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आंदोलन
भारत
राजनीति
आख़िर मज़दूर हड़ताल और किसान विरोध क्यों कर रहे हैं? 
जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तब से मज़दूर और कर्मचारी 26 नवंबर को पांचवीं बार हड़ताल पर जा रहे हैं, और इसके साथ ही देश भर के किसान 27 नवंबर को बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन करेंगे।
सुबोध वर्मा
23 Nov 2020
Translated by महेश कुमार
मज़दूर हड़ताल

आईए जानें कि आख़िर 26-27 नवंबर को हो क्या रहा है?
सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में काम कर रहे करीब 20 करोड़ मज़दूर, जो देश भर की विनिर्माण और सेवा क्षेत्र की इकाइयों में फैले हुए हैं, 26 नवंबर को हड़ताल पर जाएंगे। इस विशाल देशव्यापी हड़ताल की कार्रवाई का आह्वान 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और दर्जनों स्वतंत्र फेडरेशन ने किया है। केवल आरएसएस से जुड़ी भारतीय मज़दूर संघ ने इस हड़ताल का समर्थन नहीं किया हैं।

इसके साथ ही, 300 से अधिक किसान संगठनों के संयुक्त मंच ने 26-27 नवंबर को ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर दो दिन की विरोध कार्यवाही का आह्वान किया है। अनुमान है कि करीब दो लाख किसान पांच पड़ोसी राज्यों- पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश (पश्चिमी भाग), राजस्थान और मध्य प्रदेश से दिल्ली आने वाले हैं।

उम्मीद की जा रही है कि 26 नवंबर को स्टील, कोयला, दूरसंचार, इंजीनियरिंग, परिवहन, बंदरगाह और गोदी, वृक्षारोपण, रक्षा उत्पादन, और सभी प्रमुख वित्तीय संस्थान जैसे बैंक, बीमा, इत्यादि के साथ सभी प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूर/कर्मचारी हड़ताल करेंगे, काम रोकेंगे और विरोध प्रदर्शन करेंगे। 

सरकारी योजनाओं के तहत कार्यरत स्कीम कर्मचारी जैसे कि आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता), मध्यान्ह भोजन बनाने वाली रसोइया, एएनएम (सहायक नर्स दाई) और अन्य, जिनमें से अधिकांश महिलाएँ हैं भी हड़ताल करेंगी।

इस बीच, 26 नवंबर से शुरू होकर अगले दिन 27 नवंबर तक किसान सभी जिला मुख्यालयों या राज्य विधानसभाओं/राजभवनों के सामने विरोध प्रदर्शन करेंगे। पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे कई राज्यों में ग्रामीण बंद (ग्रामीण हड़ताल) किया जाएगा।

मज़दूर हड़ताल पर क्यों जा रहे हैं?
सेवा क्षेत्र के कर्मचारी और औद्योगिक मज़दूर न्यूनतम मज़दूरी में वृद्धि की मांग कर रहे हैं,  साथ ही ठेकेदारी प्रथा की समाप्ति, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को कम करने और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को निजी संस्थाओं को बेचने की सरकारी नीतियों को समाप्त करने की मांग भी कर रहे हैं। इस बाबत वे सरकार के सभी बड़े अफ़सरान, दफ्तरों को ज्ञापन दे चुके हैं और धरना प्रदर्शन आदि भी आयोजित कर चुके हैं। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी सरकार ने धन पैदा करने वाले इन रचनाकारों के प्रति एक अजीब सी शत्रुता दिखाई है, और वर्षों से इनकी मांगों को पूरी तरह से अनदेखा कर रही है। इस शत्रुता और उदासीनता ने ही मज़दूरों को 2015, 2016, 2019 और जनवरी 2020 में हड़ताल पर जाने के लिए मजबूर किया है।

मजबूत विरोध के बावजूद, मोदी सरकार चार श्रम संहिताओं (लेबर कोड) को लागू कर रही है जो मज़दूरों की सुरक्षा के लिए बने कानूनों की जगह लेगी। ये कोड मालिकों और सरकारों द्वारा मज़दूरों पर काम का बोझ लादने की खुली छूट देते हैं, साथ ही ये कोड उचित मज़दूरी पाने को अधिक कठिन बनाते हैं, और उन्हे आसानी से काम से निकालने रास्ता तैयार करते हैं, ये मज़दूरों से एक निश्चित अवधि (एक प्रकार का अनुबंध) तक काम लेंगे और फिर काम से बाहर कर देंगे, सरकार द्वारा संचालित चिकित्सा बीमा और भविष्य निधि के असर को कम करते हैं, और ट्रेड यूनियनों बनाने के काम को अधिक कठिन बनाते हैं, जो श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक हैं।

संक्षेप में कहा जाए तो पूँजीपतियों को मज़दूरों का भयंकर शोषण करने का पक्का लाइसेंस दे दिया गया है। स्थिति को हाल में हुए लॉकडाउन ने और खराब कर दिया है जहां लाखों मज़दूर अपनी नौकरी खो चुके हैं और अब बहुत कम मज़दूरी और गंभीर परिस्थितियों पर काम कर रहे हैं।

इसलिए, कर्मचारियों ने अपनी मांगों को मनवाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के लिए हड़ताल पर जाने का फैसला किया है। इन मांगों में: न्यूनतम वेतन 21,000 प्रति माह; 10,000 रुपए प्रति माह की तय पेंशन; सभी जरूरतमंद परिवारों को 10 किलो खाद्यान्न और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाने; लॉकडाउन तबाही से पार पाने के लिए सभी आयकर न अदा करने वाले परिवारों को प्रति माह 7,500 रुपए दिए जाने, नए श्रम कोड को वापस करने; कृषि संबंधी तीनों कानूनों को वापस लेने; नई शिक्षा नीति की वापसी और शिक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद का 5 प्रतिशत का आवंटन करने; सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा और स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत आवंटन करने; नए बिजली संशोधन विधेयक को वापस लेना; सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों आदि में विनिवेश को खत्म करने की मांग शामिल हैं। 

और, किसान क्या करने जा रहे हैं?
देश के किसान पिछले कई सालों से अपनी फसल के बेहतर दाम के लिए आंदोलन कर रहे हैं।  वे मांग कर रहे हैं कि सरकार को ऐसा न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना चाहिए जो किसानों को फसल की लागत पर कम से कम 50 प्रतिशत मुनाफे की गारंटी देता है। इसकी सिफ़ारिश एम॰एस॰ स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने 16 साल पहले की थी। 

किसान यह भी मांग कर रहे हैं कि 50 प्रतिशत से अधिक कर्ज में डूबे किसानों के कर्ज को  सरकार को माफ कर देना चाहिए। इन दो उपायों के माध्यम से किसानों को कुछ राहत देकर भारत की कृषि को पटरी पर लाने में मदद मिलेगी। अन्यथा, घटते रिटर्न और बढ़ते कर्ज के कारण किसान गहरे संकट में फँसते जा रहे हैं और पिछले 25 वर्षों में करीब 300,000 से अधिक किसानों के आत्महत्या करने का अनुमान है। 

2017 में दिल्ली में किसानों ने तीन-दिवसीय महापड़ाव और व्यापक आंदोलनों ने सरकार को विभिन्न चालें अपनाने के लिए मजबूर किया, जैसे कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को लागत से 50 प्रतिशत अधिक स्वीकार करने का दिखावा करना। लेकिन वास्तव में, उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण खर्चों को हटाकर 'लागत' की परिभाषा को ही बदल दिया था।

इसी तरह, सरकार ने घोषणा की कि वह सभी किसानों को प्रति वर्ष आय सहायता के रूप में 6,000 रुपये देगी, हालांकि अंत में यह सभी लक्षित लोगों तक नहीं पहुंचा सका। हालाँकि, इन उपायों से किसानों की मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं हुआ।

इस वर्ष, महामारी की आड़ में मोदी सरकार ने तीन अध्यादेश जारी किए, जिन्होने खेती, व्यापार, भंडारण, और कीमतों की मौजूदा कृषि प्रणाली को पूरी तरह से बदल दिया। संसद के हाल ही के  मानसून सत्र में इन अध्यादेशों को नए कानून में बदल दिया गया था, कथित तौर पर चर्चा को रोककर और विपक्षी सदस्यों के वाकआउट के बाद उन्हें पारित कर दिया गया था।

किसान इन नए कानूनों के खिलाफ मजबूती से विरोध कर रहे हैं जो न केवल एमएसपी की किसी भी तरह की गारंटी को धता बता रहे हैं, बल्कि इसके विपरीत, कॉर्पोरेट कृषि व्यवसायियों और बड़े व्यापारियों के हाथों इसके पूरे नियंत्रण के दरवाजे खोलते हैं। ऐसा होने से ये लाभ की भूखी संस्थाएं यह तय करेंगी कि किस फसल की खेती की जानी है, वे उसे कितनी कीमत पर खरीदेंगे, और वे जितना चाहे उसका उतना स्टॉक रखने के लिए आज़ाद होंगे और वे जो भी कीमत चाहेंगे उस पर उसे बेचेंगे। अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हन्नान मोल्लाह के अनुसार, 14 और 25 सितंबर को और फिर 5 अक्टूबर और 5 नवंबर को एक करोड़ से अधिक किसानों ने विभिन्न विरोध कार्यवाहियों में भाग लिया जो देश भर के किसानों में पनप रहे रोष को दर्शात्रा है।

इसलिए, किसान तीनों कानूनों को वापस लेने, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने और सभी कर्जों की माफी की मांग के समर्थण में 26-27 नवंबर को विरोध प्रदर्शन करेंगे। 

किसान और मज़दूर एक ही दिन विरोध क्यों कर रहे हैं? 
क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में, यह महसूस किया गया है कि मोदी सरकार इन दोनों परिश्रम करने वाले तबकों की दुर्दशा के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार है जो भारत की अर्थव्यवस्था की नींव बनाते हैं। भारत में, मज़दूरों और किसानों के बीच गहरा रिश्ता हैं, क्योंकि अधिकांश मज़दूर  परिवार ऐसे हैं जो अभी भी जमीन पर काम करते हैं। वास्तव में, कृषि में बढ़ते संकट ने बेरोजगारों की एक बड़ी फौज तैयार की है, जिसका एक हिस्सा उद्योगों और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने के लिए शहरों की ओर पलायन करता है। तो, इन वर्गों के बीच पहले से ही मौजूद कुदरती रिश्ता है।

प्रारंभ में, ये आंदोलन अलग-अलग लड़े जा रहे थे, लेकिन जल्द ही इस बात का एहसास हुआ  कि उनका एक साथ आना उनकी ताकत बढ़ाने और सरकार को उनके विरोध की आवाज़ को सुनाने का एक दमदार तरीका हो सकता है, जिसे अन्यथा सरकार/मीडिया अनदेखा करता रहा है। मोदी सरकार की नीतियों के पैकेज के खिलाफ यह गठजोड़ दोनों वर्गों की भागीदारी को देखते हुए कई कार्यवाहियों के साथ आगे बढ़ रहा है।

इस बार, 26-27 नवंबर के विरोध प्रदर्शन की तैयारी में, एआईकेएससीसी और ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच की ऐतिहासिक संयुक्त बैठक इस एक्शन प्रोग्राम को मजबूती से लागू करने के लिए बेहतरीन कदम साबित हुई है। आने वाले दिनों में, यह एकता भारत में एक बहुत शक्तिशाली शक्ति के रूप में उभरने वाली है।

क्या मज़दूरों और किसानों के ये विरोध केवल उनकी ख़ुद की मांगों के लिए है?
नहीं, बल्कि यहां आकर ये एकता काफी महत्वपूर्ण हो जाती है। दोनों आंदोलनों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-संचालित एजेंडे के तहत हिंदू राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए मोदी सरकार द्वारा उठाए गए कदम के खिलाफ लड़ने की भी सहमति व्यक्त की है, जिसमें जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द करना, नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) जो मुसलमानों को नागरिकता के आवेदन के मामले में भेदभाव करता है, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के काम को आगे बढ़ाना, जिसका इस्तेमाल अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ होने की संभावना है, और कई अन्य घोषणाएं और कार्य शामिल हैं जो धार्मिक आधार पर लोगों को विभाजित करते हैं।

इस तरह के कदमों के खिलाफ आंदोलनों ने अपने विरोध को तेज़ी से दर्ज़ किया है क्योंकि वे इन्हें आर्थिक संकट से ध्यान हटाने के प्रयासों के रूप में देखते हैं जो देश और विशेष रूप से मज़दूरों-किसानों को प्रभावित करते है। इन आंदोलनों ने लोकतांत्रिक संस्थानों को नष्ट करने के लिए मोदी सरकार की आलोचना की है, जैसा कि तानाशाही तरीके से संसद में कृषि संबंधी कानून पारित किए गए थे।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, मज़दूरों की मांग को किसानों का समर्थन है- इसमें नई शिक्षा नीति खारिज करना, शिक्षा के लिए जीडीपी का 5 प्रतिशत का आवंटन और स्वास्थ्य के लिए 6 प्रतिशत के आवंटन की मांग भी है। ये इस आंदोलन की व्यापक सोच और विशाल अपील को दर्शाता हैं जिसका आंदोलन लगातार प्रयास कर रहा है।

तो, 26-27 नवंबर के बाद क्या होगा? 
ठोस कार्यक्रम की घोषणा बाद में की जाएगी, लेकिन दोनों ट्रेड यूनियनों और एआईकेएससीसी ने पहले ही घोषणा कर दी है कि आंदोलन को तीव्र और व्यापक बनाया जाएगा, समाज के सभी वर्गों को शामिल किया जाएगा। उम्मीद है कि आने वाले महीनों में देश भर में अधिक विरोध प्रदर्शन होंगे।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Explained: Why Workers Are Going on Strike and Farmers Are Protesting

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