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ग्रामीण मज़दूरों की दुर्दशा को नज़रअंदाज़ करती सरकार

कम से कम 14 करोड़ खेतिहर मज़दूर हैं जो भारत का सबसे बड़ा आर्थिक वर्ग है - और सबसे ग़रीब हैं।
rural labour
फ़ोटो साभार: pixahive

2022-23 के लिए हाल ही में पेश किए गए आर्थिक सर्वेक्षण में, शब्दाडंबर और आंकड़ों में छिपा हुई एक ऐसी जानकारी की डली मिली है, जिसे सभी भारतीयों की अंतरात्मा को झकझोर देना चाहिए, चाहे फिर वे सत्तारूढ़ भाजपा समर्थक हों या नहीं। सरकार के खुद के अर्थशास्त्रियों द्वारा पेश की गई जानकारी के अनुसार, ग्रामीण मजदूरों की वास्तविक मजदूरी - यानी, मुद्रास्फीति के साथ समायोजित करने के बाद वाली मजदूरी - या तो स्थिर है या पिछले दो वर्षों में उसमें मामूली गिरावट ही आई है। पहले किए गए एक सर्वेक्षण में जिक्र था कि ग्रामीण भारत में लगभग 36.5 करोड़ मज़दूर हैं, जिनमें से कुछ 61.5 प्रतिशत कृषि, 20 प्रतिशत उद्योग और 18.5 प्रतिशत विभिन्न सेवाओं में कार्यरत हैं।

ये बहुत बड़ी संख्या हैं, जो कई करोड़ में बैठती हैं। अगर उनके परिवारों को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो संख्या तिगुनी या चौगुनी हो जाएगी। आबादी के इतने बड़े हिस्से को गिरती (या स्थिर) मजदूरी का सामना करना पड़ रहा है, जो मजदूरी किसी भी मामले में बहुत कम है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में किसी भी किस्म की मांग नहीं है, जिससे स्थायी जड़ता - और विनाशकारी गरीबी बढ़ रही है।

कृषि-मज़दूर सबसे ज़्यादा प्रभावित

कृषि कार्यबल में, ऐसे किसान हैं, जिनके पास सीमांत से जोत से लेकर बड़ी जोत वाली भूमि हो सकती है। और फिर भूमिहीन मज़दूर हैं जिनकी संख्या 11 साल पहले पूरी हुई जनगणना में लगभग 14 करोड़ आंकी गई थी। पिछले रुझानों को देखें तो यह संख्या अब तक बढ़ चुकी होगी।

इस संख्या में अक्सर लाखों सीमांत और छोटे किसानों से इजाफ़ा होता है, जो दूसरों के खेतों में मज़दूरी करने पर मज़बूर होते हैं क्योंकि उनकी अपनी छोटी जोत पर्याप्त लाभ नहीं दे पाती है। काम मौसमी होता है और अक्सर सामाजिक उत्पीड़न से व्याप्त होता है क्योंकि इनमें से अधिकांश मज़दूर अनुसूचित जाति या जनजाति या अन्य पिछड़े वर्ग के होते हैं।

लेकिन, जब सबसे प्रत्यक्ष आर्थिक समीकरण को देखते हैं तो उनका वेतन दयनीय रूप से काफी कम है, जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है। अक्टूबर 2022 में पुरुषों के लिए दैनिक मज़दूरी दर 364 रुपये थी जबकि महिलाओं के लिए यह 271 रुपये थी। यह पुरुषों के लिए प्रति माह लगभग 11,000 रुपये और महिलाओं के लिए लगभग 8,000 रुपये बैठती है। मई 2020 की तुलना में, ये मज़दूरी दरें पुरुषों के लिए लगभग 17 प्रतिशत और महिलाओं के लिए 12 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाती हैं। लेकिन यह बढ़ोतरी एक भ्रम है।

जैसा कि (ग्राफ़ में) नारंगी रेखाएँ दिखाती हैं, वास्तविक मज़दूरी जिसकी गणना उस अवधि में मूल्य वृद्धि को घटाकर की जाती है, वास्तव में गिर गई है। पुरुषों के लिए, वास्तविक मजदूरी 207 रुपये से मामूली रूप से गिरकर 204 रुपये प्रति दिन हो गई, जबकि महिलाओं के लिए यह गिरावट 160 रुपये से 152 रुपये प्रति दिन हो गई है।

याद रखें कि ये कमाई मौसमी होती है - साल के कुछ निश्चित समय में ही खेतों में काम उपलब्ध होता है। कुल मिलाकर एक खेतिहर मजदूर साल में शायद 3-4 महीने का काम कर सकता है। इसलिए, अन्य समय में, उन्हें गैर-कृषि कार्य की तलाश करनी पड़ती है।

गैर-कृषि कार्य भी समान रूप से कम वेतन वाला होता है

गैर-कृषि रोज़गार व्यवसायों की विस्मयकारी श्रेणी में फैला हो सकता है, जिसमें एक व्यक्ति पार्ट-टाइम आधार पर इनमें से 3-4 काम एक साथ कर सकता है। आंध्र प्रदेश में एक ट्रेड यूनियन द्वारा किए गए एक अप्रकाशित सर्वेक्षण में केवल एक गांव में 61 प्रकार के काम पाए गए। कुछ अधिक सामान्य कार्यों में निर्माण, खुदरा व्यापार, मरम्मत कार्य, घरेलू श्रम, घरेलू कार्य आदि शामिल हैं।

जैसा कि ऊपर दिए गए चार्ट में दिखाया गया है, मई 2020 और अक्टूबर 2022 के बीच पुरुषों के लिए मामूली मजदूरी 381 रुपये से बढ़कर 408 रुपये प्रति दिन हो गई है। इसी अवधि में महिलाओं के लिए दैनिक मजदूरी की दर 226 रुपये से बढ़कर 269 रुपये प्रति दिन हुई है। 

महंगाई से तालमेल बिठाने के बाद तस्वीर ओर भयावह हो जाती है। पुरुषों के लिए, दैनिक मजदूरी दर 252 रुपये से गिरकर 229 रुपये हो जाती है जबकि महिलाओं के लिए यह 150 रुपये से नगण्य रूप से बढ़कर 151 रुपये हो जाती है। 

जबकि, गैर-कृषि कार्य को उन लाखों लोगों के लिए वरदान माना गया था जो कृषि कार्य में व्यस्त हैं, स्पष्ट रूप से यह असफल रहा है। किसी भी तरह से, ग्रामीण इलाकों में मज़दूरों का गरीबी से पीड़ित होना तय है क्योंकि जो आय वे कमा रहे हैं वह मुश्किल से उनके परिवार को जीवित रखने के लिए काफी है।

सरकार की नीतियां स्थिति को और गंभीर बना रही हैं 

मुफ्त स्वास्थ्य सेवा या मुफ्त शिक्षा, और पोषण जैसे कल्याणकारी कार्यक्रमों में कटौती या अभाव का मतलब है कि इन परिवारों को अपने परिवारों के लिए इन बुनियादी जरूरतों की उपेक्षा करनी होगी क्योंकि कमाई निजी डॉक्टरों या स्कूलों को की फीस का भुगतान करने के लिए काफी नहीं है। यदि परिवार में कोई गंभीर बीमारी है - जैसा कि इन महामारी के वर्षों के दौरान हुआ होगा, जिसे सर्वेक्षण में शामिल किया गया था - परिवार को रिश्तेदारों, दोस्तों या सूदखोरों से उधार लेने के बाद विनाशकारी खर्च करना पड़ता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सांख्यिकी मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा किए गए कृषि परिवारों के पिछले सर्वेक्षण में पाया गया था कि 50 प्रतिशत से अधिक कृषि-परिवार कर्ज़ में डूबे थे।

ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) इन मज़दूरों और वास्तव में दूसरों के लिए भी जीवन-रेखा का काम करती है। नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, अब तक 8.19 करोड़ व्यक्ति इस योजना के तहत काम कर चुके हैं। महामारी के दौरान बढ़ी काम की मांग से यह कम है, तब-जब अधिकांश अर्थव्यवस्था बंद या लॉकडाउन में थी। लेकिन इस वर्ष की संख्या 2019-20 के पिछले पूर्व-महामारी वर्ष की तुलना में अधिक है, जिसमें 7.88 करोड़ व्यक्ति काम कर रहे थे। स्पष्ट रूप से, काम की मांग अधिक है क्योंकि भूमिहीन मज़दूर तथा छोटे और सीमांत किसान और अन्य ग्रामीण श्रमिक आय की पूर्ति के लिए इस योजना की ओर रुख करते रहते हैं।

बढ़ती बेरोज़गारी भी मदद नहीं कर रही है। लेकिन मनरेगा में दी जाने वाली मजदूरी को देखें: चालू वर्ष में, औसत दैनिक मजदूरी दर लगभग 218 रुपये है, पिछले साल यह 209 रुपये थी, इससे पहले के वर्ष में यह 201 रुपये थी। यदि मुद्रास्फीति को इसमें समायोजित कर लिया जाए तो चालू वर्ष में मजदूरी दर लगभग 122 रुपये प्रति दिन बैठेगी! यह अक्टूबर 2022 में गैर-कृषि कार्य की वास्तविक मजदूरी से 100 रुपये से अधिक कम बैठती है। इस किस्म की   कष्टदायक मज़दूरी के बावजूद, और जिस मज़दूरी को बड़े भूस्वामियों/जमींदारों के दबाव में कम रखा गया है, करोड़ों लोग खासकर ऑफ-सीज़न के दौरान सिर्फ ज़िंदा रहने के लिए काम कर रहे होते हैं। 

न्यूनतम मजदूरी के लिए कोई कानून नहीं

यह दुखद है कि इस अमृतकाल में जब आजादी के 75 साल मनाए जा रहे हैं, कृषि श्रमिकों की मज़दूरी और काम की परिस्थितियों को विनियमित करने और निर्धारित करने के लिए अभी भी कोई व्यापक कानून नहीं है। यह वर्षों से विभिन्न कृषि श्रमिक यूनियनों की निरंतर मांग रही है लेकिन सत्ता में रही सभी सरकारों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया है।

मौजूदा सरकार, जो धीमी अर्थव्यवस्था और आर्थिक संकट से जूझ रही है, संसाधनों को सबसे गरीब लोगों के हाथों में स्थानांतरित करके अर्थव्यवस्था को गति दे सकती है। यह अर्थव्यवस्था में बहुत जरूरी मांग को पैदा करेगी और बदले में उत्पादक क्षमताओं में निवेश, नौकरियों में वृद्धि और समग्र आर्थिक विकास को बढ़ावा देगी। 

लेकिन वर्तमान व्यवस्था के लिए यह एक अभिशाप है, क्योंकि यह 'राजकोषीय विवेक' और मुक्त बाजार की काल्पनिक भूमिका और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में 'ट्रिकल डाउन' विचार के रूप में काम कर रही है - एक ऐसा विचार जिसे पूरे दुनिया ने अनुभव करने के बाद खारिज कर दिया गया है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Govt Blind to Plight of Rural Labour, Even as Real Wages Fall

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