दोमार सिंह कुंवर: एक कलाकार जिसने बाल विवाह के ख़िलाफ़ जगाई अलख, पद्मश्री से सम्मानित
बुधवार, 5 अप्रैल को राष्ट्रपति भवन में आयोजित कार्यक्रम के दौरान पद्म पुरस्कार पाने वाले लोगों को सम्मानित किया गया। पद्म पुरस्कार देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक है जो अलग-अलग क्षेत्र में कुछ ख़ास करने वालों को दिया जाता है। पुरस्कार पाने वालों में बहुत से लोगों की चर्चा होती है, लेकिन बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने अवॉर्ड के साथ वापस लौट जाते हैं और एक बार फिर से अपने काम में लग जाते हैं। ऐसे ही एक शख़्स हैं दोमार सिंह कुंवर।
कपड़े की एक पतली पट्टी जिसपर कौड़ियां टांकी गई थी और उसमें हरे और गुलाबी रंग के कुछ फूल लगे थे, इसे माथे पर बांधे दोमार सिंह कुंवर को देखकर साफ़ पता चल रहा था कि वे किसी पारंपरिक लिबास में राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू से पद्मश्री पुरस्कार लेने पहुंचे थे। जब हमने उनसे इस वेषभूषा के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि, "नाचा कार्यक्रम में एक नट होता है, इस नट का काम कार्यक्रम का संचालन करना होता है, वो दर्शकों और कलाकारों के बीच एक कड़ी होता है और हम उसी नट की तरह तैयार होकर आए थे।"
उनकी बात ऐसी लग रही थी मानो देश के इतने बड़े सम्मान को लेने पहुंचे वो, लोककला और देश के उन तमाम लोगों के बीच एक संवाद कायम कर रहे थे जो इस कला (नाचा) के बारे में नहीं जानते।
किस क्षेत्र में मिला है दोमार सिंह कुंवर को पद्मश्री पुरस्कार?
दोमार सिंह कुंवर को कला के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री मिला है। 76 साल के दोमार सिंह 'नाट्य नाचा' लोक कला से जुड़े हैं, उन्होंने अपना पूरा जीवन इस कला को समर्पित कर दिया, उन्होंने अपनी इस कला से लोगों में जागरुकता फैलाने की कोशिश की, ख़ासकर बाल विवाह और साक्षरता को लेकर।
President Droupadi Murmu presents Padma Shri to Shri Domar Singh Kunvar for Art. A Natya Nacha folk dance artist, Shri Kunvar has dedicated his life in preserving this art tradition. He has spread awareness about eradicating superstition and social evils like child marriage. pic.twitter.com/mPQtYC5UqT
— President of India (@rashtrapatibhvn) April 5, 2023
कौन हैं दोमार सिंह कुंवर?
दोमार सिंह कुंवर छत्तीसगढ़ के बालोद ज़िले से क़रीब आठ किलोमीटर दूर लाटाबोड़ गांव में रहते हैं। वे बताते हैं कि वे जिस लोक कला के माध्यम से लोगों में जागरुकता फैलाते हैं, उसका नाम 'नाचा' है। क़रीब 11 साल की उम्र से इस कला के साथ जुड़े दोमार सिंह बताते हैं कि अबतक वे 10 हज़ार से ज़्यादा नाचा की प्रस्तुति कर चुके हैं। वे बताते हैं कि सात भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे और एक बार पिता को नाचा करता देख ऐसा प्रभावित हुए कि इस कला से जुड़ गए, तब से लेकर आज तक वे इस कला के माध्यम से लोगों में जागरुकता फैला रहे हैं।
क्या है नाचा लोक कला ?
दोमार सिंह कुंवर बताते हैं कि, "ये एक ऐसी कला है जिसमें 80 प्रतिशत मनोरंजन होता है जबकि 20 प्रतिशत इसमें एक संदेश छुपा होता है। एक नाचा ग्रुप में क़रीब 15 से 16 लोग होते हैं, जिनमें साज़िंदे होते हैं , पांच से छह लोग डांस ग्रुप के होते हैं। साज़ में शहनाई, तलबा, ढोलक मुख्य वाद्ययंत्र होते हैं।"
दोमार सिंह आगे कहते हैं, "पहले डांस दिखाया जाता है, बीच-बीच में हंसी मज़ाक होता है और ये किसी एक विषय पर होता है जिसे नाटक के माध्यम से दिखाया जाता है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ेगी बीच-बीच में हंसी का पुट रहेगा। इसमें कई तरह से रस होते हैं, जैसे करुणा, प्रेम, साथ ही इसमें अध्यात्म, सामाजिक, पौराणिक और राष्ट्रीयता से जुड़ी बातें भी होती हैं, ये पूरी रात चलता है, रही बात नाचा की भाषा की तो ये छत्तीसगढ़ी में, हिंदी और इंग्लिश के कुछ शब्दों को मिलाकर पेश किया जाता है। नाचा ग्रुप के तो नाम होते ही हैं, साथ ही जिन नाचा को पेश किया जाता है उनके भी नाम होते हैं जैसे - कन्या विवाह, छत्तीसगढ़ महतारी क़सम, किरिया आदि।"
दोमार सिंह कुंवर नाचा प्रस्तुत करते हुए पुरानी तस्वीर
हमने दोमार सिंह कुंवर से पूछा कि बाल विवाह के बारे में आपने कितने नाचा प्रस्तुत किए होंगे?
उनका जवाब: बाल विवाह के बारे में लोगों को जागरुक करने के लिए हमने क़रीब पांच हज़ार नाचा प्रस्तुत किए होंगे। दरअसल, पहले हम देखते थे कि गांव में दादा-दादी ख्वाहिश करते थे कि वे बच्चों की शादी देखना चाहते हैं। उनकी ऐसी ज़िद की वजह से लोग बच्चों की बचपन में शादी कर दिया करते थे लेकिन जब लड़का-लड़की समझदार होते थे तो कई बार लड़की को लड़का पसंद नहीं आता था और लड़के को लड़की, ऐसे में गौना (शादी के बाद लड़की की विदाई की रस्म) को ख़त्म करवाने में हमने बहुत मेहनत की। हमने लोगों को समझाया कि बचपन में लड़की की शादी बहुत सी तकलीफों का कारण बन जाती है। छोटी बच्चियां कच्चे घड़े के समान होती हैं, अगर उसमें पानी भरा जाएगा तो वे टूट जाएंगी। हम बाल विवाह की समस्या के अंजाम (कम उम्र में बच्चियों की मौत) को अपने नाचा के ज़रिए दिखाते थे जिसे देखकर लोग जागरुक होने लगे, लोगों ने तय किया कि वे बाल विवाह नहीं करेंगे। लेकिन हमने उन्हें समझाया कि नाचा देखकर जागरुक हुए लोगों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वे न सिर्फ़ अपने बच्चों को बाल विवाह जैसी कुरीति से दूर रखेंगे बल्कि अपने आस-पास बाल विवाह होता देख कोतवाल या फिर सरपंच के पास जाकर इसकी शिकायत करेंगे और बाल विवाह को रुकवाने की भी कोशिश करेंगे। हम 'कन्या विवाह' नाम से नाचा करते हैं जिसमें बाल विवाह की बुराइयों के बारे में लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं।
दोमार सिंह कुंवर के द्वारा महिलाओं से जुड़े मुद्दों को नाचा के माध्यम पेश करने की पुरानी तस्वीरें
"बड़ी तपस्या के बाद मैं यहां तक पहुंचा हूं"
पद्मश्री मिलने पर बेहद ख़ुश दोमार सिंह कुंवर कहते हैं, "बड़ी तपस्या के बाद मैं यहां तक पहुंचा हूं, दिल्ली आना और यहां इतने ख़ास लोगों से मिलना मेरे लिए बहुत ही स्वर्णिम अनुभव रहा।", हालांकि वे बताते हैं कि उन्हें इस कला को आगे बढ़ाने में आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, वे 1990 के उस दिन को याद करते हैं जब वे उस वक़्त दुर्ग के कलेक्टर रहे विवेक ढांड के बंगले के क़रीब नाचा प्रस्तुत कर रहे थे, दोमार सिंह कहते हैं कि, "कलेक्टर साहब ने नाचा की आवाज़ सुनकर अपने ड्राइवर को पता लगाने के लिए भेजा और जब उसने नाचा के बारे में बताया तो वे ख़ुद चले आए, उस वक़्त हम 'छत्तीसगढ महतारी क़सम' में डाकू सुल्ताना का रोल कर रहे थे। उस नाचा को देखकर वे इतना प्रभावित हुए कि हमें पांच सौ रुपया ईनाम स्वरूप दिए और अगली सुबह अपने घर बुलाया। हम सुबह पहुंचे तो उन्होंने हमसे कहा कि वे हमारी कला का इस्तेमाल लोगों को जागरूक करने के लिए करना चाहते हैं। दुर्ग ज़िला के मानक भवन में पूरे छत्तीसगढ़ से लोक कलाकारों को बुलाकर हमने कई तरह के समाज से जुड़े मुद्दों जैसे बाल विवाह, स्वास्थ्य संबंधी और साक्षरता पर नाचा लिखे, हमारा काम रंग लाया और लोगों पर इसका बहुत असर भी दिखा। बात आगे बढ़ी, हमने भोपाल, इंदौर समेत और भी ज़िलों में नाचा के ज़रिए जागरुकता फैलाई।"
वे आगे कहते हैं, "मैं भिलाई स्टील प्लांट में काम करता था। एक वक़्त वो भी था जब हम अपनी तनख्वाह से नाचा करते थे। मेरी पहचान बनी तो उसका ये फायदा हुआ कि मैं जहां जाता तो लाइट और रहने-खाने का इंतज़ाम हो जाता था लेकिन हमारे दूसरे जत्थे वालों को परेशानी उठानी पड़ती थी। फिर हमने व्यवस्था करवाई, ऐसे ऑर्डर निकलवाए कि जहां भी नाचा के जत्थे जाएंगे सरपंच उनकी मदद करेंगे, ताकि नाचा करने वालों के लिए लाइट का प्रबंध हो सके, रहने, खाने-पीने के साथ ही इश्तेहार का भी इंतजाम हो जाए। हम जहां भी जाते हैं ढफली पर आह्वन गीत गा कर लोगों को नाचा के बारे में बताते हैं ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग नाचा देखने पहुंचे और समाज में फैली बुराइयों के बारे में जान सकें।"
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"नाचा को आगे बढ़ाने की मुहिम में लगा रहूंगा"
नाचा लोक कलाकार दोमार सिंह कुंवर कहते हैं, "पद्मश्री मिलने का फायदा इस कला को ज़रूर होगा, लोग इस कला के बारे में जानेंगे और इसे बढ़ने में मदद मिलेगी।" वे आगे कहते हैं, "मेरी जानकारी में ये कला सदियों पुरानी है, मैं इसे आगे बढ़ाने के लिए छोटे बच्चों के स्कूल जाता हूं, बाल शिविर लगाता हूं, साथ ही मैंने चार सौ ग्रुप का संकलन किया है। ये कला आगे बढ़ेगी तो समाज को भी फायदा होगा।"
दोमार सिंह कुंवर के द्वारा बच्चों के लिए लगाए गए नाचा के बाल शिविर की पुरानी तस्वीर
दोमार सिंह कुंवर अपने घर लौट रहे थे। वे रास्ते में ही थे बता रहे थे कि वापस लौटने पर घर पर भव्य स्वागत का आयोजन किया गया है। 11 साल की उम्र से इस कला से जुड़े दोमार सिंह कुंवर जी अब 76 साल के हो चुके हैं, ज़िंदगी के इस पड़ाव पर आकर उनकी तपस्या का फल उन्हें मिल चुका है लेकिन उनकी आवाज़ में नाचा के बारे में बात करते हुए जो खनक, जो उत्साह महसूस हो रहा था, वो आज भी उस 11 साल के लड़के जैसा ही था जो पहली बार नाचा की प्रस्तुति के लिए मंच पर पहुंचा होगा।
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