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दुनिया भर में सैन्यीकरण और राज्य दमन का मुकाबला करने वाले निर्भीक विद्रोही स्वर उभर रहे हैं

कई मुल्कों में बढ़ते सैन्यीकरण और दमनकारी रणनीति को अमल में लाये जाने के बावजूद, दुनिया भर में लोगों ने इसके समक्ष घुटने टेकने से इनकार कर दिया है और सम्मान सहित जीवन जीने के अपने अधिकारों की लड़ाई को लड़ना जारी रखा है।
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इंडोनेशियाई सुरक्षा बलों द्वारा पश्चिमी पापुआ में प्रदर्शनकारियों पर दमन ढाते हुए।

नवउदारवादी पूँजीवाद की छत्रछाया में जिस प्रकार से चरम दक्षिणपंथी उभार की तस्वीरें कई देशों में देखने को मिल रही हैं, उनमें सैन्यीकरण और जबरिया कब्जे के किस्से एक सामान्य नियम बनकर रह गए हैं।

दुनिया भर में जहाँ एक तरफ जन-कल्याण पर होने वाले खर्चों में बेहद कठोरता से कटौती की जा रही है, वहीं बाँटो और राज करो वाली नीतियों के चलते सामाजिक एकजुटता को ध्वस्त किये जाने को सुनिश्चित किया जा रहा है। ये कदम लगातार बढ़ रहे प्रतिरोध संघर्षों को जन्म दे रहा है जिसे कुचलने के लिए सत्ताधारी कुलीन वर्ग की ओर से प्रयास दुगुने किये गए हैं और इन आँदोलनों को बेरहमी से कुचलने की कोशिशें अपने अभूतपूर्व स्तर तक पहुँच गईं हैं। इस साल, चिली और फ़्रांस ले लेकर स्वाजीलैंड और फिलिपीन्स तक ये प्रवित्तियां सिर्फ तेज ही हुई है।

इन देशों की जनता के लिए और दुनिया भर के कई अन्य नागरिकों के लिए, प्रतिरोध संघर्ष की कहानी कोई उनके दिन-प्रतिदिन के जीवन के लिए अप्रासंगिक चीज नहीं रही, बल्कि यह उनके खुद के अस्तित्व का हिस्सा बन चुकी हैं।

वे इस बात को समझ रहे हैं और जैसा कि सत्ता में बैठे उनके दुश्मन भी इस बात को जानते हैं, कि इस लड़ाई में पीछे जाने का कोई रास्ता नहीं है और किसी प्रकार के समझौते की कोई गुंजाईश नहीं बची है।

आज जब 2019 का साल बीत चुका है, तो हम पाँच देशों में बढ़ते सैन्यीकरण के विशिष्ट उदाहरणों और इसके खिलाफ जनता के बहादुराना संघर्षों पर नजर डालकर इस परिघटना को समझने का प्रयास करते हैं।

फिलिस्तीन

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गाज़ा बॉर्डर पर इज़राइली सेना द्वारा प्रदर्शनकारियों पर टीयर गैस के खोखे दागे जाते हुए (फोटो: रॉयटर्स)

फिलिस्तीन के संघर्ष की दास्ताँ दशकों से जारी एक नस्लवादी राज्य के दमनात्मक स्वरूप के प्रतिरोध की कहानी है जिसे साम्राज्यवादी शक्तियों का वरदहस्त प्राप्त है और इसमें उन लोगों की भी मिलीभगत है जो खुद को इसका हमदर्द घोषित करते आये हैं।

2018 में गाज़ा की जनता ने इजरायली अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष के रूप में सबसे बहादुराना कारगुजारियों को अंजाम दिया, जिसमें उन्होंने ग्रेट मार्च ऑफ रिटर्न का नारा दिया था। इस साल भी, इजरायल के कब्जे वाली ताकतों द्वारा लगातार घेराबंदी और उत्पीड़न के कई अन्य कारगुजारियों के बावजूद, फिलिस्तीनी डटे रहे और स्पष्ट संदेश दिया है कि उनकी आवाज को दबाया नहीं जा सकता।

भयावह हिंसा के बावजूद हजारों की संख्या में जो लोग गाजा बॉर्डर की कँटीली तारों को पार करने के लिए वापस आये, उन्होंने सरकारी हिरासत में इस्रायली जेल नियमावली की निर्दयता को अपनी भूख हड़ताल से उघाड़ कर रख दिया है। इसके अलावा महिलाओं द्वारा लैंगिक हिंसा के खिलाफ किये गए विरोध प्रदर्शनों के जरिये फिलिस्तीन की जनता ने दर्शा दिया है कि दशकों से जारी सैन्यीकरण के बूटों की दरिंदगी उनके हौसलों को कभी पस्त नहीं कर सकती।

इस साल लगातार किये जा रहे हवाई हमलों और अमेरिका द्वारा नीतिगत बदलाव की मदद के जरिये नई बस्तियों के निर्माण के साथ इस्रायली दमनकारी नीति अपनी एक नई बुलन्दियों को छू रहा है। जैसे-जैसे लगभग हर गुजरते माह के साथ इसका राजनीतिक परिदृश्य दक्षिणपंथी झुकाव की ओर बढ़ता गया, अल-अक्सा मस्जिद परिसर में घुसपैठ की घटना लगभग हर हफ्ते की बात हो गई है।

इन सभी हमलों, और मौतों और यातनाओं के बीच भी प्रतिरोध का झंडा हमेशा बुलंद रहा है। ‘नदी से लेकर समुद्र तक, फिलिस्तीन मुक्त होकर रहेगा’ का नारा कभी भी इतना प्रासंगिक नहीं रहा, जितना कि वह आज है।

कश्मीर
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कई महीनों की घेराबंदी और दमन ने कश्मीरियों और खासकर महिलाओं को दक्षिणपंथी बीजेपी सरकार के नेतृत्व में कश्मीर घाटी के पूरी तरह से सैन्यीकरण किये जाने की मुखालफ़त किये जाने से डिगा नहीं पाई है।

दुनिया का सबसे अधिक सैन्यीकृत इलाका कहीं है तो वह कश्मीर है, और यहाँ के लोगों के लिए राज्य दमन कोई नई चीज नहीं रही है। हालाँकि, इस वर्ष भारतीय राज्य का यह दमनकारी चरित्र अपने शबाब पर पहुँच चुका है।

5 अगस्त को हिंदू वर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली दक्षिणपंथी भारत सरकार ने राज्य की संवैधानिक रूप से प्रदान की गई स्वायत्तता को समाप्त कर डाला – यह एक ऐसा कदम था, जो कई दशकों से उसके घोषित एजेंडे का हिस्सा रहा है। और इसके साथ ही वहाँ पर 70,000 भारतीय सैनिकों की अतिरिक्त तैनाती कर दी गई, जबकि वहाँ पर पहले से ही 700,000 सेना के जवानों और अर्धसैनिक बलों की तैनाती थी।

अगस्त और अक्टूबर के बीच, लाखों लोग कर्फ्यू जैसे प्रतिबंधों और गंभीर सुरक्षा बंदी के चलते लगभग कैदियों वाली हालत में जीने को मजबूर थे। दूरसंचार और परिवहन पर पूर्ण प्रतिबंधों के कारण लोगों का इन पाँच महीनों के दौरान आवागमन पूरी तरह से ठप पड़ गया, और उसी प्रकार स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा और व्यावसायिक क्षेत्र इससे बुरी तरह प्रभावित रहे। राजनेताओं, कार्यकर्ताओं और युवाओं सहित करीब 13,000 लोग या तो कश्मीर के भीतर जेलों में ठूंस दिए गए या उन्हें राज्य के बाहर की जेलों में डाल दिया गया।

सैन्य घेराबंदी की शुरुआत के चार महीनों के बाद भारत सरकार ने अब इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि उसके लिए अब सामान्य हालात का मतलब यही है। हालांकि  लोगों ने एक बार फिर से लड़ाई जारी रखने में अपने असाधारण लचीलेपन का परिचय दिया है।

सविनय अवज्ञा से लेकर स्वतःस्फूर्त प्रदर्शनों तक, प्रतिरोध का संघर्ष दृढ़तापूर्वक जारी है, जबकि राज्य सत्ता की कोशिश है कि किसी तरह भी 70 लाख आवाजों को खामोश कर दिया जाये। कश्मीर आज राज्य दमन और दक्षिणपंथी अधिनायकवाद के खिलाफ वैश्विक संघर्ष की लड़ाई में अग्रिम पंक्ति में खड़ा है।

पश्चिम पापुआ
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चार महीनों से चल रही प्रचण्ड दूरसंचार बंदी और पहले से कहीं भारी मात्रा में सैन्यीकरण और पुलिस दमन के बावजूद वेस्ट पापुआ के लोगों ने अपने संघर्षों को जारी रखा हुआ है।

दशकों से पश्चिम पापुआ के लोगों ने इंडोनेशिया द्वारा उनकी भूमि पर कब्जे और नस्लीय हिंसा के खिलाफ खुद को संगठित रखा है। इस वर्ष 1962 के न्यूयॉर्क समझौते, जिसे पापुआन संप्रभुता की लड़ाई लड़ रहे कार्यकर्ता ख़ारिज करते आये हैं, के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के बाद से इंडोनेशियाई स्वतंत्रता दिवस तक पापुआ नागरिकों के खिलाफ हिंसा भड़क उठी।

इसके चलते इंडोनेशिया के भीतर, पापुआ नागरिकों खासकर छात्रों को नस्लीय हिंसा का शिकार होना पड़ा, जिसकी मुख्य कर्ता-धर्ता उग्र-राष्ट्रवादियों के हुजूम साथ-साथ इण्डोनेशियाई पुलिस भी थी। हिंसा के बाद 17 और 18 अगस्त को बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं।

19 अगस्त से जो जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन पापुआ की जनता द्वारा आरंभ हुए थे, वे आजतक जारी हैं। इन विरोध प्रदर्शनों को न तो दूरसंचार के शटडाउन द्वारा और न ही 1,500 से अधिक सशस्त्र पुलिस और सुरक्षा कर्मियों की तैनाती के जरिये दबाया जा सका है।

फिलीपींस
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नेग्रोस द्वीप में पुलिस छापे के दौरान 14 किसानों के नरसंहार के विरुद्ध 10 अप्रैल को अंतर्राष्ट्रीय आक्रोश दिवस में भाग लेते हुए आम नागरिक।

इस बात की संभावना है कि फिलीपींस में रोड्रिगो दुतेर्ते प्रशासन मिंडानाओ क्षेत्र के दक्षिण में मार्शल लॉ को जारी न रखे, लेकिन जो युद्ध इसने देश भर के कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के खिलाफ छेड़ रखा है उसके जारी रहने की पूरी संभावना है।

प्रतिबंधित माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ फिलिपीन्स (सीपीपी) से निपटने के नाम पर, दुतेर्ते प्रशासन लगातार विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर निराधार आरोप मढ़ रही है कि वे सीपीपी से जुड़े हुए हैं, जिसे "रेड-टैगिंग" के तौर पर जाना जाता है।

इसके नतीजे बेहद रक्त-रंजित रहे हैं, क्योंकि इस साल हुई राजनीतिक हिंसा और हत्याओं की घटनाओं में असीमित इजाफ़ा हुआ है। ट्रेड यूनियनों से जुड़े लोग, किसान समूहों और प्रगतिशील आँदोलनों से जुड़े लोगों को सुरक्षा बलों और अंध-राष्ट्रभक्त चौकीदारों के हमलों का शिकार होने के लिए अभिशप्त होना पड़ा है।
 
शांति दूत के रूप में पहचान रखने वाले रैंडी फेलिक्स मलायो की जनवरी में हत्या कर दी गई, और मिंडानाओ के ठीक उत्तर में स्थित नेग्रोस द्वीप में पुलिस और सशस्त्र बलों द्वारा एक हिंसक छापे में 14 किसानों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया।

नेग्रोस द्वीप जहाँ पर एक बड़ा और सक्रिय श्रमिक आंदोलन सक्रिय है, को राजनीतिक हिंसा के चलते बुरी तरह से प्रभावित होना पड़ा है। कार्यकर्ताओं का मानना है कि आतंकवाद और नशे के खिलाफ युद्ध छेड़ने के नाम पर असल में इसका उद्येश्य देश भर में श्रमिक संघर्षों और प्रगतिशील आंदोलनों को दबाने का रहा है।

पश्चिमी सहारा क्षेत्र
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बचराया अबहाज़ेम ने इस बात की ओर इशारा किया कि मोरक्को की कब्जे की नीति के खिलाफ प्रतिरोध का गला घोंटने का का एक तरीका यह भी निकाला गया कि कार्यकर्ताओं को ही "गायब" कर दिया जाए, जैसे कि उनके साथ करीब एक दशक तक हुआ।

पश्चिमी सहारा में, जिसका उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्षों का एक लंबा इतिहास रहा है, वहाँ पर प्रतिरोध के स्वरों को कुचलने की जिम्मेदार मोरक्को के सत्ताधारी रहे हैं। गिरफ्तारियां और धमकियाँ 2019 के साल में यहाँ रोजमर्रा की बात हो चुकी हैं।

महफौदा बम्बा लेफ्किर जो कि यहाँ के एक प्रमुख कार्यकर्ता हैं, को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में सत्ताधारियों द्वारा उन्हें मई में सजा सुनाई गई। कब्जे के विरोध में उठने वाली सभी प्रमुख आवाजों पर सत्ताधारियों द्वारा अंकुश जारी है।

जनसंख्या में भय उत्पन्न करने और कहीं वे खुद को संगठित न करने लग जाएँ, इससे निपटने के लिए एक तरीका जो उन्होंने निकाला उसमें सैकड़ों की संख्या में बंदीगृहों और यातना गृहों में “गायब कर देना” शामिल है।

बचराया अबहाज़ेम जो पश्चिमी सहारा से एक कार्यकर्ता हैं, उन सैकड़ों लोगों में से एक थे जिन्हें लगभग एक दशक तक इन केंद्रों में से किसी एक में "गायब" कर रखा गया था। इन सबके बावजूद, पश्चिमी सहारा के लोग अपनी स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए अपने औपनिवेशिक आकाओं के विरुद्ध बहुदाराना लड़ाई जारी रखे हुए हैं।

सौजन्य: पीपुल्स डिस्पैच

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Defiant Voices Combat Militarisation and State Repression Worldwide

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