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सिंघु बॉर्डर से विशेष : ‘पिज़्ज़ा पिकनिक’ या ग़रीब बच्चों की हसरत भरी पार्टी

किसान आंदोलन की बदौलत आसपास की बस्ती के कई बच्चों ने वो जायक़ा चखा, जिसकी ज़िम्मेदारी सरकार की थी।
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बेटाआपने भी क्या पिज़्ज़ा (PIZZA) खाया उसका चेहरा उतर गया और वो मायूसी के साथ बोला ''नहीं मिलामैंने पहले भी कभी नहीं खाया है''। तभी मैंने उसके साथ खड़े लड़के से पूछा ऐसी कौन सी चीज़ खाई जिसे खाकर लगा हो कि हमने ऐसा स्वाद पहले कभी नहीं चखा। वो मुस्कुराते हुए शर्म से अपने नंगे पैरों की तरफ़ देखने लगा और धीरे से बोला ''लड्डू''। उसके शर्मीले जवाब ने मुझे असहज कर दियाकुछ देर के लिए मैं ख़ामोश हो गईसमझ नहीं आ रहा था कि अगला सवाल क्या पूछना है। तो उन्हीं में से एक बच्चे ने कहा कि मुझे ब्रैड पकौड़ा बहुत अच्छा लगा और तभी चहकते हुए कई बच्चों ने एक साथ कहा हमें खीर बहुत पसंद आई। तो कुछ के लिए दाल और चावल ही सबसे अच्छा खाना था।

 

मैंने पूछा ''घर का खाना अच्छा है या फिर यहां लगने वाले लंगर का''? तो सबने एक बार फिर साथ में जवाब दिया ''यहां के लंगर का"।

सिंघु बॉर्डर पर हर चार क़दम पर मुझे बच्चों की एक टोली नज़र आ रही थी। जिनसे बात करने पर पता चला कि ये बच्चे सिंघु बॉर्डर के आस-पास ही रहते हैं।  कोई प्रेम कॉलोनी मेंतो कोई पेपर मिल में रहता है। किसी की उम्र 6 साल थी तो कोई 10 साल का था। किसी के पापा चप्पल बनाने वाली फ़ैक्ट्री में काम करते हैं तो किसी की मम्मी धागा फैट्री में। एक दूसरे के कंधे पर हाथ रखे टोली बनाकर घूम रहे हर बच्चे के हाथ में खाने-पीने की चीज़ें थीं। इन लोगों की तो जैसे कोई बिन मांगे मुराद पूरी हो गई हो।

कुछ दिन पहले ही सिंघु बॉर्डर के पिज़्ज़ा के लंगर की वजह से सोशल मीडिया पर ख़ूब रायता फैलाया गया। हाथ-मुंह धोकर बैठे ट्रोल्स ने मौक़ा लपक लिया और किसान बनाम सरकार के स्कोर बोर्ड को सजाने की जुगत में लग गए। मैंने सोचा क्यों ना कुछ पड़ताल मैं अपने लेवल पर भी कर लूं। तो मुझे वहां बच्चों की ये टोली मिली जो लंगर में पिज़्ज़ा मिलने की बात सुनकर पहुंचे थे। उनकी इस हसरत ने बहुत कुछ बयां कर दिया। हालांकि ट्रोल्स ने तो पूरी कोशिश की थी कि पिज़्ज़ा के बहाने किसान आंदोलन को ''पिज़्ज़ा पिककिन गैंग'' का नाम देकर लफ़्फाज़ी की डिक्शनरी में एक और शब्द जोड़ दें बिल्कुल वैसे ही जैसे उन्होंने टुकड़े-टुकड़े गैंगऑवर्ड वापसी गैंग निकालकर दुनिया फ़तह की है! 

वैसे किसान अगर पिज़्ज़ा खा भी रहे हैं तो इसमें दिक़्क़त क्या हैक्या हर किसान आज भी प्रेमचंद के उपन्यास के उन किरदारों जैसा ही होना चाहिए जो साहूकार के हाथों अपनी ज़िन्दगी गिरवी रख देता है?

''सोयोर काइंड इनफोर्मेशन'' ये आंदोलन पंजाबहरियाणा के किसानों का है। जी हांसोशल मीडिया पर फ्री का डेटा फूंकने वालों''एक दिन तो सिंघु बॉर्डर पर गुज़ार के देखो''

 

कोई सेवा के नाम पर लुधियाना से देसी घी की पिन्नियां लाकर बांट रहा थातो कहीं कहीं गर्मा-गर्म जेलबियां छन कर उतर रही थीं। कहीं मूंगफली की ढेरी लगी थी तो कहीं मक्के की रोटी के ऊपर सरसों का साग और उसपर देसी घी की टिक्की रखी जा रही थी। कहीं गाजर का हलवा परोसा जा रहा था तो कोई लस्सी के ट्रॉली के साथ पहुंचा था। लेकिन मेरा ध्यान खींचा गोलगप्पे के ठेलों ने। मैंने पूछा ये कैसा लंगर है?  तो जवाब मिला ''ये लोग अपने ठेले यहीं लगाते थे लेकिन किसान आंदोलन की वजह से रास्ता बंद है तो हमने सोचा ये हर दिन यहां आकर अपने ठेले लगा लें और बदले में हम उन्हें रोज़ की कमाई जितना पैसा दे देंगे ना नफ़ा और ना ही नुक़सान बस इतना कि सबकी रोज़ी-रोटी चलती रहे।''

'गुरु के लंगरके नाम पर सैकड़ों लोगों को प्यार से खिलाकर सेवा करने वालों ने जैसे इन आंदोलन की जगहों को तीर्थ बना लिया है और यहां आकर सेवा कर रहे हैं। खाने वाले भी एक पंगत में बैठ रहे हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे नमाज़ में लोग उस जज़्बे के साथ खड़े होते हैं जो कहता है-

एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद-ओ-अयाज़

ना कोई बंदा रहा और ना कोई बंदा नवाज़

चूंकि मैं लंगर के बारे में जानने की कोशिश कर रही थी तो पंगत में बैठे कुछ ग़रीब बच्चों पर मेरी नज़र गई मैंने देखा वो अपनी पत्तल में दाल-चावल की जगह पुलावसरसों का सागहलवा ले रहे थे कि तभी सेवा में लगे एक बुज़ुर्ग मेरे पास आए तो उन्होंने धीरे से मुझे बताया कि ''ये बच्चे बहुत होशियार हो गए हैं बीस दिन पहले ये बच्चे कुछ भी दे दो तो खा लेते थे लेकिन आज ये वही चीज़ लेते हैं जो इन्हें अच्छी लगती है लेकिन हमें ख़ुशी होती है कि ये बच्चे ही नहीं  बल्कि आस-पास के बहुत से ग़रीब लोग यहां आकर लंगर में खाना खाते हैं।''

लंगर में सेवा कर रहे एक और बुज़ुर्ग से मैंने पूछा यहां हर लंगर के ऊपर 'गुरु का लंगरका बैनर क्यों लगा हैतो उन्होंने मुझे लंगर से जुड़ी कहानी सुनाई। उन्होंने बताया कि कैसे गुरु नानक को तिजारत (बिजनेस) के लिए कुछ पैसे दिए गए थे लेकिन उन्होंने उस पैसे को बिजनेस करने की बजाय भूखों के लिए लंगर लगाने में खर्च कर दिया। शायद यही गुरु की सीख थी जिन्होंने बिजनेस से बढ़कर सेवा को चुना और उन्हीं की परम्परा को बहुत ही प्यार से आगे बढ़ाया जा रहा है।

 

गोदी मीडिया की खोजी पत्रकारिता से निकले टुकड़े-टुकड़े गैंग का जिन्न एक बार फिर नाचने लगा है। सरकार को उस जिन्न की तलाश में सिंघु बॉर्डर पर जाना चाहिए जिसका वजूद वो ख़ुद संसद में खड़ी होकर नकार चुकी है। क्या पता ''वो'' गैंग मिले या ना मिले लेकिन अच्छे और लज़ीज़ खाने की तलाश में भटकते वो बच्चे ज़रूर टकरा जाएंगे जो इन लंगर की ज़िम्मेदारी नहीं बल्कि जिनके पौष्टिक आहार की जवाबदेही सरकार की है। जिसे हाल ही में 'ग्लोबल हंगर इंडेक्सऔर 'हंगर वॉचकी रिपोर्ट मुंह चिढ़ाती लगती है और इसी से जुड़ा एक सवाल मैंने मशहूर अर्थशास्त्री और सोशल वर्कर ज्यां द्रेज़ से पूछा-

''क्या वाकई हमारा देश इतना अनाज नहीं उगा पता कि भोजन के अधिकार (राइट टू फूड कैंपेन) को ठीक से चला सके''? 

इस सवाल के जवाब ने द्रेज़ कहते हैं कि ''देश में पर्याप्त मात्रा में अनाज है लेकिन पौष्टिक खाने का मतलब सिर्फ़ कैलोरी लेने से नहीं है। वो आगे कहते हैं कि देश की बहुत बड़ी आबादी के पास पौष्टिक खाना ख़रीदना तो छोड़ो भूख मिटाने तक के पैसे नहीं हैं। वो अपनी बात में एक और पॉइंट शामिल करते हुए कहते हैं कि पौष्टिक आहार ही नहीं बल्कि कई और सुविधाएं भी हैं जैसे साफ़ पानीसेनिटेशनस्वास्थ्य सेवाएं और बेसिक एजुकेशन लेकिन भारत इन सब सुविधाओं को लोगों तक पहुंचाने में असफल रहा है।

सर्दी में बग़ैर स्वेटर के नंगे पैर पिज़्ज़ा और लड्डू की चाहत रखना क्या इन बच्चों का गुनाह  हैइस आंदोलन की बदौलत कई बच्चों ने वो जायक़ा चखा जो शायद ही उन्हें सरकार मुहैया करवा पाती। बात-बात पर पाकिस्तान को मुंह चिढ़ाने वाले ट्रोल क्या ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की हालत पर ग़ौर फ़रमाना चाहते हैंक्या वो फ़ेक न्यूज़ के एजेंडा को ही फैलाते रहेंगे या फिर हंगर वॉच की न्यूज़ में पिज़्ज़ा की जगह हर दिन भूखे सोने वाले लोगों के आंकड़ों को भी वायरल करेंगेहाल ही में नेशनल और इंटरनेशनल लेवल की तीन रिपोर्ट जारी की गईं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे ने रिपोर्ट जारी की है साथ ही ग्लोबल हंगर इंडेक्स और हंगर वॉच की भी रिपोर्ट सामने आई है। जिसे ना ही गोदी मीडिया छूने वाला है और ना ही ट्रोल्स के पास उसे पढ़ने का शऊर है। ऐसा नहीं है कि देश में अनाज की कमी है लेकिन हमें संसाधनों का सही से इस्तेमाल करने का तरीक़ा नहीं पता और इसी का नतीजा है कि झारखंड की संतोषी भात-भात करती दुनिया से रुख़सत हो जाती है और अनाज खुले में पड़ा सड़ता रहता है।

और इसी बद्इंतज़ामी पर मैंने ज्यां द्रेज़ से पूछा-

''क्या देश की सरकार वाकई इस बात को लेकर गंभीर है कि हर इंसान के पास तीन वक़्त का ना सही लेकिन कम से कम दो वक़्त का खाना तो ज़रूर पहुंचे'' ( ख़ासकर बच्चों तक )

ज्यां द्रेज़ का जवाब है कि ''असल में वर्तमान सरकार बच्चों के पोषण को लेकर बहुत कम ध्यान देती है। NDA सरकार ने पहले सालाना बजट 2015-16 में स्कूल में मिलने वाले खाने (School meals and Integrated Child Development services जैसे आंगनवाड़ी कार्यक्रम) के आर्थिक आवंटन में भारी कटौती की। NDA सरकारनेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट-2013 के तहत गर्भवती महिलाओं को मिलने वाले लाभ पहुंचने में भी असफल रही है। कई तरह के बड़े प्रोग्राम जैसे मिड डे मील, CDS और Public distribution system को बढ़ाने की बजाय सरकार ने टोकन योजना जैसे पोषण अभियान को बहुत छोटे से बजट के साथ शुरू किया।''

इन रिपोर्ट और अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ की बातों से ऐसा ही लगता है कि देश में अनाज की कोई कमी नहीं है लेकिन सरकारी नीतियों की वजह से आज न केवल अनाज उगाने वाला किसान परेशान है, क़र्ज़दार है, बल्कि देश की एक बड़ी आबादी भी भूखी है। ये क़र्ज़, ये भूख और न बढ़ जाए इसी वजह से इन तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसान इन ठिठुरते दिन और रात में दिल्ली के बॉर्डर पर डटा है, लेकिन कुछ लोगों को ये सब नहीं दिखाई देता उन्हें तो दिखाई देता है किसी का पेट भर खाना और दूसरों को खिलाना। 

सभी तस्वीरें- नाज़मा ख़ान

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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