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चुनाव विशेष: पंजाब की नज़र से पंजाब को समझने की कोशिश

सियासी पंडित पंजाब का राजनैतिक अध्ययन भी अन्य राज्यों की तरह ही कर रहे हैं। सबसे बड़ी गलती है पंजाब को उत्तर भारत की हिन्दी पट्टी जैसा राज्य समझना जबकि पंजाब की तासीर बिल्कुल अलग है।
goldan temple
अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर। तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए।

2022 के पंजाब विधानसभा चुनाव दरवाजे पर दस्तक दे चुके हैं। देश की राजधानी में बैठे सियासी पंडित अपनी समझ के मुताबिक पंजाब का चुनावी विश्लेषण कर रहे हैं। ये सियासी पंडित पंजाब का राजनैतिक अध्ययन भी अन्य राज्यों की तरह ही कर रहे हैं, उसी तरह जाति और धार्मिक समीकरण गढ़े जा रहे है जो कि एक बड़ी गलती है। उससे भी बड़ी गलती है पंजाब को उत्तर भारत की हिन्दी पट्टी जैसा राज्य समझना जबकि पंजाब की तासीर बिल्कुल अलग है।

सन् 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में पंजाब ने पूरे देश से अलग फ़ैसला दिया था। इन दोनों चुनाव में जहाँ पूरा मुल्क (गिनती के चंद राज्यों को छोड़कर) मोदी लहर की लपेट में आ गया था, वहीं पंजाब इस लहर को रोकने वाला राज्य नज़र आया। राज्य के इस तरह के फतवे को समझने के लिए जरूरी है पंजाब में समय-समय पर आये सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक परिवर्तनों को समझना। जरूरत है पंजाब के बौद्धिक हिस्सों में चल रही बहसों व वैचारिक तौर पर उबल रहे पंजाब को समझने और जानने की। यह सब समझे बगैर पंजाब व  पंजाब के जनादेश को समझना मुश्किल है।

पंजाब में गुरबाणी, सूफ़ी मत, भक्ति लहर का प्रभाव अब भी हम किसी न किसी रूप में देख सकते हैं। इन विचारधाराओं ने पंजाब को एकता के सूत्र में बांधा है । बीसवीं सदी में पंजाब की धरती पर आई समाजवादी विचारधारा ने पंजाब के जनसंघर्षों को और जोशीला किया। 1947 से लेकर अब तक पंजाब ने बड़ी वैचारिक और राजनैतिक घटनाओं को घटते हुए देखा है । 1947 के बंटवारे ने पंजाब और पंजाबियत को अंदर तक हिला कर रख दिया। अभी भी सन् 47 के जख्म पंजाब को तंग करते है। पंजाब के लोग दोनों पंजाबों और दोनों देशों के बेहतर रिश्ते चाहते है। यही कारण है कि सरहदी राज्य होने के बावजूद पंजाब में पाकिस्तान के प्रति दुश्मनी का वह भाव नहीं दिखाई देता जैसा देश के अन्य हिस्सों में दिखाई पड़ता है। बंटवारे के बाद पंजाब ने मुजारा आंदोलन, वामपंथी आंदोलन को ताकतवर और कमजोर होते देखा है। पंजाब ने अकाली मोर्चे, `पंजाबी सूबा लहर` और उसके विरोध में `महा पंजाब` लहर, हिन्दू पंजाबियों द्वारा जन-संघ के बहकावे में आ कर पंजाबी ज़ुबान से किनारा कर अपनी मातृभाषा हिन्दी लिखवाना, नक्सली लहर को दबाने के नाम पर सरकारी जुल्म, राज्यों को ज़्यादा अधिकारों की मांग उठनी,  इमरजेंसी का दौर जिसमें पंजाब ने इमरजेंसी के विरुद्ध बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, उग्र सिख राजनीति का उभार, हरिमंदर साहिब पर फ़ौजी हमला, दिल्ली सिख कत्लेआम, खालिस्तानी लहर का उभार, खालिस्तानीयों द्वारा पंजाब के हिन्दू भाईचारे को निशाना बनाना और वामपंथी सोच के लोगों का कत्ल करना, पंजाब में पैदा हुए कांशीराम द्वारा भारत स्तर पर दलित पार्टी बनाना आदि राजनैतिक घटनाएँ व आंदोलन देखे हैं।

यह वो दौर था जब पंजाब की राजनीति पर पंथक और वामपंथी विचारधारा का गहरा प्रभाव था। पंथक विचारधारा वाले मुख्य तौर पर धनी जट्ट जमात के नुमाईंदे थे। श्रमिक और दलित वर्ग उनके एजंडे पर नहीं था। उनके द्वारा उठाई गई राज्यों को अधिक अधिकार दिए जाने की मांग भी साम्प्रदायिक रूप धारण कर लेती थी। इस लिए दूसरे समुदायों को वे अपने साथ न ले सके। वामपंथी विचारधारा वाले भले ही अपने आप को किसान और मजदूर वर्ग का प्रतिनिधि कहलवाते थे, पर इस विचारधारा वाली ज़्यादातर पार्टियों में पैटी-बुर्जुआ (निम्न-पूंजीवादी) लक्षण थे। दलित मसलों के प्रति उनकी सोच सदा सवालों के घेरे में रही है। पंजाब में मुख्यधारा की कई वामपंथी पार्टियों पर यह आरोप भी लगे हैं कि वह अल्पसंख्यकों के मसलों को सही ढंग से संबोधित नहीं हो पाईं और कई मौकों पर कांग्रेस की `बी` टीम का रोल निभाती रही हैं।

मानव अधिकारों के मामले में कई पंथक और वामपंथी संगठन संकीर्णता के शिकार रहे हैं। 70 के दशक में जब नक्सली लहर के समय स्टेट के द्वारा मानव अधिकारों का हनन हुआ तो किसी भी पंथक संगठन या पार्टी ने इसके विरुद्ध आवाज़ नहीं उठाई थी। इसी तरह जब 1984 के बाद स्टेट द्वारा सिख संगठनों के कार्यकर्ताओं पर खालिस्तान के नाम पर ज़ुल्म हुए तो कुछ वाम पार्टियों को छोड़ कर किसी ने उनके पक्ष में आवाज़ बुलंद नहीं की थी।

70 के दशक में कुछ बड़े अख़बार समूहों ने पंजाबी भाषा में अख़बार शुरू किए। 80 के दशक में पंजाब के मालवा क्षेत्र में पंजाबी साहित्य के प्रकाशन का काम कई हिन्दू पंजाबियों ने संभाला। इससे पहले यह काम आमतौर पर माझा क्षेत्र और दिल्ली के सिख क्षत्रियों द्वारा ही किया जाता था। 80 के दशक के आखिर तक वामपंथी विचारधारा वाले साहित्य (खासकर नक्सली विचारों वाले साहित्य) की पंजाबी साहित्य के ऊपर तगड़ी जकड़ रही। 90 के दशक में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घटित हुई घटनायों ने पंजाबी समाज पर भी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक तौर पर असर डाला। पंजाबी साहित्य में `मिडल क्लासी साहित्य` का आगमन हुआ, जो अपने अंदर तक सीमित रहता है। घर को छोड़ने और मौत को मजाक करने वाली पंजाबी कविता अब घर में सिमट जाना लोचने लगी। मौत उसके लिए बहुत डरावनी शह बन गई। पंजाबी कवि के लिए घर ही सब से बड़ा आसरा बन जाता है। उत्तर-आधुनिकतावाद, संरचनावाद, नारीवाद, प्रयोगवाद जैसी धारणाओं ने पंजाबी साहित्य में अपनी जकड़ मजबूत कर ली।

यह वह समय था जब पंजाब की चुनावी राजनीति से वामपंथी पक्ष कमजोर पड़ गया था और पंथक राजनीति और पंथक संगठनों का रसातल की ओर जाना शुरू हो चुका था। 1997 में अकाली दल भाजपा के साथ गठबंधन कर के सत्ता में आया। इस गठबंधन ने विधानसभा की 117 में से 93 सीटें जीतीं (अकाली दल 75, भाजपा 18)। अब अकाली दल अपनी पारंपरिक राजनैतिक सोच छोड़कर नई तरह की राजनैतिक सोच की ओर बढ़ रहा था। शायद इसका कारण यह भी था कि जिस धनी वर्ग का वह प्रतिनिधित्व कर रहा था उसको सत्ता में हिस्सा मिल चुका था। चुनाव के समय किया गया फर्जी पुलिस मुकाबलों की जाँच का वायदा अकाली दल ने सत्ता मिलते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया। सत्ता के शुरूआती दिनों में भ्रष्टाचार विरोधी होने का जो नाटक किया था वही भ्रष्टाचार अकाली विधायकों और मंत्रियों से होता हुआ प्रकाश सिंह बादल के घर तक जा पहुंचा था।

2002 में कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुवाई में आई कांग्रेस सरकार ने अपनी शुरुआत अकाली राज में हुए भ्रष्टाचार को नंगा करके की। कैप्टन अमरिंदर ने अकालियों से पंथक मुद्दे छीने और पंजाब सम्बन्धित अन्य मुद्दों पर भी अकालियों को कमज़ोर किया। आम सिखों और उग्र विचारों वाले सिख ग्रुपों में कैप्टन चमकने लगे। कैप्टन के इसी दौर में खेतीबाड़ी की जगह औद्योगीकरण को महत्व दिया गया। खेती जमीनों का अधिग्रहण किया गया और इसके विरोध में किसान संघर्ष भी हुए। निजीकरण और उदारीकरण ने अपनी रफ्तार को और बढ़ाया। कई कांग्रेसी मंत्रियों के निजी कारोबार चमकने लगे।

2007 में दोबारा सत्ता में आई अकाली-भाजपा सरकार ने कैप्टन सरकार की औद्योगीकरण, उदारीकरण और  निजीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाना जारी रखा और 10 साल (2007 से 2017 तक के समय में) यह काम और ज़ोर-शोर से होता गया। खेती और किसानी सरकारी एजेंडे से दूर होते चले गए। बादल परिवार और उनके रिश्तेदारों का कारोबार भी फलने-फूलने लगा। पंथक मुद्दे और पंजाब की लंबे समय से चली आ रही मांगें अकाली दल के एजेंडे से पूरी तरह दूर चली गई।

जन-विरोधी सरकारी नीतियों से पंजाब के हर वर्ग में गुस्सा दिखने लगा। अपने रौब को बनाए रखने के लिए सत्ताधारियों ने गुंडा टोलों का सहारा लिया। राज्य में गुंडा तत्त्वों ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए। फरीदकोट में हुआ लड़की का अपहरण कांड और तरन तारन के पास छेहरटा में हुई छेड़खानी की घटना ने यह साबित कर दिया कि अकाली राज्य में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। इसी दौर में पंजाब के हताश हुए नौजवानों ने बड़े स्तर पर विदेशों की ओर रुख किया ।

यह वह समय भी था जब वामपंथी गुटों ने अपना आत्ममंथन शुरू किया खासकर दलित और अल्पसंख्यक मसलों के प्रति अपनी सोच में तब्दीली लाई। खत्म हो चुकी या अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे कई पंथक गुटों ने खालिस्तान की मांग को छोड़कर `फैडरल स्टेट` की मांग पर ज़ोर देना शुरू किया। कुछ वामपंथी और पंथक ग्रुप हिन्दुत्ववादी फासीवाद के विरुद्ध एक मंच पर नज़र आने लगे। हताशा और निराशा वाले दौर में पंजाब कहीं न कहीं कुछ अच्छा करने के लिए जूझता भी नजर आने लगा। इसी माहौल का फ़ायदा उठा कर अकाली दल से अलग हुए मनप्रीत सिंह बादल ने भगत सिंह का नाम लेकर नई पार्टी ‘पीपल्ज़ पार्टी आफ पंजाब’ बना कर 2012 के विधानसभा चुनाव में 5 फीसदी वोट हासिल किए। सूबे का यही माहौल अन्ना आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी के लिए कारगर साबत होता है।

दिल्ली में दिसंबर 2013 में सत्ता में आई 47 दिनों की केजरीवाल सरकार द्वारा भ्रष्टाचार विरुद्ध उठाए कदम, जन-लोकपाल बिल, 1984 के कत्लेआम मामले में जाँच के लिए एसआईटी (SIT) बनाना आदि ये तमाम वो फैसले थे जिसने देश-विदेश में बसने वाले पंजाबियों के दिल जीत लिए। पंजाब के हताश और निराश नौजवानों को केजरीवाल और उसके साथियों द्वारा भगत सिंह को याद करना, इन्कलाब जिंदाबाद और व्यवस्था परिवर्तन जैसे दिए गये नारे अपनी ओर खींचने लगे। वामपंथी सोच की बैकग्राउंड वाले और मानव अधिकार कार्यकर्त्ता आम आदमी पार्टी से जुड़ने लगे। `आप` के नेताओं ने सिस्टम से असंतुष्ट हुए कॉमरेडों और थक-हार चुके सिख संगठनों को भी अपने साथ जोड़ा। डॉ. धर्मवीर गांधी, एच .एस .फूलका जैसी शख्सियतों के `आप` से जुड़ने के कारण पार्टी को पंजाब में और बल मिला। कई सालों बाद वामपंथी और पंथक ग्रुप एक झंडे के नीचे इकठ्ठे दिखाई देने लगे। उस समय कई विद्वानों ने तो यहाँ तक लिखा कि पंजाब का लंबे समय से दिल्ली से टूटा हुआ संवाद होने लगा है। केजरीवाल और उसके साथी पंजाबियों के हीरो बन गए। फलस्वरूप 2014 के लोकसभा चुनाव में जहाँ आम आदमी पार्टी को पूरे देश में शिकस्त मिली वहीं पंजाब वालों ने उनकी झोली में 4 सीटें डालीं। ज्यादातर राजनैतिक विश्लेषकों का मानना था कि यदि उस समय `आप` ने पंजाब को गंभीरता से लिया होता तो सीटों की गिनती और भी बढ़ सकती थी।

पंजाब के लोग जाति और धर्म से ऊपर उठ कर खूबसूरत पंजाब के सपने मन में संजोये ‘आप’ वालों पर फ़िदा थे। किसी स्पष्ट विचारधारा की अनुपस्थिति वाली इस पार्टी में जल्द ही तू-तू मैं-मैं होने लगी। पर इसके बावजूद 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘आप’ ने 70 में से 67 सीटें जीत कर मिसाली जीत हासिल की, देश-विदेश में बसने वाले पंजाबियों का इस जीत में अहम योगदान रहा। पंजाबियों ने दिल्ली जाकर `आप` के लिए इस तरह प्रचार किया जैसे वह कोई इन्कलाब की लड़ाई लड़ रहे हों और वह इन्कलाब दिल्ली से हो कर पंजाब पहुंचेगा। पूरा देश पंजाब की इस धर्मनिरपेक्षता को बड़ी नजदीक से देख रहा था।

दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने के बाद `आप’ में अंदरूनी क्लेश बढ़ गया। केजरीवाल ने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी से बाहर कर दिया। बहुत सारे कार्यकर्त्ता और समझदार माने जाने वाले लोग पार्टी से बाहर होने लगे। इस फूट का असर पंजाब में भी पड़ा। पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र की मांग ज़ोर पकड़ने लगी। पार्टी की इस तोड़-फोड़ से पंजाबियों का मन दुखी हुआ पर पार्टी में नेताओं के आने जाने का सिलसिला जारी रहा। पंजाब के लोग इसे भी दूसरी पार्टियों जैसा ही समझने लगे। इसी के चलते 2017 के विधानसभा चुनाव में ‘आप’ अपनी नालायकियों के कारण सत्ता में न आ सकी पर विपक्ष का दर्जा हासिल करने में कामयाब रही। लेकिन पंजाब के ‘आप’ नेताओं की इच्छाएं और स्वार्थ ज्यादा बड़े थे। फिर तो आम पार्टियों की तरह यहाँ भी नेताओं के आने जाने का सिलसिला चलने लगा।

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2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, अकाली-भाजपा गठबंधन और आम आदमी पार्टी के सिवा एक चौथा ग्रुप भी था जिसका नाम था पी.डी.ए. (पंजाब डेमोक्रेटिक एलाइंस) जो 6 पार्टियों का साँझा मोर्चा था जिसमें ‘आप’ से अलग हो कर सुखपाल खैरा द्वारा बनाई पार्टी पंजाब एकता पार्टी, धर्मवीर गांधी की नवां पंजाब पार्टी, लोक इन्साफ पार्टी, सी.पी.आई., आर.एम.पी और बसपा शामिल थी। इस चुनाव में जहाँ पंजाब के लोगों ने भगवा रथ को रोका वहीं पारम्परिक पार्टियों के प्रति भी नाराजगी ज़ाहिर की। इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 13 में से 8, अकाली -भाजपा गठबंधन को 4 सीटें (अकाली दल को बादल परिवार वाली सिर्फ 2 सीटें मिली सुखबीर बादल और हरसिमरत कौर बादल वाली ), ‘आप’ को सिर्फ एक भगवंत मान वाली सीट हासिल हुई। इस चुनाव में नोटा को 154430 वोट पड़े। इन चुनाव में पी.डी.ए. भले ही कोई सीट न ले पाया हो पर उस में शामिल पार्टियों ने अपना वोट जरूर बढ़ा लिया था। पी.डी.ए में शामिल बसपा ने आनंदपुर साहिब से 1 लाख 46 हजार वोट, होशियारपुर से 1 लाख28 हजार वोट और जालंधर से 2 लाख से अधिक वोट लेकर तीसरा स्थान हासिल किया। लोक इन्साफ पार्टी ने लुधियाना में दूसरे नम्बर और फतेहगढ़ साहिब में तीसरा स्थान हासिल किया । पटियाला से धर्मवीर गांधी ने 168000 वोट हासिल कर तीसरा स्थान प्राप्त किया। खडूर साहिब से पंजाब एकता पार्टी से मानव अधिकार कार्यकर्त्ता मरहूम जसवंत सिंह खालरा की पत्नी परमजीत कौर खालरा ने चुनाव लड़ा और 2 लाख से अधिक वोट लेकर तीसरे नम्बर पर रही। इस सीट की खासियत यह थी कि यहाँ पर सिख संगठनों और वाम संगठनों ने मिल कर श्रीमती खालरा के लिए प्रचार किया। पी.डी.ए जैसे चौथे पक्ष को इतनी वोट मिलने का मतलब यह है कि पंजाब के लोग कुछ नया बदल चाहते थे।

2022 के इस विधानसभा चुनाव में मुकाबले में एक ओर सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी है दूसरी तरफ अकाली दल बसपा से गठबंधन कर मैदान में है। आम आदमी पार्टी सत्ता हासिल करने के लिए लड़ाई लड़ रही है। चौथी तरफ भाजपा-कैप्टन अमरिंदर की पंजाब लोक कांग्रेस और सुखदेव सिंह ढींडसा का अकाली दल (संयुक्त) का गठबंधन है। वहीं पांचवी तरफ संयुक्त किसान मोर्चा से निकले 22 किसान संगठनों द्वारा बनाया संयुक्त समाज मोर्चा है। मुद्दे अभी भी पुराने हैं।

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इस चुनाव में दिलचस्प बात यह होगी चुनाव से कुछ समय पहले ही दिल्ली की सरहदों पर एक साल से चला आंदोलन जीत कर किसान घर पहुंचे हैं। यह आंदोलन पंजाब के लोगों के लिए सिर्फ कृषि कानूनों के विरुद्ध लड़ा जाने वाला आंदोलन न हो कर उनके लिए एक विश्वविद्यालय बन गया था। लोगों ने इस आंदोलन से सवाल करना सीखा है। यह भी एक सच है कि मौजूदा चुनाव लड़ रही पार्टियों और अवाम के बीच एक बहुत बड़ी खाई है। अवाम अपने संघर्षों से सीख रही है पर नेताओं के पास उन्हें देने के लिए सिर्फ झूठे वायदे, चिकनी-चुपड़ी बातें हैं, धर्म जाति के नाम पर फैलाई नफरत की राजनीति है। इसीलिए पंजाब के कई गावों में लगभग सभी पार्टियों का विरोध हो चुका है।

पंजाब ने पिछले 74 सालों में लंबा सफ़र तय किया है। बड़े उतराव-चढ़ाव देखे हैं। सरकारी और गैर-सरकारी जुल्म सहा है। हर नई चुनौती का सामना करते-करते इसका रूप निखरा है। स्थापति (establishment) के प्रति इसका रोष तीखा हुआ है। इस संघर्षपूर्ण सफर के कारण यहाँ प्रचलित बौद्धिक क्षेत्रों ने भी अपनी सोच को निखारा है खासकर वामपंथी और पंथक गुटों ने। पंजाब लगातार बौद्धिकता और संघर्ष में दोलनशील (vibrant) रहा है और कुछ नया घटित करते रहने वाला सूबा है। यही इसका न्यारापन है ।

पर इसके साथ ही कुछ डर और चुनौतियाँ भी हैं। लोगों की वर्तमान पार्टियों के प्रति उदासीनता के हालात के चलते कहीं चालबाज़ सियासत इसका रुख साम्प्रदायिकता की तरफ न कर दें। संघ परिवार ने सिख धर्म से टूटे तबकों और दलितों को भरमाने की कोशिशें शुरू की हुई हैं भले ही वो अभी तक कामयाब नहीं हुए पर यह एक चुनौती है। भाजपा ने किसान आंदोलन के समय इसको जट्ट बनाम दलित का मुद्दा बनाने की कोशिश की पर उसको मुंह की खानी पड़ी। अब भाजपा और संघ की कोशिश सिखों के अलग-अलग गुटों को आपस में भिड़ाने की भी है।

पंजाब में वामपंथी भले ही वोट सियासत में कमजोर हो गए हों पर कम्युनिस्ट विचारधारा का राज्य की फ़ज़ा में अभी भी रंग दिखाई देता है। चाहे जन-संघर्ष हों, मौजूदा किसान आंदोलन, साहित्य हो या वह हस्तियाँ जिन्होंने लहर के कमजोर होने के कारण निराश हो कर सरगर्म सियासत से किनारा कर अपने आप को सामाजिक और साहित्यिक कामों तक सीमित कर लिया पर समाज में उनका सत्कार अभी भी बना हुआ है। ‘आप’ ने 2014 के लोकसभा चुनाव में पंजाब से जो चार सीटें जीती थी वो इलाके वामपंथी संघर्षों वाले इलाके हैं।

वोट राजनीति में भाग लेने वाले पंजाब के वामपंथियों को पंजाब का बौद्धिक तबका यह सवाल जरूर करता है कि जिस भगत सिंह का नाम लेकर मनप्रीत बादल जैसा सियासतदान पंजाबियों को अपने पीछे लगा सकता है,  ‘आप’ वाले भगत सिंह और इन्कलाब का नाम लेकर पंजाब की जनता के दिलों के अंदर प्रवेश कर सकते हैं (भले ही दोनों का भगत सिंह और उनकी विचारधारा से दूर तक कोई रिश्ता नहीं है) तो फिर कॉमरेड ऐसा क्यों नहीं कर सकते? कहीं ऐसा तो नहीं कि भगत सिंह को अच्छी तरह पढ़ा ही न हो?  भगत सिंह को दोबारा तो नहीं पढ़ना पड़ेगा? यह फैसला वामपंथी नेताओं पर ही छोडते हैं कि उन्होंने भगत सिंह को कम्युनिस्ट विचारक के तौर पर देखना है या सिर्फ ‘समाजवादी विचारधारा से प्रभावित हुए नौजवान’ के तौर पर?     

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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