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मनरेगा से हुई कमाई कोविड-19 महामारी के दौरान हुई आय के नुक़सान की भरपाई है: अध्ययन

इस अध्ययन में कर्नाटक, मध्य प्रदेश और बिहार के कुल आठ ब्लॉकों में 2,000 परिवारों का सर्वे किया गया। इसके परिणामों ने एक्टिविस्टों को ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के विस्तार करने पर ज़ोर देने के लिए प्रेरित किया।
 Azim Premji University
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट गुरुवार को नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में जारी की गई। तस्वीर-रौनक छाबड़ा

नई दिल्ली: महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना ने ग्रामीण परिवारों को COVID-19 महामारी के दौरान आय के भारी नुक़सान से बचाने में बड़ी मदद की। हालिया अध्ययन में इस बात ख़ुलासा हुआ है। इस अध्ययन ने एक्टिविस्टों को इस कार्यक्रम के विस्तार करने पर ज़ोर देने के लिए प्रेरित किया है।

ग्रामीण परिवारों को अन्य स्रोतों से 20-100 प्रतिशत के बीच हुए आय के नुक़सान को इस योजना से बढ़ी हुई आय के माध्यम से पूरा किया गया जिन्हें 2020-21 की अवधि के दौरान इसके ज़रिए काम मिला था जबकि इस अवधि से पहले उन्हें इस तरह का काम नहीं मिला था। नेशनल कॉन्सोर्टियम ऑफ सिविल सोसायटी ऑर्गनाइज़ेशन ऑन नरेगा और कोलैबोरेटिव रिसर्च एंड डिस्सेमिनेशन (कोर्ड) के साथ अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक संयुक्त अध्ययन में इस बात का ख़ुलासा हुआ है।

कर्नाटक, मध्य प्रदेश और बिहार के कुल आठ ब्लॉकों में 2,000 परिवारों का किए गए अध्ययन में यह भी पाया गया कि मनरेगा ने देश भर में हुए लॉकडाउन के असर को कम करने में अहम भूमिका निभाई। सर्वे किए गए सभी परिवारों में क़रीब 39% परिवार जो महामारी के दौरान इस योजना के तहत काम करने के इच्छुक थे उन्हें एक भी दिन का काम नहीं मिला।

सर्वेक्षण के अनुसार, सभी ब्लॉकों में काम मिलने वाले परिवारों को महामारी के दौरान 64 दिनों का ही काम मिल पाया। पिछले साल दिसंबर में किए गए इस सर्वेक्षण के नतीजे यह भी बताते हैं कि ज़रूरत के मुताबिक़ काम न मिलने का सबसे बड़ा कारण योजना के तहत स्वीकृत पर्याप्त काम का न होना था।

गुरूवार को नई दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में इस अध्ययन की रिपोर्ट जारी करते हुए अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के संकाय सदस्य और सह-लेखक राजेंद्रन नारायणन ने कहा, "हमारे अध्ययन बताते हैं कि श्रमिक मनरेगा की आवश्यकता और उपयोगिता को कितना महत्व देते हैं।" उन्होंने कहा कि अध्ययन के माध्यम से मनरेगा में "बड़े पैमाने पर फंडिंग की कमी" भी पाई गई है।

नारायणन ने कहा, “एक रूढ़िवादी अनुमान से पता चलता है कि सर्वेक्षण किए गए ब्लॉकों में आवंटित राशि का तीन गुना आवंटन होना चाहिए था जो वास्तव में काम की मांग की वास्तविक सीमा को पूरा करने के लिए लॉकडाउन के बाद के वर्षों में आवंटित किया गया था।”

प्रत्येक व्यक्ति को 100 दिनों के काम की मांग

सर्वे किए गए दस में से आठ से अधिक परिवारों ने सिफारिश की है कि मनरेगा के तहत प्रत्येक व्यक्ति को प्रति वर्ष 100 दिनों का काम मिलना चाहिए, जिसे इन लेखकों ने ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के "विस्तार के लिए एक बहुत ही आकर्षक और शानदार विषय" के रूप में बताया।

इस योजना के अनुसार, वर्तमान में प्रत्येक ग्रामीण परिवार के कम से कम एक सदस्य को काम दिया जाता है। उस परिवार के वयस्क सदस्य जो अनस्किल्ड मैनुएल वर्क में लगे हैं उन्हें इसके तहत काम मिलता है।

इस अध्ययन के निष्कर्षों पर टिप्पणी करते हुए अंबेडकर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की सहायक प्रोफेसर दीपा सिन्हा ने कहा कि पूरी मांग को पूरा नहीं करने के बावजूद यह स्पष्ट है कि मनरेगा ने COVID- 19 महामारी के दौरान ग्रामीण परिवारों के लिए "सुरक्षा कवच" की भूमिका निभाई।

उन्होंने एक पैनल में चर्चा के दौरान कहा, “एक तरफ, यह उस तबाही के प्रसार की भी याद दिलाता है कि जब मनरेगा नहीं होता क्या होता। दूसरी ओर, ये निष्कर्ष भी मौजूदा संकट को देखते हुए शहरी क्षेत्रों के लिए इसी तरह की योजना की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं।”

नरेगा कंसोर्टियम की अश्विनी कुलकर्णी ने चर्चा के दौरान कहा कि मनरेगा का एक उद्देश्य कठिन समय के दौरान "सामाजिक सुरक्षा उपाय" होना है। उन्होंने कहा, "कोविड महामारी और लॉकडाउन ने अभूतपूर्व संकट पैदा किया और मनरेगा, जैसा कि उम्मीद थी, ज़रूरत को पूरा किया और पिछले कुछ वर्षों की तुलना में कई गांवों और कई घरों के सदस्यों का काम दिया।" उन्होंने आगे कहा कि महामारी के बाद की अवधि के दौरान भी इस योजना की अहमियत बरक़रार है।

गुरुवार को एक्टिविस्टों और सिविल सोसायटी सदस्यों ने उक्त अध्ययन की कई सिफारिशों पर चर्चा की। इस दौरान इन लोगों ने केंद्र सरकार से मनरेगा के लिए पर्याप्त बजट सुनिश्चित करने की मांग की। इस साल सितंबर महीने में फिर से काम की मांग में मामूली वृद्धि देखी गई है। इस साल मांग में वृद्धि पिछले तीन महीनों से बढ़ रही है।

इस साल अपने बजट-पूर्व विवरण में शोधकर्ताओं और एक्टिविस्टों के साथ द पीपल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी (पीएईजी) ने आंकलन किया कि 2022-23 के वित्तीय वर्ष के लिए मनरेगा के लिए न्यूनतम आवश्यक बजट 73, 000 करोड़ रुपये के मुक़ाबले 2.64 लाख करोड़ रुपये के क़रीब होना चाहिए। 73, 000 करोड़ रुपये की घोषणा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने की थी।

गुरुवार को की गई चर्चा में कहा गया कि मनरेगा के लिए धन के अतिरिक्त आवंटन की मांग पहले कई संगठनों द्वारा की गई थी। इस मद में अतिरिक्त आवंटन से ग्रामीण श्रमिकों को मज़दूरी देने में किसी प्रकार की कोई देरी नहीं होगी। उक्त अधिनियम के अनुसार, श्रमिकों को मस्टर रोल पूरा होने के 15 दिनों के भीतर भुगतान किया जाना चाहिए।

हालांकि, सर्वेक्षण के इन परिणामों से पता चलता है कि महामारी वर्ष के दौरान काम करने वाले सभी परिवारों में से केवल 36% परिवार को ही निर्धारित अवधि के भीतर उनकी मज़दूरी मिली।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित साक्षात्कार को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Earnings From MGNREGA Compensated Loss of Income During COVID-19 Pandemic: Study

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