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नज़रिया : प्रकृति का शोषण ही मानव को रोगी बनाता है
कोरोना का जलवायु के साथ गहरा संबंध हो सकता है। इसी से अब धरती को बुखार, मौसम का मिज़ाज बिगड़ा है। आज सबसे ज्यादा बिगाड़ जलवायु में आ गया है। इसके असंतुलन के कारण कोरोना वायरस को नष्ट करने वाली जैव-विविधता नहीं बची है।
राजेंद्र सिंह
28 Mar 2020
 प्रकृति का शोषण
प्रतीकात्मक तस्वीर

योगी,  रोगी नहीं होता है। यहां योगी का अर्थ किसी नाम से नहीं है, न नाम के योगी से है। यहां योगी का अर्थ है ‘‘पंचमहाभूतों (भूमि, गगन, वायु, अग्नि व नीर) से निर्मित मानव शरीर को मानकर, उसका सम्मान करके जीने वाला।” मानव का शरीर जिन पंचमहाभूतों से निर्मित हुआ है, उनका योग बनाए रखने के लिए प्रकृति के साथ अपनी आचार संहिता और विचार को बनाके रखना, जीने के लिए प्रकृति से शरीर की ज़रूरत पूरा करने हेतु ‘‘मानव शरीर की ज़रूरत जितना ही लेना” जिससे मानवीय शरीर के संतुलन का योग बना रहे, प्रकृति में भी बिगाड़ न हो।

हमारा जब भी लालच पंचमहाभूतों के योग पर अतिक्रमण करता है, तभी प्रदूषण होता है और मानवीय बुद्धि प्रकृति का शोषण करने में लग जाती है।

प्रकृति सभी जीव-जगत की ज़रूरत पूरा करने हेतु शक्ति सम्पन्न है लेकिन मानवीय लालच पूरा नहीं कर सकती। मानवीय लालच के सामने प्रकृति बौनी साबित होती है फिर भी हम लालच पूरा करने हेतु अन्धे होकर इसका शोषण करते हैं, तबही हम भोगी हो जाते हैं और भोगी रोगी हो जाते हैं। यह योग जीवन की सम्रगता का योग होता है। जब मानव अपने आरोग्य रक्षण हेतु पंचमहाभूतों के योग को सम्मान करके जीता है तो वह योगी बनता है, रोगी नहीं होता। प्रकृति के विरुद्ध काम करने वाला भोगी और रोगी है।

भोगी का अर्थ है ‘‘अपने शरीर की प्रकृति और सृष्टि का विचार किए बिना लालची बनकर, सब का भक्षण करना”, इस भक्षण में जीवन की मर्यादाऐं और सीमाएं सब तोड़ दी जाती हैं। जब भी इंसान इस तरह का व्यवहार और आचरण करता है, तो उसे भोगी कहा जाता है। भोगी रोगी कैसे होता है? वह पहले सभी का भक्षण करने वाला मानसिक रोगी बनता है और फिर शारीरिक रोगी बनता है। जब भी किसी के जीवन में प्रकृति के शोषण का भाव आता है, तो वह रोगी बनने के रास्ते पर चल पड़ता है। आज का मानव प्रकृति का भोगी होकर, रोगी बना है। प्रकृति का स्वयं भोगी बनकर, हम सब अपने आपको रोगी बना रहे हैं। कोरोना इसी प्रक्रिया की उपज है।

भारतीय आस्था तो मानव को पर्यावरण की रक्षा करने हेतु पंचमहाभूतों के योग की सम्रगता से आरोग्य रक्षण की शिक्षा देती थी,  इसे ही आयुर्वेद कहते थे, आज का आयुर्वेद भी केवल भारतीय चिकित्सा पद्धति बन गया है। मूल आयुर्वेद तो आरोग्य रक्षण आधार था, वही हमें पंचमहाभूतों का योग सिखा कर निरोग रखता था।

हम देखें भारत में उन्हीं को भगवान ( भ-भूमि, ग-गगन, व-वायु, अ-अग्नि, न- नीर ) कहा गया जिन्होंने पंचमहाभूतों की रक्षा के लिए प्रकृति का ख्याल रखकर, स्वंय की साधना शक्ति से प्रकृति को जिताया और उत्पादक बनाया था, जैसे राम। रूढ़ अर्थों से अलग इसकी इस तरह व्याख्या की जा सकती है, कि राम स्वयं जंगलों में रहकर प्रकृति के साथ प्यार और उसके प्रत्येक अंग जंगल, जंगलवासियों को संगठित करते थे, दूसरी तरफ प्रकृति, पंचमहाभूतों भूमि, गगन, वायु, अग्नि व नीर पर कब्जा करने वाला लोभी (रावण) था।

रावण भूमि का मालिक बनकर, गगन पर कब्जा और वायु को अपनी कैद में रखकर, अग्नि और नीर पर नियंत्रण करना चाहता था। लालची रावण से प्राकृतिक अंग {भूमि, गगन, वायु, अग्नि व नीर (सीता)} को बचाने के लिए, प्रकृति की नैतिक लड़ाई, राम ही लड़ते हैं। जंगलों में जंगली जीवन जीकर स्वस्थ बने रहते हैं। जीवन भर योगी भी बने रहते हैं। जब उनका छोटा भाई लक्ष्मण हथियारों की धोखा-धड़ी में मूर्छित होता है, तब भी उसे प्राकृतिक संजीवनी से जीवित करते हैं।

राम और रावण भारतीय संस्कृति में दो विपरीत मानवीय नायक हैं। जिनमें राम भारतीय ज्ञान तंत्र से जीवन जीने वाले व प्रकृति से समता-सादगी का व्यवहार करके, प्राकृतिक योग का नेतृत्व करते हैं। वहीं रावण ऐसा नायक हैं, जिनके जीवन में अतिक्रमण, शोषण और अपने घर को सोने की धातु से निर्मित करने से होने वाले शोषण, प्रदूषण प्रकृतिक विनाश से तनिक परहेज नहीं करते हैं। युद्ध में भी धोखा देने से नही रुकते है। उनका संपूर्ण जीवन, सभी प्रकार से भोगी है। वे अपने भोग के लिए प्रकृति व किसी दूसरे का ख्याल नहीं रखते हैं। उनके सामने जो भी आता है उसको मारते, पराजित करके ही भक्षण करते है। इसीलिए रावण ने अपने स्वंय के जीवन और अपने राज्य की जनता के जीवन में तबाही पैदा करी थी। उनके विकास के लालच से पैदा हुई तबाही ने रावण का परिवार व राज्य सब कुछ नष्ट कर दिया था।

राम संस्कृति व प्रकृति के संरक्षण में अपना जीवन लगाते हैं। रावण प्रकृति (सीता) पर अतिक्रमण करने में जुटा रहता है। वह अपने जीवन के लिए किसी का भी शोषण करते हुए, तनिक भी विचार नहीं करता है। जबकि दूसरी तरफ राम प्रकृति के रक्षण, संरक्षण व सम्मान में जुटे रहते हैं और प्रकृतिरक्षण की लड़ाई जीत जाते हैं। आज ऐसी ही लड़ाई दुनिया में हो रही है अब उनमें भी जीत नहीं होती है। इसका अर्थ यह है कि, अब हम भोगी होकर, रोगी बनने के रास्ते पर चल रहे हैं। योगी बनकर निरोगी होने का रास्ता भूल गए हैं। अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण सिखाने वाली आधुनिक शिक्षा अब हमें प्रिय हो गई है।

भारत कृषि पारिस्थितिकी मौसमीय विविधता तंत्र वाले नब्बे क्षेत्रों में विभाजित है। इस विविधता का सम्मान करने वाला हमारा जय जगत और‘‘वासुदेव कुटुम्बकम‘‘ भारत में विविधताओं के सम्मान का चलन ही हमें विश्वगुरु बनाता था। आज हम वह नहीं बचे हैं। इसी के आधार पर हमारा खान-पान, अहार-विहार होता था। हमारे शरीर में पैदा होने वाले वायरसों (तन्तुओं-उत्तकों) को हमारी भोजन व्यवस्था एवं वनोषधियों से उपचार करके स्वस्थ्य एवं आरोग्य प्राप्त करते थे। आज प्राकृतिक औषधियां, प्राकृतिक विविधता- प्रभावित होने से बौनी हो गई है। मानवीय लालच बड़ा बन गया है। जय जगत को जीने वाले भारतीय अपनी ही धरती और प्रकृति से कटते जा रहे है। इसने हमारे समाज को बीमार बनाया है। इसलिए जय जगत और वासुदेव कुटुम्बकम अब केवल नारे बनकर रह गए हैं।

विकास की चाह पैदा करने वाली आधुनिक शिक्षा, हमारे स्वास्थ्य और जीवन के लिए दिन-प्रतिदिन संकट, आपदा और महामारी पैदा करने वाली बन रही है। हमने प्रकृति पर कब्जा करके, पहले उसका शोषण किया, परिणाम स्वरूप हमारी धरती नदियां व संपूर्ण प्रकृति में प्रदूषण बढ़ गया। इस बढ़े हुए प्रदूषण ने चमगादड़, कॉकरोच, मछली, मूली, गाजर, पालक इन सब के भेद मिटा दिए। हमारे स्वाद में भी प्रकृति के साथ जीने और रहने व प्रकृति प्रेम के आचार-विचार आहार और विहार का भेद भी मिटा दिया है। इसलिए अब हमारे खान-पान में भी चुनाव करने का व्यवहार और संस्कार मिट गया है। जिससे, जिसको जो मिल जाए, उसे खाने का आदी हो गया है।

इसी का परिणाम है कोरोना जैसा वायरस प्रभावी हो गया है क्योकि हमारे जैवविविधता और खाद्य श्रृंखला से बहुत सारी वनस्पति, जीव-जन्तु लुप्त हो गए हैं। ये जीवित रहते तो प्रकृतिक खाद्य श्रृंखला में सभी को जीवित व मारने वाले उत्तक व तन्तु मौजूद रहते जो कोरोना जैस वायरस को खा सकते थे,  इसे प्रभावी बनाने से रोक सकते थे। यही प्रकृति के चक्र में एक विशिष्टता है। सब को जीने, जीवित रहने से एक जीवन चक्र बना रहता है। आज वह चक्र विखंडित हो गया है, इसलिए कोरोना के प्रभावी होने की संभावनाएं हो सकती हैं। यह जलवायु परिवर्तन से जुड़ा हुआ दिखता है।

कोरोना का जलवायु के साथ गहरा संबंध हो सकता है। इसी से अब धरती को बुखार, मौसम का मिज़ाज बिगड़ा है। आज सबसे ज्यादा बिगाड़ जलवायु में आ गया है। इसके असंतुलन के कारण कोरोना वायरस को नष्ट करने वाली जैवविविधता नहीं बची है। हमें विविधता को कायम रखने वाली समृद्ध हरियाली और प्रकृति चाहिए। हमें भ्रमित करने वाली शिक्षा के स्थान पर भारतीय ज्ञानतंत्र का सम्मान करके अपनी जैवविविधता की रक्षा करनी होगी। इसकी रक्षा के लिए हमारी जीवन पद्धति में प्रकृति की शिक्षा का सम्मान सुनिश्चित हो। यह सम्मान जैसे ही सुनिश्चित होगा, वैसे ही प्रकृति का संतुलन बनेगा और प्रकृति में लुप्त हुई जैव-विविधता को पुनः आने की संभावनाऐं बनेगी। इससे ही  जलवायु परिवर्तन का अनुकूलन व उन्मूलन की सम्भावना बनेगी। यह सब प्रकृति के साथ समरस्ता एवं संरक्षण से ही संभव होगा।

(लेखक राजेंद्र सिंह प्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता हैं। आप वर्षों से पानी के संरक्षण को लेकर काम कर रहे हैं। इसलिए आपको जल पुरुष भी कहा जाता है। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

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