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आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22: क्या महामारी से प्रभावित अर्थव्यवस्था के संकटों पर नज़र डालता है  

हाल के वर्षों में यदि आर्थिक सर्वेक्षण की प्रवृत्ति को ध्यान में रखा जाए तो यह अर्थव्यवस्था की एक उज्ज्वल तस्वीर पेश करता है, जबकि उन अधिकांश भारतीयों की चिंता को दरकिनार कर देता है जो अभी भी महामारी से गंभीर रूप से पीड़ित हैं। हाल की प्रवृत्ति को जारी रखते हुए, इसने प्रबंधन-शैली के शब्दजाल का अधिक इस्तेमाल किया है।
Economic Survey

सोमवार को संसद में 2021-22 का आर्थिक सर्वेक्षण पेश कर दिया गया है, जो अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले गंभीर संकटों को सकारात्मक रूप देने का प्रयास करता है। सरकार के इस तर्क को संरक्षित करते हुए कि भारतीय "विकास की कहानी" बरकरार है और उसमें तेजी से सुधार हो रहा है, यह अगले वित्तीय वर्ष 2022-23 में 8.5 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि का अनुमान लगाता है; वर्तमान आधिकारिक अनुमान हैं कि इस वर्ष अर्थव्यवस्था 9.2 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ेगी। नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण का मुख्य आकर्षण न केवल अपनी प्राथमिकताओं को उजागर करने के तरीके में है, बल्कि उन मुद्दों से बचने में भी है जो मुद्दे अधिकांश भारतीयों के लिए मायने रखते हैं।

यह उज्जवल परिदृश्य पेश करने की यह प्रवृत्ति अर्थव्यवस्था के सामने आने वाली उन प्रमुख चुनौतियों का सामना करने से बचाती हैं जिनके कारण महामारी में आजीविका तबाह हो गई है। यह स्पष्ट हो गया है कि महामारी के दौरान, अर्थव्यवस्था ने और भी अधिक विभाजनकारी प्रवृत्ति हासिल कर ली है, यानि “सबसे निचले पायदान” से संबंधित लोगों की आजीविका पर बड़ा हमला हुआ है और यह उसकी विशेषता है। यह तब है जब हाल के दिनों में कॉर्पोरेट मुनाफा अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच गया है।

इसने, अत्यधिक ऊंची मुद्रास्फीति दर के चलते, उन लोगों के जीवन को तबाह कर दिया है, जिन्होंने नौकरी खो दी है, और उनकी महत्वपूर्ण आय का नुकसान हुआ है और हुकूमत के किसी भी महत्वपूर्ण समर्थन के बिना महामारी के प्रभावों का सामना किया है। इन सभी का सर्वेक्षण में कोई उल्लेख नहीं है। यानी गरीबों के लिए और न केवल अनौपचारिक गतिविधियों में बल्कि संगठित क्षेत्र के नाम पर भी काम करने वालों के लिए, आय में वृद्धि के कोई संकेत नहीं हैं, यहां तक ​​कि आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में तेजी से वृद्धि हुई है। अर्थशास्त्री इसे स्टैगफ्लेशन कहते हैं। लेकिन सर्वेक्षण बस इससे बचता नज़र आता है।

'एनिमल स्पिरिट्स' पर निर्भर होना

यद्यपि अब लगभग दो वर्षों से यह स्पष्ट हो चूका है कि विकास की समस्याओं का स्रोत मांग पक्ष की समस्याओं से उत्पन्न होता है, जबकि सर्वेक्षण बहादुरी से दावा करता है कि "मांग प्रबंधन" कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है। इसके बजाय, नरेंद्र मोदी सरकार के पूर्वाग्रहों के अनुरूप, यह आपूर्ति पक्ष के उपायों की आक्रामक खोज के साथ जारी है। इस प्रकार, यह नियमों में और अधिक ढील देने का वादा करता है, जिसे "प्रक्रिया सुधार" कहा जा रहा है। ये अनिवार्य रूप से वही हैं जो 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' को सुविधाजनक बनाने के नाम से जाने जाते थे।

फिर उस पर निजीकरण और परिसंपत्ति मुद्रीकरण पाइपलाइन का आक्रामक प्रयास है, जो निजी निवेशकों को सरकारी विभागों या सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों से संबंधित सार्वजनिक संपत्ति को निजी खिलाड़ियों को अधिग्रहित करने की अनुमति देता है, इसे इस उम्मीद के साथ धकेला जा रहा है कि निजी उद्यम की 'एनिमल स्पिरिट्स' इसे किक करेंगी, जिससे विकास को गति मिलेगी।

खुद स्वीकार करते हुए, सर्वेक्षण कहता है कि निजी अंतिम उपभोग व्यय अभी भी 2019-20 के स्तर से नीचे है, यानी महामारी से पहले के स्तर से नीचे है। यह मुख्य रूप से सरकारी खर्च है और जो भी विकास हुआ है वह इसी की देन है। यहां तक कि यह किसी भी तरह से इस बात का संकेतक नहीं है कि इस खर्च से महामारी की चपेट में आए लोगों की आय में मदद मिली हैं। तथ्य यह है कि महामारी में दो साल में आय हस्तांतरण योजना के जरिए कोई महत्वपूर्ण प्रयास नहीं किया गया है, जो मांग के सिकुड़ने की गंभीरता को रेखांकित करता है।

इस बीच, पूंजी निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। निजी क्षेत्र ने नई क्षमता के साथ निवेश करने में अत्यधिक अनिच्छा दिखाई है, खासकर ऐसे समय में जब मांग में कमी के कारण मौजूदा क्षमता अभी भी उपयुक्त नहीं है। महामारी के प्रभावों का मुकाबला करने के लिए राजकोषीय साधनों का उपयोग करने से इनकार करने और इसके बजाय मौद्रिक नीति साधनों, मुख्य रूप से ब्याज दरों या केंद्रीय बैंक के माध्यम से तरलता प्रबंधन के इस्तेमाल से शायद ही कोई मदद मिली हो। इससे केवल बड़े निगमों को मदद मिली है जिन्होंने इन उपायों का इस्तेमाल अपने कर्ज को कम करने के लिए किया है, जबकि नए निवेश करने से इनकार कर दिया है।

पूंजी बाजार पर दांव खेलना 

उत्पादक क्षेत्र के विशाल वर्गों के लिए कम ब्याज दरों का आकर्षण उन लोगों के लिए काफी कम  है जिनका अस्तित्व खतरे में है। कम ब्याज दरों के कारण वे जो सीमांत बचत कर सकते थे उसे उनकी तत्काल चिंता में कोई व्यवाहरिक मदद नहीं मिली है, विशेष रूप से महामारी के दौरान कोई मदद नहीं मिली है। कई लोगों की वास्तविक दुनिया की इन चिंताओं में से किसी से भी प्रभावित हुए बिना, सर्वेक्षण इस बात पर जोर देता है कि बैंक ऋण बहुत कम महत्वपूर्ण हो गया है। यह नोट करता है कि "बैंकों द्वारा वित्त प्रदान करने की तुलना में जोखिम पूंजी अब तक कहीं अधिक महत्वपूर्ण रही है।"

दर्ज़ करने के लिए, सर्वेक्षण से पता चलता है कि 75 कंपनियों ने 89,000 करोड़ रुपए अप्रैल और नवंबर 2021 के बीच सार्वजनिक प्रस्तावों के माध्यम से हासिल किए हैं। वास्तव में, सर्वेक्षण यह भी उल्लेख करता है कि चालू वर्ष में आईपीओ (प्रारंभिक सार्वजनिक पेशकश) उछाल मुख्य रूप से "नए युग की कंपनियों/तकनीकी स्टार्ट-अप/ यूनिकॉर्न" द्वारा किया गया है, यह मानते हुए कि इसका मतलब है किसी भी तरह से वित्त पोषण की सभी आर्थिक एजेंटों को जरूरत नहीं है या उनके लिए उपलब्ध नहीं है।

सर्वेक्षण अविश्वसनीय रूप से दावा करता है कि पूंजी बाजार में कंपनियों की पहुंच ने बैंक ऋण की उनकी आवश्यकता को कम कर दिया है। यह दावा केवल भोलेपन से भरा नहीं है, बल्कि यह एक अत्यंत अभिजात्य पूर्वाग्रह को दर्शाता है जो इस वर्ष के अधिकांश सर्वेक्षणों के माध्यम से पेश किया गया है।

सबसे पहले, कॉरपोरेट क्षेत्र के पूंजी बाजार तक पहुंचने में सक्षम होने के कारण जो कुछ भी हासिल करता है, वह उसका केवल एक छोटा सा हिस्सा होता है। छोटी इकाइयों के बड़े हिस्से की, यहां तक कि संगठित क्षेत्र की भी, पूंजी बाजार तक पहुंच नहीं है। दूसरा, पूंजी बाजार के माध्यम से धन जुटाने से जुड़ी लागतें भए इसमें शामिल होती हैं; इस प्रकार, भले ही इक्विटी आम तौर पर ऋण की तुलना में काफी सस्ती हो सकती है, इसलिए कंपनियों को पूंजी बाजार  से जुड़ी लागतों को सही ठहराने के लिए के पैमाने की जरूरत होती है।

तीसरा, पूंजी बाजार में आए उन्माद, जो विडंबनापूर्ण रूप से महामारी और उससे जुड़े व्यापक दुख के साथ मेल खाता है, किसी भी तरह से छोटी कंपनियों के लिए एक दीर्घकालिक विकल्प नहीं है, जिन्हें अल्पकालिक कार्यशील पूंजी की जरूरतों को पूरा करने के लिए धन की जरूरत होती है। इस किस्म का बेशर्म दावा करना कि यह भारतीय कंपनियों के लिए मोक्ष का मार्ग है, न केवल अभिजात वर्ग के हितों पर एक जुनूनी ध्यान केंद्रित करता है, बल्कि अधिकांश भारतीयों के जीवन जीने के तरीके या जैसे वे जीवन जीते हैं उसकी एक कठोर उपेक्षा है।

आर्थिक सर्वेक्षण का होता अवमूल्यन

2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से और योजना आयोग को सरसरी तौर पर खत्म करने के बाद से आर्थिक सर्वेक्षणों का मूल्य लगातार कम होता गया है। शुरुआत में, इसने गंभीरता का लिबास पहने रखा, लेकिन बाद में, विशेष रूप से अंतिम मुख्य आर्थिक सलाहकार की नियुक्ति के बाद जो विशेष रूप से अर्थशास्त्रियों के समुदाय में प्रसिद्ध नहीं था, उसके पद ग्रहण करने के बाद दस्तावेज़ का काफी अवमूल्यन किया जा चुका है। यह विशेष रूप से इसलिए था क्योंकि दस्तावेज़ को इस रूप में देखा गया कि जिसका प्राथमिक कार्य सरकार या सत्ता में पार्टी के कार्यों को सही ठहराना था - 2016 में राष्ट्रीय मुद्रा के विमुद्रीकरण और जीएसटी के कार्यान्वयन से उत्पन्न अराजकता को सहे ठहराना था। 

भारत की सांख्यिकीय प्रणालियों की अखंडता के प्रति मोदी शासन की घोर उपेक्षा ने भी सर्वेक्षण की दिशा निर्धारित करने में एक अचूक भूमिका निभाई है। वी-आकार के आर्थिक सुधार या पिछले वर्ष के "थैलिनोमिक्स" के इस्तेमाल के पिछले सर्वेक्षण की विजयी भविष्यवाणियों को याद करें, जिसने सूचकांकों के निर्माण की मूल बातों के प्रति घोर अज्ञानता प्रदर्शित की, या अपने एक टेबल में डेटा स्रोत के रूप में विकिपीडिया के चौंकाने वाले इस्तेमाल को प्रदर्शित किया था। 

हाल के सर्वेक्षणों को इस रूप में आकार दिया गया है जो अर्थशास्त्र के बजाय उच्च वित्त की दुनिया से आते हैं, उन्होंने प्रबंधन शब्दजाल के लिए एक ऐसे दावे को भी दर्शाया है जो भारतीय वास्तविकता से बहुत दूर हैं। उदाहरण के लिए, इस वर्ष का सर्वेक्षण इस निराधार दावे के साथ शुरू होता है कि भारतीय नियोजन प्रक्रिया जिसे "झरना" दृष्टिकोण कहते हैं, का उपयोग लंबे समय से चला आ रहा है। यह दृष्टिकोण को "विस्तृत" के रूप में वर्णित करता है, लेकिन कठोर, दुनिया की अनिश्चितताओं से निपटने के लिए पर्याप्त फुर्तीला नहीं दिखता है। इसके बजाय, यह एक "फुर्तीले" दृष्टिकोण को अपनाता है, जिसे सॉफ्टवेयर विकास और परियोजना प्रबंधन की दुनिया से उधार लिया गया है।

सर्वेक्षण, प्रबंधन की दुनिया से शब्दजाल का इस्तेमाल करते हुए, यह दावा करता है कि यह ढांचा बेहतर है क्योंकि यह "फीड-बैक लूप, वास्तविक परिणामों की वास्तविक समय में निगरानी, ​​लचीली प्रतिक्रिया, सुरक्षा-नेट बफर" और ऐसे अन्य कारकों पर आधारित है। यह स्पष्ट रूप से दावा करता है कि यह लचीला दृष्टिकोण "नियतात्मक" होने के बजाय "नीति विकल्पों" के विश्लेषण को सक्षम बनाता है, जैसा कि पुराने जमाने की योजना के मामले में होता था। सर्वेक्षण फैशनेबल दावा करता है कि विशाल रीयल-टाइम डेटा की दुनिया में, यह सब संभव है।

यहां से सर्वेक्षण के लिए डेटा की दुनिया में भारी निवेश करना केवल एक छोटा कदम है जो हमेशा जरूरत के हिसाब से उपलब्ध होता है। यह जीएसटी संग्रह, डिजिटल भुगतान, उपग्रह फोटोग्राफ, बिजली उत्पादन, कार्गो, आंतरिक/बाहरी व्यापार, बुनियादी ढांचे का रोल-आउट, विभिन्न योजनाओं की डिलीवरी, गतिशीलता संकेतक और कई अन्य की गणना करता है और उस निर्भर रहता है। दर्शकों में डिजिटल रूप से जुड़े लोगों के लिए यह सब करना बिल्कुल सही लग सकता है, लेकिन नीतियों को तैयार करने के लिए इस तरह के डेटा पर अत्यधिक निर्भरता निश्चित रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषता वाले बिन्दुओं को बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त करेगी। जिस तरह डिजिटल डिवाइड लोगों के बड़े हिस्से को किसी भी तरह की सार्थक और लोकतांत्रिक भागीदारी से दूर कर देता है, ऐसे डेटा पर दर्ज नीतियों पर भारी निर्भरता, नीतियों के वास्तविक खतरे को इस तरह से तैयार करती है जो उन लोगों की चिंताओं को अनदेखा कर देगी जो हैं बात करने के मामले में काफी बड़ा हिस्सा नहीं है।

ऐसा नहीं है कि उच्च-आवृत्ति संख्याओं की प्रासंगिकता या उनका कोई इस्तेमाल नहीं है। लेकिन इनका सावधानी से इस्तेमाल करने की जरूरत है क्योंकि ये पूरी तस्वीर का एक अंश प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए, आर्थिक उत्पादन या राष्ट्रीय आय के प्रारंभिक अनुमानों की गणना के लिए इस तरह के डेटा का उपयोग आर्थिक गतिविधियों में प्रतिभागियों के बड़े वर्ग की अनदेखी की गंभीर समस्या से ग्रस्त है। तथ्य यह है कि भारतीय सकल घरेलू उत्पाद का अनुमान असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्रों में आर्थिक उत्पादन का अनुमान लगाने के लिए अप्रत्यक्ष तरीकों पर बहुत अधिक निर्भर करता है, विमुद्रीकरण या महामारी जैसी आपदाजनक घटनाओं का आजीविका और आय पर प्रभाव को कम करके आंका जाता है। उच्च आवृत्ति संकेतक द्वारा इस वास्तविकता को पकड़ने में विफल होने के कारण, लोगों के विशाल वर्ग को नीति निर्माण के वैध कार्य से दूर कर दिया जाता है। ऐसे नंबरों पर भारी निर्भरता न केवल एक जानबूझकर पूर्वाग्रह को दर्शाती है बल्कि इक्विटी के लिए एक गंभीर अवहेलना को दर्शाती है।

वास्तव में, सर्वेक्षण की प्रस्तुति के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में, वित्त मंत्रालय के प्रधान आर्थिक सलाहकार, संजीव सान्याल ने उपग्रह-आधारित छवियों की एक श्रृंखला प्रदर्शित की (इस वर्ष के सर्वेक्षण में उपग्रह छवियों के उपयोग के लिए समर्पित एक पूरा अध्याय है) भारत में शहरी केंद्रों के स्थानिक विकास और समय के साथ भारत में रात की रोशनी में बदलाव दिखा रहा है। इस तरह की छवियों का प्रभावी ढंग से उपयोग करने के अद्भुत तरीकों पर कोई भी संदेह नहीं करता है, लेकिन क्या इन छवियों का शहरी अधिकारियों या राष्ट्रीय बिजली ग्रिड के प्रबंधक द्वारा बेहतर उपयोग किया जाता है? आर्थिक सर्वेक्षण में इन्हें क्यों शामिल करना है?

दरअसल, एक पत्रकार ने सान्याल से पूछा कि क्या महामारी या भारत में कोविड से हुए हताहतों को दिखाने वाले समूहों के मद्देनजर बेरोजगारों के समूहों की पहचान करना संभव है। सान्याल के पास कोई जवाब नहीं था। क्योंकि सर्वेक्षण स्पष्ट रूप से ऐसे सांसारिक प्रश्नों का उत्तर देने के लिए नहीं बनाया गया था।

लेखक फ्रंटलाइन' के पूर्व सहयोगी संपादक रहे हैं, और उन्होंने द हिंदू ग्रुप के लिए तीन दशकों से अधिक समय तक काम किया है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें 

Economic Survey 2021-22: Glossing Over Travails of a Pandemic-hit Economy

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