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डिग्री विवाद:  महात्मा गांधी पर अब तक का सबसे घृणित आक्रमण

हमें यह समझना होगा कि गांधी विचार से वैचारिक रूप से परास्त वर्ग अब नए-नए तरीके तलाश रहा है, उन्हें बदनाम करने के। परंतु हर बार कीचड़ उनके ही मुंह पर उछलता है।
Gandhi Ji

 ‘‘परीक्षाएं पास करके मैं 10 जून 1891 के दिन बैरिस्टर कहलाया, 11 जून को ढाई शिलिंग देकर मैंने इंग्लैंड के हाईकोर्ट में अपना नाम दर्ज कराया और 12 जून को हिन्दुस्तान रवाना हुआ।”- महात्मा गांधी (आत्मकथा)

 ‘‘प्रार्थनापूर्ण अनुशासन की दीर्घ प्रक्रिया द्वारा मैंने किसी से घृणा करने के विचार को सर्वथा छोड़ दिया है। इसे आज 40 वर्ष से ज्यादा समय हो गया है।”- महात्मा गांधी

गांधी के पास कानून की डिग्री थी या नहीं, इस पर शंका की स्थिति बनाना वास्तव में उस व्यक्ति द्वारा स्वयं को नकारना है, जिसने इस बात को, या अपने मन की हताशा को सार्वजनिक किया है। इस बात पर बहस हो सकती है कि गांधी महान हैं या नहीं। यह किसी के नजरिये और समाज व इतिहास को देखने के अलग-अलग नजरिये पर निर्भर करता है। यह व्यक्ति की विचारधारा पर भी निर्भर करता है कि वह गांधी को महात्मा माने या न माने। उनसे सहमत हो या असहमत या वह उनकी कार्यप्रणाली को अनुपयोगी व अनुपयुक्त मानता हो। परंतु इस बात पर उस शख्स से कतई सहमत नहीं हुआ जा सकता कि गांधी झूठ बोलते थे या वे बेइमान थे। दुनिया का अन्य कोई भी व्यक्ति, भले ही बापू का कितना भी बड़ा विरोधी हो, उनके बारे में यह बात नहीं कह सकता। पर किसी ने हाल ही में यह कहा तो है।

खैर! मोहनदास करमचंद गांधी ने सन् 1893 से सन् 1913 तक दक्षिण अफ्रीका में वकालत की थी। वकालत की शुरुआत में ही वह इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि एक वकील का वास्तविक कार्य आपस में विवाद करने वाले पक्षों में एका स्थापित करना है। वे लिखते हैं ‘‘यह पाठ मेरे अंदर इस तरह समा गया था कि एक वकील की तरह करीब बीस वर्षों की प्रैक्टिस के दौरान मैंने सैकड़ों मामलों में निजी समझौते करवाए थे।” सत्य के प्रति उनका असाधारण प्रेम था। वे मानते थे कि एक वकील पक्षकार के लिए धन लेकर अपनी अमूल्य सेवाएं देता है, लेकिन वह मूलतः सत्य और न्याय का ही पक्षकार या पक्षधर है। और यह बात उन पर एकदम सटीक बैठती भी है। वे लिखते हैं, ‘‘दक्षिण अफ्रीका में मेरे इस सिद्धांत को परीक्षा से गुजरना पड़ा। अक्सर मुझे पता रहता था कि मेरे विरोधी ने अपने गवाह को सिखाया-पढ़ाया है और अगर मैं अपने गवाहों को झूठ बोलने को प्रोत्साहित करुंगा तो मैं आसानी से मुकदमा जीत सकता हूं। परंतु मैंने इस प्रलोभन से बचने का प्रयास किया। अपने हृदय की गहराई से मैंने हमेशा यह चाहा कि मैं तभी जीतूं जबकि मेरा पक्षकार सही हो। मैंने अपने प्रत्येक नये पक्षकार को चेताया कि वो यह उम्मीद मुझसे न रखे कि मैं झूठा मुकदमा ले लूंगा और गवाहों को सिखाऊंगा-पढ़ाऊंगा। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी ऐसी प्रतिष्ठा बन गई कि झूठे मामले मेरे पास आते ही नहीं थे। वास्तविकता यह है कि मेरे कुछ मुवक्किल साफ सुथरे मामले मेरे पास लाते थे और अपने शंकास्पद मामले कहीं और ले जाते थे।

याद रखिए सन् 1910 से गांधी ने वकालत के पेशे का त्याग कर दिया। तब वे दक्षिण अफ्रीका में थे और उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा सामाजिक कार्यों में लगा दी थी। भारत लौटने के बाद भी ऐसा ही चलता रहा। सन् 1922 में असहयोग आंदोलन के दौरान लिखे आलेखों के कारण उन पर चले देशद्रोह के मुकदमे पर निगाह डालें। यह अपने आप एक अनूठा मुकदमा है। इस मुकदमे के प्रति आकर्षण सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप व अमेरिका में भी था। यह हमारे समय के सबसे स्मरणीय मुकदमों में से है। इससे पहले इस स्तर का कैदी ब्रिटिश न्यायालय में न्याय के लिए आया ही नहीं था। इससे पहले किसी ने ब्रिटिश न्याय व्यवस्था को इतने मानवीय दृष्टिकोण के तहत चुनौती नहीं दी थी। तब तक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक देशभक्त और संत के रूप में स्थापित हो चुके थे।

सरोजनी नायडू लिखती हैं ‘‘कानून की नजर में एक अपराधी और आरोपी। परंतु महात्मा गांधी ने जैसे ही न्यायालय में प्रवेश किया पूरा न्यायालय स्वमेव उनके सम्मान में खड़ा हो गया। एक दुबला पतला (दुर्बल), शांत व निर्मल व अदम्य इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति ने अपने सहआरोपी व शिष्य शंकरलाल बंकर के साथ एक खुरदुरी, आधी धोती में न्यायालय में प्रवेश किया। मजाकिया अंदाज में एक खुशनुमा हंसी, जिसमें कि बचपन की अगाध निर्मल पवित्रता वास कर रही थी, के साथ उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘तो तुम मेरे पास ही बैठना। यदि मैं विचलित हो जाऊं तो मेरा ख्याल रखना। फिर उन्होंने अपने आस-पास बैठे लोगों पर नजर डाली, जो उनसे प्यार करते थे और दूर-दूर से आए थे। फिर धीमे से बोले, ‘‘यह तो एक पारिवारिक समागम है न कि कानूनी न्यायालय।” वे लिखती हैं कि ऐसा लग रहा था जैसे नाजरथ के जीसस (ईसा मसीह) पर चले मुकदमे की पुनरावर्ती हो रही है। सिर्फ उसी मुकदमे से इस मुकदमे की तुलना की जा सकती है। ‘‘हां सुकरात पर चला मुकदमा भी इसी के समकक्ष माना जा सकता है। यहीं पर गांधी का वह अमर वाक्य याद आया कि, ‘‘गरीब व्यक्ति से गरीब की मानसिकता के साथ मिलो।” इस मुकदमे की कुल कार्यवाही करीब 100 मिनट तक चली और यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अमर गान हो गया।”

इस विस्तृत विवरण के पीछे एक महत्वपूर्ण तथ्य छुपा है। याद रखिए अहमदाबाद के सेशन न्यायाधीश की अदालत ने 13 मार्च 1922 को उनके ‘‘अपराध‘‘ के लिए छह (6) वर्ष की सजा सुनाई। अब इस तथ्य पर गौर करिए। उनको सजा के सुनाए जाने के बाद 10 नवंबर 1922 को बैंचर्स आफ इनर टेंपल ने गांधीजी के ‘‘प्रैक्टिस करने पर रोक” लगा दी और रोल आफ दि बेरिस्टर (वकीलों की सूची) से उनका नाम हटा दिया। परंतु जैसे ही भारत आजाद हुआ उनका नाम पुनः जोड़ दिया गया। इतना ही नहीं इनर टेंपल के पुस्तकालय में उनका एक विशेष चित्र (स्पेशल पोट्रेट) सन् 1984 में लगाया गया। इस तरह से उनकी स्मृति को सम्मानित किया गया। गौर करिए उनका कानूनी सफर ‘‘कुली बेरिस्टर” के संबोधन से शुरू हुआ था। प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक, जेम्स कावानाघ लिखते हैं, ‘‘हालिया इतिहास में एक प्रसिद्ध अ-वकील हुआ है, एक वकील जो लिंकन जैसे बदले रूप वाले वकील के जैसा ही है और सामान्य वकीलों के दायरे में बंधे रहने के बजाय उनके कार्य को और भी विस्तारित कर दिया है। उसने वकीलों के आदर्शों को न केवल कायम रखा है, बल्कि उन्हें और गहराई दी है। उसे अपने देश और अपने लोगों से प्यार है। वह अधिकारियों का विरोध करते हुए भी उनका सम्मान करता है। उनका बातचीत में विश्वास है और वह कदम-दर कदम आगे बढ़ता है। वह बेहद विनम्र है और उसने एक हस्तशिल्प को अपना प्रतीक बनाया है। और वकील जिस तरह की नकारात्मक कवायद करते हैं, उसके बजाय वह देश की स्वतंत्रता के लिए कुर्बान हो गया। वह एक भारतीय वकील है, जिसका नाम गांधी है।”

अब मूल पर आते हैं। जिन सज्जन ने गांधी की वकालत की डिग्री को नकारा है, वह यह अनजाने या किसी भ्रम में नहीं कर रहे हैं। गौर करिए यह कहने के लिए एक विश्वविद्यालय को चुनते हैं और जिस व्यक्ति डॉ. राममनोहर लोहिया के नाम की व्याख्यानमाला को चुनते हैं, वह लोहिया गांधी के अनन्य शिष्य रहे हैं। कलकत्ता के दंगों के दौरान महात्मा गांधी ने सिर्फ उन्हें ही विशेष रूप से बुलवाया था। याद रखना होगा जो ग्वालियर के मंच से कहा गया है, वह गांधी पर आजादी के बाद का सबसे भयानक व सबसे घृणित आरोप है। पहली बार किसी ने इस तरह से गांधी की ‘‘सत्यता” पर प्रश्नचिह्न लगाया है, उन्हें इस तरह से ‘‘कठघरे‘‘ में खड़ा किया है। वह व्यक्ति जिसने यह बोला है और जिसके नाम के तमाम पर्यायवाची जैसे कामदेव, मनोहर, मदन, सुंदर तो दूसरी ओर संग्राम, रण, युद्ध व मनोभाव भी पर्यायवाची हैं। इसलिए उनके नाम व पद पर मत जाइये। उस भावना को समझिये, उस षड़यंत्र को समझिये, जिसके तहत वे गांधी को अब एक ‘‘झूठा” और बेइमान सिद्ध कर देना चाहते हैं। गांधी को 11 जून 1891 को डिग्री प्राप्त हुई थी। अगले दिन वे बार के सदस्य बने और उसके अगले दिन भारत लौट आए। (वैसे आजकल जो डिग्रियां चर्चा में हैं वे सन् 1978 और 1983 की हैं। करीब एक शताब्दी बाद की) इसके बाद 16 नवंबर 1891 को उन्होंने बांबे उच्च न्यायालय में वकील के तौर पर नामांकन का आवेदन किया।

हमें इतिहास में खंगालना होगा कि क्या उस युग में फर्जी डिग्रियों का कोई इतिहास रहा है? भारत में आजादी के दौरान कई अन्य वकील भी सक्रिय थे। जैसे मोहम्मद अली जिन्ना, मोतीलाल नेहरु, जवाहरलाल नेहरु, सरदार पटेल, कैलाश नाथ काटजू आदि। क्या इन सबको भी जांच के दायरे में नहीं लाना चाहिए? महात्मा गांधी की कानून की डिग्री को लेकर उठाया गया विवाद, वास्तव में उन पर अब तक किया गया ‘‘सबसे भयानक व घृणित हमला है।” इससे पहले उन पर जो आरोप लगे या अब भी लगाए जा रहे हैं वे उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता को लेकर थे/हैं। उन्हें झूठा और बेइमान बताने की यह पहली वारदात है। यहां वक्ता ने गांधी विचार पर आक्षेप न करते हुए, बहुत चालाकी के साथ उनके आचरण पर प्रहार किया। गांधी की सबसे बड़ी खासियत ही उनका आचरण है। वे विश्व के संभवतः अकेले ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जिनकी कथनी और करनी में कोई अंतर ढूंढ पाना कमोबेश असंभव है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह कहने के लिए एक ऐसे विश्वविद्यालय के मंच को चुना जिसके संस्थापक एक खांटी समाजवादी रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आयोजकों ने अपनी दलील को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बैद्धिकता की विविधता से समझाने की कोशिश की। जबकि वस्तुतः यह एकदम सीधा मामला है। यहां महात्मा गांधी की कानूनी प्रखरता को लेकर भी कोई सवाल नहीं उठाया गया था। सीधा सा मामला डिग्री के असली या नकली होने से जुड़ा था। उसका तुरंत प्रतिकार होना था। यदि वह पद की गरिमा के अनुकूल नहीं लग रहा था, तो अगले ही दिन स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए थी। परंतु ऐसा नहीं हुआ। बापू पर भरोसा रखने वालों को भी उनकी डिग्री देखनी पड़ी! यह वास्तव में बेहद पीड़ादायक अनुभव रहा। साथ ही यह सब बेहद खौफनाक भी है कि अब बात कितने निम्न स्तर पर पहुंच गई है।

अहमदाबाद में जिस ‘‘देशद्रोह” के मुकदमे में गांधी को सजा हुई थी उसे पढ़ना, आज भी रोमांचित करता है। अपने भाषण (बयान) के अंत में वे न्यायाधीश से कहते हैं, कि मैं स्वयं को आपके समक्ष सर्वाधिक दंड दिये जाने हेतु प्रस्तुत करता हूं। मेरे ऊपर कानून में निहित सबसे ज्यादा दंड लगाया जाए क्योंकि मैं एक नागरिक के नाते अपना सर्वोच्च कर्तव्य निभा रहा हूं। अतएव न्यायाधीश महोदय आपके सामने बहुत सीमित विकल्प खुले हैं या तो आप अपने पद से इस्तीफा दें और स्वयं को इस बुराई से अलग कर लें और अगर आप यह महसूस करते हैं कि आपको जिस कानून के अनुपालन के लिए अधिकृत किया गया है और वह इस देश के लोगों के हित में है और मेरा कार्य लोक कल्याण के लिए खतरनाक है तो मुझे अधिकतम दंड दीजिए।” वहीं सह आरोपी श्री बंकर ने मात्र इतना ही कहा ‘‘मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूं इन लेखों को प्रकाशित करना मेरा सौभाग्य रहा है और मैं इस आरोप के लिए अपना अपराध स्वीकार करता हूं। सजा के संबंध में मैं कुछ नहीं कहना चाहता।”

निर्णय सुनाते हुए न्यायाधीश ने कहा था, ‘‘श्री गांधी अपना अपराध कबूल कर के आपने एक तरह से मेरा काम आसान बना दिया है। अब सिर्फ सजा की अवधि तय करना भर रह गया है और इस देश के न्यायाधीश के नाते इस तथ्य का सामना करना बेहद कठिन है। कानून में व्यक्तियों के लिए कोई सम्मान नहीं है। फिर भी इस बात की अनदेखी कर पाना असंभव है कि आप एक अलग श्रेणी के व्यक्ति हैं, जिन पर कि कभी पहले मैंने मुकदमा चलाया है या कभी चलाऊंगा। इस तथ्य की अनदेखी करना भी असंभव है कि अपने देशवासियों की निगाह में आप एक महान देशभक्त और महान नेता हैं।” अपने निर्णय के अंत में वे गांधी से कहते हैं कि आप, आपको दी जा रही सजा को अनुचित नहीं मानेंगे और सरकार यदि आपकी सजा घटाती है और रिहा करती है, तो मुझसे ज्यादा खुशी किसी को नहीं होगी। बात यहीं खत्म नहीं होती, महात्मा गांधी निर्णय के बाद न्यायाधीश से कहते हैं कि ‘‘मैं आपसे सिर्फ एक शब्द कहना चाहता हूं कि यह मेरा सौभाग्य है कि आपने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के मुकदमे को याद किया। उनके साथ अपना नाम जुड़ने को मैं अपना सौभाग्य समझता हूं।” और अंत में कहते हैं मैं यह अवश्य कहूंगा, ‘‘मैं इससे अधिक सदाशयता की उम्मीद नहीं करता।”

इस लंबी बात का निहितार्थ यही है कि जो व्यक्ति सत्य के उस मुकाम पर पहुंच चुका है जहां वह अपने लिए अधिकतम सजा की मांग करता है और दूसरी ओर सजा देने वाले न्यायाधीश, सजा पाए कैदी की रिहाई की कामना करे, क्या इससे पहले कभी कहीं इतिहास में यह हुआ है? क्या फर्जी डिग्री से पढ़ा आदमी कभी इतना साहसी और सत्यनिष्ठ हो सकता है? कभी नहीं।

हमें यह समझना होगा कि गांधी विचार से वैचारिक रूप से परास्त वर्ग अब नए-नए तरीके तलाश रहा है, उन्हें बदनाम करने के। परंतु हर बार कीचड़ उनके ही मुंह पर उछलता है। महात्मा गांधी की डिग्री की प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाकर, उन्होंने अपनी प्रामाणिकता कमोबेश शून्य कर ली है। इस पूरे आलेख में जानबूझकर उनके नाम का उल्लेख नहीं किया, जिन्होंने इस तरह की अनैतिक जिज्ञासा को सार्वजनिक किया। वे तो शतरंज की बाजी में महज एक घर चलने वाले हैं। चलते चलते गांधी की इस बात पर गौर करें, ‘‘जब कोई झूठा कहे या मुखालिफत करे तो गरम मत हो जाओ। शांति से अपनी बात कहना है तो कह दो। शायद मौन सबसे बेहतर है। किसी के झूठे बनाने से तुम झूठे नहीं बनते, अगर तुम सच्चे हो।”

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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