दुनिया के तापमान में 3 सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी हो जाए तो क्या होगा?
जलवायु के क्षेत्र में काम करने वाले विद्वानों की माने तो नेट जीरो कार्बन एमिशन एक तरह का जुमला बन गया है। जो देश नेट जीरो कार्बन एमिशन का ऐलान कर रहे हैं उनके कामकाज को देखा जाए तो ऐसा नहीं लगता कि 2050, 2060 और 2070 तक वह नेट जीरो कार्बन एमिशन का अपना खुद का ही घोषित लक्ष्य हासिल कर पाएंगे। इसके अलावा बहुत बड़ी आबादी की दयनीय हालात बताती है कि जिस तरह से अब तक दुनिया का आर्थिक मॉडल विकास के लिए काम करते जा रहा है, अगर वैसे ही आगे भी काम करता रहा तो नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का टारगेट नहीं हासिल किया जा सकेगा।
ऐसे में क्या होगा? जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन पहले से होता आ रहा है, ठीक वैसा ही आगे भी होता रहेगा। मतलब यह है कि भले ही जलवायु सम्मेलनों में कुछ भी कहा और एलान किया जाए दुनिया जैसी चलते आ रही है वैसे ही चलती रहेगी।
जानकार कह रहे हैं कि अगर जलवायु सम्मेलनों में रखे जाने वाले लक्ष्य हासिल कर भी लिए जाएं फिर भी 21 वी शताब्दी के अंत तक दुनिया के औसत तापमान की बढ़ोतरी डेढ़ डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर होगी। और अगर जिस तरह से दुनिया चल रही है उस तरह से चलती रहे तो साल 2030 तक दुनिया के औसत तापमान की बढ़ोतरी 3% से अधिक होगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि दुनिया के तापमान की बढ़ोतरी को डेढ़ डिग्री सेंटीग्रेड से कम करने के लिए इस सदी के अंत तक जितना कार्बन उत्सर्जन होना चाहिए उतने कार्बन उत्सर्जन का तकरीबन 86 फ़ीसदी हिस्सा हमने इस सदी के शुरुआती दो दशक में ही उत्सर्जित कर दिया है।
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दुनिया के तापमान में 3 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी का क्या मतलब है? इसे वैसा मत समझिए जैसा गर्मी और सर्दी के बीच के तापमान का अंतर होता है। जहां पर एक टी-शर्ट के बदले जैकेट और कोट पहन कर तापमान में होने वाली उतार-चढ़ाव का सामना कर लिया जाता है। यह तो मौसमी परिवर्तन है। जो हर जगह जलवायु के सिद्धांतों के तहत चलता है। यहां सवाल यह है कि दुनिया के पूरे औसतन तापमान में औद्योगिक काल के बाद जब 3 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी हो जाएगी तब क्या होगा? केवल एक मौसम और एक जगह पर नहीं बल्कि पूरी दुनिया के औसत तापमान में 3 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी की बात की जा रही है।
जलवायु विज्ञान का अध्ययन करने वाले बताते हैं कि जलवायु को प्रभावित करने वाले ढेर सारे कारण होते हैं। तापमान भी उनमें से एक कारण है। उनमें से किसी एक भी कारक में असंतुलित किस्म का बदला हुआ तो पूरी जलवायु बदल जाती है। तापमान बढ़ेगा तो धरती गर्म हो गई। ग्लेशियर पिघलेंगे। जल स्तर बढ़ेगा। जमीन सूखे में तरसेगी तो बारिश में डूब जाएगी। हवाओं का चक्र बदल जाएगा। हवाओं का चक्र बदलेगा तो मौसम का मिजाज बदल जाएगा। मौसम का मिजाज बदलेगा तो भूगोल बदल जाएगा। इन सब बदलावों के बीच इंसानी अस्तित्व का कोई मोल नहीं है। इंसानी अस्तित्व के पास अभी इतनी ताकत नहीं कि वह जलवायु को अचानक बदल दे। इसलिए सबसे अधिक नुकसान इंसानी अस्तित्व को सहना पड़ेगा।
हॉलीवुड में खतरनाक मौसमी परिवर्तन, पूरी जमीन का रेत की ढेर में बदल जाना, आंधी और तूफान से शहर तबाह हो जाना जैसे विषयों पर आधारित चरम रोमांच से भरपूर फिल्में खूब बनाए जाते हैं। जब हम जलवायु परिवर्तन के बारे में सोचते हैं तो हम में से अधिकतर लोगों के दिमाग की तरंगे इन्हीं फिल्मों के दृश्यों से जुड़ रही होते हैं। जबकि हकीकत यह है कि दुनिया के कई हिस्सों में जलवायु परिवर्तन के भीषण लक्षण हर साल दिखाई देते हैं। भारत के तटीय इलाकों की पिछले कुछ सालों से हर साल आने वाली तूफान और बाढ़ की तस्वीरें अंदर तक हिला कर चली जाती हैं। बांग्लादेश के दक्षिणी हिस्से के कई इलाके भीषण बारिश और भीषण बाढ़ से तबाह हो गए हैं। यहां से विस्थापित लोग बांग्लादेश के भीतर के शहरों में झुग्गी झोपड़ी के भीतर रह रहे हैं। अपने घर और जमीन से विस्थापित हो चुके ऐसे लोगों की रोजाना की जिंदगी तमाम तरह की कठिनाइयों के बीच गुजरती है।
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यह सब तब हो रहा है जब दुनिया की जलवायु में पिछले डेढ़ सौ साल के औसत से 1 से लेकर 1.5 फ़ीसदी अधिक की बढ़ोतरी हुई है। एक अनुमान के मुताबिक दक्षिणी बांग्लादेश के इलाके के तकरीबन 40 हजार निवासी हर साल अपने निवास को छोड़कर भीतरी बांग्लादेश की तरफ बढ़ते हैं। अब जरा सोच कर देखिए कि अगर दुनिया की औसत जलवायु में 3 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी हो जाए तो तब क्या होगा?
दुनिया की औसत जलवायु में 3 सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी होने पर दुनिया के अमीर देश और अमीर शहर भी ऐसी परेशानियों का सामना करेंगे जैसी परेशानियां वहां के मौसम उन्हें अब तक पैदा नहीं की है। भूमध्य रेखा पर मौजूद दुनिया के सबसे चहीते शहर भी हीट वेव का सामना करेंगे। न्यूयार्क में तूफानों की आवाजाही बढ़ जाएगी। शहर अपने आसपास के इलाकों से ज्यादा गर्मी लेकर चलेंगे। कंक्रीट के जंगलों में रहना बहुत अधिक मुश्किल हो जाएगा। जहां पर पहले से जलवायु परिवर्तन से उपजी परेशानियों से लड़ने की सुविधाएं नहीं बनाई जा रही हैं उनकी तबाही बहुत खतरनाक हो गई। दिल्ली जैसा शहर जहां ठीक-ठाक बारिश होने पर बस से और कार तैरने लगती हैं उसकी स्थिति बद से बदतर होने वाली है। ऐसे शहरों में सबसे अधिक तकलीफ का सामना सबसे गरीब लोग करेंगे। सबसे गरीब लोग जो झुग्गी झोपड़ियों में रहते हैं जो ना ढंग का पानी पी पाते है और ना ठीक हवा में सांस ले पाते हैं, उन पर सबसे अधिक कहर टूटेगा।
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दुनिया की तापमान में 3% की बढ़ोतरी दुनिया की एक चौथाई आबादी पर सूखे के कहर के तौर पर टूटेगी। यह एक चौथाई आबादी साल भर में कम से कम 1 महीने सूखे का कहर झेलेगी। उत्तरी अफ्रीका के कुछ इलाकों में तो सालों साल भर सूखे की स्थिति बने रहने की संभावना बन सकती है। इससे सबसे अधिक प्रभावित दुनिया भर के छोटे और मझोले किसान होंगे। जिनकी खेती की वजह से उनकी जिंदगी चलती है और दुनिया की एक तिहाई भोजन की जरूरतें पूरी होती हैं। अगर सूखा है तो ठीक इसका उल्टा भयंकर बारिश भी अपने आप चला आता है। भयंकर बारिश का मतलब है कि दुनिया के सभी तटीय इलाके टूटकर डूब जाएंगे। नए तटीय इलाके बनेंगे। फिर बारिश होगी और वह फिर टूट कर डूब जाएंगे। आबादी तटीय इलाकों वाले देशों के भीतरी शहरों की तरफ विस्थापित होगी। शहरों में झुग्गी झोपड़ियां का अंबार पहले से भी बढ़ा हुआ मिलेगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से जुड़े एक संस्था इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की छठवीं रिपोर्ट अभी हाल में ही प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 20 लाख सालों में भी दुनिया उतनी अधिक गर्म नहीं थी जितना वह मौजूदा दौर में है। तापमान में 1 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी से झकझोर देने वाली बारिश 7 गुना अधिक बढ़ रही है। पिछले 3 हजार सालों में पृथ्वी के समुद्र स्तर में उतनी अधिक बढ़ोतरी कभी नहीं हुई जितनी अब हो रही है। उत्तरी ध्रुव पर मौजूद महासागर की हिम खंडों की ऊंचाई पिछले एक हजार सालों के मुकाबले हाल फिलहाल सबसे कम है। पृथ्वी की जलवायु में हो रहे यह कुछ ऐसे बदलाव हैं जिन्हें फिर से बदलने में हजार साल लग सकते हैं। अगर हम दुनिया की गर्माहट को जरूरी मात्रा में नियंत्रित करने में कामयाब भी होते हैं फिर भी ध्रुवों पर मौजूद हिमखंडो की लगातार हो रही पिघलाहट को रोकने में तकरीबन एक हजार साल लगेगा। समुद्रों का तापमान बढ़ता रहेगा और समुद्रों के जलस्तर में अगले सौ साल तक बढ़ोतरी होती रहेगी।
जलवायु में जब इस तरह का बदलाव हो रहा हो तो समाज कैसे अछूता रह सकता है? यह बातें अखबारों में नहीं छपती मीडिया में नहीं दिखती लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से जब जिंदगी मुश्किल होती है तो उसका सर सीधे आर्थिक प्रक्रिया पर पड़ता है। आर्थिक प्रक्रिया कमजोर पड़ जाती है समाज भीतर ही भीतर और बुखार होने लगता है। दुनिया की आधी आबादी शहरों में रहती है। इस आधी की एक तिहाई आबादी झुग्गी झोपड़ियों में रहती है। जब गर्मी इतनी अधिक हो कि पसीना सूखे ही ना और हवाएं चलनी बंद हो जाएं तब सोचिए कि किसी मजदूर के मन: स्थिति पर कैसा असर पड़ेगा? हमें पता चले आना चले लेकिन सारा खेल हमारी मानसिक अवस्था का ही होता है। अगर जिंदगी सुकून ढंग से नहीं चल रही है तो सब कुछ अपने आप बर्बाद होता रहता है।
दुनिया के तापमान में 3 डिग्री सेंटीग्रेड सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी से बचने का उपाय यही है कि दुनिया को 3 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी तक पहुंचने ही न दिया जाए। यह केवल जलवायु सम्मेलन से नहीं होगा दुनिया के सभी देशों को बड़ी जिम्मेदारी के साथ दुनिया के आर्थिक मॉडल और जीवन शैली पर सोचना होगा। जब चिंतन बदलेगा तभी जाकर 3 डिग्री सेंटीग्रेड से कम का तापमान बना रहेगा।
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