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क्लाइमेट फाइनेंस: कहीं खोखला ना रह जाए जलवायु सम्मेलन का सारा तामझाम!

जलवायु सम्मेलन में क्लाइमेट फाइनेंस का मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण है। अगर क्लाइमेट फाइनेंस पर सहमति नहीं बनी तो क्लाइमेट जस्टिस नहीं हो पाएगा। नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन से जुड़े सारे वादे खोखले रह जाएंगे। 
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दुनिया के भीतर मौजूद असमानता पर काम करने वाली संस्था ऑक्सफैम का एक अध्ययन बताता है “दुनिया की जलवायु को साल 2030 तक काबू में रखने के लिए जिस हिसाब से पूरी दुनिया में प्रति व्यक्ति कार्बन का उत्सर्जन होना चाहिए, उसके मुकाबले दुनिया के 1 फ़ीसदी सबसे बड़े अमीर लोग 30 गुना अधिक कार्बन उत्सर्जित कर रहे हैं। बाकी 50 फ़ीसदी गरीब, निर्धारित औसत कार्बन उत्सर्जन के मुकाबले कई गुना कम कार्बन उत्सर्जित करते हैं। 

यह तो दुनिया के अमीर व्यक्तियों की बात हुई लेकिन यही हाल अमीर यानी दुनिया के विकसित देशों का है। उन्हीं विकसित देशों का जहां पर दुनिया के सबसे अधिक अमीर व्यक्ति रहते हैं। विकसित देशों ने ही अब तक सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन किया है। साल 1870 से लेकर साल 2019 के बीच कार्बन उत्सर्जन को देखा जाए, तो सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश अब भी विकसित देश ही हैं। अमेरिका, कनाडा, यूरोपियन यूनियन, ऑस्ट्रेलिया, रूस की भागीदारी 60 फ़ीसदी की है। उसके बाद चीन का नंबर आता है, जिसकी हिस्सेदारी तब से लेकर अब तक की अवधि में 13 फ़ीसदी के आसपास है।

साल 1992 में जब पहला जलवायु सम्मेलन हुआ तो नियम यही बना कि जलवायु संकट से लड़ने के लिए अमीर देशों की जिम्मेदारी अधिक होगी। वह कार्बन उत्सर्जन कम करेंगे और गरीब देशों को तकनीक और पैसा मुहैया कराएंगे। इस पैसे और तकनीक के बलबूते गरीब देश कार्बन उत्सर्जन की कमी में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी लेंगे। लेकिन यह सब लिखा ही रह गया और इस पर कोई अमल नहीं हुआ। अमीर देशों के कार्बन उत्सर्जन में कोई बहुत बड़ी कमी नहीं आई। साल 2015 के पेरिस सम्मेलन मे तो अमीर देशों ने अपनी अब तक की जिम्मेदारी से पूरी तरह से पल्ला झाड़ दिया। यह कह दिया कि जलवायु संकट से लड़ने के लिए किस देश की कितनी जिम्मेदारी होगी इसका निर्धारण ऐतिहासिक तौर पर नहीं किया जाएगा। जो देश जितना कार्बन उत्सर्जन कम करना चाहता है, खुद ही उतना लक्ष्य रखकर उसे हासिल करने की तरफ बढ़ सकता है। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि जलवायु संकट से लड़ने की लड़ाई में पूरी दुनिया बहुत पीछे खड़ी है।

साल 2030 तक 2900 गीगा टन कार्बन उत्सर्जन का बजट रखा गया था। इसका मतलब यह है कि वायुमंडल में अगर 2900 गीगा टन से अधिक का कार्बन उत्सर्जन हो जाएगा तो दुनिया के तापमान में औद्योगिक काल के मुकाबले 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी हो जाएगी। विकसित देशों द्वारा अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की वजह से अब तक 2500 गीगा टन कार्बन उत्सर्जन हो चुका है। महज 400 गीगा टन कार्बन उत्सर्जन का स्पेस बचा है। इसके बाद भी दुनिया के अमीर और विकसित देश अपनी जिम्मेदारी से भागने की चालबाजीयां कर रहे हैं। 

COP 26 की बैठक के 1 हफ्ते पूरे होने के बाद वहां से खबर आ रही है कि विकसित और विकासशील देशों के बीच एक तरह की असहमति की दीवार खिंच गई है। विकासशील देश विकसित देश से कह रहे हैं कि वह फिर से अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते। बेसिक (BASIC- ब्राज़ील,साउथ अफ्रीका, इंडिया और चीन) की तरफ से समझौता करने वाले दल में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही रिचा शर्मा ने वक्तव्य दिया है कि भारत आगाह करना चाहता है कि क्लाइमेट फाइनेंस यानी जलवायु संकट से लड़ने के लिए वित्तीय मदद को लेकर दिखाई जा रही अगंभीरता जलवायु संकट की लड़ाई को बहुत पीछे ले जाएगी। अगर इसी तरह से चलता रहा तो नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य महज दिखावा बनकर रह जाएगा। 

लाइक माइंडेड डेवलपमेंट कंट्रीज 77 देशों के समूह में भारत भी शामिल है। इसका प्रतिनिधित्व करते हुए दक्षिण अमेरिका के देश बोलीविया ने कहा कि पिछले 1 हफ्ते से केवल इरादा और इरादा ही बताया जा रहा है। लेकिन जलवायु संकट की लड़ाई केवल इरादे से नहीं लड़ी जा सकती। इसके लिए फैसला लेना पड़ता है। फैसले के धरातल पर अब तक कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं हुआ है। जलवायु संकट से लड़ने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने वाले तकनीक और साधनों का इस्तेमाल करना जरूरी होता है। इस लिहाज से वित्तीय संसाधन और जलवायु सम्मत तकनीक होना जरूरी है। इस बार अब तक विकसित देशों की तरफ से किसी भी तरह का ठोस फैसला नहीं लिया गया है। कार्बन उत्सर्जन कम करने का मतलब यह भी है कि उन औजारों से अलग हो जाया जाए जो इस समय किसी देश के विकास के लिए जरूरी हैं। इस बार जो नुकसान होगा उसकी भरपाई करने का अब तक कोई मुकम्मल ढांचा नहीं बन पाया है। क्लाइमेट फाइनेंस की परिभाषा तक ढंग से दर्ज नहीं हो पाई है। 

हमें इतिहास से सीखना चाहिए। हम सीख नहीं रहे हैं। इतिहास ग्लासगो में भी दोहराया जा रहा है। यह पहला जलवायु सम्मेलन नहीं है। पेरिस, रियो, स्टॉकहोम - इन सभी जलवायु सम्मेलन में ढेर सारे महत्वपूर्ण वादे किए गए लेकिन उन वादों को पूरा नहीं किया गया। हमारे विकसित देश के साझेदारों ने इन सभी वादों को कोई तवज्जो नहीं दिया। इसी वजह से हम जलवायु संकट के ऐसे मुहाने पर खड़े हैं, जो सबके लिए खतरनाक बन चुका है. विज्ञान स्वीकार कर रहा है कि तापमान में बढ़ोतरी हो रही है और इसका असर पड़ रहा है। 

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जलवायु संकट से लड़ने के लिए सभी देशों पर बराबर जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती। यह गलत होगा। सबकी अलग-अलग जिम्मेदारी बनती है। यही जलवायु संकट से लड़ने के लिए तय किए इक्विटी और कॉमन बट डिफरेंटशिएटिड रिस्पांसिबिलिटीज जैसे नियम कहते हैं। यहां पर विकसित देशों की अधिक जिम्मेदारी बनती है। वह अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। जलवायु सम्मेलन अपने दूसरे हफ्ते में प्रवेश कर रहा है। यहां पर विकसित देशों को बहुत अधिक गंभीरता दिखाने की जरूरत है।

पर्यावरण के मसलों पर नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी कार्बन कॉपी वेबसाइट पर लिखते हैं कि ग्लासगो जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के औपचारिक समापन के अब चंद दिन भी नहीं बचे हैं लेकिन अभी तक क्लाइमेट फाइनेंस- जो कि वार्ता में सबसे मुद्दा है वो अटका हुआ है। चाहे मामला साफ ऊर्जा क्षमता विकसित करने का कहो या फिर नेट ज़ीरो टारगेट हासिल करने का विकासशील और गरीब देश स्पष्ट कह चुके हैं कि ये काम बिना पैसे के नहीं हो सकता। चूंकि विकसित और बड़े देश अब तक स्पेस में जमा हुये कार्बन के लिये सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं और आर्थिक तरक्की कर चुके हैं इसलिये अगर कोयले का प्रयोग रोकना है और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचना है तो अमीर और बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी ही होगी।

साल 2009 की जलवायु सम्मेलन में कहा गया था कि साल 2020 के बाद दुनिया के अमीर देश दुनिया के गरीब देशों को और विकासशील देशों को हर साल जलवायु संकट से लड़ने के लिए 100 बिलियन डॉलर का अनुदान देंगे। ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में सभी विकासशील देशों ने एकमत होकर कहा कि दुनिया के विकसित देश इस भूमिका पर पूरी तरह से असफल रहे हैं। 

यूरोपियन यूनियन और अमेरिका जैसे अमीर देशों की तरफ से भरपूर कोशिश की जा रही है कि गरीब देशों को वित्तीय मदद मुहैया कराने वाले प्रावधान से किसी भी तरह का जुगाड़ लगाकर, अपना पल्ला झाड़ लिया जाए। सुनने में आ रहा है कि विकसित देश यह कह रहे है कि साल 2025 के बाद चीन, सऊदी अरब और भारत भी क्लाइमेट फाइनेंस के अनुदान में मदद करें। जबकि हकीकत यह है कि भारत प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में दुनिया के कई देशों के मुकाबले बहुत पीछे खड़ा है। 

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भारत सहित दुनिया के विकासशील देशों ने अपनी तरफ से यह बयान तो दे दिया है कि दुनिया के विकसित देशों को क्लाइमेट फाइनेंस के तौर पर एक ट्रिलियन डॉलर की मदद करनी चाहिए। लेकिन जलवायु विशेषज्ञों का मानना है कि इस बिंदु पर सहमति मिलना नामुमकिन लग रही है। इस पर सहमति पाने में अभी लंबा समय लग सकता है।

जलवायु मामले की विशेषज्ञ आरती खोसला कहती हैं कि जलवायु सम्मेलन में क्लाइमेट फाइनेंस यानी जलवायु संकट से लड़ने के लिए वित्तीय मदद सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है। अगर इस पर सहमति नहीं बन पाती है तो इसका मतलब है कि जलवायु सम्मेलन में होने वाली सारी बातचीत का परिणाम खोखला है।
 

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