अन्य राष्ट्रीय भाषाओं का पूरी तरह राजभाषा के रूप में मौका न देने या मिलने के पीछे एक ही तर्क है कि अंग्रेजी एक अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है, इसलिए केंद्रीय सरकार की नौकरियों में अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्कों के लिए अंग्रेजी ज्ञान अनिवार्य है। यह एक फैलाया हुआ झूठ है।
शर्मनाक सच तो ये है कि पूर्व सोवियत संघ और वार्सा संगठन के कई सामाजवादी देश जिनकी जनसंख्या एक करोड़ से पांच करोड़ के बीच में ही होती थी, उन देशों के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या कोई अन्य केंद्रीय मंत्री भारत यात्रा पर आता था तो वह अपना हिन्दी दूभाषिया लेकर आता था। स्थिति तब शर्मनाक और हास्यास्पद हो जाती थी जब भारत की ओर से आए प्रोटोकाल मंत्री ने स्वागत अंग्रेजी में किया, दुभाषिये को, अंग्रेजी नहीं आती थी। और वह अपने केंद्रीय मंत्री को यह नहीं बता पाए कि भारतीय मंत्री ने अपने स्वागत वक्तव्य में क्या कहा। खैर दोनों मंत्रियों ने गर्मजोशी से हाथ मिलाया। वह शीतयुद्ध का दौर था। जापान के विदेश मंत्रालय द्वारा 'हिन्दी में एक पत्रिका' निकाली जाती रही है। उसका एक अंक श्रावस्ती घूमने आए एक जापानी अधिकारी ने मुझे भेंट किया था, मुस्कराते हुए, व्यंग्य करते हुए, बड़े स्नेह से मृदुल स्वर, 'यह आप लोगों के अंग्रेजी प्रेम पर, पढ़िएगा।' वह अंक मैंने 'तीसरी दुनिया' के संपादक आनन्द स्वरूप वर्मा जी को दिखाया, उस समय वह एक पत्रिका से जुड़े हुए थे। उसी में उस जापानी पत्रिका का व्यंग्य छपा था। व्यंग्य की प्रशंसा व समर्थन में पाठकों के पत्र आए थे।
एक तर्क यह भी जोर-शोर उछाला गया है कि अंग्रेजी विश्व भाषा है। हिन्दी का यह हाल है कि अपनी ही भूमि पर ही उसकी स्थिति महत्वपूर्ण नहीं है? अंग्रेजीपढ़ने के लिए लोग सहर्ष महंगे स्कूल-कोचिंग में दाखिला लेते हैं। वहीं अगर 'सामान्य हिन्दी' ( साहित्यिक नहीं) को ही पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया जाए तो हिन्दी भाषियों को बोझ एवं गैर हिन्दी भाषियों को थोपना महसूस होने लगता है। भारत भूमि में ही हिन्दी के प्रति इस उदासीनता के बावजूद "वैश्विकरण के इस दौर में हिन्दी का विरोध भी हो रहा है और उसका दामन भी थामा जा रहा है। अमरीका में बहुत से बैंक और टेलिफोन कम्पनियां भारतीय ग्राहकों से सम्पर्क करने के लिए हिन्दी भाषी आपरेटरों का सहारा लेने लगी हैं। वहां के विश्वविद्यालयों में जैसे कि कोलंबिया, ऐल, हरबर्ट, शिकागो, कैलिफोर्निया, विस्कोन्सिन, प्रिंसटन में हिन्दी की पढ़ाई को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। अमरीका की सरकार ने हिन्दी के प्रचार के लिए बजट का अनुमोदन किया है"। (श्रीधर करूणानिधि;'वैश्विकरण और हिन्दी का बदलता स्वरूप 'की भूमिका से) बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जो अमेरिकी कंपनियों का दूसरा नाम है, समझ में आ रहा है कि अगर भारतीय उपभोक्ता तक पहुंचना है तो हिंदी से बढ़ कर कोई भाषा नहीं है।
हिंदी की अनेक पत्र-पत्रिकाएं इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। वैश्वीकरण के दौर में अंग्रेजी के भारी दबाव के बीच खडे़ रहने की कोशिश में लगी हुई है।
हिन्दी में इतनी ताकत है कि उसे षड़यंत्र की कोशिशों से डिगाया नहीं जा सकता है। ई-मेल और हिन्दी ब्लागिंग की शक्ल में हिन्दी साहित्य नये स्वरूप में प्रकट हुआ है। ब्लागिंग के माध्यम से देश में लोकतांत्रिक विमर्श की प्रक्रिया शुरू हुई है जिससे देश का जनमत सजग होगा।
'इंटरनेट से पूरी दुनिया भर के हिन्दी भाषियों एवं साहित्यकारों को एकजुट होने का अवसर मिला।
विदेशी विद्वानों और अनेक प्रवासी भारतीयों की भी हिन्दी को समृद्ध करने और लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जिनमें रूस के डॉ. चेलिशोव, वराल्निकोव, जापान के डॉ तोमियो मिजोकामी, अमरीका के सैगुएण देगारी के लोग आदि हैं। दूसरी ओर मारिशस, फिजी तृणिदाद, गयाना और सूरीनाम के प्रवासी भारतीय हैं जो 150 वर्ष पूर्व मजदूर के रूप में गये और अपने साथ रामायण , आल्हा और कई अन्य लोक साहित्य के साथ हिंदी भाषा भी ले गये थे। वे अब भी हिन्दी में साहित्य रच रहे हैं। मारीशस के विजेन्द्र भगत मधुकर, सोमदत्त बखैरी, मुनीश्वर चिन्तामणी जैसे अनेक साहित्यकारों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। जिन्होंने हिन्दी को एक अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मारीशस के अभिमन्यु अनन्त जो कि हिन्दी के अतिरिक्त फ्रेंच में भी पहुंच चुके थे। उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'लाल पसीना' के फ्रेंच अनुवाद से उनको जितना धन प्राप्त हुआ उतना उनकी भारत में प्रकाशित 70 पुस्तकों को मिला कर भी नहीं मिला।
इसी तरह त्रिनिदाद में प्रोफेसर हरिशंकर आदेश, कनाडा से श्याम त्रिपाठी, हॉलैंड से मोहन गौतम सचदेव आदि अनेकों नाम हैं जो विदेश में हिन्दी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। हाल के दिनों में आई टी प्रोफेशनल हिन्दी को पश्चिमी देशों तक ले गए हैं। और यह सिलसिला जारी है। टीवी चैनलों को हिन्दी अपनाने को बाध्य होना पड़ा। विदेशों में हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ा है हिन्दी लेखकों को, सम्मानित किया जा रहा है। ब्रिटिश संसद के उच्च सदन "हाउस आफ लार्ड्स" में आयोजित समारोह में यु्वा भारतीय महिला लेखक महुआ मांझी को यूके के तेरहवें अंतरराष्ट्रीय 'इन्दु शर्मा कथा सम्मान' से विभूषित किया गया।
ब्रिटेन में बसे हिन्दी लेखकों को दिया जानेवाला आठवां “पद्मानंद साहित्य सम्मान 'डॉ. गौतम सचदेव को दिया गया। ब्रिटेन के सुरक्षा मंत्री टोनी मैक्नल्टी ने हिन्दी में सम्मान भाषण प्रस्तुत किया। हिन्दी के भविष्य के लिए हाल में 'आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन' अपने केंद्रीय विषय 'विश्व मंच पर हिन्दी' अत्याधिक आशान्वित करने वाला कार्यक्रम सिद्ध हुआ। विश्व मंच पर हिन्दी को वाजिब हक दिलाने की जोरदार मांग के साथ न्यूयॉर्क में आयोजित किया गया। सम्मेलन अपने दस सूत्री घोषणा पत्र के कारण चर्चा के केंद्र में है। इसमें हिन्दी को साहित्य के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और वाणिज्य की भाषा बनाते जाने के लिए जोर दिया गया। सम्मेलन का शुभारंभ करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की-मून ने एक मिनट हिन्दी में भाषण दिया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने वीडियो संबोधन में, 'हिन्दी को इन्टरनेट की मजबूत भाषा बनाने और हिन्दी के अच्छे साफ्टवेयर एवं सर्च इंजन को विकसित करने पर बल दिया। उन्होंने यह भी कहा, 'अप्रवासी भारतीय लेखकों की किताबों को भारत के शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।' उन्होंने कहा,' जिन देशों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है, उनके लिए मानक पुस्तकें तय की जानी चाहिए।'
यहां ये प्रश्न गौरतलब है देश में सत्तर करोड़ की जनसंख्या हिन्दी बोलती है। और दुनिया के अन्य देशों में तकरीबन दस करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं और समझते हैं। विश्व के कई देशों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। हिन्दी फिल्मों और गानों की पूरे विश्व में लोकप्रियता में भारी वृद्धि हुई है। दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी फिल्मों के माध्यम से हिन्दी पढ़ाई जा रही है। हिन्दी का बायो डाटा समृद्ध है। उसकी लोकप्रियता दर विश्व स्तरीय है। वह मनोरंजन की भाषा है। वह पांडित्य व विद्वता की, दर्शन एवं विज्ञान की भाषा है। साहित्य-संस्कृति की, गीत व संगीत, धर्म व अध्यात्म की भाषा है, कला और शास्त्र, काव्य व उपन्यास की, वह रंगमंच और सिनेमा की भाषा है। वह देश की आम जनता की भाषा है, इसलिए देश का आभिजात्य बुर्जुआ, देश का शासक वर्ग, आम जनता की भाषा से डरता है। उसकी भाषा को 'राजभाषा' का अधिकार सौंपने के काल्पनिक खतरे गढ़ कर आम लोगों के बीच भय का सृजन करता है।
1979-80 से पहले, मैं भी इस 'क्रिएट फियर' से भ्रमित था, क्योंकि तब तक मैं दक्षिण दिशा में अपने कानपुर शहर से आगे नहीं बढ़ पाया। मेरी अंग्रेजी व्याकरण के लिहाज से कमजोर है। अंग्रेजी शब्द ज्ञान को थोड़ा बेहतर कह सकता हूं। अपनी मैसूर यात्रा के दौरान मेरा काम टूटी-फूटी अंग्रेजी या अंग्रेजी बोझिल हिन्दी से चल गया था। वापस लौटा तो अंग्रेजी भक्तों ने पूछा कैसी रही 'साउथ जर्नी'! 'बहुत ही अच्छा रहा, तुम अंग्रेजी भक्तों का 'हिन्दी विरोध' हमें नहीं झेलना पड़ा, तुम्हारी इस निराशा से हमें अफसोस है।' एक अंग्रेजी भक्त ने चुनौती दी, 'मैसूर में चल गया, मद्रास में घुस के हिन्दी बोल कर देखो,पता लग जाएगा।' 1987 में ' ए.आइ.सी.सी.टी.यू.' सम्मेलन में बतौर प्रतिनिधि चेन्नई जाना हुआ। अभूतपूर्व आयोजन में, 'वीर वणक्कम' के गगनभेदी नारों के साथ क्रान्तिकारी स्वागत हुआ। पूरे पांच दिनों का सम्मेलन व्यवस्थित एवं शांति पूर्ण ढंग से संपन्न हुआ। समापन हजारों मजदूरों के लाल झण्डे-बैनरों से सजा, 'वीर वणक्कम', मजदूर एकता- जिन्दाबाद के नारे लगाते हुए पूरे शहर की परिक्रमा की। जगह-जगह आम जनता व मजदूर साथियों ने 'वीर वणक्कम (वीर नमस्ते) के नारों से स्वागत एवं उत्साहवर्धन किया। सम्मेलन के दौरान किसी भी तमिल ने हमलोगों से शहर के बाजार में, दुकान पर टोका नहीं, 'नो हिन्दी, स्पीक इन तमिल' नहीं कहा।
ऑल इंडिया सेंट्रल कौंसिल आफ ट्रेड यूनियन (ए.आइ.सी.सी.टी.यू : ऐक्टू) के स्थापना सम्मेलन के संचालन के लिए जो भाषा नीति अपनाई गई थी, उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ। सम्मेलन में एक छोर असम से गुजरात तक, दूसरा पंजाब से तमिलनाडु तक के लोग शामिल थे। सम्मेलन का प्रारूप पत्र तमिल में (आयोजक), हिन्दी (केंद्र,), बांग्ला, असमिया, कार्बी, उड़िया, तेलगु, तमिल मलयालम, कन्नड़, मराठी, गुजराती, पंजाबी और अंग्रेजी (अनुवाद की भाषा) में जारी किए गए। इन सभी भाषाओं के प्रतिनिधि अपनी-अपनी भाषा में मसविदा दस्तावेज पर बहस रख रहे थे, कुछ प्रतिनिधियों ने अंग्रेजी में भी अपने विचार रखे। प्रतिनिधियों के विचारों से सदन को अवगत कराने के लिए, तमिल, अंग्रेजी और हिन्दी में अनुवाद की व्यवस्था थी। संचालन समिति की स्टेयरिंग कमेटी में ही अनुवादकों का पैनल था। चन्दा, लेवी और समर्थकों के योगदान से चलने वाले मजदूर संगठन के लिए आर्थिक रूप से खर्चीली व समय नष्ट करने वाली कसरत थी।
लेकिन मजबूत यूनियन के निर्माण का उद्देश्य एवं लक्ष्य लिए हुए मजदूर संगठन के लिए आर्थिक खर्च से ज्यादा महत्वपूर्ण था अपनी मजदूर शक्ति एकीकृत करना व बनाए रखना था। जहां तक समय नष्ट होने का प्रश्न है, मजदूर संगठन का ध्येय था वैचारिक रूप से सक्षम और कुशल श्रम कानून ज्ञाता काडरो की कतार देश स्तर पर खड़ा करना।
भाषा विविधता वाले हमारे देश में, ऊपर वर्णित क्षेत्रीय भाषाई मजदूर संगठनो ने जिस तरह एक 'समन्वय समिति' के जरिये 'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन' का गठन किया, क्या इसी प्रकार की तरल नीति अखिल भारतीय सेवा (अभासे) के लिए अपनाई नहीं जा सकता है? "अभासे" के सभी ज्ञापित नौकरियों की मुख्य परीक्षा के लिए गैर हिन्दी प्रांतो में वहां की 'राजभाषा' तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़, कोंकड़ी, मराठी, गुजराती, उड़िया, पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उर्दू (कश्मीर) में ही ली जाए। संपर्क भाषा के लिए 'हिन्दी साहित्य एवं हिन्दी में 'सामान्य ज्ञान हो'। चयनित लोगों को भारत में कहीं भी सेवा में लगाया जाए, भारतीयता बोध के विकास के लिए।
प्रांतीय प्रशासनिक सेवा के लिए प्रांत की 'राजभाषा' में ही मुख्य परीक्षा हो। सम्पर्क भाषा में, हिन्दी साहित्य हो।
यह एक विचार है एक भारतीय का। साहित्यकार आबिद सुरती साहब ने जो जापान के एशिया सेण्टर में महसूस किया। आबिद सुरती जी, निरुत्तर हुए, एक फिरंगी के सामने अंग्रेजी में हमवतन से बात करने की वजह से। हम हिन्दी वाले हिन्द में ही इग्नोर होते हैं, क्योंकि हम अंग्रेजी या हिंग्लिश में बात करना पसंद नहीं करते।
भारत सदियों से विविधता पूर्ण रहा है, दक्षिण से उत्तर तक, पश्चिम से पूरब तक। भाषा ज्ञान में लोग रुचि लेते थे। तब भी भाषाई विविधता थी। किसी भी दिशा से दूरी, विलगाव नहीं प्रतीत होता था। इस लेख को लिखने के पीछे हमारा किसी भाषा के प्रति विरोध की भावना नहीं है। हमारा मतलब है कि देश की अपनी एक सम्पर्क भाषा हो। आबिद सुरती जी जैसे स्वाभिमानी भारतवासी को पराए देश में अपने लोगों से अंग्रेजी में बात करके विदेशियों के व्यंग्य झेल कर शर्मिंदा न होना पड़े।
(लेखक एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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