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गीता हरिहरन का उपन्यास : हिंदुत्व-विरोधी दलित आख्यान के कई रंग

322 पेज का उपन्यास ‘आई हैव बिकम द टाइड’ कई शताब्दियों की यात्रा करता है। यह उपन्यास दलित ज़िंदगियों व जाति असमानता और जाति उत्पीड़न के बारे में है, जो सदियों से जारी है। क़रीब 900 सालों तक इसकी कथा यात्रा का वितान फैला हुआ है।
आई हैव बिकम द टाइड

भारत में जो लेखक अंगरेज़ी में लिखती/लिखते हैं, उनमें उपन्यासकार व गद्यकार गीता हरिहरन (जन्म 1954) का नाम प्रमुख है। पिछले दिनों उनका एक महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी उपन्यास आया है, जिसका शीर्षक है, ‘आई हैव बिकम द टाइड’ (2019, साइमन ऐंड शुस्टर : I have become The Tide)। इस शीर्षक का कामचलाऊ हिंदी अनुवाद होगा : ‘मैं उमड़ती लहर बन गयी हूं’, या ‘मैं समुद्री ज्वार बन गयी हूं’।

इस प्रभावशाली उपन्यास को, जिसका कथ्य व शिल्प अनूठा है, पढ़ा जाना चाहिए, और हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद होना चाहिए। 2014 के बाद से देश में हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद का जो उभार आया है और दलितों, अल्पसंख्यकों, औरतों पर जो ब्राह्मणवादी पितृसत्तावादी हमला तेज़ हुआ है- गीता हरिहरन का यह उपन्यास उसकी पृष्ठभूमि में है। 2016 में दलित मार्क्सवादी बुद्धिजीवी व ऐक्टिविस्ट रोहित वेमुला की आत्महत्या ने, जिसे सांस्थानिक हत्या कहा गया है, इस उपन्यास के लिखे जाने के पीछे उत्प्रेरक की भूमिका निभायी।

रोहित वेमुला हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोध छात्र थे और अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एएसए) के एक नेतृत्वकारी साथी थे। उनके जीवन, संघर्ष व आत्महत्या को गहन कल्पनाशीलता के साथ हतप्रभ कर देने वाले मार्मिक आख्यान में बदलते हुए गीता हरिहरन ने सत्या नामक किरदार को खड़ा किया है। हालांकि सत्या हूबहू रोहित वेमुला की कॉपी नहीं है, वह उपन्यासकार का कल्पनाजनित पात्र है। और, यह उपन्यास किसी की जीवनी नहीं है। यह फ़िक्शन (कल्पना-आधारित कहानी) है, पर समकालीन परिदृश्य और कुछ असली नामों व घटनाओं को असरदार तरीके़ से समेटे हुए है।

‘आई हैव बिकम द टाइड’ उपन्यास दलित ज़िंदगियों व जाति असमानता और जाति उत्पीड़न के बारे में है, जो सदियों से जारी है। उपन्यास बताता है कि प्राचीन व मध्यकालीन भारत में तथाकथित ‘अछूतों’ के खिलाफ़ जो मनुस्मृति-आधारित राजनीतिक हिंसा थी—जातिगत उत्पीड़न और वर्णव्यवस्थावादी बहिष्करण (exclusion) के रूप में—वह आज, इक्कीसवीं सदी के भारत में, जारी है। केंद्र में फ़ासीवादी हिंदुत्व विचारधारा के सत्तारूढ़ होने के साथ यह हिंसा और भी आक्रामक, और भी बर्बर हो गयी है।

गीता हरिहरन का उपन्यास एक प्रकार से हिंदुत्व के पाप और तबाही की विचलित कर देनेवाली गाथा है। लेकिन हिंदुत्व-विरोधी व ब्राह्मणवाद-विरोधी प्रतिरोध के ज़िंदादिल स्वर इस उपन्यास को ख़ास बनाते हैं। ये स्वर, ये आवाज़ें, ये लड़ाइयां हर दौर में रही हैं। उन पर हिंसक हमले हुए, उन्हें नेस्तानाबूद कर दिया गया, उनके ‘आनंदग्राम’ (गीता हरिहरन द्वारा निर्मित कल्पना राज्य, जहां न वर्ग हैं, न जातियां हैं, न शोषण है, न जेंडर-आधारित भेदभाव है, न धर्मध्वजाधारी हैं, न अमीरी-ग़रीबी या ऊंच-नीच है- आदिम साम्यवादी समाज से मिलती-जुलती व्यवस्था) को तहस-नहस कर दिया गया। फिर भी ये आवाज़ें व लड़ाइयां नमूदार होती रहीं। उपन्यास दक्षिणपंथी जातिवाद का वर्णन करने की बजाय दलित अनुभव व दावेदारी के ताक़तवर चित्रण पर ख़ास जोर देता है, और यही इसका प्रस्थान बिंदु है।

322 पेज का उपन्यास ‘आई हैव बिकम द टाइड’ कई शताब्दियों की यात्रा करता है- 11वीं/12वीं शताब्दी से लेकर 21वीं शताब्दी तक। क़रीब 900 सालों तक इसकी कथा यात्रा का वितान फैला हुआ है। उपन्यास की पृष्ठभूमि दक्षिण भारत है। इसमें तीन कहानियां एक साथ चलती हैं, एक-दूसरे से गुंथी हुई। उपन्यास की संरचना थोड़ी जटिल ज़रूर लगती है, लेकिन उलझाव व उलझन कहीं नहीं है, और पठनीयता भरपूर है।

पहली कहानी दक्षिण भारत में 12वीं शताब्दी के आसपास चिक्का या चिकैया की है, जो मरे हुए जानवरों की खाल उतारनेवाले का बेटा है। गांव की असह्य जीवन स्थितियों से तंग आकर, गले में ढोल लटकाये, वह उसी दिन गांव से भाग जाता है, जिस दिन उसके पिता की अरथी निकल रही है। उसे आनंदग्राम में पनाह मिलती है, नया बसेरा मिलता है- यह लोगों का समतामूलक समाज है, जो प्राचीन भारत में कई रूढ़ियों-रिवाजों का निषेध करता है। यहीं उसे महादेवी मिलती है, जिसके माता-पिता कपड़े धोने का काम करते हैं। दोनों साथ रहने लगते हैं, एक बच्चा पैदा होता है, जिसका नाम कनप्पा रखा जाता है, जो आगे चलकर भक्त/संत कवि कन्नादेव के नाम से जाना जाता है। इस कन्नड़ कवि को ब्राह्मणवादी-हिंदुत्ववादी समाज ‘अपना’ संत कवि घोषित कर देता है, उसे ‘जाति-विहीन’ बता देता है, और निचली जाति में उसकी पैदाइश के तथ्य को छुपा कर उसका ऊंचा जातिवादी हिंदूकरण कर देता है। कई शताब्दियों तक यह प्रक्रिया चलती है।

दूसरी कहानी समकालीन भारत में तीन दलित छात्रों—आशा, रवि व सत्या—की है, जो मेडिकल कॉलेजों में दाख़िला लेना चाहते हैं। उच्च अध्ययन संस्थानों में जो गहरा जातिवादी-वर्णव्यवस्थावादी भेदभाव, असमानता, विद्वेष व नफ़रत का माहौल है, उसका इन तीनों छात्रों को क़दम-क़दम पर सामना करना पड़ता है। इसके चलते सत्या आत्महत्या कर लेता है।

तीसरी कहानी एक विश्वविद्यालय में प्रोफे़सर पीएस कृष्णा की है, जो समाज व संस्कृति के प्रति गहरी आलोचनात्मक दृष्टि रखता है और विवेकवादी/तर्कवादी है। वामपंथ की ओर उसका रुझान है।

प्रोफे़सर कृष्णा सवर्ण (ऊंची जाति का) हिंदू है। वह प्राचीन कन्नड़ संत कवि कन्नादेव की कविता में गोते लगाता है, तो पता चलता है कि यह कवि निचली जाति में पैदा हुआ था, उसका असली नाम कनप्पा था, और सवर्ण हिंदुओं ने उसे ‘जाति-विहीन’ संत कवि घोषित कर रखा है। जब प्रोफे़सर यह बात अपने भाषणों व लेखों में सामने लाता है, और कनप्पा/कन्नादेव को सही परिप्रेक्ष्य में रखता है, तो सवर्ण हिंदू समाज में खलबली मच जाती है। हिंदुत्ववादी भगवाधारी गिरोह प्रोफे़सर को ‘राक्षस’ व ‘दानव’ के रूप में प्रचारित करता है, और एक ‘देशभक्त हिंदू’ गोली चलाकर उसकी (प्रोफे़सर की) हत्या कर देता है।

गीता हरिहरन ने उपन्यास में गीतों, कविताओं, अख़बारी हेडलाइनों, डायरी की टीपों, फे़सबुक पोस्ट, आलोचनात्मक लेखों व भाषणों के अंशों और रिसर्च सामग्री के अंशों का इस्तेमाल किया है। ये चीज़ें उपन्यास को जीवंत बनाती हैं। गहन कलात्मक दृष्टि व सही राजनीतिक सरोकार के साथ यह उपन्यास लिखा गया है।

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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