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नागरिक के लिए कोई संरक्षण नहीं : उसके डाटा पर बाक़ी सब को अधिकार

डिजिटल डाटा प्रोटेक्शन बिल की मंशा तो यही है कि भारतीय शासन को, अपने नागरिकों पर निगरानी करने का करीब-करीब निरंकुश अधिकार दे दिया जाए और नये ज़माने की डिजिटल इजारेदारियों को हमारे डाटा पर बेरोक-टोक मिल्कियत जमाने तथा उसका इस्तेमाल करने की इजाज़त दे दी जाए।
data protection bill
फ़ोटो साभार : गूगल

जो लोग डिजिटल डाटा प्रोटेक्शन विधेयक से जुड़े मोड़ों और घुमावों पर नजर रखे रहे हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि 3 अगस्त 2023 को जो विधेयक पेश किया गया है, वास्तव में इस विधेयक के मसौदे का तीसरा जन्म है। पहला जन्म, 2019 में आया मसौदा था, जो न्यायमूर्ति बीएन श्रीकृष्ण द्वारा सुप्रीम कोर्ट के उस पुट्टास्वामी फैसले के आधार पर तैयार किया गया था, जिसमेें निजता को एक मौलिक अधिकार करार दिया गया था। न्यायमूर्ति श्रीकृष्णा का मसौदा इस मौलिक अधिकार की, डिजिटल युग में व्यक्ति के निजता के अधिकार की रक्षा करता था।

निजता के अधिकार से उल्टी दिशा में

बहरहाल, इस विधेयक के 2022 के अवतार और 2023 के अवतार, दोनों में ही पुट्टास्वामी फैसले में किसी नागरिक की निजता के अतिक्रमण के लिए तय की गयी शर्तों या टेस्ट-अनिवार्यता, उपयुक्तता तथा आनुपातिकता- को पूरी तरह से अनदेखा ही कर दिया गया। न्यायमूर्ति श्रीकृष्णा ने इस विधेयक के 2022 के अवतार के संबंध में कहा था कि यह विधेयक तो, ‘‘निजता के मौलिक अधिकार में से होकर बग्घी और घोड़े, सभी कुछ गुजार देता है।’’ विधेयक का वर्तमान अवतार भी उससे भिन्न नहीं है। बस इसमें उस अवतार की तुलना में कुछ प्रावधानों को और भी तगड़ा कर दिया गया है।

3 अगस्त 2023 को पेश किया गया यह विधेयक, सिर्फ इससे पहले वाले अवतार के नोक-पलक संवारने का ही काम करता है। इसमें मिसाल के तौर पर, 2022 वाले मसौदे में जिस नये नियामक निकाय का प्रस्ताव किया गया था, उसके विवरणों को अब भर दिया गया है। 2022 वाले मसौदे में इसे नियमों के अंतर्गत छोड़ दिया गया था और कानून के अंतर्गत परिभाषित नहीं किया गया था। यह नियमनकारी निकाय स्थापित करने के ऐसे ही दूसरे कानूनों से मेल नहीं खाता था। 2023 के अवतार में, इस खाली जगह को भर दिया गया है। इसके अलावा 2023 के मसौदे में, पहले वाले मसौदे के बाद से भाषा के छोटे-मोटे बदलाव कर दिए गए हैं और कुछ जगह भाषा को जरा कस भी दिया गया है। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद, 2023 के विधेयक के अनेक प्रावधानों में आखिरकार यही कहा गया है कि संबंधित प्रावधान वास्तव किस तरह काम करेगा, यह सबॉर्डीनेट लेजिस्लेशन का यानी कानून के तहत बनाए जाने वाले नियमों का हिस्सा होगा, जिन्हें सरकार बाद में तय करेगी या जिन्हें समय-समय पर बदलता रहा जा सकता है।

शासन को निगरानी की और इजारादार को लूट की छूट

बहरहाल, 2023 के विधेयक का मकसद वही है, जो इससे पहले वाले अवतार का था: कैसे नागरिकों के डाटा को खंगालने पर लगी सारी बंदिशों से शासन को छूट दिलायी जाए और कैसे दुनिया की नयी अतिकाय कंपनियों, गूगल, फेसबुक-मेटा, एमेजॉन आदि द्वारा ‘तुल्य सहमति’ या डीम्ड कन्सेंट के नाम पर, हमारे डाटा पर कानूनी तौर पर अपनी मिल्कियत बनाए जाने के लिए, कानूनी आवरण मुहैया कराया जाए।

वर्तमान विधेयक के तहत हमें ‘‘डाटा मूल’’ या डाटा प्रिंसिपल्स बना दिया गया है, जिन पर अब इसकी जिम्मेदारी भी डाल दी गयी है कि शासन को या डिजिटल इजारेदारियों को, जिन्हें यह विधेयक ‘‘डाटा फिडूसिअरीज’’ या डॅटा न्यासी का नाम देता है, ‘‘सही’’ डाटा मुहैया कराएंगे। और ये इजारेदारियां तथा शासन भी, इस डाटा के साथ जो भी जी चाहे कर सकेंगे और नागरिकों ने जिसके लिए अपनी रजामंदी दी है, उससे बहुत आगे तक के उद्देश्यों के लिए भी उसका उपयोग कर सकेंगे।

आइए, अब इस पर नजर डाल लें कि यह विधेयक किस तरह अपने उक्त दोनों लक्ष्यों के लिए काम करता है--शासन द्वारा नागरिकों की निगरानी सुनिश्चित करना, और नागरिकों का डाटा डिजिटल इजारेदारियों को मुनाफे बनाने के लिए उपलब्ध कराना। मान लीजिए कि नागरिक ने अपना डाटा शासन द्वारा या किसी कंपनी द्वारा किसी खास काम के लिए प्रयोग किए जाने की मंजूरी दी है। उस सूरत में ‘‘डीम्ड कन्सेंट’’ के प्रावधान के तहत संबंधित कंपनी, इस डाटा का अन्य उद्देश्यों के लिए भी इस्तेमाल करने की हकदार होगी। डाटा के लिए जिसे फिडूशियरी या न्यासी का दर्जा दिया गया है, उसे नागरिक का डाटा उसकी सहमति के बिना ही किसी को भी देने का अधिकार होगा। तब भी जब संबंधित अलग-अलग कंपनियां वास्तव में एक ही कंपनी की दो प्रतिच्छायाएं हों, जो अलग-अलग कारपोरेट ढांचों के हिस्से के तौर पर काम कर रही हों।

मिसाल के तौर पर मैंने अपना डाटा, दूरसंचार सेवाएं मुहैया कराने के लिए किसी दूरसंचार कंपनी को मुहैया कराया है। डीम्ड कंसेंट के प्रावधान के अंतर्गत संबंधित कंपनी इस डाटा का उपयोग विज्ञापन करने के लिए कर सकती है, यहां तक कि यह डाटा दूसरों को बेचने के लिए भी कर सकती है। तकनीकी स्तर पर, 2023 का विधेयक व्यक्ति को इसका अधिकार देता है कि वह अपनी रजामंदी वापस ले सकता है। लेकिन, चूंकि डाटा फिडूशियरी को यह अधिकार है कि जब तक उसके पास रजामंदी है, वह इस डाटा को दूसरों के साथ साझा कर सकता है, जिसमें उसी कंपनी की प्रतिच्छाया कंपनियां भी शामिल हैं, जिन-जिन कंपनियों के साथ संबंधित डाटा साझा किया गया है, उनमें से एक-एक से रजामंदी वापस लेना तो, किसी भी तरह से संबंधित व्यक्ति के लिए संभव ही नहीं है। ना ही डाटा साझा करने के लिए, संबंधित व्यक्ति की रजामंदी हासिल करने की कोई जरूरत है। एक बार जब डाटा व्यक्ति किसी को दे देता है, तो उसके बाद वह करीब-करीब संबंधित व्यक्ति की संपदा रहता ही नहीं है और किसी कंपनी की संपदा बन जाता है। या जैसा कि इस विधेयक में कहा गया है, डाटा व्यवहारत: फिडूशियरी की स्थायी सुपर्दगी या ‘‘कस्टडी’’ में बना रहता है।

नागरिकों पर अतिरिक्त ज़िम्मेदारी का बोझ भी

जहां तक मेरी जानकारी है, ऐसा कोई डाटा प्रोटेक्शन कानून कहीं भी नहीं है, जो इस सिलसिले में नागरिक के कर्तव्य निर्धारित करता हो। यह विधेयक करता है। इसमें ठोस रूप से यह कहा गया है कि डाटा प्रिंसिपल--नागरिक--की कानूनी जिम्मेदारी है कि वह सही डाटा मुहैया कराए। इसका अर्थ यह हुआ कि डाटा सेवाओं का उपयोग करते हुए कोई व्यक्ति छद्मनाम का उपयोग कर ही नहीं सकता है। लेकिन, लोग अक्सर छद्मनाम का उपयोग इसलिए करते हैं क्योंकि अपने लिंग या धर्म आदि से पहचाना जाना, उन्हें कुछ खास प्रकार के खतरों का निशाना बना सकता है। मिसाल के तौर पर अनेक वेबसाइटों पर महिलाओं को इसलिए ट्रोल किया जाता है ताकि उन्हें चुप कराया जा सके या उन्हें डिजिटल मैदानों से बाहर खदेड़ा जा सके। औरत-मर्द के विभाजन से परे की यौन प्रवृत्ति एक और कारण हो सकती है, जिसकी वजह से लोग कुछ वेबसाइटों पर अपनी असली पहचान दिखाने में कतरा सकते हैं। इसलिए, छद्मनामों के उपयोग पर रोक, विभिन्न अल्पसंख्यकों को गंभीरता से नुकसान पहुंचा सकती है।

डाटा स्थानीयकरण भी कमज़ोर होगा

2023 का विधेयक, 2022 वाले मसौदे की ही तरह, डाटा स्थानीयकरण को उल्लेखनीय रूप से कमजोर करता है। डाटा स्थानीयकरण या लोकलाइजेशन यह अर्थ यह होता कि भारतीय नागरिकों का डाटा, भारत में रखा जाएगा तथा प्रोसेस किया जाएगा और भारतीय कानूनों के आधीन होगा। लेकिन, वीसा, गूगल तथा फेसबुक जैसी कंपनियों ने, निजता विधेयक के पहले वाले अवतार में डाटा स्थानीयकरण के प्रावधानों पर भारी आपत्तियां जतायी थीं क्योंकि उस सूरत में इन कंपनियों को भारत में उल्लेखनीय निवेश करने पड़ते और प्रोसेस्ड डाटा के उत्पादों को भी भारतीय कानूनों के आधीन लाना होता। 2023 के विधेयक में, भारत के बाहर डाटा प्रोसेस करने की पात्रता को कहीं आसान बना दिया गया है क्योंकि अब काली सूची में डाले गए कुछ देशों/ ठिकानों को छोडक़र, विदेश के सभी ठिकानों को सरकार ऐसे ठिकानों की मान्यता दे रही है, जहां डाटा के प्रोसेस किए जाने की इजाजत होगी। उल्लेखनीय रूप से यह हमारे डाटा को विदेशी क्षेत्राधिकार में भी डाल देता है क्योंकि प्रोसेस्ड डाटा को उस देश के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत माना जाएगा, जहां इस डाटा को प्रोसेस किया गया है। मिसाल के तौर पर अमेरिकी कानून के अंतर्गत, अमेरिकी नागरिकों को तो अपने डाटा के मामले में कुछ संरक्षण हासिल हैं, लेकिन विदेशी नागरिकों वहां ऐसे कोई संरक्षण हासिल ही नहीं हैं।

यह विधेयक, सरकार को इसका अधिकार देता है कि एक साधारण अधिसूचना जारी कर के, राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार के नाम पर, अपनी एजेंसियों को इस विधेयक के प्रावधानों की बंदिशों से छूट दिला सकती है। यह प्रावधान, सूचना प्रौद्योगिकी कानून के अंतर्गत सरकारी एजेंसियों को हमारे टेलीफोन या डाटा संचार को बीच में पकड़ने-खंगालने की जो शक्तियां पहले से हासिल हैं, उनके ऊपर है।

सरकार का 2022 के अगस्त में पेश किया गया मसौदा और अब 2023 का उसका अवतार, पुट्टास्वामी निर्णय के अनुरूप नागरिक की निजता की हिफाजत करना तो इनकी मंंशा ही नहीं है। इनकी तो मंशा ही बिल्कुल अलग है। इनकी मंशा तो यही है कि बिग ब्रदर यानी भारतीय शासन को, अपने नागरिकों पर निगरानी करने का करीब-करीब निरंकुश अधिकार दे दिया जाए और नये जमाने की डिजिटल इजारेदारियों को हमारे डाटा पर बेरोक-टोक मिल्कियत जमाने तथा उसका इस्तेमाल करने की इजाजत दे दी जाए। या कानूनी तौर पर उन हालात को ले आया जाए, जिन्हें शोशाना जूबौफ ने द एज ऑफ सर्वेलान्स कैपीटलिज्म का नाम दिया है। और हमारे जले पर नमक छिडक़ने के लिए, यह सब किया जा रहा है हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए लाए जा रहे, एक नये निजता कानून के नाम पर।

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