Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

जलवायु परिवर्तन विश्व की भुखमरी को और बढ़ाएगा : रिपोर्ट

2050 तक अनुमानित अतिरिक्त 175 मिलियन लोगों को ज़िंक धातु की कमी और साथ ही अतिरिक्त 122 मिलियन लोगों को प्रोटीन की कमी हो सकती है।
global hunger index

हर साल प्रमुख लेखों में ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़े आते हैं जो वैश्विक भुखमरी और कुपोषण से जुड़े विभिन्न पहलुओं को शामिल करते हैं। उदाहरण स्वरूप साल 2018 में जबरन पलायन और भूख पर एक लेख प्रकाशित हुआ था, वहीं साल 2017 में वैश्विक भुखमरी में अंतर और असमानता, जबकि साल 2015 में सशस्त्र संघर्ष और वैश्विक भुखमरी से जुड़े लेख प्रकाशित हुए थे।

इस वर्ष जलवायु परिवर्तन और वैश्विक भुखमरी पर इसके प्रभाव का प्रमुख लेख है।

ग्लोबल हंगर रिपोर्ट में 2019 के लेख में साफ़ तौर से बढ़ते स्पष्ट ख़तरों की समीक्षा की गई है कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक खाद्य उत्पादन, पोषण और आबादी के सबसे कमज़ोर वर्गों पर इसके स्पष्ट प्रभाव को दर्शाता है। इस लेख से पता चलता है कि वैश्विक खाद्य उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव वैश्विक भुखमरी को बढ़ाएगा। यह भविष्य में पैदा होने वाली स्थिति को उजागर करता है और कुछ सुझाव भी देता है जो नीति निर्माताओं के सामने जटिल विकल्पों के रूप में सामने आ सकते हैं।

इस लेख की शुरुआत 2015 के बाद से दुनिया भर में भूखे लोगों की बढ़ती संख्या की ख़तरनाक प्रवृत्ति को उजागर करते हुए की गई है। यह एक ऐसा बदलाव है जिसे खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ़एओ) ने संघर्ष-व्याप्त क्षेत्रों में लगातार अस्थिरता, आर्थिक मंदी और भयानक जलवायु घटनाओं को ज़िम्मेदार ठहराया है।

इस संबंध में एक अहम उदाहरण 2015-2016 के एल नीनो का हो सकता है। एल नीनो का प्रभाव कई कारकों से पैदा हुआ था, जिनमें से एक बढ़ते समुद्र का स्तर और समुद्र की सतह का तापमान है जिसके कारण कई देशों में व्यापक खाद्य असुरक्षा और भुखमरी बढ़ गई थी।

एफ़एओ के अनुसार 1990 के दशक के बाद से मौसम-संबंधी भीषण आपदाओं की संख्या दोगुनी हो गई है, जिससे प्रमुख फसलों की उत्पादकता प्रभावित हुई है जिसके चलते खाद्य मूल्य में वृद्धि हुई है और आय में कमी आई है। इन आपदाओं का ग़रीबी में जीने वाले लोगों और उनका भोजन तक पहुंच पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।

जलवायु परिवर्तन एवं खाद्य सुरक्षा

जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण ग्लोबल वार्मिंग और वायुमंडल में बड़े पैमाने पर कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि है जो एक साथ मिलकर गर्म लहरों, सूखे और बाढ़ जैसे भीषण मौसमी घटनाओं को जन्म देती हैं। इन ख़तरों के चलते खाद्य उत्पादन कम होने और उनकी पोषण गुणवत्ता में कमी आने की संभावना है। मक्का और गेहूं जैसी प्रमुख खाद्य फसलों का उत्पादन घट रहा है। एफएओ का कहना है कि विश्व के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में अनाज उत्पादन में 80% या इससे अधिक साल दर साल भिन्नता जलवायु परिवर्तनशीलता के लिए ज़िम्मेदार ठहराए जा सकते हैं।

समुद्र का जल स्तर बढ़ने से छोटे द्वीपों, निचली समुद्र तटीय क्षेत्रों और नदी के डेल्टाओं में खाद्य उत्पादन के लिए बड़ा जोखिम होता है। वियतनाम के मेकांग डेल्टा का ही उदाहरण लें। वियतनाम में कुल चावल उत्पादन का 50% से अधिक मेकांग डेल्टा में उत्पादन होता है और समुद्र का स्तर बढ़ने से चावल का उत्पादन सबसे ज़्यादा प्रभावित होने की संभावना है। चावल दुनिया की लगभग आधी आबादी द्वारा उपयोग की जाने वाली एक प्रमुख फसल है और तापमान तथा पानी की लवणता में मामूली बदलाव के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है जो इस महत्वपूर्ण फसल की पैदावार को जलवायु प्रभावों के प्रति अतिसंवेदनशील बनाता है।

सूखा, बाढ़ और तूफ़ान जैसी जलवायु से संबंधित आपदाएं अंतरराष्ट्रीय आपदाओं का 80% है। 2011-2016 के दौरान गंभीर सूखे ने विश्व के बड़े हिस्से को प्रभावित किया और एफ़एओ के अनुसार 51 देशों के लगभग 124 मिलियन लोग भयानक खाद्य असुरक्षा से प्रभावित हुए थे। 2015-2016 की एल नीनो घटना ने कई देशों को भी प्रभावित किया जो गंभीर सूखे के चलते भी प्रभावित हुए। इसने अल सल्वाडोर, ग्वाटेमाला, होंडुरास आदि में 50-90% फसलों को प्रभावित किया।

आने वाले समय में बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग और कार्बन उत्सर्जन से वैश्विक स्तर पर खाद्य उत्पादकता कम हो जाएगी जिसे लेख में बताया गया है। ज़ाहिर है, हाशिये पर मौजूद और पहले से ही भुखमरी के सुचकांक में निचले स्तर पर मौजूद देशों को इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा।

जलवायु परिवर्तन और पोषण

जलवायु परिवर्तन ने भोजन के पोषण स्तर को भी प्रभावित किया है। उच्च कार्बन डाइऑक्साइड सांद्रता फसलों में प्रोटीन, ज़िंक और लोहे के तत्व को कम करता है। नतीजतन, 2050 तक अनुमानित अतिरिक्त 175 मिलियन लोगों को ज़िंक की कमी हो सकती है और अतिरिक्त 122 मिलियन लोग प्रोटीन की कमी की मार झेल सकते हैं।

इस प्रभाव को ग़रीबी में जाने वाले लोगों द्वारा काफ़ी महसूस किया जाएगा जो अपनी पोषण संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए लगभग पूरी तरह से फसल पर निर्भर हैं। दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया, अफ़्रीका और पश्चिम एशिया में ग़रीब वर्ग को ज़्यादा स्वास्थ्य का जोखिम है। ख़ास तौर से इन क्षेत्रों में एक कमज़ोर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली भी है और खाद्य पोषण पर जलवायु प्रभाव उनके स्वास्थ्य को बदतर बना देगा।

कमज़ोर और कम तैयार देश

ग्लोबल हंगर इंडेक्स शून्य से 100 तक अंक देता है, जिसमें शून्य का मतलब है सर्वश्रेष्ठ स्कोर (भुखमरी नहीं) और 100 का मतलब सबसे ख़राब (सबसे ज़्यादा भुखमरी)। ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने 35 से ऊपर के स्कोर वाले देश को ख़तरनाक बताया और 50 अंक से ऊपर वाले देश को बेहद ख़तरनाक देशों में शामिल किया है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स से पता चलता है कि अत्यंत ख़तरनाक या ख़तरनाक स्कोर वाले देश का जलवायु ज़्यादा असुरक्षित है और जलवायु चुनौतियों से निपटने के लिए भी सबसे कम तैयार हैं जबकि सबसे कम अंक वाले देश का जलवायु कम असुरक्षित है और काफ़ी अच्छे तरीक़े से से तैयार हैं। (नीचे दिए गए ग्राफ़ देखें)

table_2.PNG

ये लेख उन देशों की आलोचना करता है जिसने हाल ही में जलवायु परिवर्तन को बायोफ़िज़िकल प्रक्रिया के रूप में देखा था। जलवायु परिवर्तन एक मात्र बायोफ़िज़िकल प्रक्रिया नहीं है बल्कि यह निकटता से वैश्विक उत्पादन प्रणाली और लोगों की जीवन शैली से जुड़ा है। पेरिस समझौते जैसे समझौतों को लागू करने के लिए यह स्वैच्छिक नहीं होना चाहिए। विश्व समुदाय द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनिवार्य मानदंडों का पालन करने की आवश्यकता है।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest