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कामरेड आरबी मोरे : दलित और कम्युनिस्ट आंदोलन को जोड़ने वाले पुल

“दलित समाज ही मज़दूर वर्ग का सबसे विशाल, और सबसे अधिक पीड़ित और शोषित हिस्सा है। उसके सामाजिक शोषण के विरुद्ध लड़कर ही कम्युनिस्ट पार्टी उसके बड़े हिस्से को पार्टी के आंदोलनों के प्रति आकर्षित कर सकती है तो ऐसा करना उसका नैतिक और कार्यनैतिक कर्तव्य है।” 
कामरेड आरबी मोरे

अप्रैल का महीना फूले और बाबासाहब के जन्म, जीवन, लेखन और संघर्षों की यादों से भरपूर है।  और मई का महीना, दलित और क्रांतिकारी आंदोलन के यौद्धा, फूले की परम्पराओं और बाबासाहब के बड़े आंदोलनो से जुड़े, कामरेड रामचन्द्र बाबाजी मोरे की याद दिलाता है।  11 मई, 1970 को उनका देहांत हुआ था। 

कामरेड मोरे का जन्म 1903 मे कोंकण के उस इलाके मे हुआ था जो बाबासाहब अंबेडकर के पिता की तरह तमाम महार जाति के सैनिकों और सेवानिवृत सैनिकों की जन्म-भूमि थी। दलित समाज का यह हिस्सा बड़ी संख्या मे सेना मे भर्ती पाकर कुछ शिक्षा हासिल कर पाया था।  पक्की नौकरी, सेवानिवृत्ति के बाद, पकको पेंशन वह जरिये थे जिन्होने इस समाज के लोगों को काफी ताकत और सामाजिक सम्मान प्रदान किया। इनमें से कई समाज सुधार के आंदोलन के साथ जुड़े। ज्योतिबा फुले से मिले, शाहूजी महाराज के पास गए। उन्होंने समतावादी साहित्य और सोच, दोनों को ही अपने आस-पास प्रसारित करने का काम किया। 

इसी समाज और इसी माहौल मे कामरेड मोरे का जन्म हुआ और उनमे बड़े सहज रूप से आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करने की भावना पैदा हुई और, बहुत जल्द, उसने व्यवहार का रूप धारण कर लिया।  वह अनोखी प्रतिभा के मालिक थे और, छोटी उम्र मे उन्होंने अलीबाग तक का तीन दिन का पैदल सफ़र तय किया। इस सफर के दौरान उन्हें पहली बार अछूत होने का एहसास हुआ। रास्ते मे पड़ने वाले धर्मशालाओं मे उनका प्रवेश वर्जित होने की वजह से उन्हे पशुओं के साथ रात काटनी पड़ती थी।

अलीबाग में उन्होंने महाड़ स्थित अँग्रेजी स्कूल के प्रवेश की परीक्षा दी। परीक्षा मे बैठने वाले वह अकेले दलित थे लेकिन उनको सबसे अधिक नंबर मिले और वजीफा भी उन्हे प्राप्त हुआ। जिन विकट परिस्थितियों में उन्होंने परीक्षा दी उसमें केवल सफर की थकान और अपमान ही नही बल्कि सफर से कुछ ही दिन पहले अपने पिता को खो देने का दुख भी शामिल था। लेकिन शुरू में उनको स्कूल में प्रवेश नहीं मिला क्योंकि उसके मालिक-मकान ने कह दिया कि अगर उसमें अछूत को आने दिया गया तो वह स्कूल को खाली करवा देंगे। संयोग से इसी मालिक-मकान के परिवार के लोगों ने, कई दशकों के बाद, महाड़ सत्याग्रह के दौरान, बाबासाहब के नेतृत्व में दलितों का महाड़ ताल से पानी पीने के प्रयास का विरोध भी किया था।

कामरेड मोरे ने इस अन्याय के खिलाफ एक समाचार पत्र को पोस्ट-कार्ड भेज दिया।  परिणामस्वरूप, स्कूल को उन्हें प्रवेश देना ही पड़ा लेकिन उनको क्लास के बाहर, खिड़की के पास बैठकर शिक्षा हासिल करनी पड़ी।

महाड़ आसपास के तमाम गांवों का बाज़ार था। कामरेड मोरे दूर-दराज़ से आने वाले महारों, दलितों और गरीब खेतिहर मजदूरों और किसानों के साथ खूब बात-चीत करते थे। उनके जीवन के हर पहलू से वह भली-भांति परिचित हो गए। उनके प्रयास से एक महार द्वारा संचालित चाय की दुकान खोली गयी जहां तमाम अछूतों को पीने का पानी मिल जाता था जिसके लिए वे इसके पहले तरसते ही रह जाते थे। यह दुकान उनका अड्डा बना। यहाँ वे लोगों से मिलते, उनकी दरख्वास्त लिखते और उनकी समस्याओं के बारे में तमाम जानकारी प्राप्त करते। कुछ सालों बाद, इस चाय की दुकान ने एक छोटे होटल कि शक्ल ले ली जहां रात को भी लोग रह जाते थे।

इसी अड्डे पर 1923 में बहुत ही महत्वपूर्ण फैसला लिया गया। बंबई विधानसभा मे एक प्रस्ताव पारित करके तमाम सार्वजनिक स्थानों को अछूतों के प्रवेश के लिए खोल दिया गया था।  इसको लागू करने के लिए दूसरे ही दिन, कामरेड मोरे ने इस अड्डे पर एकत्रित तमाम लोगों के बीच यह तय किया कि महाड़ मे अछूतो के अधिकारों के लिए एक बड़ा अधिवेशन आयोजित किया जाएगा जिसकी अध्यक्षता बाबासाहब द्वारा की जाएगी। इसके बाद, कामरेड मोरे ने बंबई जाकर बाबासाहब को आमंत्रित किया लेकिन उनको राज़ी करने मे काफी समय लग गया। इस दौरान, वे बाबासाहब के बहुत करीब आ गए और उन्होंने उनके द्वारा चालाए जा रहे प्रकाशनों मे हाथ बंटाना शुरू किया और पत्रकारिता की कला पर उनकी अच्छी पकड़ बन गयी।

इस बीच, कामरेड मोरे ने अपने घर, दासगाँव, मे सैकड़ों अछूतो के साथ, उस तालाब के पानी को सफलतापूर्वक पीने का काम किया जो हमेशा से उनके लिए वर्जित था।

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बाबासाहब डॉ. अंबेडकर के साथ कामरेड मोरे। फोटो साभार : lokvani

आखिर, बाबासाहब का महाड़ आने का कार्यक्रम मार्च, 1927 के लिए तय हुआ और कामरेड मोरे ही उसके मुख्य आयोजक थे। उन्होंने कोंकण के तमाम गांवों का दौरा किया और हजारों लोग बाबासाहब के कार्यक्रम में जुटे। उस दिन जब बाबासाहब के नेतृत्व मे महाड़ के चावडार ताल तक हजारों दलित पहुंचे और उनकी अगली कतारों ने उसके पानी को छूआ तो उनपर ज़बरदस्त हमला हुआ लेकिन पानी तो उन्होंने छू ही लिया था। सवर्णों ने उस ताल की शुद्धि करके इस बात को प्रमाणित भी किया।  

कामरेड मोरे और उनके साथियों ने 25 दिसंबर, 1926 को फिर से सत्याग्रह करने का एलान किया।  बंबई से बाबासाहब पानी के रास्ते से महाड़ के लिए चले और उनको बिदा करते हुए, समता सैनिक दल के कार्यकर्ताओं ने सलामी दी। इस ऐतिहासिक दल की स्थापना कामरेड मोरे ने ही की थी। इससे भी उस समय के दलित आंदोलन मे उनके स्थान का पता चलता है। यही वह दल था जो सवर्णों के अत्याचार का सामना दलित बस्तियों मे करता था।  माना जाता है कि इससे पैदा चिढ़ भी नागपूर मे आरएसएस की स्थापना का एक कारण था।  

25 दिसंबर के अधिवेशन के बाद, ताल की ओर भीड़ फिर चली।  उस पर फिर हमला हुआ।  लेकिन उस दिन अपने प्रतिरोध का सबसे ज़बरदस्त प्रमाण देते हुए, बाबासाहब ने सार्वजनिक तौर पर मनुस्मृति जलाने का काम किया। इस तरह, एक धार्मिक ग्रंथ को छुआछूत जैसे घोर अमानवीय अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराकर बाबासाहब ने जनवादी आंदोलन के सामने एक बड़ी चुनौती पेश की जिसको बहादुरी के साथ स्वीकार करना भारत मे मुक्ति आंदोलन के लिए अनिवार्य है।

कामरेड मोरे का ज़्यादातर समय बंबई में बाबासाहब के साथ रहने और उनके तमाम कामों में हाथ बंटाने मे बीतने लगा। वह मजदूरों की चाल में ही रहते थे और उनके साथ रहने वाले मजदूरों, खास तौर से सूती कारखानों के मजदूरों, के साथ उनकी खूब बातचीत और चर्चा होती रहती थी। उनको सांस्कृतिक गतिविधियों मे गहरी दिलचस्पी थी और वह उनमें भाग भी लिया करते थे। इससे मजदूरों के तमाम समुदायों के साथ उनके संबंध बहुत मजबूत बने। इसी दौर में, लाल झंडे वाली यूनियन के कार्यकर्ताओं के माध्यम से उसके नेताओं से भी उनकी जान-पहचान हुई। वह यूनियन की गतिविधियों मे भाग लेने लगे:  पर्चा बांटना, वॉल राइटिंग करना, हड़ताल की तैयारी करना। वर्ग संघर्ष का उनका अनुभव किताबी नहीं बल्कि अपने जैसे अपेक्षित लोगों के जीवन से मिला। इस अनुभव को समझने और सोच मे बदलने में उनकी सहायता एस वी देशपांडे, बी टी रणदिवे और जांबेकर जैसे मार्क्सवादियों के साथ लंबी बहस और चर्चा ने की। जिस जाति उत्पीड़न का ज्ञान उन्हें माँ की कोख से ही मिला था उससे मुक्ति पाने की ऊर्जा भी उन्हें वर्ग संघर्षों की भट्टी से निकलने वाली ज्वाला मे ही दिखने लगी। 

बाबासाहब के साथ काम करते हुए, उन्होंने इस नए ज्ञान अर्जन को पूरी ताकत के साथ किया और, 1930 मे ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ का गहन अध्ययन करने के बाद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता लेने का फैसला कर किया। बाबासाहब को इसकी जानकारी उन्होंने दी। नाराज़ न होकर उन्होने कामरेड मोरे को इस रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया लेकिन उनसे यह भी कहा कि उन्हें इस बात की चिंता थी कि जिस संगठन में वह जा रहे हैं क्या उन्हे वहाँ वह इज्ज़त मिलेगी जिसके वह हकदार हैं। 

अंतिम दम तक, कामरेड मोरे कम्युनिस्ट ही रहे। 1964 में उन्होंने सीपीआई (एम) का साथ देना तय किया। उसी वर्ष में उन्होंने पार्टी के नेतृत्व को पत्र भेजा जिसमें उन्होंने कुछ बातों को अंकित किया:  दलित समाज ही मजदूर वर्ग का सबसे विशाल, और सबसे अधिक पीड़ित और शोषित हिस्सा है। उसके सामाजिक शोषण के विरुद्ध लड़कर ही कम्युनिस्ट पार्टी उसके बड़े हिस्से को पार्टी के आंदोलनों के प्रति आकर्षित कर सकती है तो ऐसा करना उसका नैतिक और कार्यनैतिक कर्तव्य है। 

कामरेड मोरे के यह शब्द, उनका वह पत्र आज नए ढंग से बहुत प्रासंगिक हो गया है। अब केंद्र में और कई राज्यों मे उस आरएसएस द्वारा प्रेरित सरकारे हैं जिसने 1950 में ही घोषणा कर दी थी कि वह बाबासाहब द्वारा तैयार किए गए संविधान को नही बल्कि मनुस्मृति को ही अपना न्याय शस्त्र और विधान मानते हैं। अपनी इस दक़ियानूसी सोच के तहद, आरएसएस के निर्देशन में चलने वाली सरकारे दलितों, मजदूरों, महिलाओं और, अल्पसंख्यकों पर चौतरफ़े हमले कर रहे हैं। इन हमलों के शिकार तबको और समुदायों को एकत्रित करना आज समाज में मूल-चूल परिवर्तन लाने वाली कम्युनिस्ट आंदोलन का फर्ज़ बनता है। इस काम को करने के लिए दलित अधिकारों के लिए चल रहे विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक अभियान और इनको संचालित करने वाले  संगठनो मे अपने प्रति विश्वास और जुड़ाव की इच्छा पैदा करने के लिए कम्युनिस्ट आंदोलन को पूरी मुस्तैदी दिखनी होगी। छुआ-छूत और सामाजिक उत्पीड़न को दूर करने के लिए हर तरह का कष्ट उठाने और शहादत देने के लिए तयार होने का प्रमाण लगातार देना होगा।

सरकार द्वारा मजदूरों पर किए जा रहे हमले तो बहुत ही स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। दलित अधिकारों और दलित सम्मान पर हो रहे कुठारागात भी कम नहीं है। इस कुठारागात के पीछे असमानता के सिद्धांतों को उचित ठहराने वाला मनुवाद ही है जो दूसरों के साथ बराबरी जताने वाले दलितो के लिए भयानक दंड तय करता है। आर्थिक तौर पर भी उन्हें नीचा दिखाने की बात करता है। उन्हें शिक्षा और रोजगार के क्षेत्रों से अलग करने का निर्देश देता है। इसीलिए, दलितों को जो थोड़ी बहुत सुविधाएं मिली हैं, वह क़तरी जा रही हैं, अत्याचार के खिलाफ उनको प्राप्त न्यायिक सुरक्षा निष्प्रभावी बनाई जा रही है।

किसी समाज को पीछे धकेलने ने लिए आवश्यक है कि उसके प्रतिभाशाली नायको को उससे अलग किया जाए। यह हो भी रहा है। मुक्ति के नए रास्तों की ओर इशारा करने वाले रोहित वेमूला की संस्थागत हत्या ही कर दी गयी है; आनंद तेलतुंबड़े को सबकी नज़रों से ओझल, सलाखों के पीछे बंद कर दिया गया। यह दोनों ही जन मुक्ति की मंज़िल की ओर चलने वाली छुआ-छूत उन्मूलन और वर्ग संघर्ष की दिशाओं को एक दूसरे के करीब लाने के पक्षधर रोहित थे और आनंद हैं।

यह दो दिशाएँ एक दूसरे से काफी दूरी बनाकर बह रही हैं। कहीं कहीं वह एक दूसरे के करीब भी आ जाती हैं। आज की ज़रूरत है कि दोनों के बीच मजबूत पुल हो। निश्चित तौर पर कामरेड मोरे का जीवन संघर्ष और उनका मार्गदर्शन वह पुल बन सकता है। बाबासाहब के सबसे करीबी यौद्धा होने के बाद वह कम्युनिस्ट बने और आजीवन कम्युनिस्ट रहे। जाति उत्पीड़न के खिलाफ अपने संघर्ष से वह कभी अलग नहीं हुए, उसको कारगर तरीके से लड़ने के लिए ही उन्होंने  कम्युनिस्ट बनने का फैसला लिया। उनके जीवन की सच्चाईयो से कोई इंकार नहीं कर सकता।  उनसे सीखने और उनका उपयोग करने की ज़रूरत है। 

(हाल मे ही लेफ्टवर्ड पब्लिकेशन ने कामरेड सत्येन्द्र मोरे द्वारा प्रकाशित आर बी मोरे की आपबीती और जीवनी (मराठी) को अंग्रेजी मे प्रकाशित किया है। पुस्तक का नाम है: ‘Memoirs of a Dalit Communist:  The Many Worlds of R B More’।  उम्मीद है की जल्द ही हिन्दी समेत अन्य भाषाओं मे भी यह पुस्तक उपलब्ध होगी)

(सुभाषिनी अली पूर्व सांसद और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमन्स एसोसिएशन (AIDWA) की उपाध्यक्ष हैं।)

फोटो साभार : anticaste.in

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