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EXCLUSIVE : "खंडित शिवलिंग की नहीं हो सकती पूजा",  ज्ञानवापी मस्जिद में साइंटिफ़िक सर्वे पर उठे नए सवाल

"अभी तक यह जांच ही नहीं हुई है कि विवादित आकृति शिवलिंग है या फव्वारा? सिर्फ कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर किसी आकृति को शिवलिंग मान लेना विधिक और नैतिक रूप से ग़लत होगा। धार्मिक मान्यता के मुताबिक किसी शिवलिंग में छेद नहीं हो सकता है। दुनिया में कोई ऐसा शिवलिंग नहीं है जिसमें छेद हो।"
gyanvapi

उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद में मिली विवादित आकृति की कार्बन डेटिंग कराने के आदेश के बाद नई बहस यह छिड़ गई है जब काशी में किसी खंडित शिवलिंग के पूजा का विधान नहीं है तो हिन्दू समाज इसकी मान्यता कैसे देगा? इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अरविंद कुमार मिश्रा ने 12 मई 2023 को अपने एक आदेश में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) को कथित शिवलिंग के ऊपरी हिस्से का सर्वे करने का निर्देश दिया है। साथ ही यह भी कहा है कि सर्वे करते समय आकृति का दस ग्राम से ज्यादा हिस्सा न लिया जाए।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की एकल पीठ के आदेश पर ज्ञानवापी मस्जिद की देखरेख करने वाली इंजामिया कमेटी को इस पर कड़ी आपत्ति है। मुस्लिम पक्ष का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जहां विवादित आकृति मिली है उस स्थान को सुरक्षित रखा जाए। ऐसे में कार्बन डेटिंग के दौरान आकृति को क्षति हो सकती है और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लघंन हो सकता है।

बनारस की एक कोर्ट के निर्देश पर 16 मई 2022 को  ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे हुआ था, जिसके बाद हिन्दू पक्ष ने दावा किया था कि मस्जिद के वज़ूखाने के बीचो-बीच एक कथित 'शिवलिंग' बरामद हुआ है। जिसके बाद उसे सील करने के आदेश दिए गए थे। बाद में वाराणसी के जिला जज अजय कृष्ण विश्वेश की अदालत ने 14 अक्टूबर 2022 को ज्ञानवापी में मिली विवादित आकृति की कार्बन डेटिंग कराने इनकार करते हुए हिन्दू पक्ष की याचिका को खारिज कर दिया था। जिला एवं सत्र न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने विवादित आकृति वाले स्थान को सुरक्षित रखने का आदेश दिया है। दूसरी बात, पत्थर अथवा धातु की कार्बन डेटिंग के जरिये उम्र का पता लगा पाना कतई संभव नहीं है। कार्बन डेटिंग से ऐसी चीजों की उम्र ज्ञात तभी की जा सकती है, जब उसमें कुछ मात्रा में कार्बनिक पदार्थ उपस्थित हो। कार्बन के अभाव में किसी भी वस्‍तु की कार्बन डेटिंग असंभव है।

ज्ञानवापी मस्जिद में मिली विवादित आकृति को आदि विश्वेश्वर का शिवलिंग बताते हुए बनारस के स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद और चार महिला याचिकाकर्ताओं ने बनारस के ज़िला जज की अदालत में सील किए गए वज़ूखाने की कार्बन डेटिंग करने की मांग की थी। वैज्ञानिक जांच के ज़रिए याचिकाकर्ता यह पता करना चाहते हैं कि कथित शिवलिंग कितना लंबा, कितना चौड़ा और कितना अंदर तक है? उनका कहना है कि इस जांच के बाद ये साफ हो जाएगा कि ये फव्वारा है या शिवलिंग?

हिन्दू पक्ष के वकील विष्णु शंकर जैन कहते हैं,  "मुस्लिम पक्ष ने यह कहा है कि यह एक फव्वारा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में हमारा कहना था कि यह शिवलिंग है। अगर दो पक्ष अलग-अलग बात कह रहे हैं तो उसका पता लगाने का एक ही तरीका है, वो है वैज्ञानिक जांच। इसका कोई मौखिक साक्ष्य नहीं है, ना ही कोई दूसरा तरीका है जिससे यह पता लगाया जा सके की यह शिवलिंग है या फव्वारा। इसलिए हमने साइंटिफिक जांच की मांग की है। वैज्ञानिक जांच से विवादित आकृति की प्रकृति का पता चल सकता है। वाराणसी की जिला अदालत कोर्ट ने 14 अक्टूबर 2022 को हमारी याचिका इस आधार पर खारिज कर दी थी कि साइंटिफिक जांच से शिवलिंग को क्षति पहुंचेगी। हमारा कहना है कि संरचना कितनी पुरानी है, इसे गवाही के आधार पर तय नहीं किया जा सकता। लिहाजा, बिना नुकसान पहुंचाए उसकी आयु निर्धारण किया जाना जरूरी है।"

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20 मार्च 2023 को हुई सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया से पूछा था कि क्या शिवलिंग को नुकसान पहुंचाए बिना कार्बन डेटिंग जांच की जा सकती है?  इस पर एसएसआई ने हाईकोर्ट में 52 पेज की रिपोर्ट पेश की। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की (उत्तराखंड) और खड़गपुर समेत कई संस्थानों के विशेषज्ञों के हवाले से बताया कि अब कई ऐसे तरीके इजाद कर लिए गए हैं जिससे किसी आकृति को नुकसान पहुंचाए बगैर ही उसकी जांच की सकती है। हाईकोर्ट ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की इस रिपोर्ट के आधार पर वाराणसी डिस्ट्रिक कोर्ट का फैसला निरस्त करते हुए विवादित आकृति का साइंटिफिक सर्वे कराने का आदेश दिया है।

परिसर सील, फिर कैसे होगी जांच?

मुस्लिम पक्ष के अधिवक्ता मुमताज़ कहते हैं, "मुस्लिम पक्ष की पहली आपत्ति, इसके मूलवाद को लेकर है। कार्बन डेटिंग का मामला मूल वाद से संबंधित नहीं है। दूसरा, जिसे शिवलिंग बताया जा रहा है, वह वुजूखाना में स्थित एक फव्वारा है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सील किया गया है। हमने सुप्रीम कोर्ट में एक अपील दायर की है जिसमें कहा है कि ज्ञानवापी परिसर का सर्वे कराने वाला वाराणसी सिविल कोर्ट का आदेश स्पष्ट रूप से द प्लेसेज ऑफ वर्शिप (स्पेशल प्रोविजंस) एक्ट 1991 का उल्लंघन है। ऐसे में किसी भी आकृति की, किसी तरह की जांच की जरूरत नहीं है।"

अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी के सेक्रेटरी मोहम्मद यासीन कहते हैं, "विवादित आकृति पत्थर नहीं है। वह चूना और कंकरीट का बना फव्वारा है। उसके बीच में सुराख है। वह आकृति ज्यादा से ज्यादा सौ डेढ़ साल पुरानी है। दरअसल, वो फव्वारे को येन-केन-प्रकारेण शिवलिंग साबित करना चाहते हैं। दरअसल यह वोटबैंक मजबूत करने और बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को बरगलाने का मामला है। अयोध्या के मामले में गौर करेंगे तो पाएंगे कि जुडिसियरी भी कानून से ज्यादा अब आस्था पर फैसला सुनाने लगी है।"

यासीन यह भी कहते हैं, "कार्बन डेटिंग की मांग इसलिए उठाई जा रही है ताकि जनता को भरमाया जा सके। जब झूठ ही बोलना है तो कोई रोक नहीं पाएगा। वैसे भी झूठ की कोई सीमा नहीं। झूठ खुला मैदान की तरह है। जो कहानी अयोध्या में गढ़ी गई, वही यहां भी दुहराई जा सकती है। हमें तो तभी यकीन हो गया था जब झूठ बोलकर फव्वारे को शिवलिंग बताया जाने लगा था। समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर किसी भी वस्तु को तोड़े बगैर उसकी उम्र कैसे तस्दीक की जा सकेगी? किसी पत्थर की उम्र पता कर लेने से भला यह कैसे साबित हो जाएगा कि वह फव्वारा नहीं, शिवलिंग ही है? दूसरी बात, अगर विवादित आकृति काशी विश्वनाथ का असली शिवलिंग है तो पिछले ढाई सौ सालों से जिस आकृति की पूजा की जा रही है वो क्या है?"

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अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी के सेक्रेटरी मोहम्मद यासीन के सवालों का जवाब देते हुए हिन्दू पक्ष की वादी राखी सिंह के अधिवक्ता शिवम गौड़ कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने परिसर की सुरक्षा को लेकर वुजूखाने वाली जगह को सील किया है। सील से अर्थ है कि वहां पर कोई छेड़छाड़, नुकसान, निर्माण या तोड़फोड़ न हो। हाईकोर्ट के फैसले के तहत एएसआई  का सर्वे सभी सुरक्षा मानकों को ध्यान रखते हुए किया जाएगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट में इसी पर सहमति बनी है।"

क्यों खड़ा हुआ विवाद?

हिन्दू पक्ष का दावा है कि ज्ञानवापी मस्जिद के वजूखाने में मिली आकृति को हिन्दू पक्ष ज्योतिर्लिंग स्वयंभू विश्वेश्वरनाथ का शिवलिंग बता रहा है। इनका दावा है कि ज्ञानवापी परिसर में मिली आकृति आदि विश्वेश्वर का असली स्वयंभू ज्योतिर्लिंग है। महाराजा विक्रमादित्य ने करीब 2050 साल पहले काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया था, लेकिन मुगल सम्राट औरंगजेब ने साल 1699 में मंदिर को तुड़वा दिया। उसी स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया गया जो कि अब ज्ञानवापी मस्जिद के रूप में जाना जाता है। याचिकाकर्ताओं की मांग की है कि ज्ञानवापी परिसर का पुरातात्विक सर्वेक्षण कर यह पता लगाया जाए कि जमीन के अंदर का भाग मंदिर का अवशेष है या नहीं? विवादित ढांचे का फर्श तोड़कर ये भी पता लगाया जाए कि सौ फीट ऊंचा ज्योतिर्लिंग स्वयंभू विश्वेश्वरनाथ वहां मौजूद हैं या नहीं?

हिन्दू पक्ष ने यह भी मांग उठाई है कि मस्जिद की दीवारों की जांच कराई जाए, क्योंकि काशी विश्वनाथ मंदिर के अवशेष से ही ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण हुआ था। मस्जिद के पिछले हिस्से की दीवार पर स्वास्तिक, त्रिशूल, डमरू और कमल जैसे चिह्न पाए गए हैं, जो हिन्दू धर्म से जुड़े निशान हैं।

वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद में हुई सर्वे की रिपोर्ट कोर्ट में दाखिल होने के साथ ही लीक भी हो गई थी। रिपोर्ट में कहा गया था कि मुस्लिम पक्ष कुंड के बीच मिली जिस काले रंग की पत्थरनुमा आकृति को फव्वारा बता रहा था, उसमें न कोई छेद है, न ही कोई पाइप घुसाने की जगह। करीब ढाई फीट ऊंचे गोलाकार शिवलिंग जैसी आकृति के ऊपर अलग से सफेद पत्थर लगा है। उस पर कटा हुआ निशान है। सींक डालने पर आकृति में करीब 63 सेंटी मीटर गहराई पाई गई। पत्थर की गोलाकार आकृति के बेस का व्यास चार फीट पाया गया।

कार्बन डेटिंग के मुद्दे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अरविंद कुमार मिश्रा ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अधिवक्ताओं से कहा है कि वो 22 मई 2023 को वाराणसी स्थित डिस्ट्रिक कोर्ट में उपस्थित हों और यह बताएं कि किस तरह से विवादित आकृति का सर्वे हो सकेगा? इस मामले में अब आगे डिस्ट्रिक कोर्ट ही साइंटिफिक सर्वे का आदेश जारी करेगा।

क्या होती है कार्बन डेटिंग?

वैज्ञानिक मान्यताओं के मुताबिक धरती की उम्र करीब साढ़े चार अरब साल है। अरबों साल पहले पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत हुई थी। पहला मल्टी सेल्युलर ऑर्गनिज्म करीब 60 करोड़ साल पहले विकसित हुआ था। लगभग 36 करोड़ साल पहले पानी के जरिये पहला प्राणी धरती पर पहुंचा और करीब दो लाख साल पहले इंसान का विकास हुआ। जब भी कोई पुरातात्विक वस्तुओं की खोज होती है तो उनकी उम्र पता करने के लिए जिस तकनीक की मदद ली जाती है, वह है रेडियो कार्बन डेटिंग। साल 1949 में कार्बन डेटिंग तकनीकी का आविष्कार अमेरिका के शिकागो यूनिवर्सिटी के विलियर्ड फ्रैंक लिबी और उनके साथियों ने किया था। इस उपलब्धि के लिए उन्हें साल 1960 में रसायन के नोबल पुरस्कार से नवाजा गया था। कार्बन डेटिंग के जरिये पहली बार लकड़ी के एक टुकड़े की अनुमानित उम्र तय की गई थी।

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दरअसल, कार्बन डेटिंग एक विधि है जो किसी समय जीवित कार्बनिक पदार्थों की उम्र या तिथि निर्धारित करने के लिए है। पुरातत्वविद, जीवाश्म विज्ञानी और वैज्ञानिक प्राचीन स्थलों से जीवाश्मों और पुरातात्विक कलाकृतियों की आयु का अनुमान लगाने के लिए कार्बन डेटिंग का उपयोग करते हैं। हर सजीव में कार्बन होता है। कार्बन डेटिंग पद्धति इस तथ्य का उपयोग करती है कि 14 के परमाणु द्रव्यमान के साथ सी-14 नामक कार्बन का एक विशेष समस्थानिक रेडियोधर्मी है और एक प्रसिद्ध दर पर क्षय होता है। जब जीवित चीजें जैसे पौधे और जानवर मरते हैं, तो उनके द्वारा जमा किया गया रेडियोधर्मी कार्बन बदलना शुरू हो जाता है। कार्बन डेटिंग कार्बन-14 के क्षय का उपयोग यह अनुमान लगाने के लिए करती है कि कोई वस्तु कितने समय से मृत है।

कार्बन डेटिंग की विधि में कार्बन 12 और कार्बन 14 के बीच का अनुपात निकाला जाता है। किसी पत्थर या चट्‌टान की आयु का पता लगाने के लिए उसमें कार्बन 14 का होना जरूरी होता है। इस विधि के माध्यम से लकड़ी, कोयला, बीजाणु, चमड़ी, बाल, कंकाल आदि की आयु की गणना की जा सकती है। हालांकि अत्यंत प्रभावी, कार्बन डेटिंग को सभी परिस्थितियों में लागू नहीं किया जा सकता है। विशेष रूप से, इसका उपयोग निर्जीव चीजों की उम्र निर्धारित करने के लिए नहीं किया जा सकता है, जैसे कि उदाहरण के लिए चट्टानें। इस तकनीक से चालीस से पचास हजार साल ज्यादा की आयु की गणना नहीं की जा सकती है, क्योंकि आधे जीवन के आठ से दस चक्र पार करने के बाद, कार्बन -14 की मात्रा लगभग नगण्य हो जाती है।

लखनऊ के बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉक्टर राजेश अग्निहोत्री कहते हैं, "पत्थरों और धातुओं की डेटिंग नहीं हो सकती है, क्योंकि उनमें कार्बन नहीं होता है, लेकिन जब निर्जीव वस्तुओं की स्थापना होती है तो उनके साथ दूसरे जैविक सामान जैसे अनाज, कपड़े, लकड़ी, रस्सी जैसी कोई दूसरी चीज़ें भी मिल जाती हैं जिनकी कार्बन डेटिंग हो सकती है। इस तकनीक के इस्तेमाल से किसी ढांचे की विश्वसनीय उम्र का पता लगाया जा सकता है, जिसे उस समय की दूसरी पुरातात्विक जानकारी के साथ जोड़ कर देखा जाना चाहिए। कार्बन डेटिंग तकनीक का इस्तेमाल राम जन्मभूमि और इमामबाड़े के ऐतिहासिक संदर्भ को स्थापित करने के लिए भी किया गया था। इस सैंपल्स को एएसआई और बीरबल साहनी पुरावनस्पतिविज्ञान संस्थान ने संयुक्त रूप से एकत्र किया था।"

बनारस के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग के प्रोफेसर महेश प्रसाद अहिरवार कहते हैं, "कार्बन डेटिंग उन्हीं चीजों का होती है जो भूतकाल में कभी जीवित थे। चाहे वो जीव-जंतु हों या वनस्पति। सजीवों में किसी न किसी रूप में कार्बन पदार्थ जरूर मौजूद होता है। ऐसे कार्बनिक पदार्थ अथवा जीवों की मौत के बाद उनके शरीर में मौजूद कार्बन 12 अथवा कार्बन-14 के अनुपात में बदलाव आने लगता है। इसी प्रक्रिया को आइसोटोप सी-14 कहा जाता है। पत्थर जैसे निर्जीव पदार्थों में कार्बन नहीं होता है। ऐसे में उसकी कार्बन डेटिंग कतई संभव नहीं है। शिवलिंग निर्जीव (पत्थर का बना) पदार्थ है, इसलिए उसकी कार्बन डेटिंग नहीं हो सकती है।"

अहिरवार यह भी कहते हैं, "ऑप्टिकल स्टीमुलेटिंग ल्यूमिनेसेंस (ओएसएल) तकनीक से सिर्फ यह जरूर पता लगाया जा सकता है कि पत्थर की उम्र क्या है? यह तकनीक उन मामलों में अपनाई जाती है जो वस्तुएं खुदाई के दौरान मिलती हैं। अगर कोई पत्थर एक्सपोज हुआ है तो उसमें प्रकाश की किरणें पेनिट्रेट कराई जाती हैं। इसके लिए पत्थर के अंदर ड्रिल किया जाता है। ऐसे में विवादित आकृति को नुकसान पहुंचने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऑप्टिकल डेटिंग सिर्फ समय की एक माप तय करती है, क्योंकि किसी भी निर्जीव वस्तु के अंदर का कुछ भाग रोशनी या गर्मी से सुरक्षित रह जाता है। वही ल्यूमिनेसेंस सिग्नल को प्रभावी ढंग से रीसेट करता है और वस्तु की अनुमानित उम्र ज्ञात हो सकती है। थर्मोल्यूमिनेसेंस डेटिंग से अनाज, पत्थर, बालू, मिट्टी के बर्तन इत्यादि की उम्र का पता लगाया जा सकता है। इस पद्धति से सिर्फ खुदाई में मिलने वाले पुरातात्विक अवशेषों की उम्र का पता लगाया जाता है। सटीक विश्लेषण के लिए यह जरूरी होता है कि खुदाई के तत्काल बाद थर्मोल्यूमिनेसेंस डेटिंग शुरू कर दी जाए। सालों से उपयोग हो रहे निर्जीव वस्तुओं की कार्बन डेटिंग कतई संभव नहीं है। पत्थर की कार्बन डेटिंग की बात करना तो पूरी तरह हास्यास्पद और अवैज्ञानिक है।"

कौन देगा इन सवालों का जवाब?

सर्वविदित है कि किसी भी जीवाश्म के पत्थर बनने में लाखों साल लगते हैं। कार्बन डेटिंग तकनीक से सिर्फ पचास हजार साल पुराने अवशेष का ही पता लगाया जा सकता है। पत्थर और चट्टानों की आयु इससे ज्यादा हो सकती है। बड़ा सवाल यह है कि क्या किसी आकृति को डैमेज किए बगैर कार्बन डेटिंग संभव है? जाहिर है कार्बन डेटिंग के लिए आकृति को पहले खुरचना पड़ेगा। विवादित आकृति को अगर शिवलिंग मान भी लिया जाए तो हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक क्या उसे पूजनीय माना जाएगा?  खासतौर पर उस स्थिति में जब  सनातन परंपराओं के मुताबिक काशी में खंडित शिवलिंग को पूजने का कोई विधान नहीं है।

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी कहते हैं, "अभी तक यह जांच ही नहीं हुई है कि विवादित आकृति शिवलिंग है या फव्वारा? सिर्फ कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर किसी आकृति को शिवलिंग मान लेना विधिक और नैतिक रूप से गलत होगा। धार्मिक मान्यता के मुताबिक किसी शिवलिंग में छेद नहीं हो सकता है। दुनिया में कोई ऐसा शिवलिंग नहीं है जिसमें छेद हो? वैसे भी किसी खंडित शिवलिंग की पूजा का हिन्दू धर्म शास्त्र में कोई विधान नहीं है। आधी-अधूरी जांच के आधार पर कोई फैसला सुनाया जाता है तो न्याय संगत और धर्म संगत कतई नहीं माना जाएगा। मूल मुकदमा श्रृंगार गौरी से जुड़ा हुआ है, जिस पर कोई विवाद है ही नहीं। हैरत की बात यह है कि अदालत में बहस दूसरे मुद्दे पर चल रही है। मूल वाद श्रृंगार गौरी के पूजा का है तो कार्बन डेटिंग पर फ़ैसला क्यों सुनाया जा रहा है? यह तो वैसा ही मामला है जैसे फोड़ा हाथ में हो और आपरेशन दिल का शुरू कर दिया जाए। हिन्दू आस्था कोई खेल नहीं है कि कोई खेलना शुरू कर दे। सनातन परंपरा में कोई भी ऐसा कृत्य नहीं किया जाना चाहिए जिससे हिन्दू धर्मावलंबियों की आस्था प्रभावित हो और लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचे।"

बनारस के जाने-माने पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "कार्बन डेटिंग अथवा अन्य वैज्ञानिक जांच से पहले वैज्ञानिक रूप से स्पष्ट कर लिया जाना चाहिए कि विवादित आकृति फव्वारा है या शिवलिंग?  कोर्ट को पहले विशेषज्ञों की राय इस बात पर लेनी चाहिए कि विवादित आकृति के कार्बन डेटिंग का औचित्य है भी अथवा नहीं? क्या इस प्रक्रिया को अपनाने से किसी ठोस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है? अगर किसी स्ट्रक्चर को तोड़कर अथवा उसके अवशेषों से कोई निर्माण किया जाए तो क्या वह दूसरे का मान लिया जाएगा? अगर यही न्याय की परिभाषा है तो पहले जगतगंज मुहल्ले को बौद्ध अनुयायियों के हवाले कर दिया जाना चाहिए क्योंकि यह इलाका ही सारनाथ की खोदाई में मिली ईंटों से कराया गया था। बनारस के कई राजाओं ने भी कई हवेलियां सारनाथ के ईंटों से बनवा रखी हैं। ऐसे में तो किसी विवाद का हल ढूंढ पाना मुश्किल हो जाएगा। बेहतर यह होगा कि कोई नया बितंडा खड़ा करने के बजाय पीवी नरसिम्हा राव की सरकार द्वारा साल 1991 में पास किए गए उपासना स्थल क़ानून (विशेष प्रावधान) को स्वीकार किया जाए।"

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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