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कश्मीर में ‘मुठभेड़’ हत्याएं बढ़ रही हैं

इन ‘मुठभेड़’ हत्याओं ने गंभीर रूप अख़्तियार कर लिया है, लेकिन राजनीतिक पार्टियां इन पर ख़ामोश रहती हैं। सवाल सेना का और ‘देशभक्ति’ का है!
jammu and kashmir
प्रतीकात्मक तस्वीर।

जम्मू-कश्मीर की भूतपूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने कुछ दिन पहले एक समाचार वेबसाइट ‘द वायर’ से बातचीत करते हुए कहा कि समूचा जम्मू-कश्मीर, ख़ासकर कश्मीर, खुली जेल बन चुका है, जहां लोगों के न तो कोई अधिकार हैं, न किसी तरह की आज़ादी।

उन्होंने यह भी कहा कि कश्मीर में दस लाख फ़ौजी तैनात हैं, और यह क्षेत्र दुनिया के सर्वाधिक सैन्यीकृत (militarized) क्षेत्रों में से एक है।

लेकिन महबूबा मुफ़्ती ने बातचीत के दौरान यह नहीं बताया (जानबूझकर या अनजाने में?) कि केंद्र-शासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर में पिछले कुछ सालों में सेना के साथ तथाकथित मुठभेड़ों में मारे जा रहे कश्मीरी नौजवानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

इन ‘मुठभेड़’ हत्याओं ने गंभीर रूप अख़्तियार कर लिया है, लेकिन राजनीतिक पार्टियां इन पर ख़ामोश रहती हैं। सवाल सेना का और ‘देशभक्ति’ का है!

भारतीय सेना व अन्य सुरक्षा बलों के साथ तथाकथित मुठभेड़ों में जो कश्मीरी नौजवान मारे जाते हैं, उन्हें सरकारी भाषा में मिलिटेंट (हथियारबंद विद्रोही) या आतंकवादी कहा जाता है। सेना/सरकार की ओर से यह भी बताया जाता है कि मारा गया शख़्स फलां-फलां की हत्या में शामिल था। इसका सबूत क्या है, यह आरोप कब, कहां साबित हुए—कश्मीर में यह सवाल पूछना गुनाह है।

कश्मीर में किसी भी ‘मुठभेड़’ की—‘मुठभेड़’ हत्या की—न स्वतंत्र, निष्पक्ष जांच-पड़ताल होती है, न मारे गये लोगों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट जारी की जाती है। सेना जो बता दे, बस वही सही है!

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हालत यह है कि कश्मीर में सेना के साथ ‘मुठभेड़ों’ में मारे गये लोगों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट उनके परिवारजनों को नहीं दी जाती। यहां तक कि मारे गये लोगों की लाशें भी उनके परिवारजनों को नहीं सौंपी जाती। सेना इन लाशों को दूरदराज, गुमनाम इलाक़ों में दफ़ना देती है। कश्मीर में गुमनाम क़ब्रों की तादाद पिछले कुछ सालों में बेतहाशा बढ़ी है।

अब आइये, मौतों के उस आंकड़े पर नज़र डालें, जिसे जम्मू-कश्मीर सरकार ने अगस्त 2022 के पहले हफ़्ते में जारी किया। यह आंकड़ा 2018 से लेकर 31 जुलाई 2022 तक का है।

इसके मुताबिक, 2018 को मिलाकर 31 जुलाई 2022 तक के पांच सालों में सेना के साथ तथाकथित मुठभेड़ों में 953 कश्मीरी नौजवान मारे जा चुके हैं। (अभी 2022 के ख़त्म होने में दिसंबर तक का समय है।)

यानी, कश्मीर में पांच सालों में क़रीब 1000 कश्मीरी नौजवान हलाक! ये सब सेना/सरकार की भाषा में मिलिटेंट या आतंकवादी थे।

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ग़ौर करने की बात है कि इन नौजवानों—अगर वे मिलिटेंट या आतंकवादी थे—ज़िंदा पकड़ कर अदालत में उन पर मुक़दमा चलाने और आरोप साबित होने पर सज़ा दिलाने की बजाय सेना का सारा ज़ोर उन्हें (नौजवानों को) घटनास्थल पर ही नेस्तनाबूद कर देने का है। सेना इसके लिए एक ख़ास शब्द—‘न्यूट्रलाइज़’ कर देना—इस्तेमाल करती है। जब तथाकथित मुठभेड़ चल रही होती है (जैसा कि सेना बताती है), उस वक़्त घटनास्थल पर पत्रकार व प्रेस फ़ोटोग्राफ़र नहीं जा सकते—उन पर सख़्ती से रोक लगी है।

2018-2022 के दौरान जो 953 कश्मीरी नौजवान मारे गये, उनमें 690 तो 2019 के बाद से मारे गये—2022 में 31 जुलाई तक 132 लोग मारे जा चुके हैं।

केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्ज़ा ख़त्म कर दिया और उसे दो हिस्सों में बांटकर जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया। उसके बाद से कश्मीर में सेना का दमनचक्र और तेज़ हुआ है। 2019 के बाद से ‘मुठभेड़’ हत्याएं और बढ़ी हैं।

महबूबा मुफ़्ती को अपने उस इंटरव्यू में बताना चाहिए था कि कश्मीर कश्मीरी नौजवानों का क़त्लगाह बन गया है।

(लेखक कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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