Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

दिल्ली दंगे: गिरफ़्तारी से लेकर जांच तक दिल्ली पुलिस लगातार कठघरे में

यह कोई पहली बार नहीं है जब पुलिस की जांच पर सवाल उठ रहे हैं। इससे पहले भी कोर्ट ने दिल्ली पुलिस की जांच पर कई गंभीर सवाल उठाए हैं।
दिल्ली दंगे: गिरफ़्तारी से लेकर जांच तक दिल्ली पुलिस लगातार कठघरे में

दिल्ली दंगे में शुक्रवार को हाईकोर्ट ने पांच आरोपियों को ज़मानत दे दी और कई तल्ख़ टिप्पणियां भी की है। इससे पहले गुरुवार को भी दिल्ली के एक कोर्ट ने दिल्ली पुलिस की जांच को पैसे की बर्बादी तक कह दिया था। दंगे की शुरुआत से दिल्ली पुलिस पर सवाल उठ रहे थे अब कोर्ट भी उन सवालों को जायज ठहरा रहा है। पुलिस दंगे के डेढ़ साल बाद भी अपनी जांच से किसी दोषी को ढूंढकर सज़ा नहीं दिला पाई है। जबकि कई छात्र, नौजवान और सामजिक कार्यकर्ताओं को बिना सुबूत दंगे के आरोप में जेल में बंद कर रखा है।

कोर्ट ने हेड कांस्टेबल रतन लाल के मामले में पांच आरोपियों को दी ज़मानत

हाईकोर्ट ने दिल्ली दंगों से संबंधित (एफआईआर 60/2020 पीएस दयालपुर) के मामले में आरोपी मोहम्मद आरिफ सहित पांच को जमानत दे दी। इस मामले में एक हेड कांस्टेबल की गोली लगने से मौत हो गई थी, जबकि पुलिस उपायुक्त, सहायक पुलिस आयुक्त सहित 50 पुलिसकर्मी घायल हुए थे।

अदालत ने कहा कि अस्पष्ट साक्ष्य और सामान्य आरोप गैरकानूनी रूप से एकत्रित होने व हत्या पर लागू करने के लिए पर्याप्त नहीं है। न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने अपने फैसले में आरिफ के अलावा शाहबाद अहमद, फुरकान, सुवलीन और तबस्सुम को जमानत प्रदान की है।

कोर्ट ने सभी आरोपियों की जमानत 35-35 हजार के निजी मुचलके व एक-एक अन्य जमानत राशि पर स्वीकार की है। अदालत ने उन्हें बिना इजाजत दिल्ली से बाहर न जाने, सप्ताह में एक दिन थाने में हाजिरी लगाने, अपना मोबाइल नंबर जांच अधिकारी को देने का भी निर्देश दिया है।

कोर्ट ने ने पिछले महीने अपने आदेश को सुरक्षित रखा था, उसे गुरुवार को पारित किया। अदालत ने अभियोजन पक्ष की ओर से पेश एडिशनल सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू और विशेष लोक अभियोजक अमित प्रसाद के साथ आरोपियों की ओर से पेश हुए कई वकीलों को विस्तार से सुना।

अदालत ने दिल्ली पुलिस के आरोपियों को जमानत न देने के तर्क पर असमति जताते हुए कहा कि याचिकाकर्ता को 11 मार्च 2020 को गिरफ्तार किया गया था और तब से वह न्यायिक हिरासत में हैं।

लाइव लॉ के रिपोर्ट के मुताबिक अदालत ने यह भी पूछा कि क्या जमानत देते समय, वीडियो साक्ष्य के अभाव में और 15 महीने से अधिक समय तक हिरासत में रहने के बावजूद, क्या आरोपी व्यक्तियों को निरंतर हिरासत में रखा जाना चाहिए। एएसजी एसवी राजू ने जवाब दिया कि अभियोजन पक्ष के मामले को साबित करने में मूल वीडियो नहीं है, बल्कि केवल चश्मदीदों के बयानों की पुष्टि करने के लिए है।

ये केस यानी एफआईआर 60/2020 एक कांस्टेबल के बयान पर दर्ज किया गया था, जिसमें कहा गया था कि पिछले साल 24 फरवरी को वह चांद बाग इलाके में अन्य स्टाफ सदस्यों के साथ ड्यूटी पर था। बताया गया कि दोपहर एक बजे के करीब प्रदर्शनकारी डंडा, लाठी, बेसबॉल बैट, लोहे की छड़ और पत्थरों को लेकर वजीराबाद रोड पर जमा होने लगे। वरिष्ठ अधिकारियों के निर्देशों पर ध्यान नहीं दिया और भीड़ हिंसक हो गई। इसी हिंसा में एक डीएसपी घायल हो गए और एक पुलिस कर्मी की मौत हो गई थी।

हिंदी अखबार अमर उजाला के मुताबिक़ सरकारी वकील ने कोर्ट से कहा कि दंगे पूर्व नियोजित थे और घटना से पहले ही इसकी तैयारी की गई थी। इन दंगों में हेड कांस्टेबल रतन लाल की मौत हो गई। आरोपियों पर गंभीर आरोप है। वहीं बचाव पक्ष ने तर्क रखा कि उनके मुवक्किलों को फर्जी मामले में फंसाया गया है और ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि उनके मुवक्किलों का अपराध साबित हो।

इसके अलावा मामले में आरोप पत्र दायर है और ट्रायल में देरी होगी। आरिफ के वकील ने कहा कि उनका मुवक्किल उसी इलाके में रहता है और पुलिस ने उसे मोबाइल लोकेशन के आधार पर आरोपी बनाया है। वहीं उसे एक अन्य मामले में ट्रायल कोर्ट से जमानत मिल चुकी है।

यह कोई पहली बार नहीं है जब पुलिस की जांच पर सवाल उठ रहे हो। इससे पहले भी कोर्ट ने दिल्ली पुलिस की जांच पर कई गंभीर सवाल उठाए है।

उच्च न्यायालय ने एक ही घटना के लिए दर्ज चार प्राथमिकी रद्द की

दिल्ली उच्च न्यायालय ने गुरुवार को पिछले साल उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों के दौरान लूटपाट और परिसर में आग लगाने के आरोप में दर्ज चार प्राथमिकी रद्द कर दी हैं और कहा है कि एक ही संज्ञेय अपराध के लिए पुलिस पांच प्राथमिकी दर्ज नहीं कर सकती है।

उच्च न्यायालय ने कहा कि एक ही संज्ञेय अपराध के लिए दूसरी प्राथमिकी और नयी जांच नहीं हो सकती है। अदालत ने कहा कि एक ही घटना के लिए पांच अलग-अलग प्राथमिकी दर्ज नहीं की जा सकती है क्योंकि यह शीर्ष अदालत द्वारा प्रतिपादित कानून के विपरीत है।

उच्च न्यायालय ने एक प्राथमिकी को बरकरार रखते हुए पिछले साल मार्च महीने में जाफराबाद पुलिस थाना में उन्हीं आरोपियों के खिलाफ दर्ज चार अन्य प्राथमिकी को रद्द कर दिया।

न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने कहा, ‘‘यह नहीं कहा जा सकता कि घटनाएं अलग थीं या अपराध अलग थे। जैसा कि पहले कहा गया है, संबंधित प्राथमिकी में दायर आरोपपत्रों के अवलोकन से पता चलता है कि वे कमोबेश एक जैसे हैं और आरोपी भी वही हैं। हालांकि, अगर आरोपी के खिलाफ कोई सामग्री मिलती है तो उसे प्राथमिकी में दर्ज किया जा सकता है।’’

अदालत ने मामले में आरोपी अतीर की चार याचिकाओं पर यह व्यवस्था दी। दिल्ली पुलिस द्वारा एक ही परिवार के विभिन्न सदस्यों की शिकायतों पर दर्ज पांच प्राथमिकी में आरोपी को अभियोजन का सामना करना पड़ रहा था। आरोप है कि जब पीड़ित 24 फरवरी की शाम को मौजपुर इलाके में अपने घर पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि उनका घर आग के हवाले कर दिया गया है जिससे 7-10 लाख रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ।

अतीर की ओर से अधिवक्ता तारा नरूला ने दलील दी कि सभी प्राथमिकी एक ही आवासीय इकाई से संबंधित हैं, जिसे परिवार के विभिन्न सदस्यों द्वारा दायर की गई हैं और यहां तक कि दमकल की एक ही गाड़ी आग बुझाने आयी थी।

उन्होंने दलील दी कि यह प्रकरण उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के दायरे में है कि एक अपराध के लिए एक से ज्यादा प्राथमिकी दर्ज नहीं की जा सकती है। दिल्ली पुलिस ने दावा किया कि संपत्ति अलग थी और नुकसान को निवासियों द्वारा व्यक्तिगत रूप से झेला गया है और प्रत्येक प्राथमिकी का विषय दूसरों से अलग है। अदालत ने कहा कि सभी पांच प्राथमिकी की सामग्री एक समान हैं और कमोबेश एक जैसे ही हैं और एक ही घटना से संबंधित हैं।

कोर्ट ने दंगों के मामलों की जांच पर दिल्ली पुलिस को लगाई फटकार

दिल्ली की एक कोर्ट ने दिल्ली दंगों में निष्पक्ष जांच के मुद्दे पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए गुरुवार को आम आदमी पार्टी (आप) के पूर्व पार्षद ताहिर हुसैन के भाई शाह आलम, राशिद सैफी और शादाब सहित तीन आरोपियों को बरी कर दिया। इस दौरान कोर्ट ने पुलिस को लेकर सख़्त टिप्‍प‌ण‌ियां भी की।

इन तीन लोगों पर दंगे, आगजनी, और विभिन्न अपराधों में मामले दर्ज थे। जिनमे उन्हें जमानत दे दी गई।

इनपर धारा 147, 148, 149, 427, 380, 454, 436, 435 और 120-बी आईपीसी के तहत दो शिकायतों के आधार पर प्राथमिकी दर्ज की गई थी। शिकायतों में आरोप लगाया गया था कि चांद बाग इलाके में दिल्ली दंगों के दौरान एक दुकान को जला दिया गया, हमला किया गया और लूट लिया गया।

लाइव लॉ के रिपोर्ट मुताबिक़ दिल्ली की कोर्ट ने दंगों में हुई हिंसा की 'घटिया', 'कठोर' और 'उदासीन' जांच के लिए दिल्ली पुलिस को कड़ी फटकार लगाई।

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने कहा , 'जब इतिहास दिल्ली में विभाजन के बाद के सबसे भीषण सांप्रदायिक दंगों को देखेगा, तो नवीनतम वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करके उचित जांच करने में जांच एजेंसी की विफलता निश्चित रूप से लोकतंत्र के प्रहरी को पीड़ा देगी।'

मामले के तथ्यों को देखते हुए, अदालत ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि आरोप‌ियों का न तो प्राथमिकी में विशेष रूप से नाम था और न ही मामले में उन्हें कोई विशिष्ट भूमिका सौंपी गई थी। अदालत ने यह भी कहा कि घटना का कोई सीसीटीवी फुटेज नहीं था, जिससे अपराध स्थल पर आरोपी की मौजूदगी की पुष्टि की जा सके और कथित आपराधिक साजिश के संबंध में कोई स्वतंत्र चश्मदीद या सबूत पेश नहीं किया गया।

इस पृष्ठभूमि में अदालत द्वारा की गई कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है, जो यह संकेत देती हैं कि दिल्ली पुलिस द्वारा अदालत को धोखा देने का प्रयास किया गया था।

कोर्ट ऐसे मामलों को न्यायिक प्रणाली के गलियारों में बिना सोचे-समझे इधर-उधर भटकने की अनुमति नहीं दे सकता है, यह इस न्यायालय के कीमती न्यायिक समय को नष्ट कर देता है जब यह बिलकुल साफ मामला होता है ।

कोर्ट ने कहा दिल्ली दंगों के मामले में बड़ी संख्या में ऐसे आरोपी व्यक्ति हैं, जो पिछले डेढ़ साल से जेल में केवल इस कारण से बंद हैं कि उनके मामलों में मुकदमा शुरू नहीं किया जा रहा है। पुलिस अभी भी पूरक चार्जशीट दाखिल करने में व्यस्त नजर आ रही है। इस न्यायालय का कीमती न्यायिक समय उन मामलों में तारीखें देकर बर्बाद किया जा रहा है।

कोर्ट ने यह कहा कि देखा गया है कि अदालत में आधा-अधूरा आरोप पत्र दाखिल करने के बाद, पुलिस शायद ही जांच को तार्किक अंत तक ले जाने की परवाह करती है।

इसके साथ कोर्ट ने पुलिसिया जांच पर भी सवाल उठाए और कह शिकायत की उचित मात्रा में संवेदनशीलता और कुशलता के साथ जांच की जानी थी, लेकिन इस जांच में वह गायब है। मामले में कोई वास्तविक/प्रभावी जांच नहीं की गई है और केवल कांस्टेबल का बयान दर्ज करके, वह भी एक विलंबित चरण में, विशेष रूप से जब आरोपी व्यक्ति पहले से ही गिरफ्तार थे, जांच एजेंसी ने मामले को केवल 'हल के रूप में दिखाने की कोशिश की है।'

इन टिप्पणियों के अलावा, न्यायालय ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि दिल्ली दंगों मे लगभग 750 मामले दर्ज किए गए थे, और अदालत को लगभग 150 मामले सुनवाई के लिए प्राप्त हुए हैं और केवल 35 मामलों में अब तक आरोप लगे हैं।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest