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डेटा निजता विधेयक: हमारे डेटा के बाजारीकरण और निजता के अधिकार को कमज़ोर करने का खेल

सरकार द्वारा एकत्र किए जाने वाले हमारे डेटा के व्यापारीकरण को निजी डेटा संरक्षण विधेयक के साथ जोड़ दिया गया है।
data protection bill

आज दुनिया जिस हद तक आपस में जुड़ी हुई है, इससे पहले कभी नहीं थी। आज विश्व आबादी का 60 फीसद से ज्यादा हिस्सा इंटरनेट से जुड़ा हुआ है। वायरलैस कनैक्टिविटी तथा सस्ते स्मार्टफोनों की उपलब्धता के साथ, भारत की आबादी का 70 फीसद से ज्यादा हिस्सा आज इंटरनेट से जुड़ गया है। यह दूसरी बात है कि ज्यादातर लोग जिसे इंटरनेट से जुड़ना समझते हैं, वह वास्तव में गूगल या फेसबुक जैसी इंटरनेट इजारेदारियों से और इन डिजिटल इजारेदारियों के मार्फत एक-दूसरे से, जुड़ने से ज्यादा नहीं होता है। आपको याद होगा कि फेसबुक ने ‘फ्री बेसिक्स’ का नाम देकर भारत में, काट-छांट कर इंटरनेट मुहैया कराने की कोशिश की थी।

बहरहाल, लोगों के सामूहिक प्रतिरोध के चलते, उसकी यह कोशिश नाकाम हो गयी थी। दुर्भाग्य से दुनिया में पूरे 65 देशों में फेसबुक को अपनी इस तरह की ‘फ्री बेसिक्स’ सेवाएं लाने में कामयाबी मिल गयी। इसके उपयोक्ताओं में से ज्यादातर को तो यही लगता है कि फेसबुक की दुनिया ही, इंटरनेट है।

अपने प्लेटफार्मों के उपयोक्ताओं तक पहुंचने तथा उनका डेटा एकत्र करने की यह सामर्थ्य ही, गूगल तथा फेसबुक को विज्ञापन की दुनिया में दबदबे की हैसियत मुहैया कराती है। डिजिटल विज्ञापनों का राजस्व पहले ही, विज्ञापन के अन्य सभी रूपों- टेलीविजन, प्रिंट तथा रेडियो को मिलाकर, उनके कुल राजस्व से आगे निकल चला है। और गूगल तथा फेसबुक ने डिजिटल विज्ञापन के मैदान में अपनी  द्वेदाधिकारी हैसियत कायम कर ली है। गूगल और फेसबुक, सर्च इंजनों तथा सोशल मीडिया पर अपनी इजारेदारी के सहारे विज्ञापन जगत के और सभी खिलाडिय़ों पर अपना बोलबाला कायम करने में समर्थ हैं। 

यह उन तमाम मीडिया संगठनों के लिए एक खतरा है, जो विज्ञापन के ही राजस्व पर निर्भर हैं। यही वजह है कि अमेरिका, यूके तथा यूरोपीय यूनियन में, विज्ञापनों पर गूगल तथा फेसबुक की इजारेदारियों को तोड़ने के लिए, नियमनकारी तथा कानूनी कदम शुरू किए गए हैं।

भारत में मोदी सरकार, गूगल तथा फेसबुक के अमरीकी द्वयाधिकार का सामना करने के प्रति अनिच्छुक रही है। फेसबुक के आंतरिक भंडाफोड़कर्ताओं, सोफी झांग तथा फ्रांसेस हाउजेन के भंडाफोड़ों से यह स्पष्ट है कि इस तरह की डिजिटल इजारेदारियां, सत्ताधारी पार्टियों को पटाने का ध्यान रखती हैं और उन्हें अल्पसंख्यकों तथा अन्य के खिलाफ, विभाजनकारी तथा खतरनाक अभियान चलाने के मौके देती रही हैं। 

इस वजह से भी और अमेरिका के साथ गठजोड़ करने की वजह से भी, मोदी सरकार भारत में फेसबुक तथा गूगल की बाजार की ताकत का नियमन करने के प्रति अनिच्छुक रही है। इस नियमन के बजाए भाजपा की सरकार लोगों के डेटा के व्यावसायिक इस्तेमाल को, निजी डेटा के संरक्षण के साथ नत्थी करना चाहती है और ऐसे ढांचे निर्मित करना चाहती है, जो सरकार द्वारा एकत्रित किए गए हमारे निजी डेटा के व्यापारीकरण की जगह बनाएंगे।

सरकार द्वारा इस तरह का डेटा, नागरिकों को कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मुहैया कराने या शासन की सेवाएं मुहैया कराने के सिलसिले में या नागरिकों के तौर पर हमें जो जिम्मेदारियां पूरी करनी पड़ती हैं उनके क्रम में एकत्रित किया जाता है। इस तरह सरकार द्वारा एकत्र किए जाने वाले हमारे डेटा के व्यापारीकरण को निजी डेटा संरक्षण विधेयक के साथ जोड़ दिया गया है।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के जरिए निजता को एक मौलिक अधिकार घोषित किया जा चुका है और कोई भी डिजिटल पहचान जारी करने के लिए कानून बनाया जाना अनिवार्य है, फिर भी मोदी सरकार विभिन्न सरकारी तथा अन्य सार्वजनिक सेवाओं तक पहुंच के लिए, डिजिटल पहचान को अनिवार्य बनाने पर तुली हुई है। ऐसा लगता है कि सरकार का मंसूबा यही है कि निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों को सरकार द्वारा एकत्र किए जा रहे डॉटा तक पहुंच हासिल करायी जाए और उन्हें अपने कारोबार के लिए इस डेटा का इस्तेमाल करने दिया जाए।

हम पहले ही देख चुके हैं कि किस तरह हमारा, आधार का बुनियादी ढांचा, बड़े कारोबारियों के लिए उपलब्ध है। दूरसंचार कंपनियों, बैंकों तथा अन्य उद्यमों को आधार के बुनियादी ढांचे के इस्तेमाल की इजाजत है। इसी प्रकार, आरोग्य सेतु एप को और स्वास्थ्य पहचानपत्र को यात्रा के लिए और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग करने के लिए, अनिवार्य करने की कोशिश है। टीकाकरण के लिए जब हमने जब को-विन एप का उपयोग किया, हमारी सहमति के बिना तभी हमारी एक स्वास्थ्य पहचान बना दी गयी। मंसूबा यह लगता है कि हमारे सारे के सारे स्वास्थ्य रिकार्डों को इस पहचान के साथ जोड़ दिया जाए और इसके बाद हमारी यह पहचान बीमा कंपनियों तथा स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं जैसे अन्य निजी खिलाडिय़ों को उपलब्ध करा दी जाए।

दूसरे शब्दों में सरकार, उसी प्रकार हमारा डेटा एकत्र करेगी, जैसे उसने आधार के लिए किया था और यह डॉटा निजी उद्यमियों को, अपने कारोबारी उद्देश्यों के लिए मुहैया करा दिया जाए। मिसाल के तौर पर, इस तरह निजी बीमा कंपनियां, हमारी सहमति के बिना ही हमारे डॉटा को खंगाल सकेंगी और बीमा कराने वाले को इस आधार पर बीमे का लाभ देने से इंकार कर सकेंगी कि उसे तो पहले से कोई बीमारी थी। इसी प्रकार, कोई भी रोजगार देने वाला, उम्मीदवार के स्वास्थ्य के डेटा के आधार पर, उसे काम देने से इंकार कर सकेगा।

भाजपा सरकार इस कानून का इस्तेमाल, न सिर्फ हमारे डेटा का बाजारीकरण करने के लिए कर रही बल्कि इसके जरिए सरकारी एजेंसियों को, जिनमें पूरी 10 जांच एजेंसियां भी शामिल हैं, प्रस्तावित निजता कानून के अंतर्गत, हमारे निजी डेटा तक पहुंच की इजाजत भी देना चाहती है। इसके बाद भी हमें निजता का अधिकार तो रहेगा, लेकिन प्रस्तावित निजता विधेयक के तहत हमारे निजता के अधिकार को, सरकारी एजेसियों से सुरक्षा हासिल नहीं होगी, जो अपनी शक्तियां का दुरुपयोग कर, हमारे डेटा तक पहुंच सकती हैं।

यह हमें इमर्जेंसी के दौरान मीसा बंदियों की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर नीरेन डे की चर्चित दलील की याद दिला देता है। नागरिकों को जीवन तथा स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार है जरूर, पर इस अधिकार का इमर्जेंसी के दौरान उपयोग नहीं किया जा सकता है। नागरिकों को निजता का अधिकार तो रहेगा, लेकिन उन्हें सरकारी एजेंसियों के सामने अपने इस अधिकार का उपयोग करने की इजाजत नहीं होगी।

सरकारी एजेसियों द्वारा डेटा के इस प्रकार के दुरुपयोग का एक उदाहरण जो RTI के तहत दी गयी एक जानकारी के जरिए सामने आया है, जम्मू-कश्मीर में गुलगाम में, चीफ मैडीकल ऑफीसर द्वारा आरोग्य सेतु के जरिए उपयोगकर्ताओं का डेटा, स्थानीय पुलिस अधिकारियों को उपलब्ध कराए जाने का है। क्या सरकार द्वारा इस कानून के अंतर्गत सरकारी एजेंसियों को निजता कानून के तहत लगने वाली रोकों से सिरे से छूट दिलाना, सरकारी एजेंसियों को इसकी ही इजाजत नहीं देगा कि नागरिकों से एकत्र किए जाने वाले सारे डेटा का, यह डेटा जिस काम के लिए एकत्र किया गया था, उससे पूरी तरह से भिन्न मकसद के लिए इस्तेमाल कर लें और इस तरह एक निगरानी का राज कायम कर लें।

भारत में, कानून का पालन कराने वाली अनेक एजेंसियों को, डिजिटल निगरानी के वर्तमान बुनियादी ढांचे के जरिए, हमारे डिजिटल डेटा तक पहले ही पहुंच हासिल है। निगरानी के इस बुनियादी ढांचे में टेलीकॉम निगरानी के लिए सेंट्रल मॉनिटरिंग सिस्टम, इंटरनेट के विश्लेषण के लिए नेत्रा (एनईटीआरए), निगरानी के डेटा बेसों का राष्ट्रीय ग्रिड या नेटग्रिड और एकीकृत आपराधिक न्याय प्रणाली (आइसीजेएस) शामिल है, जिसमें डीएनए, फेशियल रिकॉग्नीशन, बायोमीट्रिक्स और पहचान का डॉटा आते हैं।

बहरहाल, जहां ये एजेंसियां तो ‘कानूनी तौर पर’ हमारे डेटा को खंगाल सकती हैं, ऐसा लगता है कि इस भाजपा सरकार ने इज़राइली कंपनी, एनएसओ द्वारा मुहैया कराए गए, सैन्य ग्रेड के जासूसी के उपकरणों का इस्तेमाल पत्रकारों, सार्वजनिक हस्तियों, विपक्षी नेताओं और यहां तक कि न्यायाधीशों के भी निजी मोबाइल फोनों को गैर-कानूनी तरह से हैक करने के लिए किया है। जिन लोगों के फोन इस तरह हैक किए गए थे, उनमें से कई ने निजता के अधिकार का सहारा लेकर, हैबियस कॉर्पस याचिका के जरिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। जैसा कि हम पहले जिक्र कर आए हैं, सुप्रीम कोर्ट पहले ही अपने एक फैसले के जरिए, निजता के अधिकार को, जीवन तथा स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा घोषित कर चुका है। 

बहरहाल, सरकार ने इस मामले में जासूसी कराए जाने के आरोपों का खंडन करने से और सुप्रीम कोर्ट को कोई जानकारी देने से ही इंकार कर दिया। इस तरह, सरकार ने व्यावहारिक मायनों में तो करीब-करीब यह मान भी लिया है कि उसकी किसी एजेंसी ने, अनेक भारतीय नागरिेकों के मोबाइल फोनों की इस तरह जासूसी करायी थी। इसके बाद क्या सरकार इस मामले में नीरेन डे वाली दलील का ही सहारा लेने जा रही है कि इन लोगों को निजता का अधिकार तो है, लेकिन सरकारी एजेंसियों के सामने इस अधिकार का उपयोग नहीं किया जा सकता है?

पहले ही कर्मचारियों से अपने फोनों में ऐसे एप इंस्टॉल करने के लिए कहा जा रहा है, जिनके जरिए उनकी गतिविधियों पर नजर रखी जाएगी। मिसाल के तौर पर हरियाणा में आंगनवाड़ीकर्मियों से ऐसा एक एप इंस्टॉल करने के लिए कहा गया है, जिससे लगातार इसकी निगरानी की जा सकेगी कि वे कब कहां पर हैं। इसी प्रकार, पंचकुला में म्युनिसिपल वर्करों से ऐसे मोनीटर गले में डाले रखने के लिए कहा गया जो जीपीएस लोकेशन ट्रैकिंग, कैमरा तथा आवाज की रिकार्डिंग की व्यवस्थाओं से लैस होंगे। ये स्पष्ट रूप से निजता के अधिकार के उल्लंघन को दिखाते हैं। सरकारी एजेंसियों को दी गयी पूरी छूट के जरिए प्रस्तावित विधेयक, सरकार को ऐसे कदमों की इजाजत दे देगा, जो न सिर्फ इन कार्मिकों की निजता का उल्लंघन करते हैं, जबकि यह एक मौलिक अधिकार है, बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए खतरा भी पैदा करते हैं।

पुट्टुस्वामी प्रकरण के उक्त निर्णय के बाद, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने निजता को मौलिक अधिकार घोषित किया था, श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट में, सरकार के अतिक्रमण से नागरिकों की हिफाजत करने के लिए और हमारे निजी डेटा तक पहुंच रखने वाले निजी उद्यमियों पर निजता के नियम लागू कराने के लिए, एक कानूनी ढांचा मुहैया कराया था।

2019 में सरकार ने पर्सनल डेटा प्रोटैक्शन बिल, 2019 का मसौदा पेश किया था, जिसे अब एक संयुक्त संसदीय समिति अंतिम रूप दे रही है। दुर्भाग्य से यह विधेयक, अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में ही विफल है। यह विधेयक अवैध निगरानी से और शासन या निजी खिलाड़ियों द्वारा एकत्र किए गए डेटा के दुरुपयोग से, नागरिकों की हिफाजत ही नहीं करता है। कानून विशेषज्ञों ने, जिनमें जस्टिस श्रीकृष्णा भी शामिल हैं, इस विधेयक में सरकारी एजेंसियों को दी गयीं झाडूमार शक्तियों की निंदा की है। सरकारी एजेंसियों को, इस विधेयक के सभी प्रावधानों से छूट ही दे दी गयी है। संयुक्त संसदीय समिति के सदस्यों ने भी इस पहलू पर अपनी असहमति दर्ज करायी है। इस तरह की खुली छूट तो, डेटा की निजता का पूरी तरह से मजाक ही बनाकर रख देती है।

विधेयक के मसौदे में, सरकारी निगरानी पर किसी भी तरह के न्यायिक या संसदीय अंकुश का प्रावधान भी नहीं किया गया है। जस्टिस श्रीकृष्णा ने, जिनकी 2018 की रिपोर्ट को वर्तमान निजता विधेयक का आधार बनाया गया बताया जा रहा है, खुद कहा है कि सरकार ने 2019 का जो विधेयक पेश किया है, उन्होंने जिस तरह की व्यवस्था का प्रस्ताव किया था, उससे उल्लेखनीय रूप से अलग है। उन्होंने यह भी कहा है कि अगर इसे कानून का रूप दे दिया जाता है, तो यह तो ओर्वेलियाई ढ़ंग के शासन का ही हथियार साबित होगा।

संयुक्त संसदीय समिति में, विपक्षी सदस्यों ने पहले ही प्रस्तावित निजता विधेयक के महत्वपूर्ण हिस्सों पर अपनी असहमतियां दर्ज करायी हैं। देश में एक निगरानी राज कायम करने और हमारे डेटा का निजीकरण करने के इस विधेयक के खिलाफ आवाज उठाने का जिम्मा, अब देश की वृहत्तर जनतांत्रिक प्रक्रियाओं पर है।

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