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ईआईए अधिसूचना का मसौदा किस प्रकार से आदिवासियों और वनवासी समुदायों के अधिकारों से समझौता करना है

मसौदा अधिसूचना से लगता है कि सार्वजनिक तौर पर परामर्श की अवधारणा को ही खत्म करने की मंशा है, जोकि अधिसंख्य परियोजनाओं के सन्दर्भ में उनके पर्यावरण प्रभाव के आकलन की प्रक्रिया के मूल में अब तक रही है।
ईआईए अधिसूचना का मसौदा किस प्रकार से आदिवासियों और वनवासी समुदायों के अधिकारों से समझौता करना है
छवि मात्र प्रतिनिधित्व हेतु। | चित्र सौजन्य: स्क्रॉल.इन

नई दिल्ली: जहां एक ओर पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2020 के मसौदा दस्तावेज की आलोचना व्यापार को आसान बनाने के लिए पर्यावरणीय मानदंडों को खत्म करने की कोशिशों की खातिर की जा रही है, वहीं इन नए प्रावधानों के चलते समाज के कुछ तबकों को इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। और वे तबके हैं जंगली इलाकों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी समुदाय के लोग।

नई अधिसूचना के लागू होने के बाद से इन परियोजनाओं को नियमित करने की मांग को तय मन जा रहा है, जो कि संसद के विधान और अधिनियमों के तहत अब तक गारंटी के तौर पर देशज आबादी को हासिल था, उनमें से अधिकांश अधिकारों के अतिक्रमण को अवश्यंभावी बनाकर रख देगा।

इस मसौदा अधिसूचना के जरिये सार्वजनिक परामर्श की अवधारणा को मिटाने की कोशिश की जा रही है, जबकि यही चीज बहुतायत में जारी परियोजनाओं के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया के मूल में है। इन परियोजनाओं में वे भी शामिल हैं, जिन्हें बी2 श्रेणी के तहत सूचीबद्ध किया गया है, वहीं खंड 26 के तहत 40 अलग-अलग उद्योगों को सूचीबद्ध किया गया है।

इसके साथ ही इंडस्ट्रियल एस्टेट के तहत अधिसूचित कारखाने, रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित प्रोजेक्ट्स, एलिवेटेड रोड के निर्माण का काम, भवन निर्माण, और कई अन्य परियाजनाओं सहित सिंचाई परियोजनाओं के आधुनिकीकरण का काम शामिल है।

वहीं विभिन्न कार्यकर्ताओं की मानें तो वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 और पीईएसए अधिनियम, 1996 के तहत जो अधिकार अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को प्राप्त हैं, ये सभी अधिकार पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार) अधिनियम, 1996 का ही एक संक्षिप्त विवरण है। लेकिन यदि कुछ परियोजनाओं को लेकर सार्वजनिक सुनवाई से छूट दे दी जाती है तो इसे अधिनियम के साथ समझौते के तौर पर देखे जाने की जरूरत है।

भुवनेश्वर में रहने वाले स्वतंत्र शोधार्थी तुषार दास के अनुसार, यदि इसमें जन सुनवाई से छूट दे दी जाती है तो यह जंगलों पर निर्भर वनवासियों के वनों के संरक्षण, प्रबंधन और सुरक्षा, लघु वनोपज पर उनके अब तक के अधिकार और जैव विविधता तक उनकी पहुँच पर विपरीत प्रभाव डालने वाला साबित होने जा रहा है, जिसकी गारंटी वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत मुहैय्या कराई गई है। इससे ग्राम सभा के भी अधिनियम की धारा 5 के तहत प्राप्त शक्तियों के पूर्ण उपभोग की ताकत भी प्रभावित होने जा रही है। ओडिशा के नियामगिरि खनन मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद गैर-जंगलात के उद्देश्यों हेतु जंगल की जमीन को इस्तेमाल में लाने के लिए ग्राम सभाओं की सहमति हासिल करना कानूनन अनिवार्य है।

वन अधिकार अधिनियम, 2006 की धारा 5, ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन संसाधनों को नियंत्रित करने की शक्ति प्रदान करती है, जिससे कि जंगली जानवरों, वनों और जैव विविधता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने वाली किसी भी गतिविधि को रोका जा सके।

नियमगिरि खदान मामले में ग्राम सभाओं की सहमति को एक वैधानिक अधिकार के तौर पर स्थापित कर दिया गया था। अपने अप्रैल 2013 के आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने ओडिशा खनन निगम को निर्देश दिए थे कि वह इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार के बॉक्साइट खनन से पहले 12 ग्राम सभाओं से इस बारे में ‘सहमति’ पत्र हासिल करे- इसमें से सात गाँव रायगडा जिले और पाँच कालाहांडी जिले में पड़ते थे। इससे पूर्व वर्ष 2009 के दौरान केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (एमओईएफ) ने, जिसे कांग्रेस के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दौरान इस नाम से जाना जाता था, ने एक अधिसूचना जारी की थी। इस अधिसूचना के तहत सभी परियोजनाओं के लिए गैर-वन गतिविधियों को शुरू करने से पहले ग्राम सभाओं से पूर्व सहमति हासिल करने को अनिवार्य कर दिया गया था।

मसौदा अधिसूचना के प्रभाव में आते ही यह भारतीय संविधान की अनुसूची 5 एवं 6 के अंतर्गत आने वाली ग्राम सभाओं के गारंटीशुदा अधिकारों के उल्लंघन को संभाव्य बना देता है। देशज आबादी के अधिकारों की रक्षा के लिए देश के कुछ क्षेत्रों को अनुसूची 5 एवं 6 के तहत सूचीबद्ध किया गया है। इसके तहत वे समुदाय जो अनुसूचित जनजाति के तहत आते हैं, उनके पास इस क्षेत्र की भूमि, जंगल और प्राकृतिक संसाधनों के संचालन और नियन्त्रण की स्वायत्तता प्रदान की गई है। इन दो अनुसूचियों के तहत सूचीबद्ध क्षेत्रों में रह रही आबादी को प्रदत्त अधिकारों की गारंटी मुहैय्या कराने के लिए संसद में 1996 में पीईएसए अधिनियम बनाया गया था।

दास आगे कहते हैं “इस मसौदा अधिसूचना के तहत पर्यावरणीय सहमति को हासिल करने के लिए मानक संचालन प्रक्रिया को इसमें विस्तारित कर दिया गया है, जिसे किसी भी प्रोजेक्ट के लिए देश भर में लागू किया जा सकता है, वो चाहे किसी भी प्रशासनिक अथवा भौगौलिक स्थान पर स्थित हो। इसके चलते ग्राम सभाओं को संविधान की पाँचवी और छठी अनुसूची के तहत मुहैय्या कराये गए प्रावधानों के साथ-साथ पीईएसए के तहत पदत्त अधिकारों और विशेष अधिकारों का उल्लंघन अब अवश्यंभावी बन चुका है। पीईएसए अधिनियम के तहत ग्राम सभा को यह शक्ति हासिल है कि वह भूमि के अलगाव को रोकने और योजनाओं और प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दे सकती है। इसके तहत किसी भी विकास सम्बन्धी प्रोजेक्ट के लिए भूमि अधिग्रहण करने और परियोजना से प्रभावित लोगों के पुनर्वासन से पहले भी इस सम्बंध में ग्राम सभा के साथ विचार विमर्श करना अनिवार्य है।

11 अगस्त की अर्धरात्रि तक इस सिलसिले में आपत्ति और सिफारिश भेजने की समय-सीमा के भीतर केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) को इस मसौदा अधिसूचना के सिलसिले में 17 लाख से अधिक आपत्तियां और सुझाव प्राप्त हो चुके थे। इन आपत्तियों में से भारी संख्या में कथित तौर पर आपत्ति इस तथ्य के प्रति मिलने की सूचना प्राप्त हुई है कि इस अधिसूचना के प्रभाव में आने के बाद देशज आबादी के विभिन्न तबकों को उनके अधिकारों से महरूम कर दिया जाने वाला है।

“मसौदा अधिसूचना स्पष्ट तौर पर विकास के सामाजिक पहलूओं पर चूकने वाला साबित हो रहा है, और इसलिए कह सकते हैं कि यह अपनी शुरुआत से ही त्रुटिपूर्ण नजर आ रहा है। जिन इलाकों में बहुतायत में आदिवासी जनसंख्या निवास कर रही है, वहाँ पर किसी परियोजना के लिए मंजूरी हासिल करने के लिए संसद के उपयोगी अधिनियमों का उपयोग पर्यावरणीय मंजूरी से अलग, सामाजिक लाइसेंस हासिल करने के लिए सामंजस्य स्थापित करने के तौर पर इस्तेमाल में लाने की आवश्यकता है। कार्योत्तर क्लीयरेंस की अवधारणा एहतियाती सिद्धांत की भावना से ही बुनियादी तौर पर विरुद्ध जाना साबित करती है। यह अधिसूचना देश की देशज आबादी के लिए कयामत साबित हो सकती है। देशज आबादी के प्रति सरकार कितनी चिंतित है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस अधिसूचना को सभी 22 क्षेत्रीय भाषाओं में कभी भी प्रकाशित ही नहीं किया गया ”

यह कहना है रेब्बाप्रगदा रवि का, जोकि एमएम एंड पी (माइंस, मिनरल्स एंड पीपल) के चेयरपर्सन के तौर पर हैं। यह संस्था व्यक्तियों, संस्थानों और समुदायों के एक गठबंधन के तौर पर काम करती है जो खनन से प्रभावित एवं चिंतित हैं।

11 अगस्त के दिन अर्थात मसौदा अधिसूचना पर अपनी आपत्ति और सिफारिशों के पंजीकरण करा सकने के अंतिम दिन, दिल्ली उच्च न्यायालय ने पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत तोंगड़ द्वारा दायर की गई याचिका पर जवाब देने के लिए MoEF & CC को नोटिस जारी किया है। इसमें मसौदा अधिसूचना को संविधान की आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध सभी 22 भाषाओं में प्रकाशित नहीं करने को लेकर मंत्रालय के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही की मांग की गई है। इस सम्बन्ध में 30 जून को उच्च न्यायालय की ओर से देश के सभी हिस्सों में इसके प्रचार को सुनिश्चित करने के लिए मंत्रालय को 22 क्षेत्रीय भाषाओं में दस्तावेज़ प्रकाशित करने के निर्देश जारी किए गये थे।

न्यूज़क्लिक से अपनी बातचीत में तोंगड़ का कहना था कि “अधिसूचना के मसौदे से अनुसूचित जनजाति से सम्बद्ध लोगों के साथ-साथ देश की अधिकांश आबादी पर इसके व्यापक और दूरगामी प्रभाव का पड़ना अवश्यंभावी है। हमारी मंत्रालय से सिर्फ इतनी ही गुजारिश थी कि वह इसे सभी 22 भाषाओं में प्रकाशित करने के काम को सुनिश्चित कर दे। लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद उसकी ओर से इसका पालन नहीं किया गया।”

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

How Draft EIA Notification Compromises Rights of Tribal and Forest Dwelling Communities

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