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प्रभात पटनायक की क़लम से: विकास के दो वैकल्पिक प्रतिमान

हम इस तथ्य की कैसे व्याख्या करें कि देश में प्रतिव्यक्ति आय की वृद्धि दर में बढ़ोतरी के साथ, खाद्यान्न उपभोग की वृद्धि दर में गिरावट जुड़ी रही है।
Food consumption
प्रतीकात्मक तस्वीर

यह दावा तो कोई भी नहीं कर सकता है कि नव-उदारवादी दौर में कृषि उत्पादन की और खासतौर पर खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि दर, इससे पहले के नियंत्रणात्मक दौर के वर्षों के मुकाबले ज्यादा रही है। वास्तव में यह दर घटकर ही रही होगी, फिर भी हम माने लेते हैं कि यह दर ज्यादा तो किसी भी तरह से नहीं रही है। 

दूसरी ओर, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर उल्लेखनीय रूप से ज्यादा रही मानी जाती है। बेशक, अनेक अर्थशास्त्रियों ने यह दलील दी है कि यह वृद्धि अतिरंजित कर के दिखाई जा रही है। फिर भी हम मान लेते हैं कि समग्रता में देखा जाए तो इस दौर में वृद्धि दर उल्लेखनीय रूप से बढ़कर रही है। 

लेकिन, नियंत्रणात्मक दौर में लगातार खाद्यान्नों की कीमतों पर दबाव रहता था, जो मांग के आपूर्ति से ज्यादा होने की स्थिति की ओर इशारा करता था। कीमतों में इस दबाव को कीमतों पर नियंत्रण के जरिए और अनेक नाजुक मौकों पर सार्वजनिक खर्चों में कटौतियों के जरिए, अंकुश में रखा जाता था। 

लेकिन, नव-उदारवादी दौर में औसतन सरकार अतिरिक्त खाद्यान्न के भंडारों से लदी रही है। खाद्यान्नों की उसकी खरीद आम तौर पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए वह जितना खाद्यान्न बांटती है उससे ज्यादा बनी रही है और भारत खाद्यान्नों का निर्यात करता रहा है। 2023-24 में 10.4 अरब डालर चावल का निर्यात किया गया था।

नव-उदारवादी निज़ाम में मेहनतकशों का आय संकुचन

हम इस तथ्य की कैसे व्याख्या करें कि देश में प्रतिव्यक्ति आय की वृद्धि दर में बढ़ोतरी के साथ, खाद्यान्न उपभोग की वृद्धि दर में गिरावट जुड़ी रही है।

नव-उदारवाद के प्रवक्ताओं को इसमें कुछ भी हैरान करने वाला नहीं लगेगा। वे तो कहेंगे कि जैसे-जैसे लोग खुशहाल होते जाते हैं, उनका खाद्यान्न उपभोग, उनकी आय में वृद्धि के अनुपात में कम बढ़ता है। ऐसी स्थिति में खाद्यान्न बाजार में अतिरिक्त खाद्यान्न का सामने आना तो इसी का संकेतक है कि नव-उदारवादी निजाम में सभी खुशहाल होते जा रहे हैं।

लेकिन, इस दलील के साथ समस्या यह है कि यह सीधे-सीधे साक्ष्यों के खिलाफ जाती है। जहां यह तो संभव है कि अपनी आय बढ़ने के साथ लोग, अनुपात में कम खाद्यान्न उपभोग करते हों, यह संभव नहीं है कि वे शुद्ध रूप से कम उपभोग करने लगें, वह भी तब जब हम प्रत्यक्ष खाद्यान्न उपभोग और अप्रत्यक्ष खाद्यान्न उपभोग, दोनों को मिलाकर देख रहे हों। (अप्रत्यक्ष खाद्यान्न उपभोग प्रसंस्कृत आहारों और ऐसे पशु-जन्य आहारों के रूप में होता है, जिनमें खाद्यान्न का उपयोग पशु आहार आदि के रूप में होता है।) 

इसके पूरी तरह से स्पष्ट साक्ष्य हैं कि शुद्ध खाद्यान्न उपभोग में ऐसी कमी हुई है और ये साक्ष्य शहरी क्षेत्र तथा ग्रामीण क्षेत्र, दोनों में ही ऐसे लोगों के फीसद में समय के साथ बढ़ोतरी के रूप में सामने हैं, जो दैनिक कैलोरी उपभोग के एक निश्चित न्यूनतम शुद्ध संख्या स्तर को हासिल नहीं कर पाते हैं। 

मिसाल के तौर पर ग्रामीण भारत में 2200 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के आहार तक पहुंच न पाने वाले लोगों का हिस्सा जहां 1993-94 में 58 फीसद था, 2011-12 तक यह बढ़कर 68 फीसद हो गया और 2017-18 तक 80 फीसद से ऊपर निकल गया। इसलिए, नव-उदारवादी दौर में तथाकथित ‘‘फालतू’’ या अतिरिक्त खाद्यान्न के भंडार, उस वंचना का नतीजा हैं, जो मेहनतकश जनता की विशाल संख्या पर थोपे गए आय संकुचन का नतीजा है। और इसी सचाई को विश्व भूख सूचकांक से लेकर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे तक (जो कि महिलाओं के बीच खून की कमी की स्थिति में चिंताजनक बढ़ोतरी को दिखाता है), इंगित करते हैं।

विकास के दो प्रतिमान

इस तरह, हमारे पास विकास के दो वैकल्पिक प्रतिमान हैं। पहले प्रतिमान में, जो कि नियंत्रणात्मक प्रतिमान था, एक बुनियादी अर्थ में अर्थव्यवस्था की कुल मिलाकर वृद्धि दर खाद्यान्न सीमित/बाधित थी। ऐसा इसलिए था कि खाद्यान्न उत्पाद की वृद्धि दर, इससे ऊंची समग्र वृद्धि दर की इजाजत नहीं देती थी क्योंकि इससे अधिक वृद्धि दर पर फालतू मांग के चलते, खाद्यान्नों की कीमतों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी पैदा हो जाती। 

मिखाइल कलैकी ने इस तथ्य की ओर इशारा किया था, जब उन्होंने लिखा था कि एक मिश्रित अविकसित अर्थव्यवस्था में, जो कि भारत ‘‘उदारीकरण’’ से पहले तक रही थी, संसाधन जुटाने की वित्तीय समस्या, कृषि वृद्धि दर को बढ़ाने वास्तविक समस्या के सिवा और कुछ नहीं है। 

दूसरे शब्दों में, कुल मिलाकर आर्थिक वृद्धि निवेश करने के लिए वित्तीय संसाधनों की कमी से सीमित/बाधित नहीं हो रही थी बल्कि खाद्यान्नों की वृद्धि दर द्वारा लादी गयी सीमाओं से बाधित हो रही थी और यह स्थिति, उनका तर्क था कि मूलगामी भूमि सुधारों के अभाव की वजह से थी।

दूसरा प्रतिमान, नव-उदारवादी प्रतिमान है, जिसमें खाद्यान्न ‘‘फालतू’’ होते हैं। इसमें कुल मिलाकर वृद्धि दर को निर्यातों की वृद्धि की दर सीमित करती है। इसमें कोई देश तेजी से वृद्धि कर सकता है, अगर विश्व बाजार और ज्यादा दर से बढ़ रहा हो और वह देश इस बाजार के अपने हिस्से को बरकरार रखने में समर्थ हो या वह अन्य देशों की कीमत पर, इस बाजार के अपने हिस्से को बढ़ा सकता हो। इस समग्र वृद्धि दर पर चूंकि विश्व बाजार में प्रतियोगिता के चलते, प्रौद्योगिकीय सह ढांचागत बदलाव लाये जा रहे होंगे, जो बदलाव श्रम उत्पादकता में एक उच्चतर वृद्धि दर में अभिव्यक्त हो रहे होंगे, रोजगार में एक सीमित वृद्धि ही संभव है।

रोजगार में यह वृद्धि सामान्य रूप से रोजगार की तलाश करने वालों की संख्या में वृद्धि की दर से कम होगी। इन रोजगार की तलाश करने वालों में श्रम शक्ति में नये जुड़ने वाले भी शामिल होंगे और ऐसे विस्थापित किसान तथा दस्तकार भी शामिल होंगे, जो पहले उन्हें सरकार से हासिल रहे संरक्षण तथा सहायता को गंवा देंगे और कंगाल हो जाएंगे। इससे श्रम शक्ति के अनुपात के रूप में श्रम की सुरक्षित फौज का आकार बढ़ जाएगा और इससे समग्रता में श्रमिकों की प्रतिव्यक्ति आय में गिरावट आयेगी या वह आय संकुचन आएगा, जिसका हमने पीछे जिक्र किया था और जो कि खाद्यान्न के ‘‘फालतू’’ या अतिरिक्त भंडारों के सामने आने के पीछे है।

वृद्धि के माप का वैकल्पिक पैमाना

इससे दो निष्कर्ष निकलते हैं। पहला यह कि अगर हम प्रगति को जनता के कल्याण के पहलू से मापना चाहते हैं तो हमें, आम तौर पर जिस प्रतिव्यक्ति जीडीपी वृद्धि को देश की प्रगति की माप करने के लिए कुंजीभूत संकेतक के रूप में लिया जाता है, उसे हटाकर मेहनतकशों के उपभोग में आने वाले मालों तथा सेवाओं की ‘वास्तविक’ खपत को यानी जिन्हें हम जरूरियात कहते हैं उनके उपभोग की प्रतिव्यक्ति वृद्धि को हिसाब में लेना चाहिए और खाद्यान्नों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उपभोग, इसका एक उल्लेखनीय घटक है। 

यह ऐसा पैमाना है जिसे नियंत्रणात्मक दौर और नव-उदारवादी निजाम, दोनों पर ही समान रूप से लागू किया जा सकता है। नियंत्रणात्मक दौर में ‘जरूरियात’ के वास्तविक उपभोग की प्रतिव्यक्ति वृद्धि दर मोटे तौर पर जरूरियात के घरेलू उत्पादन की प्रतिव्यक्ति दर के बराबर रहती है क्योंकि ऐसे निजाम में खाद्यान्नों तथा अन्य जरूरियात के आयात के लिए प्रचुर मात्रा में विदेशी मुद्रा नहीं होती है और यह पूंजी नियंत्रणों की सर्वविद्यमानता की वजह से होता है, जो वित्तीय प्रवाहों को सीमित करते हैं। लेकिन, नव-उदारवाद के अंतर्गत यह प्रतिव्यक्ति वृद्धि दर ‘जरूरियात’ की मांग की वृद्धि दर से सीमित होती है और इस मांग को सीमित करता है मेहनतकश जनता के हाथों में पर्याप्त क्रय शक्ति का नहीं होना।

दूसरे, चूंकि ऐसे हालात में जहां अर्थव्यवस्था में जरूरियात की चीजों के ‘फालतू’ भंडार उपलब्ध हों, जरूरियात की चीजों के उपभोग की वृद्धि दर को अर्थव्यवस्था में रोजगार के स्तर को बढ़ाने के जरिए तेज किया जा सकता है। ऐसा नहीं करना एक अतार्किक स्थिति होगी और रोजगार में बढ़ोतरी के जरिए इसे दुरुस्त किया ही जाना चाहिए। और यह राज्य द्वारा अपने खर्चे बढ़ाए जाने के जरिए किया जा सकता है। लेकिन, रोजगार में वृद्धि करने के लिए राज्य के खर्च को तभी बढ़ाया जा सकता है, जब इसके लिए वित्त या तो राजकोषीय घाटे के जरिए जुटाया जाए या फिर अमीरों पर कर लगाने के जरिए जुटाया जाए। 

इसके विपरीत, अगर मेहनतकशों पर कर लगाया जाता है और उसकी प्राप्तियों को खर्च किया जाता है, तो यह तो एक तरह की मांग को हटाकर दूसरी तरह की मांग लाने का ही काम कर रहा होगा और इसलिए रोजगार में बढ़ोतरी नहीं करेगा। 

लेकिन, राज्य द्वारा खर्च के इन दोनों ही तरीकों का वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी कड़ा विरोध करती है। इसलिए, इसका अर्थ यह हुआ कि रोजगार के विस्तार में वास्तविक बाधा तो वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी का वर्चस्व ही है। और अगर एक साथ, एक ओर खाद्यान्न के फालतू भंडार जमा होने और दूसरी ओर भारी बेरोजगारी की घोर बर्बादीपूर्ण तथा अतार्किक स्थिति से उबरना है, तो पूंजी नियंत्रण लागू करने के जरिए, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के वर्चस्व से उबरना होगा। 

पूंजी नियंत्रणों के लागू किए जाने अनिवार्य रूप से अर्थ होगा, नव-उदारवादी निजाम का अंत। इस निजाम का तो सार ही है, देशों की सीमाओं के आर-पार पूंजी की और खासतौर पर वित्तीय पूंजी की बेरोक-टोक आवाजाही।

नव-उदारवादी निज़ाम की अतार्किकता

प्रगति के माप के पैमाने के रूप में, प्रतिव्यक्ति जीडीपी वृद्धि दर के विकल्प के तौर पर हमने पीछे जो वैकल्पिक पैमाना सुझाया है, उस पैमाने के हिसाब से नव-उदारवादी दौर, नियंत्रणात्मक दौर के मुकाबले बदतर रहा है। इसके ऊपर से, नव-उदारवादी निजाम रोजगार के स्तर को बढ़ाने के आड़े आता है, जबकि खाद्यान्न के फालतू भंडार, बर्बादीपूर्ण तरीके से पड़े होते हैं। दूसरे शब्दों में, नव-उदारवादी निजाम सिर्फ प्रगति करने के लिहाज से ही कमतर नहीं है बल्कि अतार्किक भी है।

यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि हमारे लिए सिर्फ उस तरह के नियंत्रणात्मक निजाम पर लौट जाना ही काफी होगा, जैसा निजाम नव-उदारवाद से पहले रहा था। जैसाकि हम पीछे देख आए हैं, नियंत्रणात्मक दौर के अंतर्गत वृद्धि दर, कृषि और खासतौर पर खाद्यान्नों की वृद्धि दर पर निर्भर करती है। अगर रोजगार की दर बढ़ानी है, तो जिस तरह की नियंत्रणात्मक व्यवस्था के पुनर्जीवन की जरूरत होगी, उसे खाद्यान्न वृद्धि की कहीं ऊंची दर सुनिश्चित करनी होगी और इसके लिए न सिर्फ भूमि सुधारों की जरूरत होगी बल्कि भूमि-उत्पादकता वृद्धिकारी तौर-तरीकों को लाने के लिए, शासन की ओर से सतत प्रयास किए जाने की भी जरूरत होगी।

भूमि सुधार की संज्ञा से आम तौर पर, जमींदारों के हाथों में भूमि के संकेंद्रण को खत्म करने का ही अर्थ लिया जाता है। लेकिन, यह एक अधूरी समझ है। बड़ी मात्रा में जमीन बागानों में फंसी हुई है, जिनमें से अनेक स्वतंत्रता से पहले के दौर में दिए गए दीर्घावधि पट्टे पर हैं और इस जमीन के बड़े हिस्से का किसी उत्पादक काम के लिए उपयोग नहीं होता है। इन जमीनों को भी भूमि सुधार के दायरे में लाया जाना चाहिए। 

नव-उदारवाद के अंतर्गत निर्यात-चालित वृद्धि का विकल्प सिर्फ राज्य द्वारा शुरू की गयी वृद्धि ही नहीं है बल्कि और भी ठोस तरीके से राज्य के तत्वावधान मेें कृषि-चालित वृद्धि है। 

(प्रभात पटनायक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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