दिल्ली: प्रदूषण हो या कोरोना, पहली मार निर्माण मज़दूरों पर ही क्यों?
दिल्ली सरकार ने दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए दिल्ली में सभी तरह के निर्माण कार्य पर प्रतिबन्ध लगा दिया, इसी तरह दिल्ली से सटे हरियाणा और पंजाब में भी निर्माण कार्य रोक दिए गए। परन्तु यह सब करते हुए उन्होंने दिल्ली के इन भवन निर्माण मजदूरों के बारे में तनिक भी नहीं सोचा और सीधा एक झटके में इन मजदूरों की रोजी-रोटी छीन ली। दिल्ली में प्रदूषण के कई और गंभीर कारण हैं जो सरकार के नीतिगत विफलता को दर्शाते हैं। वो चाहे उद्योगों से होने वाला प्रदूषण हो या वाहनों से होने वाला प्रदूषण या फिर हमारे एयरकंडीशनर से होने वाला प्रदूषण हो। चाहे वो पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने की घटनाएं या अब पटाखों से हुआ भयंकर प्रदूषण। लेकिन दिल्ली की केजरीवाल सरकार, पड़ोसी राज्यों की सरकारें या केंद्र सरकार, ये सब मिलकर भी इनपर अंकुश लगाने में विफल रही हैं। लेकिन दिल्ली के लगभग 12 लाख निर्माण मजदूरों को बिना कोई वैकल्पिक आय का स्रोत दिए ही उनकी रोजी-रोटी छीन ली गई। और ये केवल इस बार ही नहीं है, हमेशा ही सरकारों द्वारा प्रदूषण रोकने के नाम पर मजदूरों को ही निशाना बनाया जाता है। एक बार फिर दिल्ली में यही हुआ है।
लगभग सभी मजदूर यूनियनों ने सरकार की इस कार्रवाई की निंदा की है। उत्तर पूर्व दिल्ली के भवन निर्माण मज़दूर यूनियन के नेता फूलकान्त मिश्रा ने कहा कि निर्माण मजदूर पिछले दो सालों से काम नहीं कर पा रहा है। 2019 की दीवाली से ही वो कभी प्रदूषण, कभी दंगे और फिर कभी कोरोना महामारी से बेरोजगार होता रहा है।
उन्होंने आगे कहा, "शहर में दंगा हो, चाहे प्रदूषण हो या हो कोरोना जैसी माहमारी, सबसे पहला हमला निर्माण मज़दूर ही होता है। वो पूछते हैं कि सरकार ऐसा क्यों करती है? ये समझ पाना मुश्किल है। क्योंकि भवन निर्माण के मजदूर एक तरह से रोज कुआं खोदकर पानी पीते हैं, लेकिन उन्हें पिछले कई दिनों से कोई काम नहीं मिल रहा है। सरकार से वजह पूछो तो वो वजह बताती है प्रदूषण!
मिश्रा कहते हैं, "शहर की ये हालत भवन निर्माण से नहीं, बल्कि प्रदूषण से निपटने की हमारी आधी-अधूरी नीतियां हैं। दरअसल सरकार ने बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए दिल्ली में सभी तरह के निर्माण कार्य पर प्रतिबन्ध लगा दिया है, लेकिन इसका कोई इंतज़ाम नहीं किया कि दिहाड़ी मज़दूर क्या करेगा, क्या खाएगा।
दिल्ली के सोनिया विहार इलाके में मोहम्मद इलियास जो भवन निर्माण में बेलदारी का काम करते हैं। इनके तीन बच्चे हैं। वो किसी ठेकेदार के माध्यम से काम करते हैं, उन्हें वो ठेकेदार 400 रुपये देता था, जबकि वो मालिक से 500 तक लेता है। उन्होंने बताया जितना वो रोज कमाते हैं, उतने में बड़ी मुशिकिल से एक दिन का गुजारा होता है। ऐसे में कोई काम नहीं मिलने से उनके और उनके परिवार के लिए रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। वे आगे कहते हैं कि अब तो दुकानदार भी राशन देने से मना कर देता है क्योंकि वो पिछला बकाया मांगता है।
आपको यहाँ बता दें कि अधिकतर दिहाड़ी मजदूर प्रवासी हैं। इनके पास दिल्ली का राशन कार्ड भी नहीं है। इस कारण ये सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लाभ से भी बाहर हैं।
निर्माण मज़दूर महेश ने कहा कि "काम रुकने के चलते हमें बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। पिछले दो साल से ऐसा ही है कि कभी काम मिलता है, कभी नहीं। बार-बार काम रुकने से और दिहाड़ी नहीं मिलने के चलते हमारी रोज़ी-रोटी तक के लाले पड़ गए हैं। हमारी सरकार से ये मांग है कि कामबंदी के दिनों में सभी निर्माण मज़दूरों को न्यूनतम वेतन के बराबर बेरोज़गारी भत्ता दिया जाए, जैसा कोरोना के लॉकडाउन में दिया गया था।"
राजधानी भवन निर्माण कामगार यूनियन के अध्यक्ष व सीटू के राज्य सचिव सिद्धेश्वर शुक्ला ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए सरकार के इस फैसले को एकतरफा करार दिया। उनके मुताबिक, "सरकार ने यह निर्णय करते हुए न तो मजदूर यूनियनों से बात की और न विशेषज्ञों से। दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण पर अपनी विफलता को छिपाने के लिए निर्माण कार्यों पर पूर्णत: प्रतिबन्ध लगा दिया, वो भी बिना किसी अध्ययन के। जबकि निर्माण कार्य में कई ऐसे काम भी होते हैं जिसमें कोई भी प्रदूषण नहीं होता है। सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए था और अगर वो ये नहीं कर सकी, तो अब उसे मजदूरों के लिए कोई वैकल्पिक व्यस्था करनी चाहिए।"
शुक्ला ने आगे कहा, "दिल्ली में निर्माण मजदूर कल्याण वेलफेयर बोर्ड है, जिसके पास मजदूर के कल्याण के लिए एक मोटा बजट है। सरकार इस बोर्ड को निर्देशित करे कि वो मजदूरों को, जब तक दिल्ली में निर्माण कार्य बंद है, तब तक न्यूनतम मजदूरी के हिसाब से उन्हें बेरोजगारी भत्ता दे।"
शुक्ला ने आगे चेतावनी दी कि, "निर्माण मज़दूर अपनी मांगो को लेकर चुप नहीं रहेगा। वो दिल्ली की 25 नवंबर की हड़ताल में अपनी मांगों को लेकर शामिल होगा। अगर सरकार हमारी मांगों की ओर ध्यान नहीं देगी, तो हमारा आंदोलन और तेज़ होगा।"
आपको बता दें 1996 के अधिनियम के तहत 3,700 करोड़ रुपए से ज़्यादा की राशि वैधानिक उपकर के रूप में इन निर्माण मज़दूरों के वेलफेयर के लिए एकत्रित है , जिन्हें इनके कल्याण के लिए इस्तेमाल होना है। भवन तथा अन्य विनिर्माण श्रमिक (रोज़गार तथा सेवा शर्तों का नियमन) अधिनियम 1996 पारित किया गया था। इस अधिनियम में भवन तथा अन्य विनिर्माण श्रमिकों के रोज़गार तथा सेवा शर्तों का विनियमित करने के साथ ही उनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य और कल्याणकारी उपायों के प्रावधान थे।
इस अधिनियम के तहत कल्याणकारी बोर्ड की स्थापना की गई जिसे भवन तथा अन्य विनिर्माण श्रमिकों का कल्याणकारी बोर्ड कहा जाता था।
इन कल्याण बोर्डों के लिए राशि नियोक्ताओं (विनिर्माण श्रमिकों को रोज़गार देने वाली रियल एस्टेट कंपनियां) द्वारा विनिर्माण पर किए गए व्यय पर लगाए गए उपकर से हासिल होनी थी।
इसलिए कल्याणकारी बोर्डों के संसाधनों को बढ़ाने के मद्देनज़र इस उपकर के लागू करने और वसूलने के लिए भवन तथा अन्य विनिर्माण श्रमिक कल्याण उपकर अधिनियम 1996 पास किया गया।
हमें ये समझना होगा कि निर्माण मज़दूर कौन होता है और ये अन्य मजदूरों से कैसे भिन्न हैं? जो मज़दूर निर्माण कार्यों जैसे भवन बनाने व मरम्मत करने सड़क-पुल, रेलवे बिजली का उत्पादन, टावर्स बांध \नहर \जलाशय, खुदाई, जल पाइप लाइन बिछाने, केबल बिछाने जैसे कार्यों से जुड़े होते हैं, उनमें बहुत से राजमिस्त्री, बढ़ई, वेल्डर, पॉलिश मैन, क्रेन ड्राईवर, बेलदार व चौकीदार भी होते हैं, ये सब भी निर्माण मज़दूर कहलाते हैं।
इस सवाल को लेकर मजदूर संघ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए हैं, जहाँ मजदूरों के लिए काम बंद होने पर मुआवजे की मांग की गई है। एनडीटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक उनकी ओर से कहा गया है कि निर्माण गतिविधियों पर पूर्ण रोक लगाना उचित नहीं है। गैर-प्रदूषणकारी निर्माण गतिविधियों को इजाजत मिलनी चाहिए। निर्माण पर अचानक पूर्ण प्रतिबंध लगाने से गंभीर वित्तीय नुकसान और उत्पीड़न होता है। दिल्ली और हरियाणा सरकार भवन निर्माण श्रमिकों के लिए काम बंद होने के दिनों में अनुग्रह राहत योजनाएं तैयार करें। प्रतिबंध लगाने से पहले 15 दिन का नोटिस दें। मजदूरों ने कोर्ट में दिल्ली-एनसीआर प्रदूषण मामले में पक्षकार बनाने की मांग की है।
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