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चुनावों में हस्तक्षेप का निर्णय और उसके ख़तरे : संदर्भ किसान आंदोलन

क्या किसान नेताओं को ऐसा लगता है कि महज साढ़े तीन महीने पुराना किसान आंदोलन इतना व्यापक और शक्तिशाली हो गया है कि इस तीन दशक पुराने ख़तरनाक तिलिस्म को तोड़ सके…।
'No Vote To BJP' अभियान के तहत पश्चिम बंगाल में सभा को संबोधित करते संयुक्त किसान मोर्चा के नेता। फोटो किसान एकता मोर्चा के ट्विटर हैंडल से साभार
'No Vote To BJP' अभियान के तहत पश्चिम बंगाल में सभा को संबोधित करते संयुक्त किसान मोर्चा के नेता। फोटो किसान एकता मोर्चा के ट्विटर हैंडल से साभार

अंततः किसान आंदोलन के नेताओं ने यह निर्णय ले ही लिया कि पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में संबंधित प्रदेशों का दौरा कर वे मतदाताओं से भाजपा को उसके किसान विरोधी रवैये के मद्देनजर सत्ता से दूर रखने की अपील करेंगे। संयुक्त किसान मोर्चा ने इस संबंध में पत्र के रूप में मतदाताओं के लिए एक अपील भी जारी की है।

इस अपील में कहा गया है-

हम केंद्र एवं भाजपा शासित राज्यों की कठोर वास्तविकता को आपके संज्ञान में लाना चाहेंगे- भाजपा सरकार तीन किसान विरोधी कानून लेकर आई, जो निर्धन कृषकों एवं उपभोक्ताओं हेतु  किसी भी प्रकार के शासकीय संरक्षण को समाप्त कर देते हैं, और साथ ही कॉरपोरेट और बड़े पूंजीपतियों को विस्तार की सुविधा प्रदान करते है। उन्होंने किसानों से बिना पूछे किसानों के लिए इस तरह के निर्णय लिए हैं। यह ऐसे कानून हैं जो हमारे भविष्य के साथ-साथ हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी नष्ट कर देंगे।

भाजपा सरकार ने इन कानूनों के विरुद्ध आंदोलन प्रारंभ करने वाले किसानों को बदनाम किया। उन्हें राजनीतिक दलों के एजेंट, चरमपंथियों और राष्ट्र-विरोधियों के रूप में प्रस्तुत किया गया एवं लगातार उनका अपमान किया गया।

भाजपा सरकार के मंत्रियों ने किसान नेताओं के साथ अनेक दौर की चर्चा करने का दिखावा किया किंतु वास्तव में किसानों ने जो कहा उस पर ध्यान नहीं दिया। भाजपा सरकारों ने प्रदर्शनकारी किसानों पर आंसू गैस के गोले छोड़ने, वाटर कैनन का प्रयोग करने, लाठीचार्ज करने और यहां तक कि झूठे मामले दर्ज करने एवं निर्दोष किसानों को गिरफ्तार करने के आदेश दिए। भाजपा के सदस्य किसानों के विरोध स्थलों में किसानों पर पथराव की हिंसक घटनाओं में सम्मिलित थे। किसानों के अपमान और उन पर इस आक्रमण का उत्तर देने के लिए हम अब आपकी सहायता चाहते हैं। कुछ दिनों में आप सभी राज्य विधानसभाओं के लिए अपने अपने राज्यों में हो रहे चुनावों में मतदान करेंगे। हम समझ चुके हैं कि मोदी सरकार संवैधानिक मूल्यों, सच्चाई, भलाई, न्याय आदि की भाषा नहीं समझती है। यह लोग वोट, सीट और सत्ता की भाषा समझते हैं। आपमें इनमें सेंध लगाने की शक्ति है।

भाजपा दक्षिणी राज्यों में अपने प्रसार को लेकर बहुत उत्साहित है और इस हेतु सहयोगी दलों के साथ गठबंधन कर रही है। यही वह समय है जब असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में किसान सत्ता की भूखी और किसान विरोधी भाजपा को अच्छा सबक सिखा सकते हैं। भाजपा को यह सबक मिलना चाहिए कि भारत के किसानों का विरोध करना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। यदि आप उन्हें यह सबक सिखाने में कामयाब होते हैं, तो इस पार्टी का अहंकार टूट सकता है, और हम वर्तमान किसान आंदोलन की मांगों को इस सरकार से मनवा सकते हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा का इरादा यह नहीं है कि आपको बताए कि किसे वोट देना चाहिए, लेकिन हम आपसे केवल भाजपा को वोट नहीं देने का अनुरोध कर रहे हैं। हम किसी पार्टी विशेष की वकालत नहीं कर रहे हैं। हमारी केवल एक अपील है- कमल के निशान पर गलती से भी वोट न दें।

विगत साढे़ तीन महीनों से किसान दिल्ली के आसपास स्थित धरना स्थलों से वापस अपने घर नहीं गए हैं। दिल्ली की सीमाओं पर संघर्षरत प्रदर्शनकारी किसान अपने परिवारों से कब मिल सकेंगे यह तय करना आपके हाथों में है। एक किसान ही दूसरे किसान के दर्द और पीड़ा को समझेगा।

असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के किसानों की संघर्षशीलता से सभी परिचित हैं और हमें विश्वास है कि आप हमारे इस आह्वान पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देंगे। हमें विश्वास है कि आप मतदान करते समय इस अपील को ध्यान में रखेंगे।

निश्चित ही यह संयुक्त किसान मोर्चा के लिए एक कठिन निर्णय रहा होगा कि वह चुनावी राजनीति में प्रवेश करे और वह भी स्थानीय मुद्दों पर आधारित विधानसभा चुनावों के माध्यम से जहाँ  किसी एक राष्ट्रीय मुद्दे को लेकर जनता को मतदान के लिए तैयार करना असंभवप्राय होता है। संभवतः संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने यह सोचा होगा कि खेती और किसानों से जुड़ी समस्याएं इस देश में उतनी ज्यादा सुर्खियों में कभी नहीं रहीं जितनी आज हैं और शायद आम किसान भी अब इतना शिक्षित हो चुका है कि वह मतदाता के रूप में अपने हितों की रक्षा करने वाले दल को ही चुनेगा। शायद संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं को लगता होगा कि वे मतदान में  दो-तीन प्रतिशत की भाजपा विरोधी स्विंग पैदा कर पाएंगे जो नजदीकी मुकाबलों में निर्णायक सिद्ध होगी।

किंतु किसान नेताओं की इस रणनीति के अपने खतरे हैं। किसान आंदोलन के स्वरूप को अराजनीतिक बनाए रखने के आग्रह ने किसान नेताओं को बाध्य किया कि वे किसी दल विशेष का स्पष्ट समर्थन करने से परहेज करें। चुनावों में हस्तक्षेप करने के बाद किसान आंदोलन को अराजनीतिक मानने वालों की संख्या में भारी कमी आएगी यह तय है। केंद्र सरकार और सरकार समर्थक मीडिया निश्चित ही इस निर्णय का उपयोग किसान आंदोलन को विरोधी दलों द्वारा प्रायोजित गतिविधि सिद्ध करने हेतु करेगा। किसान आंदोलन का आत्मस्फूर्त और अराजनीतिक होना वह अभेद्य नैतिक कवच था जो सरकार के सारे आंदोलन विरोधी षड्यंत्रों को नाकाम करने के लिए अकेला ही काफी था। इस निर्णय के बाद यह तय है कि इस कवच पर आक्रमण होंगे। 

 

किसान नेताओं ने चुनावी राजनीति में प्रवेश तो किया किंतु चुनावों में उनका यह हस्तक्षेप भाजपा को परास्त करने की इच्छा तक सीमित रह जाता है। यह भाजपा के स्पष्ट विकल्प की ओर संकेत नहीं करता। यदि मतदाता इस अपील से प्रभावित भी होता है तो इस बात की पूरी पूरी आशंका रहेगी कि वह किसी ऐसे विकल्प का चयन कर ले जिसकी नीतियां कहीं न कहीं वर्तमान सरकार की नीतियों से संगति रखती हैं।

उदाहरणार्थ यदि बंगाल में मतदाता यह समझता है कि तृणमूल कांग्रेस ही भाजपा को हराने में सक्षम है और वह उसके पक्ष में मतदान करता है तो यह वाम दलों को हानि पहुंचाएगा जो निर्विवाद रूप से इन तीन कृषि कानूनों के विरोधी हैं और एक ऐसी पार्टी को सत्ता में लाने में सहायक होगा जिसका डीएनए यदि बिल्कुल भाजपा जैसा नहीं है तो उससे मिलता जुलता अवश्य है।

स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार केरल में एलडीएफ और यूडीएफ आमने सामने हैं जबकि बंगाल और असम में वाम दलों का कांग्रेस से गठबंधन है, किसी राष्ट्रीय मुद्दे से प्रभावित मतदाता के लिए यह भ्रम की स्थिति हो सकती है। केरल और तमिलनाडु में भाजपा निर्णायक जीत हासिल करेगी या सत्ता प्राप्ति में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी इसकी संभावना नगण्य है और यहां प्रादेशिक चुनावों में भाजपा विरोध का कोई खास महत्व नहीं है। बंगाल और असम में सीएए, बाहरी-मूल निवासी, हिन्दू-मुस्लिम जैसे मुद्दों को आधार बनाकर नफरत और बंटवारे का जो जहरीला नैरेटिव तैयार किया गया है, चुनाव उसके समर्थन और विरोध के इर्द गिर्द ही घूमेगा और इन मुद्दों के शोर से गूंजता चुनावी वातावरण किसानों की समस्याओं की चर्चा के लिए शायद अनुपयुक्त ही होगा।

इस बात की भी आशंका है कि संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं पर नकारात्मकता, अंध भाजपा विरोध, सरकार के साथ मुद्दों की लड़ाई छोड़ कर अहं की लड़ाई की शुरुआत जैसे आरोप भी लगेंगे। इस बात का भय भी व्यक्त किया जाएगा कि भाजपा हराओ के नारे के बाद एनडीए के वे घटक दल जो किसान आंदोलन से सहानुभूति रखते थे अब इससे दूरी बना लेंगे। यह भी कहा जाएगा कि अब इन नेताओं का उद्देश्य किसानों की समस्याओं का हल निकालने से ज्यादा भाजपा से अपनी खुन्नस निकालना हो गया है। इन आरोपों की सफाई किसान आंदोलन के नेतृत्व को देनी होगी और यह उसका दुर्भाग्य ही होगा कि सही होने के बावजूद इस सफाई को स्वीकार करना कठिन होगा।

यह एक कठोर सच है कि वाम दलों के अतिरिक्त किसी भी दल में एलपीजी (लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन,ग्लोबलाइजेशन) का खुला विरोध करने का साहस नहीं है। कांग्रेस तो भारत में एलपीजी के प्रारंभ का श्रेय लेती नहीं थकती। और यह भी कड़वी सच्चाई है कि 1991 के बाद के 30 सालों में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है,निर्धन और निर्धन हुए हैं, अमीर और अमीर हुए हैं, बेरोजगारी चरम पर है, इसके बावजूद वाम दलों का जनाधार आश्चर्यजनक रूप से कम हुआ है और आज स्थिति यह है कि भाजपा जैसी घोर दक्षिणपंथी पार्टी न केवल सत्ता में है बल्कि अजेय भी समझी जा रही है। यह परिदृश्य एक ही तथ्य की ओर संकेत करता है वह यह कि किसानों और मजदूरों की राष्ट्रव्यापी दुर्दशा चुनावों का निर्णायक मुद्दा नहीं है बल्कि यह एक मुद्दा ही नहीं है। सारे राजनीतिक दलों ने साम्प्रदायिक और जातीय समीकरणों पर आधारित राजनीति को प्रश्रय दिया है जिसमें बुनियादी मुद्दों को दरकिनार कर भावनात्मक मुद्दों को तरजीह दी जाती है। भाजपा तो आभासी मुद्दों के बल पर सत्ता हासिल करने में विशेषज्ञता रखती है। 

क्या किसान नेताओं को ऐसा लगता है कि महज साढ़े तीन महीने पुराना किसान आंदोलन इतना व्यापक और शक्तिशाली हो गया है कि इस तीन दशक पुराने खतरनाक तिलिस्म को तोड़ सके। कहीं किसान नेता अपने आंदोलन को परिणाम मूलक बनाने की हड़बड़ी में किसान आंदोलन के अब तक के हासिल (जो किसी भी तरह छोटा या कम नहीं है) को दांव पर लगाने का खतरा तो मोल नहीं ले रहे हैं?

क्या किसान नेता संबंधित प्रान्तों के किसानों को उन पर मंडरा रहे आसन्न संकट की बात पर्याप्त शिद्दत और ताकत के साथ बता पाएंगे? क्या हर मतदाता तक उनकी बात पहुंच पाएगी?

भाजपा की आईटी सेल एवं पार्टी कैडर तथा आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठन व  भाजपा समर्थक मीडिया हिंसक होने की सीमा तक आक्रामक तेजी के साथ नफरत, घृणा, विभाजन और संदेह की भाषा में सोचने का प्रशिक्षण आम मतदाता को पिछले कई वर्षों से देते रहे हैं। क्या किसान नेताओं ने आभासी मुद्दों और नफरती सोच की इस बम वर्षा को रोकने के लिए कोई समर्थ तंत्र तैयार कर लिया है?

यदि ऐसा नहीं है तो इन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि उनका चुनावी हस्तक्षेप सांकेतिक और प्रतीकात्मक है और इसे केंद्र सरकार और उसकी एलपीजी आधारित अर्थ नीतियों के साथ निर्णायक संघर्ष की तरह नहीं देखा जाना चाहिए।

अन्यथा केंद्र सरकार और सरकार समर्थक मीडिया हाउस तो इस बात के लिए तैयार बैठे हैं कि बंगाल जैसे किसी राज्य में भाजपा विजयी हो और इन चुनावों को कृषि कानूनों के विषय में जनमत संग्रह की भांति प्रस्तुत किया जा सके।

सरकार पहले भी नोटबन्दी, जीएसटी, सीएए, तीन तलाक कानून, धारा 370 के कतिपय प्रावधानों को अप्रभावी बनाने तथा अविचारित लॉकडाउन जैसे विवादित फैसलों को न्यायोचित ठहराने के लिए चुनावी सफलता का हवाला देती रही है। हमारी चुनाव प्रणाली के दोष और हमारे राजनीतिक दलों के वित्त पोषण में व्याप्त भ्रष्टाचार जैसे अनेक कारक हैं जो  चुनावी नतीजों को प्रभावित करते हैं। यह सही है कि भाजपा और शायद कांग्रेस भी वोट, सीट और सत्ता की भाषा ही समझते हैं किंतु क्या वैकल्पिक विचारधारा के समर्थकों में इतनी सामर्थ्य आ चुकी है कि वे चुनावी खेल के महारथियों के इस तंत्र को ध्वस्त कर सकें? दुर्भाग्य से इसका उत्तर नकारात्मक है।

यह बिल्कुल संभव है कि इन  राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहे और उसे पराजय का सामना करना पड़े किंतु इसके लिए भी क्षेत्रीय मुद्दे, क्षेत्रीय दलों के समीकरण, पूर्व की प्रदेश सरकारों का प्रदर्शन आदि ही मुख्यतया उत्तरदायी होंगे। इसलिए यह मान लेना कि सारे मतदाता और विशेषकर किसान मतदाता अब अपनी समस्याओं के निराकरण हेतु मतदान कर रहे हैं एक ऐसी आत्म मुग्धता और आत्म प्रवंचना को उत्पन्न करेगा जो किसान आंदोलन को कमजोर ही करेगी।

चुनावी राजनीति में प्रवेश परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए एक अनिवार्यता है किंतु इसमें निर्णायक सफलता प्राप्त करना एक श्रम साध्य और समय साध्य प्रक्रिया है। शोषण तंत्र से लड़ाई का कोई छोटा रास्ता नहीं होता। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का उदाहरण सामने है जिसमें जन शिक्षण और समाज सुधार पर गांधी जी ने इतना अधिक जोर दिया था कि कई बार ऐसा लगता था कि वे स्वाधीनता के मूल लक्ष्य से भटक गए हैं। किंतु लंबे अहिंसक संघर्ष के बाद जो स्वाधीनता मिली वह टिकाऊ और स्थायी थी क्योंकि जनमानस को इस स्वाधीनता को ग्रहण करने के लिए तैयार किया जा चुका था।

आने वाले समय में सघन जनसंपर्क के बाद किसान आंदोलन के नेता किसानों की आकांक्षाओं पर आधारित प्रदेश वार घोषणा पत्र तैयार कर प्रमुख राजनीतिक दलों से यह ठोस आश्वासन ले सकते हैं कि चुनावों में विजय के बाद वे इस घोषणा पत्र का अक्षरशः पालन करेंगे और इसके बाद इन पार्टियों के समर्थन और विरोध का निर्णय लिया जा सकता है। यही नीति लोकसभा चुनावों हेतु भी अपनाई जा सकती है। 

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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