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दिल्ली: रिपोर्ट में खुलासा- AIIMS में फल-फूल रहा जातिवाद

संसद में पेश एक रिपोर्ट में बड़ा खुलासा हुई है, कि दिल्ली एम्स में भर्ती और पास-फेल का पैमाना नाम पूछकर तय किया जाता है।
AIIMS

जाति और धर्म की बढ़ती कट्टरता के बीच अक्सर आप सुनते होंगे कि दलित और पिछड़ा वर्ग को बेकार ही आरक्षण दिया जा रहा है। हालांकि ये क्यों दिया जा रहा है और क्यों दिया जाना चाहिए?... इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है, बस कुछ पुरानी क़िताबें और आरक्षित समाज के बारे में पढ़ने की ज़रूरत है, शायद ये भी नहीं, बस आपको अपने-आसपास समाज की ओर गहराई से झांकने की ज़रूरत है, सिर्फ एक बार... इतने में ही आपको आरक्षण की हक़ीकत पता चल जाएगी।

ख़ैर... आरक्षण के ख़िलाफ वक़ालत करने वालों को एक संसदीय पैनल की रिपोर्ट से निराशा हाथ लगी है। इस पैनल ने साफ तौर पर कहा है कि दिल्ली एम्स जैसे संस्थानों में भी नौकरी देने में एससी-एसटी वर्ग के लोगों के साथ भेदभाव किया गया।

रिपोर्ट में फैकल्टी रिक्रूटमेंट के दौरान दलित और आदिवासी उम्मीदवारों के साथ भेदभाव का आरोप लगाया गया है। साथ ही समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि जातिगत भेदभाव के कारण एससी और एसटी के एमबीबीएस स्टूडेंट्स परीक्षाओं में बार-बार फेल होते हैं।

संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि एम्स में एडहॉक आधार पर कई सालों तक काम करने वाले अनुसूचित जाति/ जनजाति के जूनियर रेजिडेंट डॉक्टरों को रेगुलर पोस्टर भरने के वक्त नहीं चुना गया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि रेगुलर नियुक्ति के समय कहा गया कि कोई भी उम्मीदवार प्रवेश के लिए उपयुक्त और योग्य नहीं पाया गया था। आपको बता दें कि ये रिपोर्ट भाजपा सांसद किरीट पी सोलंकी की अध्यक्षता वाली समिति ने बीते मंगलवार को लोकसभा और राज्यसभा में प्रस्तुत की थी।

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लोकसभा में पेश की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि एम्स में कुल 1111 संकाय पदों में से, 275 सहायक प्रोफेसर, 92 प्रोफेसर के पद खाली हैं। पैनल ने अपनी रिपोर्ट में ये भी कहा कि उचित पात्रता, योग्यता होने के बावजूद पूरी तरह से एससी/एसटी उम्मीदवारों को देश के प्रमुख मेडिकल कॉलेजों में प्रारंभिक चरण में भी फैकल्टी मेंबर्स के रूप में शामिल करने की अनुमति नहीं है। समिति ने मांग की है कि सभी मौजूदा रिक्त संकाय पदों को अगले तीन महीने के भीतर भरा जाना चाहिए। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय से उसी समय सीमा के भीतर एक कार्य योजना मांगी गई है।

पैनल ने भविष्य को देखते हुए भी सभी मौजूदा पदों को भरने के बाद, अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित किसी भी संकाय की सीट को किसी भी परिस्थिति में छह महीने से अधिक तक खाली नहीं रखा जाएगा। समिति ने रिपोर्ट में कहा कि ‘सुपर-स्पेशियलिटी पाठ्यक्रमों में आरक्षण नहीं दिया जाता है जिसके परिणामस्वरूप अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उम्मीदवारों को अभूतपूर्व और अनुचित रूप से वंचित रखा जाता है तथा सुपर-स्पेशियलिटी क्षेत्रों में अनारक्षित संकाय सदस्यों का एकाधिकार होता है। आरक्षण नीति को छात्र और संकाय स्तर पर सभी सुपर-स्पेशियलिटी क्षेत्रों में सख्ती से लागू किया जाना चाहिए ताकि वहां भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति संकाय सदस्यों की उपस्थिति सुनिश्चित हो।’

समिति ने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के डॉक्टरों और छात्रों को विदेश में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु भेजने के लिए प्रभावी तंत्र स्थापित किया जाए ताकि सभी सुपर-स्पेशियलिटी क्षेत्रों में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व स्पष्ट रूप से देखा जा सके। समूह ग के पदों को नियमित रूप से भरे जाने के बदले संविदा पर रखे जाने को गरीबों को रोजी-रोटी से वंचित करने के समान बताते हुए समिति ने कहा कि सफाईकर्मी, चालक, डाटा ऑपरेटर आदि जैसे गैर-मुख्य क्षेत्रों में भी संविदात्मक नियुक्ति नहीं की जानी चाहिए। संविदा नियुक्ति की नीति इन ठेकेदारों के माध्यम से दलित वर्गों के शोषण की गुंजाइश पैदा करती है। इसलिए, समिति सिफारिश करती है कि सरकार किसी भी वर्ग के वंचितों के इस तरह के शोषण को रोकने के लिए एक तंत्र विकसित करे। साथ ही इस संबंध में उठाए गए सुधारात्मक कदमों की जानकारी समिति को दी जाए।

समिति ने कहा कि विभिन्न एम्स में एमबीबीएस और अन्य स्नातक-स्तर तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दाखिले का समग्र प्रतिशत अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत के अपेक्षित स्तर से बहुत कम है। ‘इसलिए, समिति पुरजोर सिफारिश करती है कि एम्स को सभी पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण के निर्धारित प्रतिशत को सख्ती से बनाए रखना चाहिए। समिति इस तथ्य पर न्याय संगत रूप से फिर जोर देती है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए और अधिक अवसर सुनिश्चित करने समिति की ओर से कुछ सुझाव दिए ताकि छात्र-छात्राओं के साथ जाति के आधार पर भेदभाव न हो सके। पैनल में अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है कि एम्स के छात्रों को एक कोड नंबर का उपयोग करके अपनी परीक्षा देने के लिए कहा जाए, न कि उनके नाम को पूछा जाए।

परीक्षा के डीन को एक दलित या आदिवासी छात्र के फेल होने की हर घटना को स्कैन करना होगा। साथ ही एक निर्धारित समय के भीतर आवश्यक कार्रवाई के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशक को एक व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।

फिलहाल ये पहली बार नहीं जब ऐसी चीज़ें सामने आई हैं, इससे पहले भी मेडिकल कॉलेजों में जाति के आधार पर भेदभाव जैसी घटनाएं सामने आती रही हैं, जिसके कारण छात्रों द्वारा आत्महत्या किए जाने तक की नौबत आ चुकी है। हालांकि बड़े-बड़े संस्थानों और एमबीबीएस जैसी पढ़ाई में अगर नाम पूछकर प्रवेश या पास फेल किया जाएगा तो ये बड़ी समस्या है।

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