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भारत का संविधान एक अद्वितीय संविधान

आज का दिन प्रारूप समिति के अध्यक्ष बाबा साहब डॉ. बी आर अंबेडकर और प्रारूप समिति के अन्य सहयोगी सदस्यों को याद करने का दिन है। लेकिन आज का दिन संविधान और लोकतंत्र के सामने खड़े नये ख़तरों पर भी ध्यान देने का दिन है।
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फोटो साभार : प्रभात ख़बर

26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने भारत का संविधान अंगीकृत और अधिनियमित  किया था। संविधान का अनुच्छेद  394 और उसमें उल्लेखित 15 अन्य अनुच्छेद 26 नवंबर 1949 से ही लागू कर दिए गए थे  और शेष  सभी अनुच्छेदों को 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया था। आज का दिन प्रारूप समिति के अध्यक्ष बाबा साहब डॉ. बी आर अंबेडकर और प्रारूप समिति के अन्य सहयोगी सदस्यों  गोपाल स्वामी आयंगर, अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर, टी टी कृष्णमाचारी और के एम मुंशी को भी याद करने का दिन है। आज का दिन संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद और सभा के अन्य सभी सदस्यों को नमन करने एवं उनके द्वारा किए गए योगदान को भी याद करने का दिन है।

एक अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति सर बेनेगल नरसिंह राउ (बी एन राउ) जो संविधान सभा के सदस्य तो नहीं थे परंतु वे संवैधानिक सलाहकार थे, उनकी विद्वता और प्रखरता को स्मरण करने का दिन है। बी एन राउ ने दुनिया के सभी महत्वपूर्ण संविधानो के दृष्टांत  को  एकत्र करके उसे  तीन जिल्दों में संविधान सभा को सौंपा था,  उस समय उनके द्वारा किया गया  यह कार्य बहुत ही महत्व का था। संविधान सभा के सदस्यों के समग्र योगदान, प्रगतिशील सोच और सृजनात्मकता से ही हम भारत के लोगों को एक जीवंत और विलक्षण संविधान प्राप्त हुआ और इसका कार्यकारी स्वरूप आज पूरी दुनिया को प्रभावित कर रहा है।

जहां तक संविधान सभा का सवाल है तो उसमें कोई भी विदेशी व्यक्ति नहीं था, संविधान सभा की सलाहकार की भूमिका में भी कोई विदेशी व्यक्ति नहीं था। भारतीयों ने अपना संविधान बनाने में स्वयं अपने आप पर विश्वास किया था, उस समय के कालखंड के हिसाब से यह एक महत्वपूर्ण घटना थी। पाकिस्तान के विभाजन के बाद संविधान सभा में कुल 389 सदस्यों में से 299 सदस्य ही रह गए थे।

संविधान सभा ने अपने ज्यादातर निर्णय सर्वसम्मति से लिए थे, जो संविधान सभा की सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती है। दुनिया का सबसे बड़ा संविधान सर्वसम्मति से बनकर तैयार हो जाना एक महत्वपूर्ण घटना थी। संविधान सभा का सर्वसम्मति से निर्णय लेने का तरीका हम भारतीयों के लिए आज भी प्रेरणादाई है कि विभिन्न भाषा- भाषी, जाति और धार्मिक मतों को मानने वाले लोग भी जब राष्ट्र निर्माण और देश का सवाल हो तो उन्हें एक होना ही चाहिए और सर्वसम्मति दिखानी चाहिए।

जब संविधान बन रहा था उस समय के संविधान विशेषज्ञ कहा करते थे कि या तो संविधान अमेरिका की तरह संघीय(फ़ेडरल) हो सकता है या इंग्लैंड की तरह एकात्मक (यूनिट्री) परंतु हमारी संविधान सभा ने संघीय और एकात्मक दोनों लक्षणों में सामंजस्य बिठाते हुए सहकारी और प्रतिस्पर्धी संघवाद को स्थान दिया जो अपनी तरह का अनोखा है।

भारत एक ऐसा देश है जिसने इंग्लैंड की राजशाही और गणतंत्रात्मक स्वरूप दोनों से ही सामंजस्य बैठाया है, भारत एक साथ लोकतंत्रात्मक गणतंत्र और कामनवेल्थ का सदस्य दोनों ही है, ऐसा अकल्पनीय सामंजस्य दुनिया का अन्य कोई देश नहीं बैठा पाया है। देश के नाम को लेकर भी बहुत विवाद था परंतु संविधान सभा ने भारत और इंडिया दोनों ही नाम अर्थात 'इंडिया दैट इज भारत' रखकर सामंजस्य बैठाया था। हम इन उदाहरणों से देख सकते हैं कि संविधान सभा का सामंजस्य कोई समझौता नहीं है।

जब भारत का संविधान बनने की प्रक्रिया में था तो चर्चा जोरों पर रहती थी कि जो संविधान बन रहा है उसमें भारतीयता नहीं है, इसके मूल में यूरोपीयन और अमेरिकन संविधान है, विशेषज्ञ कहते थे कि हमें तो वीणा और सितार चाहिए था परंतु यह तो इंग्लिश बैंड की तरह है, आज 70 वर्षों से संविधान जब अपने कार्यकारी स्वरूप में है तो उसने समस्त  दुविधाओं  को दूर कर दिया है। यदि हम ध्यान से देखें तो जो महत्व अपने कालखंड में वैदिक रिचाओ और स्मृतियों का रहा होगा उससे कहीं अधिक महत्व आज के दौर में भारत के संविधान का है।

संविधान सभा ने मौलिकता का परिचय देते हुए संविधान में राज्य की सीमाओं की पुननिर्धारण नए राज्यों के गठन और राज्यों के नाम में परिवर्तन का प्रावधान रखा था इसी प्रावधान के कारण ही 1956 में नए राज्यों का निर्माण किया गया और हाल ही के कुछ वर्षों में तेलंगाना उत्तराखंड छत्तीसगढ़ झारखंड आदि ने राज्य बनाने में हम सक्षम हुए हैं। संविधान में प्रावधान  उपलब्ध होने के कारण ही अभी हाल ही में जम्मू कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदल दिया गया है। दुनिया के अन्य देशों ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका नाइजीरिया में भारी जन दबाव के बाद भी वहां की सरकारें संविधान में प्रावधान नहीं होने के कारण नए राज्यों का गठन आवश्यकता होने पर भी नहीं कर पा रही हैं।

भारत के संविधान की यह कहते हुए आलोचना की जाती है की यह एक बृहद संविधान है परंतु समय के साथ यह सिद्ध हो गया है कि इसका वृहद स्वरूप इसकी कार्यक्षमता को प्रभावित नहीं करता है, समय के साथ यह भी सिद्ध हो चुका है कि न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं का प्रावधान संविधान में ही करके हमारे संविधान निर्माताओं ने अपनी  बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है क्योंकि यही संस्थाएं स्वयं संविधान और लोकतंत्र की रक्षक सिद्ध हुई है।

भारत के संविधान के बारे में यह सामान्य धारणा है कि दुनिया के अन्य संविधानो से इसे कापी किया गया है परंतु यह पूर्णतया सत्य नही है। संविधान सभा ने अन्य महत्वपूर्ण संविधानो से प्रावधानों का चयन तो किया है परंतु उसे भारतीय आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तित करते हुए उस में व्यापक बदलाव भी कर दिया है। चयन और परिवर्तन (सिलेक्शन एंड मॉडिफिकेशन) का एक बेहतरीन नमूना अनुच्छेद 368 है जिसमें संविधान संशोधन का प्रावधान है। अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन हेतु एक साथ लचीली और कठोर दोनों प्रकार की प्रक्रिया को अपनाकर राज्यों के अधिकारों की भी रक्षा की गई है।

संविधान सभा ने भाषा और आरक्षण जैसे मुद्दे जिन पर सर्वाधिक विवाद था उसे संसद के ऊपर ही छोड़कर अपनी बुद्धिमत्ता का ही परिचय दिया था। आज समय के साथ इन मुद्दों का क्या महत्व है, हम सभी समझ सकते हैं। संविधान के लागू होने के कुछ समय बाद से से ही संविधान के कुछ अनुच्छेद विशेषकर राज्यों में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) एवं राष्ट्रपति और राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति (अनुच्छेद 123 एवं 213) का व्यापक दुरुपयोग सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थों में किया है, ऐसा नहीं है कि डॉ. अंबेडकर और संविधान सभा के लोग इन प्रावधानों के दुरुपयोग की संभावना को भाप नहीं पाए थे।

डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि राष्ट्रपति शासन का प्रयोग अंतिम अस्त्र के रूप में ही किया जाएगा, उनका मानना था यह प्रावधान डेड लेटर के रूप में संविधान में पड़े रहेंगे। परंतु जैसा कि हम सभी जानते हैं ऐसा नहीं हुआ है, जब संविधान की अवज्ञा उसके  रखवाले ही करेंगे तो उसका दुष्परिणाम तो भोगना ही पड़ेगा। संविधान सभा में अपने अंतिम उद्बोधन में डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि धर्म में भक्ति मोक्ष प्राप्त करने का रास्ता प्रदान करती है परंतु राजनीतिक भक्ति निश्चित रूप से अधोगति के रास्ते पर ले जाती है और जो तानाशाही में भी बदल सकती है।

डॉ. बी आर अंबेडकर द्वारा आज से 70 वर्ष पूर्व कही गई बातों के आधार पर आज के राजनीतिक परिदृश्य का वास्तविक मूल्यांकन भी किया जा सकता है।

वैश्वीकरण के इस दौर में  आज भारत के संविधान का मुकाबला नव  साम्राज्यवाद,  नव उदारवाद, नव नाज़ीवाद और नव फासीवाद से है। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में यह कहा था कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा हो यदि उसे लागू करने वाले लोग अच्छे नहीं है और उसे ठीक प्रकार से लागू नहीं करते हैं, तो  अच्छा संविधान भी खराब संविधान मैं बदल जाएगा।  इन्ही कारणों से  संवैधानिक संस्थाओं में बैठे हुए लोगों की जिम्मेदारी  पहले से अब और बढ़ गई है।

बदली हुई इन परिस्थितियों में निश्चित रूप से संविधान निर्मात्री सभा का एक नया भारत बनाने का सपना और उनके योगदान पर चर्चा आज अब ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है। ऐसा मुझे विश्वास है कि अर्ध सत्य के इस युग में नव साम्राज्यवादी और नव उपनिवेशवादी ताकतों से लड़ने के लिए संविधान निर्मात्री सभा में  बैठे लोगों का व्यक्तित्व और उनकी सर्जनात्मकता हम भारतीयों को अनवरत शक्ति प्रदान करती रहेगी।  वर्तमान में हम भारतीयों की जिम्मेदारी है कि मनसा वाचा कर्मणा संविधान द्वारा बताए गए मार्गदर्शक सिद्धांतों पर चलते हुए एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण करें।

( लेखक बरेली कॉलेज बरेली के विधि विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत है तथा संवैधानिक मामलों के जानकार हैं।)

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