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“सबसे ख़तरनाक यह मान लेना है कि रोटी बाज़ार से मिलती है”

अगर हम इस एक पोस्टर की इबारत को पढ़ पाएं, उसका मतलब समझ पाएं तो समझिए पूरे आंदोलन का सार समझ गए।
“सबसे ख़तरनाक यह मान लेना है कि रोटी बाज़ार से मिलती है”

“सबसे ख़तरनाक यह मान लेना है कि रोटी बाज़ार से मिलती है”

यही पंक्तियां लिखी हैं टिकरी बॉर्डर पर। किसान आंदोलन में प्रवेश करते ही कुछ दूर चलने पर आपको एक कैंप के बाहर तमाम पोस्टरों और भगत सिंह की तस्वीर के साथ यही लाइनें लिखीं मिल जाएंगी।

अवतार सिंह पाश की कविता की पंक्तियों “सबसे ख़तरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना ” की तर्ज पर यहां जो लिखा गया है, उसका मतलब कितना गहरा है, कितना मानीख़ेज़ है, अगर आप समझ पा रहे हैं तो ये भी समझ जाएंगे कि किसान क्या हैं, उनका महत्व क्या है और उन्हें क्यों अन्नदाता कहा जाता है। और ये भी समझ जाएंगे कि आज वे क्यों आंदोलन कर रहे हैं।

मेरी समझ में इस एक पंक्ति में पूरे आंदोलन का सार छुपा है, जो बता रहा है कि रोटी बाज़ार में ज़रूर मिल सकती है, लेकिन बाज़ार से नहीं मिलती। रोटी यानी अनाज को बाज़ार से ख़रीदा ज़रूर जा सकता है, लेकिन पैदा तो वो खेत में ही होगा। उसे न कंप्यूटर से डाउनलोड किया जा सकता है, न कारखाने में बनाया जा सकता है। इसलिए रोटी तो खेत से ही मिलेगी, किसान से ही मिलेगी। और जब खेत, किसान ही नहीं रहेंगे तो फिर रोटी बाज़ार में भी नहीं मिलेगी। रोटी के कर्म और मर्म पर मेरी एक छोटी सी कविता है, जिसमें मैंने कहा है-

रोटी

हर किसी की ज़रूरत है

और हर ज़रूरत के पीछे होती है

रोटी

लेकिन

रोटी खाना और

रोटी कमाना

दो अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं

यही वजह है कि मालिक, मज़दूर की व्यथा समझ नहीं पाता है

क्योंकि मालिक रोटी खाता है

और मज़दूर रोटी कमाता है

...

रोटी कमाने का मर्म

सिर्फ़ रोटी उगाने वाला ही जान सकता है

इसलिए कहा जाता है कि

किसान और मज़दूर सहोदर हैं

...

बिना रोटी उगाए

या

बिना रोटी कमाए

रोटी खाना

अपराध है

(सिवाय बच्चों, बुजुर्गों और अक्षम लोगों के)

...

वाकई !, रोटी बहुत स्वादिष्ट होती है

अगर उसे सांझी मेहनत की आंच पर पकाया जाए

और मिल-बांटकर खाया जाए

काश! हमारे हुक्मरां भी इन शब्दों का अर्थ समझते। और शायद समझते भी हों...। मगर फिर भी वो किसानों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं, कभी कच्छ जाते हैं, कभी बंगाल, और कभी ‘मन की बात’ लेकिन सीधे दिल्ली बॉर्डर पर बैठे किसानों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। जबकि टिकरी बॉर्डर पर उनकी सुविधा के लिए साफ-साफ हर गली, हर मोड़ पर लिखा है “किसानों के लिए...” किसानों तक जाने का रास्ता इधर से है।

लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार किसानों तक पहुंचने का रास्ता नहीं जानती, या भूल गई है। दरअसल वो अच्छी तरह जानती है कि खेत-किसान का कितना महत्व है। तभी तो वो खेतों को कब्ज़ाना चाहती है, खेती को कब्ज़ाना चाहती है। अपने कॉरपोरेट साथियों को उपहार में देने के लिए। उन कॉरपोरेट को जो किसानों को गुलाम बनाना चाहते हैं ताकि वे उनका मनचाहा अनाज पैदा कर सकें।

लेकिन दुनिया के अनुभव बताते हैं कि खेती का कॉरपोरटी-करण सफल नहीं हुआ है, हां को-ऑपरेटिव करण (सहकारी संचालन) ज़रूर कामयाब हो सकता है। लेकिन इस दिशा में सोचने की बजाय सरकार उल्टी दिशा में सोच रही है। मैं तो सरकार और उनके मंत्रियों को राय दूंगा कि वे दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन में एक बार ज़रूर जाएं, क्योंकि वहां लंगर है तो लाइब्रेरी भी। जी हां, छोटी-बड़ी लाइब्रेरी हर मोर्चे पर है। सिंघु बार्डर तो हम आपको पहले ही घुमा लाए थे। जो न जा पाए हों वो नीचे दी गई रपट को पढ़ लें।

इसे पढ़ें- किसान आंदोलन : …तुमने हमारे पांव के छाले नहीं देखे

सिंघु बॉर्डर की ही तरह टिकरी बॉर्डर पर भी लाइब्रेरी हैं। यानी सिर्फ़ लंगर ही न चखिए, कुछ पढ़िए भी, समझिए भी। सिर्फ़ गोदी मीडिया और वाट्सएप यूनिवर्सिटी से ज्ञान लेना बहुत आत्मघाती हो सकता है। बिल्कुल वैसे ही उस कहानी की तरह जिसमें कालीदास जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे।

इसलिए चाहे नौकरी हो या आंदोलन पढ़ना ज़रूरी है। टिकरी बॉर्डर पर तो काफी बड़ी शहीद भगत सिंह लाइब्रेरी है। आप यहां बैठकर किताबें पढ़ सकते हैं और रजिस्टर में दर्ज कराके अपने डेरे-ट्रॉली में ले भी जा सकते हैं। अगर मोदी सरकार के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर या वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल पढ़ना चाहें तो उनके लिए भी मुफ़्त में कुछ किताबें जारी कराई जा सकती हैं।

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और किताबें ही नहीं किसानों और आंदोलन का अख़बार भी है। जी हां, ट्रॉली टाइम्स। ट्रॉली टाइम्स हमने आपको सिंघु बॉर्डर पर ही पढ़वा दिया था। टिकरी बॉर्डर पर आपको दिखाते हैं ट्रॉली टॉकीज़। जी हां ट्रॉली टॉकीज़।

किसानों के संघर्ष को, उनके आंदोलन को अब अख़बार के बाद सिनेमा के जरिये भी पेश किया जा रहा है। इसके दो मकसद हैं। एक तो वही क्योंकि सिनेमा सब तक पहुंचने का एक सशक्त माध्यम है, दूसरा जो लोग अख़बार नहीं पढ़ सकते वो सिनेमा के जरिये आंदोलन क्या है, क्यों है, क्या मुद्दे हैं, क्या प्रेरणा है। इसे देख समझ सकते हैं। ट्रॉली नाम क्यों जोड़ा गया ये तो आपको पता ही है क्योंकि ट्रैक्टर-ट्रॉली ही किसान की पहचान है ये पूरा आंदोलन ट्रॉली के साथ जारी है। तो ये ट्रॉली टॉकीज़ दिन ढलने के साथ यानी जब मुख्य स्टेज पर सभा और अन्य कार्यक्रम ख़त्म हो जाते है, तब उसके बाद शाम 6.30 बजे शुरू किया जाता है। नौ-दस बजे तक चलने वाले इस टॉकीज़ में छोटी-छोटी फ़िल्मों के माध्यम से किसानों को जागरूक बनाया जा रहा है। टिकरी बॉर्डर पर हमने नए साल के मौके पर ट्रॉली टॉकीज़ की टीम से बात की। सुनिए-

ये पढ़कर-देखकर आपको भी लग रहा होगा कि आपको भी किसान आंदोलन में जाना चाहिए। ज़रूर जाना चाहिए। यहां दिल्ली ही क्या देश के हर कोने से लोग पहुंच रहे हैं। किसान-मज़दूर ही नहीं समाज का लगभग हर वर्ग किसानों के समर्थन में आगे आ रहा है। छात्र भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। अपने सहयोग से लंगर तक चला रहे हैं।

इसी तरह नए साल पर AIDSO (All India Democratic Students Organisation) के छात्र यहां टिकरी बॉर्डर पर किसानों के बीच जोश जगाते मिले। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलाकाता से आए AIDSO के दो छात्रों से हमने बात की। जिन्होंने बताया कि कैसे दिल्ली बॉर्डर के इस आंदोलन की प्रेरणा से देश के हर हिस्से में किसान आंदोलन खड़ा हो रहा है और वे इस ऐतिहासिक आंदोलन को ही देखने-समझने और सीखने यहां इतनी दूर आए हैं।

तो यहां क़दम-क़दम पर नए अनुभव और नई प्रेरणाएं हैं। जो हमें संघर्ष और जीवन की सीख देती हैं। अब इन दार जी से ही मिलिए।

दार जी का नाम है बिलोर सिंह। उम्र सवा बहत्तर साल। यानी 72 साल चार महीने। लेकिन जोश ऐसा कि युवा भी शरमा जाएं। एक पांव नहीं है, कृत्रिम पांव लगा है, जिसकी पत्ती भी टूट गई है, लेकिन इस जाड़े में भी पंजाब के बरनाला से आकर टिकरी बॉर्डर पर डटे हैं। पूछने पर कहते हैं- जीतेंगे 100 परसेंट, खाली नहीं मुड़ेंगे।

इन्हें भी पढ़ें बीच बहस: आह किसान! वाह किसान!

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