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हिमाचल में हाती समूह को आदिवासी समूह घोषित करने की तैयारी, क्या हैं इसके नुक़सान? 

केंद्र को यह समझना चाहिए कि हाती कोई सजातीय समूह नहीं है। इसमें कई जातिगत उपसमूह भी शामिल हैं। जनजातीय दर्जा, काग़जों पर इनके अंतर को खत्म करता नज़र आएगा, लेकिन वास्तविकता में यह जातिगत पदानुक्रम को फिर से थोप देगा।
Himachal

मैं जो घटना यहां बताने जा रहा हूं, पिछले 20वीं शताब्दी के आखिरी सालों की है, जब मैं हिमाचल प्रदेश में लोकतांत्रिक आंदोलन के लिए पूर्णकालिक पदाधिकारी बनने से पहले एक प्रशिक्षु था।

मेरे काम करने के लिए सतलुज नदी बेसिन (सतलुज नदी भारत में आने के बाद किन्नौर से बहती हुई शिमला, मंडी, कुल्लू, बिलासपुर और फिर पंजाब के नागल बांध में जाती है) को चुना गया था। मेरा क्षेत्र किन्नौर जिले में सतलुज बेसिन था, यह जिला एक जनजातीय जिला है और इसमें उच्च जल विद्युत संभावना मौजूद है। सतलुज और इसकी सहायक नदियों पर पन बिजली योजनाएं लगाई जा रही हैं। मेरा काम कामग़ारों में कर्मचारी-किसान एकता का निर्माण करना था, इनमें से ज़्यादातर किन्नौर के ही रहने वाले थे। इसके तहत मुझे ग्रामीण इलाकों में संपर्क बनाकर इस एकता का निर्माण करना था।

एक घटना के दौरान, मायतास जल विद्युत परियोजना के ठीक ऊपर स्थित रूपी गांव से हम कुछ युवाओं को इकट्ठा करने में कामयाब रहे। दरअसल काम करने के दौरान ही हमें पता चला कि जनजातियों में भी जातिगत अंतर होता है और इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छुआछूत प्रचलन में है। तो इसलिए जनजातीय किन्नौरियों के बीच भी अनुसूचित जाति के उपसमूह मौजूद हैं। 

जब हमने उनसे बातचीत की, तो उन्होंने बताया कि उन्हें एक महीने तक बिना काम के रहना होगा, क्योंकि उन्हें स्थानीय ग्रामीण देवता को एक जुलूस के लिए ले जाना है, इस जुलूस में इस्तेमाल होने वाले ड्रमों को उनकी पीठ पर लादा जाएगा। वे देवता के साथ चलेंगे, उन्हें अलग खुले खेतों में रहना होगा, क्योंकि उनके लिए घरों के भीतर प्रवेश निषेध था। उन्हें अलग खाना भी अलग खाना होगा और वे इस पूरे काम के दौरान बेगारी (गुलामी का एक प्रकार, जहां व्यक्ति को काम के बदले कुछ भी भुगतान नहीं किया जाता) पर रहेंगे। एक महीने बाद जब देवता दूसरे गांवों से घूमने के बाद वापस गांव लौट जाएंगे, तो उन्हें राहत मिेलेगी।  

चूंकि मैं नया प्रशिक्षु था और विश्वविद्यालय के दिनों से ही मैंने खुद को विचारों में कट्टर बना लिया था, तो मैंने वहीं ज्ञान उन दो दोस्तों को दे दिया और उनसे पंचायत में इन सवालों को उठाने के लिए कहा: पहला, उन्हें पंचायत में बोलना होगा कि वे बिना पैसे के ड्रम अपनी पीठ पर नहीं उठाएंगे; दूसरा, ड्रम उठाने का काम उनके और गैर-अनुसूचित जाति से आने वाले लोगों के बीच बराबर बांटा जाना चाहिए; तीसरा, जनजातियों के बाकी लोग जो खाना खाते हैं, उन्हें भी वही दिया जाना चाहिए। 

हमारे कहे अनुसार जैसे ही उन्होंने यह तीनों मांगें उठाईं, परिणाम हमारे अनुमानों से भी ज़्यादा ख़तरनाक निकला। उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया गया, उनके गांव तक में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई, यहां तक कि उनके माता-पिता ने भी आखिरकार पंचायत कुलीनों का पक्ष लिया। उन्हें वापस गांव में प्रवेश दिलवाने में 6 महीने और हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट का हस्तक्षेप लगा। शायद उनसे दंड के तौर पर देवता को कुछ भुगतान करवाया गया। 

देवभूमि- हिमाचल प्रदेश की वास्तविकता यह है, जहां जातिगत अत्याचार देवताओं की संस्था में अंतर्निहित है। जहां सब कुछ सही दिखाई देता है, लेकिन नहीं है। 

मैं इसलिए इस कहानी को याद कर रहा हूं क्योंकि सिरमौर जिले के गिरी नदी क्षेत्र में अनुसूचित जाति को अनुसूचित जनजातियों के व्यापक दायरे में लाया जा रहा है, जहां ऐसे ही नियम होंगे। वहां रहने वाला एक समुदाय- हाती खुद को आदिवासी घोषित करने और इसका दर्जा दिए जाने की मांग कर रहा था। केंद्र सरकार के 8 साल पूरा होने पर प्रधानमंत्री मोदी कल शिमला आ रहे हैं, जहां वे एक रैली करेंगे और अनुमान है कि इस दौरान वे हाती जाति को जनजाति का दर्जा देंगे। 

हट्टी से बना हाती 

राज्य की बीजेपी सरकार इस समुदाय को जनजाति समुदाय घोषित करने के पक्ष में थी। शिल्लाई, संग्रह/रेणुका और राजगढ़ के कुछ हिस्सों रहने वाले लोगों को यह अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जा रहा है। दलित समुदायों के कई वर्गों ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री से हाती समुदाय को जनजाति घोषित ना किए जाने की मांग की है। 

जब ट्रांस-गिरी नदी की पूरी आबादी को जनजाति घोषित कर दिया जाएगा, तो वहां अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम किसी काम का नहीं बचेगा। 

यह प्रतिनिधित्व हाती समुदाय को आदिवासी घोषित करने वाले पूरे कार्यक्रम को फर्जीवाड़ा बताते हैं। हाती शब्द हाट से बना हुआ है। इस क्षेत्र के लोग, मुख्यत: वे जो बेगार करते रहे हैं, वे अक्सर विकासनगर (अब उत्तराखंड में) आया जाया करते थे, क्योंकि उनके उत्पादों को बेचने के लिए सबसे पास का बाज़ार वही था। यह लोग मुख्यत: खेती और पशुओं से जुड़े उत्पाद जैसे-अदरक, आलू, ऊन आदि बेचते हैं। वस्तु विनिमय प्रणाली के दौर में स्थानीय बाज़ारों में जो चीज उपलब्ध नहीं होती थीं, जैसे नमक, चीनी और दूसरी जरूरती चीजें, यह लोग अपने सामान के बदले उसे लेकर वापस आते थे। 

विकासनगर में यह लोग रेहड़ी लगाया करते थे, जिन्हें हाट कहा जाता था (जैसे दिल्ली हाट), जहां वे अपने उत्पादों को बेच करते थे, इस तरह हाती नाम प्रचलन में आया। मतलब पहाड़ों से आकर हाट लगाने वाले लोग। बल्कि यह पहाड़ी समुदाय के लिए अपमानजनक शब्द था। 

तो इसलिए हाती समुदाय में कोई मिश्रित या सजातीय लोगों का समूह नहीं था। बल्कि इसमें लोग जातिगत आधार पर बंटे हुए हैं। स्वाभाविक तौर पर हाति समुदाय का स्थानीय हारुल (इलाके की स्थानीय भाषा के पारंपरिक गाने) में भी कोई जिक्र नहीं आता। हाती समुदाय में मुख्य आबादी कसाइत लोगों की है, जिनमें आपस में बहुत युद्ध होते रहे हैं, यह घटनाक्रम प्रगतिरोधी रवैये का सबसे अच्छा उदाहरण है। सुप्रसिद्ध ठोडो (सोलन का ठो़डो मैदान) दरअसल कसाइतों का नृत्य, जहां अलग-अलग समूह नाचते हैं और दुश्मनों को मारकर अपने साहस का प्रदर्शन करते हैं, फिर उनके सिरों की माला बनाते हैं। कसाइत सिर्फ़ ट्रांस-गिरि के इलाके में ही नहीं हैं, बल्कि शिमला, कुल्लू और यहां तक कि सोलन के भी बड़े इलाकों में इनकी आबादी है। इनमें बेहद मजबूत खुंड तंत्र (वंश व्यवस्था, जो इनकी जाति के नाम से पता चलते हैं, जैसे प्रीति जिंटा, जो शिमला से आने वाले प्रसिद्ध अदाकारा हैं। प्रीति जिंटा खुंड से आती हैं।) की मौजूदगी है। इसलिए हाती, कसाइट का बदला हुआ स्वरूप नहीं है। 

क्षेत्र के दलितों का कहना है कि एक साजिश के तहत राज्य सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारियों ने हाती समुदाय को एक सजातीय समूह मानने का सुझाव दिया, जिसके बाद यह जनजाति होने के लिए योग्य हो गया। 

दिलचस्प ढंग से आरजीआई (रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इंडिया) ने 2017 के अपने आदेश में हाती समुदाय के दावे को पूरी तरह नकार दिया था और कहा था कि इस समुदाय में कोई मिश्रित संस्कृति नहीं है और यह अलग-अलग समूहों में बंटा हुआ है। लेकिन इसी कार्यालय ने 2021 में हाती समुदाय को जनजाति घोषित करने का सुझाव दिया। 

तो स्थानीय अनुसूचित जनजातियों के बीच यह डर है कि जब पूरे क्षेत्र की आबादी को ही हाती घोषित कर दिया जाएगा और इस तरह वे आदिवासी घोषित हो जाएंगे, तो उनके खिलाफ़ अत्याचार के मामलों में और भी वृद्धि होगी। उनका यह डर समझ में भी आता है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ 2015 से 2021 के बीच, सिरमौर जिले में एससी-एसटी एक्ट के तहत 116 मुकदमे दर्ज किेए गए थे। इनमें से 110 सिर्फ़ इसी क्षेत्र (ट्रांस-गिरी) में दर्ज किेए गए थे।

दिलचस्प यह भी है कि सिरमौर जिले में तथाकथित हाती समिति में 100 फ़ीसदी उच्च जाति के हिंदू हैं। वहां दलितों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। जबकि ट्रांस-गिरी क्षेत्र में अनुसूचित जनजातियों की आबादी 40 फ़ीसदी है।  

एक और हैरान करने वाला तथ्य यह है कि हाल में राज्य में सवर्ण आयोग गठित किया गया है और अगड़ी जातियों के इस आयोग को गठित करने की शुरुआत इसी क्षेत्र से हुई थी। इसी क्षेत्र में उच्च जातियों के हिंदुओं ने एससी-एसटी कानून की एक अंतिम यात्रा निकालकर विरोध प्रदर्शन भी किया था। 

यहां जातिगत छुआछूत की समस्या बेहद गंभीर है। केदार जिंदन दलित अधिकार कार्यकर्ता थे, जिनकी यहां के उच्च जाति के लोगों ने निर्मम हत्या कर दी थी। लेकिन उच्च जाति के मजबूत संपर्कों के चलते केदार जिंदन के समर्थन में एक सार्वजनिक सभा तक नहीं हो पाई। 

राजनीतिक नफ़ा-नुकसान के हिसाब से चल रहा आंदोलन

बीजेपी को पूरे देश में सवर्णों के समर्थन वाली पार्टी माना जाता है, अब वह इस क्षेत्र में कांग्रेस के आधार को तोड़ना चाहती है। मौजूदा विधानसभा में रेणुका और शिलाई क्षेत्र के विधायक भी कांग्रेस से हैं। बीजेपी को मौजूदा घटनाक्रम से सवर्णों का समर्थन हासिल करने और इस क्षेत्र में प्रभुत्व स्थापित करने की उम्मीद है। 

एक और दूसरा कारण है। 2027 में परिसीमन आयोग का गठन होना है। एक बार अगर पूरी आबादी को आदिवासी घोषित कर दिया जाता है, तो फिर अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों की कोई जरूरत नहीं रहेगी (फिलहाल इस इलाके में 2 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं)। उच्च जाति को लोग, जिन्हें अब आदिवासी घोषित कर दिया जाएगा, वे इस इलाके की राजनीति में और भी ज़्यादा प्रभावी हो जाएंगे। 

एक बेहतर समाधान यह हो सकता है कि हाती को जनजाति घोषित करने के बजाए, ट्रांस-गिरी क्षेत्र को संविधान की अनुसूची-5 के तहत आदिवासी क्षेत्र घोषित कर दिया जाना चाहिए और आबादी को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को अपनाने का मौका दिया जाना चाहिए। 

नहीं तो, डॉ वाय एस परमार द्वारा रजवाड़ों को मिलाने के लिए चलाए गए प्रजामंडल आंदोलन से अस्तित्व में आए हिमाचल प्रदेश में सिर्फ़ लोकतांत्रिक राज्य की अवधारणा का ही खात्मा होता दिखाई देगा। इस आंदोलन ने लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए भी जोर दिया था और बड़े स्तर के भूमि सुधार लागू करवाकर जातिगत व्यवस्था व सामंत समर्थित तंत्र को हिलाने का काम किया था।

सवर्ण आयोग के गठन और ऐसे आंदोलन को चलाने से जातिगत कुलीनता और सामंती मूल्यों को दोबारा थोपा जा रहा है, ऐसा हिमाचल के राज्य बनने के बाद बीते पांच दशकों में कभी नहीं किया गया। इन आंदोलनों को कांग्रेस नेतृत्व तक समर्थन दे रहा है। राज्य और इसके लोग, हिमाचल के निर्माण के समय स्थापित किेए गए प्रगतिशील तत्वों को खोने का खामियाजा नहीं उठा सकते।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें:

Himachal: Declaring Haati as a Tribal Group will Reinforce Caste Hierarchies

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