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"किसानों की अनुशासनहीनता" से कुलीनों की चिढ़ हास्यास्पद है, लेकिन मासूम नहीं

कुछ प्रदर्शनकारियों द्वारा उठाए गए अनुशासनहीन क़दमों के जवाब में दिल्ली पुलिस ने ज़बरदस्त हिंसा की, लेकिन उस पर डर या रोष व्यक्त नहीं किया गया। कुछ मामलों में जब मैदान पर मौजूद रिपोर्टर्स ने पुलिस हिंसा की आलोचना की, तो टीवी एंकर्स ने पुलिस के क़दमों को सही ठहराने की कोशिश की!
"किसानों की अनुशासनहीनता" से कुलीनों की चिढ़ हास्यास्पद है, लेकिन मासूम नहीं

किसान प्रदर्शनकारियों का एक बहुत छोटा सा हिस्सा गणतंत्र दिवस के मौके पर लाल किले में जबरदस्ती दाखिल हो गया था। दक्षिणपंथी, कॉरपोरेट मीडिया और कॉरपोरेट अर्थशास्त्रीय नीतियों के उदारवादी समर्थक इस घटना का इस्तेमाल किसान प्रदर्शन पर हमला करने के लिए कर रहे हैं। यह वह मौका है जब कामग़ारों की चिंता करने वाले लोगों को किसानों की मांग से ध्यान हटाने के षड्यंत्र के खिलाफ़ खड़ा होना होगा। किसानों की मांग तीन किसान विरोधी कानूनों को वापस लेने की है, जिन्हें बीजेपी सरकार ने सितंबर, 2020 में पारित किया था।

गणतंत्र दिवस के दिन बड़ी ट्रैक्टर रैली ने भारत के सत्ता वर्ग को कड़ा संदेश भेजा था। यह वह वर्ग है जो किसानों और कामग़ारों की कीमत पर खुद मुनाफ़ा कमाना चाहता है। प्रदर्शनकारी किसानों का दिल्ली के लोगों ने खुले दिल से स्वागत किया। लेकिन यह सच्चाई सत्ता और कॉरपोरेट मीडिया में बैठे उनके पिट्ठुओं से पचाई नहीं जा रही है, जो लगातार एक्का-दुक्का घटनाओं को किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

कोई भी व्यक्ति जो इस तरीके के बड़े प्रदर्शनों का हिस्सा रहा है, वह जानता है कि प्रदर्शन अपने-आप में बाधा पहुंचाने वाले होते हैं। बड़े प्रदर्शन का उद्देश्य ही सत्ता को प्रदर्शनकारियों की मांग मानने के लिए मजबूर करना होता है। प्रदर्शनकारी इसे कैसे हासिल करेंगे?

अगर प्रशासन लोकतांत्रिक नज़रिए का सम्मान करता है, तो वे प्रदर्शनकारियों की मांगों को मानने के लिए मजबूर हो सकते हैं। इसके लिए सत्ता को यह महसूस होना चाहिए कि जिन लोगों का समर्थन वे हासिल करना चाहते हैं, उनका एक बड़ा हिस्सा इन मांगों को उठा रहा है। अगर प्रशासन लोकतांत्रिक नज़रिए को अहमियत नहीं देता, तो वे तभी इन मांगों पर मजबूर होंगे, जब उन्हें लगेगा कि प्रदर्शन उनके लिए बहुत महंगा साबित हो रहा है या उसे नजरंदाज करना, दबा पाना या प्रबंधित कर लेना संभव नहीं है। सत्ता द्वारा प्रदर्शनकारियों की मांगों को मानना इन्हीं दो तरीकों का मिला-जुला नतीज़ा होता है।

लंबे वक़्त से भारत की केंद्र सरकार बड़ी आसानी से मज़दूरों और किसानों के बड़े प्रदर्शनों को अपनी पीठ दिखाती रही है। अगर किसी एक राज्य या कुछ राज्यों में ही केंद्र सरकार से मांग के साथ कोई प्रदर्शन हो रहा है, तो उन्हें आसानी से नज़रंदाज कर दिया जाता है। इसका एक उदाहरण केरल में भारत-आसियान मुक्त व्यापार समझौते पर हुआ प्रदर्शन था, इस प्रदर्शन पर 2009 में हस्ताक्षर किए गए थे। इस संघर्ष में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया। लोगों को राजनीतिक तौर पर जागरुक बनाने के लिए बड़े कैंपेन चलाए गए। कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सिस्ट) द्वारा राज्य में उत्तर से लेकर दक्षिण तक बड़ी मानव श्रंखला बनाई गई थी। लेकिन क्या हुआ? केंद्र सरकार ने दूसरी तरफ देखते हुए समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए थे। तथाकथित "राष्ट्रीय मीडिया" इस तरह के प्रदर्शनों को प्रसारित ना करने की सावधानी बरतता है, अगर सोशल मीडिया पर बहुत हो-हल्ला होता है, तब इन ख़बरों को दबाना मुश्किल हो जाता है, तब मजबूरी में इन्हें चलाना पड़ता है।

जब दिल्ली में कोई प्रदर्शन होता है, तब क्या होता है? सरकार तय करती है कि किसी खास इलाके में प्रदर्शन होने चाहिए (आमतौर पर जंतर-मंतर या रामलीला मैदान)। ताकि मीडिया प्रदर्शन को नज़रंदाज कर सके, आम लोग जिन्हें इन जगहों से गुजरना नहीं पड़ता है, उन्हें इन प्रदर्शनों के बारे में पता ही नहीं चलता है। सिर्फ तभी इनके बारे में जानकारी होती है जब कॉरपोरेट मीडिया की रिपोर्टें इन संघर्षों से उपजने वाली "दिक्कतों" के बारे में बताते हैं। इस तरह सरकार ऐसा बर्ताव कर सकती है, जैसे उसे इन प्रदर्शनों के बारे में पता ही ना हो। 

भारत में हर जगह प्रदर्शन किसी निश्चित जगह नहीं होते। जैसे केरल का उदाहरण ले लीजिए। कई बड़े प्रदर्शन तिरुवनंतपुरम की बड़ी सड़कों पर होते हैं। कई बार यह प्रदर्शन राज्य सरकार के कार्यालय, सचिवालय के सामने होते हैं। इस तरह प्रदर्शनकारी जनता की नज़रों में बने होते हैं। इससे जनता को कुछ परेशानी तो होती है, लेकिन इस स्थिति में ही आम जनता प्रदर्शनकारियों की मांगों के लिए ज़्यादा चिंतित होने पर मजबूर होती है।

लेकिन दिल्ली में प्रदर्शन कुछ निश्चित जगह ही होते हैं, जिससे केंद्र सरकार को उन्हें नज़रंदाज करना आसान हो जाता है।

अब किसानों के आंदोलन की तरफ वापस आते हैं। शुरुआत में प्रदर्शनकारी कई राज्यों में प्रदर्शन कर रहे थे। सबससे तेज आंदोलन पंजाब और हरियाणा में हो रहे थे। लेकिन तब केंद्र सरकार ने इन पर कोई ध्यान नहीं दिया। पूरे भारत में इन प्रदर्शनों की ख़बर पहुंचाने वाली बहुत कम रिपोर्ट ही होती थीं। मतलब देश के ज़्यादातर लोगों को इन संघर्षों के बारे में कुछ पता ही नहीं था। 

तब किसानों ने अगला कदम उठाया और उन्होंने मुद्दे को प्रकाश में लाने के लिए दिल्ली की तरफ कूच करना शुरू कर दिया। (यहां एक मुद्दा दूरी भी है। संगठित किसान आंदोलन केरल और पश्चिम बंगाल जैसे कई राज्यों में ताकतवर है। लेकिन वहां के किसानों को बड़ी संख्या में लंबे वक़्त, मसलन हफ़्तों या महीनों के लिए दिल्ली आना मुश्किल होता है। इस मामले में पंजाब और हरियाणा के किसानों की स्थिति बेहतर है। अच्छी योजना, संसाधनों को बेहतर ढंग से इकट्ठा कर और बड़े कैंपने चलाकर उन्होंने दिल्ली तक मार्च को एक वास्तविकता बना दिया है।)

शुरुआत में ही प्रदर्शनकारी किसानों को अपने प्रदर्शन स्थल के बारे में फ़ैसला लेना था। केंद्र सरकार और उसके नियंत्रण वाली दिल्ली सरकार किसानो को दिल्ली के किसी गुमनाम से कोने में सीमित रखना चाहती थी, जहां वे आम जनता की नज़रों से दूर रहते। तब सरकार आसानी से इन्हें नज़रंदाज करती रहती। कुछ ऐसे "नेता" जिनकी सोशल मीडिया पर बड़ी उपस्थिति है, लेकिन किसानों के बीच में बेहद कम समर्थन है, वे इस तरह के प्रस्ताव को मानने के पक्ष में थे। ऐसा इसलिए क्योंकि यह लोग किसी और को "परेशानी ना पहुंचाने" के लिए और कॉरपोरेट मीडिया में "अच्छे" दिखने के लिए ज़्यादा चिंतित थे।

लेकिन बड़े किसान संगठनों ने सरकार की इस चाल को नकार दिया और उन्होंने दिल्ली की सीमाओं पर कैंप लगाने का फ़ैसला लिया। इससे उन्हें लोगों और संसाधनों को लाने में सहूलियत मिली, साथ ही यह लोग सार्वजनिक नज़रों में भी बने रहे। यह लोग बहुत अच्छे से जानते थे कि कॉ़रपोरेट मीडिया इनके खिलाफ़ रहेगा, तो किसानों ने खुद से सोशल मीडिया और अपने ऑउटलेट्स के ज़रिए जानकारी फैलाने के प्रयास तेज कर दिए।

तब 26 जनवरी को किसान गणतंत्र दिवस परेड का आयोजन हुआ। दिल्ली के केंद्र तक मार्च करना किसानों के लिए ज़्यादा फायदेमंद होता, इसके ज़रिए वे लोग ज़्यादा बेहतर ढंग से जनता का ध्यान अपनी तरफ खींच सकते थे और सरकार पर अपनी मांगों को मानने के लिए दबाव डाल सकते थे। लेकिन सरकार ने उनसे सहमति नहीं दिखाई और किसानों से सीमाओं के पास ही कुछ रूट पर रहने को कहा। जो लोग बड़े आंदोलनों का हिस्सा रहे हैं, वे जानते हैं कि आंदोलन जटिल होते हैं। लोकतंत्र अपने आप में ही जटिल मामला है! अगर किसी प्रदर्शन में कई संगठन शामिल हैं, तो उसमें और भी ज़्यादा जटिलता आना स्वाभाविक है। लेकिन अब तक किसानों का आंदोलन बेहद अनुशासित और शांतिपूर्ण रहा था, जबकि उनके खिलाफ़ पुलिस ने कई बार क्रूर हिंसा के तरीके अपनाए।

26 जनवरी को पुलिस ने प्रदर्शनकारी किसानों पर हिंसात्मक कार्रवाई की, इस दौरान आंसू गैस के गोले छोड़े गए और जमकर लाठी चार्ज किया गया। लेकिन इसके बावजूद ज़्यादातर प्रदर्शनकारी पहले से तय रूट पर ही रहे। कुछ ऐसे समूह जिन्हें पुलिस ने रोका, उन्होंने दूसरा रास्ता पकड़ लिया और वे केंद्रीय दिल्ली पहुंच गए, वहीं कुछ लोग लाल किले तक पहुंचने में कामयाब रहे। क्या इससे बहुत बड़ी आपदा आ गई? बिलकुल नहीं?

चूंकि इसकी योजना संयुक्त किसान मोर्चा (SKM, किसान संगठनों का साझा मंच, जो प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहा है) ने नहीं बनाई थी, इसलिए "लाल किले पर कब्ज़ा" ज़्यादा देर तक बरकरार नहीं रह सका। हमें यह याद रखने की जरूरत है कि अगर इसकी योजना बनाई गई होती, तो लाखों की संख्या में आते किसानों को रोकने के लिए दिल्ली पुलिस को कई लाशें गिरानी पड़तीं। (SKM का खुद का कहना है कि वो घटनाओं की पूरी तस्वीर बनाने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि लाल किले तक पहुंचने समूह विरोधाभासी बातें बता रहे हैं)।

लेकिन यह कॉरपोरेट मीडिया एंकर्स की प्रतिक्रिया और भी ज़्यादा दिलचस्प थी। इसमें कथित "उदारवादी" चैनल भी शामिल थे। उन्होंने जिस तरीके से किसानों के केंद्रीय दिल्ली में आने की संभावना से जिस डर को बयां किया, वो बेहद हास्यास्पद था (अगर किसान लुटियन्स में घुस गए तो क्या होगा?)। यह साफ़ तौर पर उच्च वर्ग और उनकी "पवित्र" जगहों पर जनता की पहुंच से उपजने वाले डर की अभिव्यक्ति थी। अपनी वर्गीय स्थिति के चलते टीवी एंकर्स अपने दिल से बोल रहे थे। एक एंकर चीखते हुए कहता है, "किसानों को यहां नहीं होना चाहिए था।" फिर उन्हें कहां होना चाहिए सर? आपके जूते के नीचे?

वहीं कुछ प्रदर्शनकारियों के गैर जिम्मेदाराना रवैये पर दिल्ली पुलिस ने जो हिंसा की, उस पर किसी ने दुख या डर नहीं जताया। कुछ मामलों में मैदान पर मौजूद रिपोर्टर्स ने दिल्ली पुलिस की हिंसा की आलोचना की। तब टीवी एंकर्स ने पुलिस को न्यायसंगत ठहराने की कोशिश की! कई बार एंकरों ने चीखते हुए कहा कि किसानों को रोकने के लिए "पर्याप्त संख्या में पुलिस फोर्स की मौजूदगी नहीं है"। इस दौरान वे भूल गए कि भारत में किसानों की संख्या की तुलना में पुलिसकर्मियों की संख्या कितनी फीकी है।

जैसा हमेशा होता है, प्रदर्शनों में कुछ कारनामों करवाकर मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाया जाता है। यहां बता दें कि अगर किसान संगठनों ने सामूहिक तौर पर लाल किले पर कब्ज़ा करने का फ़ैसला किया होता, तो यह कोई मुद्दा ही नहीं बनता। लेकिन उन्होंने ऐसा तय नहीं किया था, इसलिए बड़े किसान संगठनों के नेताओं ने घटना के बाद दूरी बना ली थी।

इस सबके के चलते हमें भटकना नहीं चाहिए। किसान विरोधी नीतियों के चलते किसानों की जितनी हत्याएं हुई हैं और इन तीन कानूनों से किसानों की आजीविका और जिंदगी का जितना नुकसान होगा, उस हिंसा की प्रबलता, कुछ प्रदर्शनकारियों के "अनुशासनविहीन" या "हिंसक" होने से कई प्रकाश वर्ष तेज है। बता दें 1995 से अब तक 4 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अगर किसी को कुछ प्रदर्शनकारियों के केंद्रीय दिल्ली या लाल किले पहुंचने या बसों के कुछ नुकसान की फिक्र, किसानों द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों से ज़्यादा है, तो इसका मतलब है कि या तो वो राजनीतिक तौर पर अशिक्षित है या फिर वह ऐसा इंसान है जिसे लगता है कि उसे इन कानूनों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।  

जो लोग इस संघर्ष की सच्चाई और न्यायपक्षता से सहमत नहीं हैं, उन्हें हराना होगा। जो लोग इस संघर्ष में सीधा हिस्सा नहीं ले रहे हैं, उनके लिए विकल्प साफ़ हैं: या तो किसान आंदोलन का समर्थन करो, या फिर इतिहास को बनते देखो।

लेखक एक अर्थशास्त्री और ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट फ़ॉर सोशल रिसर्च में शोधार्थी हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Elite Despair About “Farmers’ Lack of Discipline” is Comical, Though Not Innocent

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