EXCLUSIVE: जब बदहाल हैं तो कैसे कह दें कि मोदी वाले 'अच्छे दिन' आ गए!
बनारस में शिवाला के इमामबाड़ा इलाके में महीनों से बह रहे सीवर और गंदगी से एक गली बजबजा रही है। इसी गली से लोगों का आना-जाना है। निषाद समुदाय की एक महिला ने बदहाली का मंजर दिखाते हुए कहा, "जेठ हो या बैसाख, यहां हालात ऐसे ही रहते हैं। बच्चे ड्रेस पहनकर स्कूल जाते हैं, तो सब गंदा हो जाता है। हम गंदगी के मुहाने पर खड़े हैं। कैसे कह दें कि मोदी वाले 'अच्छे दिन' आ गए हैं?”
बनारस स्थित शिवाला के इमामबाड़ा मुहल्ले में उफनाया हुआ सीवर।
वे कहती हैं, “गंदगी के चलते बीमारियां 'घरजमाई' सरीखी हो गई हैं। बच्चे-बूढ़े क्या, जवान तक बीमारी से मर रहे हैं। ज़िंदगी पहाड़ बनती जा रही है। हमने मेयर से लेकर देश को प्रधानमंत्री तक दिया, फिर भी जिंदगी नर्क जैसी है।"
ऊबड़-खाबड़ गली में दौड़ लगा रहे बच्चों को संभालने में जुटी शिवाला इलाके की सुनीता परेशान दिखीं। वह जिस गली में रहती हैं वो पूरी तरह बदहाल है। पूछा गया कि पीएम नरेंद्र मोदी पर कितना भरोसा करती हैं तो सुनीता ने तपाक से कहा, "भैया गली के चौका-पत्थर का हाल देख लीजिए। संभलकर न चलें तो हाथ-पैर टूट जाए।”
शिवाला मुहल्ले की ऊबड़-खाबड़ गली।
सुनीता पूछती हैं, “आप ही बताइए, आखिर मोदी पर कैसे भरोसा करें? वो तो गली के खड़ंजे और पार्क तक का उद्घाटन कर रहे हैं, फिर हमारे मुहल्ले को लावारिस हाल में क्यों छोड़ दिया है? हमारे इलाके की सारी गलियां टूटी पड़ी हैं। आखिर यह कैसी डबल इंजन वाली सरकार है जिसे हमारी तकलीफें नहीं दिख रही हैं।"
सुनीता के पास खड़ी पूर्णिमा ग्रेजुएट की आखिरी साल की स्टूडेंट हैं। कुछ साल पहले ही इनकी शादी हुई थी। कहती हैं, "हम तंगहाल हैं। ज्यादातर बच्चों के पास रोज़गार नहीं हैं। मोदी सरकार से हमें तनिक भी उम्मीद नहीं है। औरतों के पास तो शिक्षा और रोज़गार, दोनों के अवसर कम हैं। मोदी सरकार को रोज़गार और नौकरी के मौके बनाने चाहिए। हमारी जैसी तमाम औरतें नौकरी करना चाहती हैं, लेकिन निजीकरण नौकरियों को चाट गया। यूपी सरकार ने जितनी मर्तबा नौकरियों के लिए परीक्षाएं कराई, सभी के पर्चे लीक हो गए। जिन नौकरियों के लिए इम्तिहान हुए भी, वह भी घपले की शिकार हो गईं। भाजपा सरकार झूठ बोल रही है कि यूपी में उसने साढ़े चार लाख लोगों को सरकारी नौकरियां दी है। सत्तारूढ़ दल के साथ विपक्ष भी झूठ की खेती कर रहा है। प्रियंका गांधी औरतों के बारे में क्या सोचती हैं, यह हमें नहीं मालूम, लेकिन जिन राज्यों में उनकी सरकारें हैं वहां भी सब कुछ ठीक नहीं है।"
"ये कैसी है डबल इंजन की सरकार"
सैलानियों को गंगा में नौकायन कराने वाले मुन्ना की पत्नी मुन्नी देवी कहती हैं, " हमारे दो बेटे हैं और दोनों का भविष्य चौपट हो रहा है क्योंकि वो कायदे से पढ़-लिख नहीं पा रहे हैं। हमें तो मोदी की तस्वीरों वाले बैग में सौ रुपये का राशन नहीं, बच्चों का भविष्य दिख रहा है। अखबारों में हम रोज पढ़ रहे हैं कि सूबे में डबल इंजन की सरकार है। सरकार और उसके नेता हमें यह बता दें कि किस चीज का दाम कम हुआ है और किसका स्थिर है? आसमान छू रही महंगाई के दौर में कितनी कठिन हो गई है जिंदगी? एक इंदिरा गांधी का भी दौर था। उस समय जो सोना 1700 रुपये में था, अब वो 45000 रुपये का हो गया है। हमारे गले का मंगल-सूत्र और कान की बालियां देखिए, सब नकली हैं। पीतल और गीलट का।"
दरअसल, सियासत से कोसों दूर रहने वाली निषाद समाज की औरतों को नेताओं और उनकी नीतियों के बारे में भले ही कुछ नहीं मालूम, लेकिन घरों में जलने वाले चूल्हे-चौके से लेकर बच्चों की पढ़ाई के फीस का हिसाब अच्छी तरह मालूम है। शिवाला की चाहे सीता देवी हों, अंजलि हों या फिर गुड़िया। सभी को आसमान छूती महंगाई के दर्द का एहसास है। इन महिलाओं को इस बात की चिंता है कि इनके बच्चों के पास न काम है, न रोज़गार। कहती हैं, "पास में फूटी कौड़ी तक नहीं। बच्चों को कैसे पढ़ाएं और कहां से करें बुजुर्गों के लिए दवा का इंतजाम? पहले मुफ्त में रसोई गैस का कनेक्शन दिया और बाद में टंकी का दाम इतना ज्यादा बढ़ा दिया कि हालत पतली हो गई। पहले भी चूल्हे के धुएं में आंख खराब कर रहे थे और हालात अभी भी जस का तस है। आटा-दाल, सरसों का तेल के अलावा खाने-पीने के सामान इतने महंगे हो गए हैं कि रोज़ कमाने-खाने वालों को साफ-साफ पता चल जाता है कि जिंदगी कितनी कठिन हो गई है? "
बनारस में गंगा घाटों के किनारे रहने वाली निषाद समाज की कई औरतों से "न्यूज़क्लिक" ने बातचीत की और यह भी जानने का प्रयास किया कि चुनावी जंग में हवा की रुख किधर मुड़ रहा है तो जवाब मिला, "औरतों की ओर।" चुनावी समर में हवा का रुख़ क्या सचमुच औरतों की ओर मुड़ने लगा है? इस सवाल को आगे बढ़ाते हुए उज्ज्वला कहती हैं, "पीएम के महिला सशक्तीकरण के नारे से औरतों का भला होने वाला नहीं है। मोदी बनारस आते हैं तो गंगा घाटों के किनारे खूब तामझाम होता है। रंग-बिरंगी लाइटों से घाट जगमग हो जाते हैं। वो रोशनी हमारे आंखों में चुभती है और दिलों में भी। हमारे पास बच्चों को खाने-खिलाने तक के लिए पैसा नहीं है तो उस रोशनी का क्या मतलब? बनारस में कोई यह बताने वाला नहीं है कि ठोस काम करने के बजाय फिजूलखर्ची पर पानी की तरह पैसा क्यों बहाया जा रहा है? आखिर वो पैसा कहां से आता है? वो हमारे बारे में क्यों नहीं सोचते? क्या मंदिर को भव्य बना देने से हमारे पेट की आग बुझ जाएगी? अगर कोई सड़क बन भी जाए तो क्या हमारे पेट भर जाएंगे? हमारे बच्चों की भूख से ऐंठती हुई अतड़ियों का इलाज मंदिर है या फिर गंगा नहर? मोदी जब-जब बनारस आते हैं पुलिस वाले डंडे फटकार कर हमारी नौकाएं बंद करा देते हैं। हमारे पेट पर लात मारने के लिए गंगा में नए-नए क्रूज चलाए जा रहे हैं। माझियों की कैसे चलेगी, यह सोचने-समझने वाला कोई नहीं है।"
उज्ज्वला यहीं नहीं रुकतीं। वह कहती हैं, "हमारे चार बच्चे हैं, जिनमें बड़े बेटे की शादी हो चुकी है। तीन छोटे बच्चे-विजय, हेमंत और विष्णु के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाना कठिन है। मोदी सौ रुपये का राशन दे रहे हैं, लेकिन रसोई का बाकी सामान इतना महंगा कर दिया है कि आंसू बहाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। रसोई गैस पर हर महीने एक हजार का खर्च है और कमाई धेले भर की नहीं है। बनारस में चुनाव लड़ने बाहर से जितने भी नेता आए, किसी ने गंगा मैया की दुर्गति नहीं की। इस पवित्र नदी को कभी किसी ने नहीं बांटा। मोदी आए तो दो-दो नदी बहा दी। गंगा मैया ने नकली नदी पाट दी तो वो उसे फिर खोदने पर अड़ गए। आखिर सरकारी धन बर्बाद करने से क्या फायदा? इतना पैसा माझियों के बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर देते हम उनकी जय-जयकार कर रहे होते।"
बनारस में मोदी के इवेंट का दिल्ली में प्रचार।
महंगाई बढ़ी, रोज़गार घट गया
डबल इंजन की सरकार के राज में उस शहर की महिलाओं की दशा दयनीय है जहां के सांसद देश के प्रधानमंत्री हैं। ऐसा नहीं है कि मोदी ने बनारस का विकास ही नहीं किया। भाजपा शासन में बनारस के लोगों को पहले से ज्यादा बिजली मिलने लगी। सुलभ शौचालय बने और पेयजल का इंतजाम भी हुआ। अभियान चलाकर रसोई गैस के सिलेंडर भी बांटे गए। लेकिन औरतें कहती हैं बिजली के बिल और गैस के दाम बढ़ गए और रोज़गार घट गया। युवाओं की नौकरियां चली गईं, मगर तामझाम और ढकोसला बढ़ गया।
गंगा में नाव चलाने वाले दीपचंद निषाद की पत्नी अनीता ने "न्यूज़क्लिक" से कहा, "हमने ऐसी सरकार कभी नहीं देखी। पीएम मोदी ने 450 का गैस एक हज़ार में कर दिया। क्या करें उस चमचमाते मंदिर और घाटों का, जब लकड़ी और कोयले के धुएं में ही हमें रोटियां बेलनी पड़ रही हैं। कोरोना के बाद तो जिंदगी बदतर हो गई है। पहले पैर का छागल बेचा, फिर कान की बाली बेच दी। पास में फूटी कौड़ी नहीं थी, इसलिए बेटे सिद्धार्थ और साहिल की पढ़ाई छूट गई।"
काशी विश्वनाथ कारिडोर के लोकार्पण के बाद भाजपा समूची दुनिया को यह बताने में जुटी है कि बनारस में विकास की गंगा बह रही है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता जैसे शहरों में होर्डिंग्स लगवाकर यह संदेश दिया जा रहा है कि मोदी की काशी ने विकास ऐसी आंधी बहाई है जिससे सबके चेहरों पर खुशहाली की मुस्कान है। लेकिन बनारस की सकरी गलियों में झांकने पर जो तस्वीर उभरती है वो किसी को भी रुला देने के लिए काफी है। बनारस में निषाद समाज की ज्यादातर औरतों के जेहन में मोदी-योगी सरकार के कामकाज के प्रति गहरी नाराजगी है। महिलाएं गुस्से में हैं, क्योंकि उनके पास न कोई काम है, न रोजगार। पेट की भूख मिटाने के जद्दोजहद में खर्च इतना ज्यादा बढ़ गया है कि गरीब तबके के निषाद समुदाय के ज्यादातर बच्चों की पढ़ाई छूट गई है। तंगहाल जिंदगियों के बीच से जो कहानी निकलकर आ रही है उससे साफ-साफ पता चलता है कि अबकी भाजपा की राह आसान नहीं है।
औरतों के ईर्द-गिर्द घूम रही सियासत
उत्तर प्रदेश में अगले दो-ढाई महीने में विधानसभा चुनाव है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने 40 फीसदी टिकट औरतों को देने के लिए ऐलान किया है। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने वादा किया है कि वो पढ़ने वाले लड़कियों को स्कूटी देंगे। लेकिन हलचल तब मची जब से प्रियंका गांधी ने घोषणा-पत्र जारी करते हुए 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' का नारा बुलंद करते हुए औरतों की सुरक्षा, शिक्षा, रोज़गार का वादा किया।
प्रियंका गांधी को जवाब देने के लिए योगी सरकार को 'कन्या सुमंगला योजना' के बड़े-बड़े पोस्टर अखबारों में छपवाने पड़ रहे हैं। योगी को बार-बार यह दावा करना पड़ रहा है कि पहले माफिया राज था और अब शांति है। रात में भी औरतें कहीं भी सड़कों पर घूम सकती हैं, क्योंकि उन्होंने गुंडों को नाथकर उन्हें सही जगह पहुंचा दिया है। दावा तो यह भी किया जा रहा है कि यूपी में अब सुरक्षा के साथ औरतों के पास अधिकार है और व्यापार भी है।
निषाद परिवार की महिला सजनी देवी।
सुशासन देने का दावा करने वाली डबल इंजन की सरकार ने क्या सचमुच रामराज ला दिया है? इस सवाल पर भैसासुर घाट सजनी देवी मुश्किलों का गट्ठर खोल देती हैं। कहती हैं, " यह कैसा रामराज है कि हमारे पास बच्चों के स्कूल की फीस भरने तक के लिए पैसा नहीं है। सिर्फ नाव का चप्पू चलाने से पैसों की बरसात नहीं हुआ करती। हमारे पास कोई काम नहीं है। घर में खाली-ठाली बैठे हैं। हमें और हमारे बच्चों को रोजगार व नौकरी चाहिए। मोदी को पता भी नहीं होगा कि हमारे ऊपर क्या बीत रही है? बेटी चौथी कक्षा में पढ़ रही थी, तभी कोरोना आ गया और उसकी पढ़ाई छूट गई। दो साल से बच्चे स्कूल नहीं गए। "
शांति देवीः सरकार से गहरी नाराज़गी।
सजनी देवी की पड़ोसन शांति देवी, गायत्री देवी, विंदो देवी और संजू देवी कहती हैं, " सरकार सौ रुपये का राशन फोकट में देकर दुनिया भर में सुशासन लाने का ढोल पीट रही है। कोरोना के बाद से कोई यह पूछने नहीं आया कि हमारी हालत कैसी है? महंगाई इतनी थोप दी कि जीना हराम हो गया है। हम शुकर मना रहे हैं गंगा मइया की जो हमारा परिवार कोरोना से बच गया।"
गोताखोर दुर्गा माझी की पत्नी रानी देवी।
बनारस के राजघाट पर गोताखोरी करने वाले दुर्गा निषाद की पत्नी रानी देवी और उनके बच्चे फूल व पूजा सामग्री बेचते हैं। वह कहती हैं, "रसोई गैस के पैसे नहीं", "स्कूल की फ़ीस के लिए पैसे नहीं" और "बड़े हो रहे बच्चों के लिए रोज़गार नहीं, नौकरी नहीं है। कितनी गिनाएं अपनी परेशानियां। सारी परेशानियां तो डबल इंजन वाली सरकार ने हमारे ऊपर लादी हैं।"
प्रज्ञा सिंहः नौकरी की चिंता।
बेरोज़गारों की ज़िंदगी में सन्नाटा
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट प्रज्ञा सिंह प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही हैं। रोजगार की बात छिड़ी तो प्रज्ञा ने कहा, "लगता है कि नौकरी पाने की हसरत अब शायद ही पूरी हो पाएगी। पहले नौकरी लगती थी तो धमक दूर तक सुनाई देती थी, अब तो सन्नाटा है। हमारा क्या होगा, पता नहीं।"
महंगाई और रोज़गार से बात आगे बढ़ी तो प्रज्ञा ने कहा, "हर घर में औरतों की कहानी एक जैसी ही है। सुरक्षा के मामले में मोदी-योगी बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन औरतें तो अपने घर में ही सुरक्षित नहीं हैं, तो बाहर कैसे रहेंगी? पूर्वांचल में ऐसी औरतों की तादाद लाखों में है जिनके पति दारू पीककर आते हैं और फिर औरतों से मारपीट करते हैं। आसमान छू रही महंगाई के दौर में बेटे तो पढ़ भी ले रहे हैं, लेकिन बेटियों का हाल क्या है, डबल इंजन की सरकार ने यह जानने की कोशिश आज तक नहीं की। पढ़ाई में अव्वल होने के बावजूद ज्यादतर लड़कियां ऐसे खूंटे से बांध दी जाती हैं जहां से वो चौका-बर्तन से बाहर ही निकल नहीं पाती हैं।"
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप कुमार कहते हैं, " महिलाएं चाहे अनपढ़ हों, साक्षर हों या फिर पढ़ीलिखी हों, वो जब भी अपने परिवार के बारे में सोचती हैं तो उन्हें झटका लगता है। हर किसी की आमदनी घटकर आधी हो गई है। कई ऐसे पुरुष हैं जिनका रोजगार ही चला गया है। गृहस्थी चलाने का संकट है। बनारस में गंगा के किनारे रहने वाले निषाद समुदाय की महिलाओं का संघर्ष किसी के समझ में नहीं आ रहा है। आखिर वो क्या खाएं और क्या निचोड़ें? वो अपने बच्चों का पेट भी ठीक से नहीं भर पा रही हैं। आज के हालत को लेकर बनारस की ज्यादातर औरतों अंदर चिंता और आक्रोश है। उनके सामने चूल्हा-चौके की बड़ी चुनौती है। ऐसे में औरतों का फैसला डबल इंजन वाली सरकार के खिलाफ हो तो आश्चर्य नहीं होगा।"
प्रदीप कहते हैं, " औरतें नाप लेती हैं कि उनकी रसोई का गैस कितने दिन चलाता है। टंकी भराने की बात आती है तो दाम सुनकर ही उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। किसी की चिंता बढ़ जाती है तो किसी में असंतोष बढ़ जाता है। इस हालात में वो विश्वनाथ कारिडोर की भव्यता भूल जाती हैं। यूपी की आधी आबादी ऐसी दुरूह स्थिति से गुजर रही है, जिसे समझने के लिए न मोदी सरकार तैयार है, न यूपी की योगी सरकार।"
विवशता भरी सियासत कर रहे मोदी
काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर के उद्घाटन के लिए पीएम नरेंद्र मोदी ने दिसंबर महीने में बनारस के लिए दो दिनों का वक़्त निकाला और एक पखवाड़े के अंदर दूसरी मर्तबा पिंडारा में अमूल की आधारशिला रखने फिर आ धमके। पिछले दो महीनों में पूर्वांचल में यह उनका सातवां दौरा था। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में विधानसभा की 130 सीटें हैं। पीएम नरेंद्र मोदी इन सीटों को केंद्रबिंदु बनाकर बनारस को मथने लगे हैं। एक महीन में दो मर्तबा मोदी का मेगा इवेंट हो चुका है। नए साल के पहले पखवाड़े में फिर वो बनारस आने वाले हैं। हवा का रुख बदलने के लिए भाजपा ने पूरी ताकत झोंक दी है। तो क्या ये माना जाए कि बीजेपी पूर्वांचल में पिछड़ रही है?
जर्नलिस्ट गुरु अनिल उपाध्याय कहते हैं, "जनता का भरोसा पूरी तरह खो चुकी भाजपा और उसके अनुषांगिक संगठनों के लोग धर्म को फिर सियासी हथियार बना रहे हैं। इसीलिए काशी विश्वनाथ कारिडोर के लोकार्पण को एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश कर किया जा रहा है। पिछले दो महीने में सात मर्तबा दौरे पर आए मोदी ने पूर्वांचल में पूरी प्रशासनिक और राजनीतिक ताक़त झोंक दी है। भाजपा तमाम बड़ी परियोजनाओं से लेकर गलियों के नाली-खड़ंजे का शिलान्यास-लोकार्पण अब मोदी करा रही है। मोदी और योगी दोनों को अपनी इमेज की चिंता है। इन्हें इस बात का डर सता रहा है कि कहीं उनका किला न ढह जाए। हर किसी को मालूम है कि साल 2018 के गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री रहते भाजपा वह सीट हार गई थी। पूर्वांचल में ब्राह्मणों के बड़े नेता माने जाने वाले पूर्व विधायक हरिशंकर तिवारी अबकी सपा के साथ हैं। ऐसे में योगी की मुश्किलें आसान नहीं हैं। इधर, बनारस में भाजपा के तीनों मंत्री-अनिल राजभर, नीलकंठ तिवारी और रविंद्र जायसवाल के साथ मोदी की प्रतिष्ठा दांव पर है। दोनों ही नेता अपना किला बचाना चाहते हैं।"
अनिल उपाध्याय कहते हैं, "एबीपी न्यूज़ और सी वोटर के हालिया चुनावी सर्वे को देख लीजिए। सर्वे में यह बात सामने आई थी कि मौजूदा हालात में पूर्वांचल में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को 40 फ़ीसदी, सपा और उसके सहयोगियों को 34 फ़ीसदी और बसपा को 17 फ़ीसदी वोट मिलने का अनुमान है। पूर्वांचल में विधानसभा की सीटें 130 हैं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 136 सीटे हैं। पूर्वांचल यूपी का दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है। सर्वे के अनुसार, इस बार पूर्वांचल में बीजेपी को 61-65, सपा को 51-55 और बसपा को 4-8 सीटें दी गई हैं। इसी सर्वे में यह भी बताया गया कि जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, वैसे-वैस बीजेपी और सपा के बीच फ़ासला कम हो रहा है। अखिलेश यादव ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, महान दल, अपना दल (कृष्णा पटेल), जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) जैसे छोटे दलों के साथ गठबंधन कर पूर्वांचल में अपने गठबंधन को मज़बूती देने की कोशिश की है।"
क्षेत्रीय दलों के मजबूत गठबंधन पर नज़र बनाए रखने वाले पत्रकार अमितेश पांडेय कहते हैं, "अपने आप को सीएम पद के दावेदार के रूप में पेश कर रहे अखिलेश यादव ने एक को छोड़कर अब तक छोटे-छोटे जितने भी जातिगत गठबंधन किए हैं, वे सभी पूर्वांचल में है। एक जो अलग है, वो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आरएलडी का गठबंधन है। ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का भाजपा से अलग होकर सपा के साथ चले जाना डबल इंजन की सरकार के लिए बड़ा झटका है।"
"पूर्वांचल में बीजेपी को अब भी राजभर, चौहान, कुर्मी, कुशवाहा,मौर्या और सैनी जैसी जातियों के वोटों की ज़रूरत है। समाजवादी पार्टी ने हाल में पूर्वांचल के कई कद्दावर नेताओं को अपने साथ जोड़ा है। गोरखपुर के ब्राह्मण नेता हरिशंकर तिवारी, ख़लीलाबाद से भाजपा के विधायक जय चौबे अब सपा के साथ तनकर खड़े हैं। बसपा के कद्दावर नेता और कटेहरी से विधायक लालजी वर्मा, अकबरपुर से बसपा विधायक राम अचल राजभर और हाल कि दिनों में योगी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले बलिया के चिलकहर से भाजपा के पूर्व विधायक राम इकबाल सिंह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं। ऐसे में भाजपा को इस चुनाव में तगड़ा झटका लग सकता है।"
उत्तर प्रदेश की राजनीति को क़रीब से समझने वाले पत्रकार अमितेश कहते हैं, "भाजपा ने संजय निषाद पर दांव लगाया है, लेकिन आरक्षण के सवाल पर ठुकराए जाने से उनके करीबी साथी उन्हें छोड़कर समाजवादी पार्टी में जा चुके हैं। जातिगत राजनीति करके भाजपा चुनाव कतई नहीं जीत सकती, क्योंकि संख्या के लिहाज़ से छोटी जातियों के बड़े नेता और ज़्यादा नेता क्षेत्रीय दलों के पास हैं।"
वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "यूपी की राजनीति का रोचक पहलू यह है कि यहां सत्ता का 'सूर्योदय' पूर्वांचल से होता है। जिस दल के विजय का सूरज सुबह-ए-बनारस से होता है सत्ता का उजाला उसी के हिस्से में आता है। अबकी यूपी के विधानसभा चुनाव में भाजपा क्या हासिल करेगी, ये इस पर निर्भर करेगा कि वह किस तरह का चुनाव लड़ रही है। फिलहाल वह विवशता भरी राजनीति करती दिख रही है। पूर्वांचल में पांव जमाने के लिए मोदी सरकार दिल्ली समेत न जाने कितने राज्यों में दिव्य काशी, भव्य काशी-चलो काशी अभियान वाली होर्डिंग्स लगवा रही है। यह भी संभव है कि आचार संहिता लगने के बाद भाजपा के इशारे पर चुनाव आयोग कोरोना के नाम पर चुनावी रैलियों और सभाओं को प्रतिबंधित कर सकता है।"
(बनारस स्थित लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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